देखने-सुनने में वे तमाम आदमियों की तरह आदमी ही
लगते हैं लेकिन इधर लोग उन्हें पजामा कहते हैं. अपने यहाँ आदमी वही हो जाता है जो
मान लिया जाता है. जैसे किसी को लोग टप्पू मान लें, उसे टप्पू कहने लगें, टप्पू के
नाम से उसके चुटकुले बना लें तो मजबूरन वह टप्पू ही हो जाता है. अब उससे कोई चूक
हो गई तो लोग कहेंगे ‘टप्पू फेल हो गया’, अच्छा कर दिया तो ‘टप्पू पास हो गया’. यानी अच्छा खासा संभावनाओं से लदा टाप क्लास आदमी बैठे बिठाये टप्पू हो
जाता है. अब हो जाता है तो हो जाता है, कोई कुछ कर सकता है इसमें ?
खैर, बात पजामे की हो रही थी. आदमी का पजामा होना आदमी की
शान के खिलाफ है, यह बात मेरी तरह उन्हें भी पता नहीं थी. कुछ इस वजह से भी लोग उन्हें
पजामा मान रहे थे, कि जिस आदमी को पता नहीं कि वो पजामा है वह तो पजामा ही हुआ. यह
बात अलग है कि पता होता भी तो वे क्या कर लेता. जहां तक मेरा सवाल है, मै भी नहीं
जनता कि आदमी में पजामें का क्या मतलब है,
मैं तो यह भी नहीं जानता कि आदमी को चड्डी
या फुल्पेंट आदि कहना भी कोई अर्थ होता है. जब ये समस्या मैंने अपने मित्र को बताई
तो उसने डाक्टर की तरह हिदायत दी कि ये बात मुझसे पूछ ली, चलेगा, लेकिन किसी और से मत पूछ लेना. सारे लोग चड्डी
या फुल्पेंट सुनने के बाद मित्रता निबाहने में विश्वास रखें यह जरुरी नहीं है.
“चलिए यह बताइए कि आदमी पजामा कब होता है !?” हमने चड्डी और फुल्पेंट दोनों को पूरी सावधानी से किनारे किया .
वे बोले, - अपने आदमी हो इसलिए तुम बस पजामे के बारे में जान
लो. आदमी के रूप में पजामा दो प्रकार का पाया जाता है. एक नाड़ावान और दूसरा नाड़ा
विहीन. नाड़ा विहीन पजामा पजामे के नाम पर बोझ होता है. यानी वो होता तो पजामा ही है
लेकिन किसी काम का नहीं होता है. जैसे बिना राष्ट्रीयता के नागरिक..... नाड़ा
राष्ट्रीयता है. अगर नहीं समझे तो जान लो कि तुम यही पजामा हो. दूसरा उदाहरण लो,
जैसे नेताओं के चुनावी वादे, वे होते हैं लेकिन जनता समझ जाती है कि ‘नाड़ा’ नहीं है. कभी भी खसक जायेगा. नेता को भी पता हैं कि नाड़ा नहीं हो तो
राजनीति में पजामा समर्पण के परचम से ज्यादा कुछ नहीं है. नाड़ा अपनी
जगह महत्वपूर्ण है लेकिन पजामे के बिना नाड़ा बिना विभाग के मंत्री की तरह
होता है या फिर चुनावी घोषणा पत्र जैसा बेकार. नाड़ा एक विचार है, नाड़ा सहित पजामा प्रतिबद्धता का
प्रतीक है जो आदमी को कमर से बांधे रखता
है. बंधा हुआ आदमी बंधे हुए पजामे की तरह होता है, यानी वह चाह कर भी खिसकता नहीं
है. विदेशों में यही काम प्रायः टाई करती है. खूंटी पर टंगी टाई जब गले में बांध
दी जाती है तो चेन का काम करती है. प्रतिबद्धता प्रेमियों के सामने जब भी कोई ‘नया पजामा’ आता है वे सबसे पहले उसमें अपना नाड़ा डालने
की कोशिश करते हैं. वे बताते हैं कि विचार बड़ी चीज है, आदमी तो आते-जाते रहते है.
पुराने यानी सीनियर पजामे सिद्धहस्त होते हैं और वक्त जरुरत के हिसाब से नाड़ा
खोलते बांधते रहते हैं. इसे आप मामूली काम मत समझिए, यह बहुत ऊँची कला है. क्योंकि
नाड़ा खोलते ही पजामा बिना आवाज किये
प्रतिबद्धता सहित नीचे गिर जाता है और अचानक धोती प्रकट हो जाती है. धोती और पजामे
के द्वन्द में फंसे आदमी को लोग प्रगतिशील कहते हैं. प्रगतिशील ऊपर से पजामा और
अंदर से धोती होता है. पजामा जब आदमी को पहनता है तो नाडे को पजामे के आलावा एक
कमर की भी जरुरत होती है. बहुत से लोगों की कमर और टाँगें नहीं होती हैं. जैसे कि
ड्राइंग रूम में सजे फूलों की जड़ें नहीं होती. लेकिन कुछ लोग एक जगह ऐसे जम जाते
हैं कि उनकी कमर का नाप नाडे से बड़ा हो जाता है. ऐसे लोगों को जबरिया सेवानिवृत्त
करके घर बैठा दिया जाता है.
अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया, बोले- तुम्हारे पजामे में कौन सा नाड़ा है ?
“ मुझे लगता है कि मेरे पास पजामा नहीं है.”
“ अरे तुम तो प्रबुद्ध पजामे हो इसलिए पता
नहीं चलता कि असल में क्या हो. तुम्हारी कमर तो है ?”
“ हाँ, है ना ... कमर है.”
“ कमर है इतना काफी है, हमें सिर्फ कमर की
जरुरत होती है सर की नहीं, शाम को आ जाओ पजामा पार्टी कार्यालय .... तुम्हें नाड़ा मिल जायेगा.”
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