शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

आदमी और पजामा

 देखने-सुनने में वे तमाम आदमियों की तरह आदमी ही लगते हैं लेकिन इधर लोग उन्हें पजामा कहते हैं. अपने यहाँ आदमी वही हो जाता है जो मान लिया जाता है. जैसे किसी को लोग टप्पू मान लें, उसे टप्पू कहने लगें, टप्पू के नाम से उसके चुटकुले बना लें तो मजबूरन वह टप्पू ही हो जाता है. अब उससे कोई चूक हो गई तो लोग कहेंगे टप्पू फेल हो गया, अच्छा कर दिया तो टप्पू पास हो गया. यानी अच्छा खासा संभावनाओं से लदा टाप क्लास आदमी बैठे बिठाये टप्पू हो जाता है. अब हो जाता है तो हो जाता है, कोई कुछ कर सकता है इसमें ?
खैर, बात पजामे की हो रही थी. आदमी का पजामा होना आदमी की शान के खिलाफ है, यह बात मेरी तरह उन्हें भी पता नहीं थी. कुछ इस वजह से भी लोग उन्हें पजामा मान रहे थे, कि जिस आदमी को पता नहीं कि वो पजामा है वह तो पजामा ही हुआ. यह बात अलग है कि पता होता भी तो वे क्या कर लेता. जहां तक मेरा सवाल है, मै भी नहीं जनता कि आदमी में पजामें का  क्या मतलब है, मैं तो यह भी नहीं जानता कि आदमी को  चड्डी या फुल्पेंट आदि कहना भी कोई अर्थ होता है. जब ये समस्या मैंने अपने मित्र को बताई तो उसने डाक्टर की तरह हिदायत दी कि ये बात मुझसे पूछ ली, चलेगा,  लेकिन किसी और से मत पूछ लेना. सारे लोग चड्डी या फुल्पेंट सुनने के बाद मित्रता निबाहने में विश्वास रखें यह जरुरी नहीं है.
चलिए यह बताइए कि आदमी पजामा कब होता है !? हमने चड्डी और फुल्पेंट दोनों को पूरी सावधानी से किनारे किया .
वे बोले, - अपने आदमी हो इसलिए तुम बस पजामे के बारे में जान लो. आदमी के रूप में पजामा दो प्रकार का पाया जाता है. एक नाड़ावान और दूसरा नाड़ा विहीन. नाड़ा विहीन पजामा पजामे के नाम पर बोझ होता है. यानी वो होता तो पजामा ही है लेकिन किसी काम का नहीं होता है. जैसे बिना राष्ट्रीयता के नागरिक..... नाड़ा राष्ट्रीयता है. अगर नहीं समझे तो जान लो कि तुम यही पजामा हो. दूसरा उदाहरण लो, जैसे नेताओं के चुनावी वादे, वे होते हैं लेकिन जनता समझ जाती है कि नाड़ा नहीं है. कभी भी खसक जायेगा. नेता को भी पता हैं कि नाड़ा नहीं हो तो राजनीति में पजामा समर्पण के परचम से ज्यादा कुछ नहीं है. नाड़ा  अपनी  जगह महत्वपूर्ण है लेकिन पजामे के बिना नाड़ा बिना विभाग के मंत्री की तरह होता है या फिर चुनावी घोषणा पत्र जैसा बेकार. नाड़ा  एक विचार है, नाड़ा सहित पजामा प्रतिबद्धता का प्रतीक है जो आदमी को  कमर से बांधे रखता है. बंधा हुआ आदमी बंधे हुए पजामे की तरह होता है, यानी वह चाह कर भी खिसकता नहीं है. विदेशों में यही काम प्रायः टाई करती है. खूंटी पर टंगी टाई जब गले में बांध दी जाती है तो चेन का काम करती है. प्रतिबद्धता प्रेमियों के सामने जब भी कोई नया पजामा आता है वे सबसे पहले उसमें अपना नाड़ा डालने की कोशिश करते हैं. वे बताते हैं कि विचार बड़ी चीज है, आदमी तो आते-जाते रहते है. पुराने यानी सीनियर पजामे सिद्धहस्त होते हैं और वक्त जरुरत के हिसाब से नाड़ा खोलते बांधते रहते हैं. इसे आप मामूली काम मत समझिए, यह बहुत ऊँची कला है. क्योंकि नाड़ा खोलते  ही पजामा बिना आवाज किये प्रतिबद्धता सहित नीचे गिर जाता है और अचानक धोती प्रकट हो जाती है. धोती और पजामे के द्वन्द में फंसे आदमी को लोग प्रगतिशील कहते हैं. प्रगतिशील ऊपर से पजामा और अंदर से धोती होता है. पजामा जब आदमी को पहनता है तो नाडे को पजामे के आलावा एक कमर की भी जरुरत होती है. बहुत से लोगों की कमर और टाँगें नहीं होती हैं. जैसे कि ड्राइंग रूम में सजे फूलों की जड़ें नहीं होती. लेकिन कुछ लोग एक जगह ऐसे जम जाते हैं कि उनकी कमर का नाप नाडे से बड़ा हो जाता है. ऐसे लोगों को जबरिया सेवानिवृत्त करके घर  बैठा दिया जाता है.
अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया,  बोले- तुम्हारे पजामे में कौन सा नाड़ा है ?
मुझे लगता है कि मेरे पास पजामा नहीं है.
अरे तुम तो प्रबुद्ध पजामे हो इसलिए पता नहीं चलता कि असल में क्या हो. तुम्हारी कमर तो है ?
हाँ, है ना ... कमर है.
कमर है इतना काफी है, हमें सिर्फ कमर की जरुरत होती है सर की नहीं, शाम को आ जाओ पजामा पार्टी कार्यालय .... तुम्हें  नाड़ा  मिल जायेगा.

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शुक्रवार, 6 मई 2016

साथियों का कुंभ स्नान

           
  वैसे तो साथी लच्छू परंपराओं के विरोध की परंपरा से आते हैं, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि भारतभूमि मोक्षदायी है। जब वे वैचारिक परंपरा के अंतरगत होते हैं तब पूरी निष्ठा से होते हैं और धर्म को अलग रखते हैं। ईश्वर  को मानने या नहीं मानने के संबंध में लच्छू साथी का साफ कहना है कि दिन में दो-तीन घंटे मान सकते हैं, इसमें कोई हर्ज नहीं है। वे सैद्धान्तिक रूप से निजी संपत्ती और निजी ईश्वर  दोनों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि साथी जब ईश्वर  में अपना हिस्सा मागेंगे तो एक राम नहीं, एक कृष्ण नहीं पूरे तैंतीस करोड़ मागेंगे। उनके एक सवाल का जवाब अभी तक किसीने नहीं दिया है कि धार्मिक ग्रंथों को लाल झंडे यानी लाल कपड़े में क्यों बांधा जाता है ? आज जब मोक्ष की इच्छा से साथियों सहित वे कुंभ स्नान करने आए हैं  तो लाल गमछा सिर पर बांधे हुए हैं।
                           उज्ज्वल सनातन परंपरा का सम्मान रखते हुए साथियों में तय हुआ कि पहले नागा कामरेड बिना अपनी पहचान उजागर किए पूरे उत्साह से नहाएंगे। उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि भगवान उनसे डरें नहीं। हालांकि सबको पता है कि कुंभकाल में भगवान प्रायः नंगों से डरते नहीं हैं यदि वे बाकायदा घोषित भक्त हों। कामरेड चूंकि अधोषित भक्त होते हैं इसलिए वे और भगवान प्रायः संदेह की डोरी से बार बार बंधते-छूटते रहते हैं। विरोध करते हुए और नहीं मानते हुए भक्त हो जाना प्रगतिशीलता है जो साधना परंपरा में एक नया मार्ग है। जमाने में जिसे विचारधारा समझा जाता है वो साथियों के लिए एक कला है। निष्क्रियता की मुद्रा में सक्रिय हो लेने को और विरोध की ढपली के साथ आरती का घंटा ठोक लेने को जो साध ले वह साथी बड़ा कलाकार होता है। वैसे यहां कुंभ में भीड़ बहुत है और भीड़ में अवसर असीम होते हैं। नए-पुराने तमाम कलाकार कब भीग कर निकल रहे हैं ये किसी को पता नहीं पड़ रहा है। 
                               लच्छू साथी पुराने कलाकार हैं, यह उनका शायद दसवां कुंभ स्नान है। प्रगतिशीलता के आरंभिक गफलत भरे दिनों को छोड़ दें तो जब से उन्होंने वाकई होश  सम्हाला, कोई कुंभ स्नान नहीं छोड़ा है। बताते हैं कि शुरू में उन्हें किसी नें देखा नहीं, जिन्होंने देखा उन्होंने पहचाना नहीं और जिन्होंने पहचान लिया वे साथी साथ हो लिए।  किसी ने ठीक ही कहा है, ‘‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया’’ । मोक्ष सबको चाहिए, अखाड़े इसी तरह बनते हैं, साथी-अखाड़ा भी बना। मैले कुर्ते-पैजामे का चलन अब खत्म हो चला है लेकिन लच्छू साथी आज इसी लिबास में हैं। महा-मार्क्स-सेश्वर   की प्रवेशवाई और पहला शाही स्नान भी शुभ मुहुर्त में हो चुका है। हालांकि यह सब धूमधाम से होता तो उसकी बात और होती लेकिन जनविचार के कारण बहुत कुछ छोड़ना भी पड़ता है। अंदर ही अंदर मन कसक रहा है। किन्नरों तक ने बड़े गाजेबाजे से प्रवेशवाई की लेकिन उनके अखाड़े को छुपछुपा कर आना पड़ा। वैसे देखा जाए तो दिक्कत की कोई बात नहीं है। मार्क्स  ने धर्म को अफीम कहा है, शोषण का साधन भी कहा है लेकिन नहाने के बारे में कुछ नहीं कहा है, .......  और इतना काफी है। इधर नहाने से पाप घुल रहे हैं और साधु-संत तक अपने घो रहे हैं तो कामरेड किनारे खड़े देखता क्यों रहे। कल अवसरों को परखने वाली नई पीढ़ी सुनेगी तो मूर्ख ठहराएगी। यहां तो घाट खुल्ले हैं, कोई कह नहीं रहा है कि बड़े पापी पहले नहाएंगे या छोटे बाद में। फिर भी साथियों के मन में अपराधबोध नहीं आ जाए इसलिए रामघाट पर नहीं आमघाट नहाने का निर्णय लिया गया है और दो दो डुबकी मार्क्स -एंजेल के नाम की भी लगाई जा रही है। 

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सोमवार, 25 अप्रैल 2016

पहले पन्ने पर जूता

                   
       सुबह अखबार हाथ में आते ही मैं चौंकता हूँ. ये क्या !!!  पहला पन्ना, सबसे उपर अखबार का नाम, उसके बाद पूरे पृष्ठ पर एक जूता, अर्थात एक इकलौते जूते का फोटो। चार पांच मिनिट जब उस पर से नजर नहीं हटी तो पत्नी ने ब्रेक लगाया -- " क्या देख रहे हो !? ..... चांदी का है .
मैनें कहा -- लगता तो चमड़े का है.!
" चमड़े का लग रहा है .... लेकिन चांदी का नहीं होता तो पहले पन्ने पर नहीं होता ." वे बोलीं .
                     जूता कितना ही क्यों न ‘चल’ जाए दो कालम, तीन कालम से ज्यादा जगह नहीं ले पाया आज तक। जो चीज घिसने-रगड़ने की है, फैकने-मारने की है, अगर विस्तार में जाया जाए तो खाने-खिलाने की भी कही जा सकती है, लेकिन उस पहले पन्ने के लायक तो कतई नहीं जिस पर कभी वायसराय फैले होते थे और आज  टोपियों , पगड़ियों की उम्मीद रहती है, लेकिन तरक्की देखिए आज श्रीमान जूता जी मौजूद हैं। गौर से देखा कहीं नीचे ‘शर्तें लागू’ की पंक्तियां भी होंगी, लेकिन नहीं थी। पूरे पृष्ठ पर वे अकेले पसरे थे, ऐसे जैसे खरीद ही लिया हो सब। मुखपृष्ठ पर बहुत बड़े या बहुत छोटे काम करने वाले छपा करते हैं। जी हां, मैं जानता हूं, आप भी जानते हैं कि यह विज्ञापन होगा, लेकिन अभी भी बहुत से ऐसे लोग हैं जो नहीं जानते हैं। उनके लिए पहला पन्ना, पहला पन्ना है, बस। जूता पहले पन्ने पर कैसे आया यह सब नहीं जानते। उनके लिए पहला पन्ना समय की रसीद होती है। अगर सब भगवान भरोसे भी हो तो रसीद में जूता !! मैं एक बार और जूते को घूरता हूं, लगता है जैसे मुस्करा रहा है, मानो वह भी बैंकों का विलफुल डिफाल्टर है और किसी के पांव पहन कर विदेश  भाग जाना चाहता है। चलो ठीक है कि पहले पन्ने पर आने के बाद मुस्काना बनता है, लेकिन वह ‘जूता’ है यह भूल रहा है. उसका मुस्कराना मुझसे बर्दाश्त  नहीं होता है। पहला पन्ना मुझे लगातार तनाव दे रहा है।
                        जब तनाव होने लगे तो उठ कर 10-20 कदम चलना चाहिए, मुंह पर पानी के छींटे मार लो और भी अच्छा। चश्में  को पानी से धोया और अपनी बनियान से पोंछते हुए सुखाया। ठंडे दिमाग और साफ दृष्टि के साथ मैं पुनः पहले पन्ने पर हूं। देखा जूता वाकई सुन्दर है। सुन्दर हो तो उसकी कीमत हमारे यहां हजार गुना बढ़ जाती है। दूसरे पन्ने पर जूते की भारी कीमत का जिक्र था। याद आया कि मेरी शादी का सूट इससे चौथाई दाम पर तैयार हो गया था और मात्र उस सूट के कारण सासूजी इतनी आश्वस्त हुईं कि बिदाई के समय मात्र रस्म के लिए जरा सा  रोईं थीं। दूसरी पंक्ति में लिखा था कि इसका तला यानी जिसे हिन्दी में आजकल सोल कहा जाने लगा है, नरम और मजबूत है। जैसा कि विकास का मुलायम सपना और अतिक्रमण की मजबूत सफाई। पता नहीं अंदर से नरम और बाहर से कड़क सोल वाले जूते भागने वालों की जरूरत हैं या पकड़ने वालों की। 
                                      चुनाव भले ही मंहगा होता है किन्तु सरकार टोपी तो सस्ती पहनती है। आम जनता ज्यादातर टोपी ही देख पाती है। जूते तो उनकी धोती के नीचे छुपे रहते हैं। कभी दिखे भी तो भोलेजन ‘पादुका’ मान कर उस पर माथा रख देते हैं। जिस तरह कानून के हाथ लंबे होते हैं उसी तरह सरकार के कदम कठोर होते हैं। कठोर कदमों के लिए ऐसा जूता ही मुफीद होता है जो उपर से बाकायदा और सुन्दर दिखाई दे। मुझे विश्वास  हो चला है कि यह सरकार का जूता है। इसमें पांव डालते ही पहनने वाला दो इंच ऊँचा  हो जाता है। कुछ लोग इन्हें हर्बल जूता मान कर धन्य भी हो सकते हैं, मुझे कोई आपत्ती नहीं है। 
                           आप देखिए कि सरकार जब कुर्सी पर बैठती है, एक पांव के घुटने पर दूसरा पांव रखती है और जूता सज्जित पंजा हिलाती है तो एक मैसेज अपने आप जाता है देश  और दुनिया के सामने कि सरकार मजबूत है और अभी अभी किसी बाहरी राष्ट्र्पति के साथ चैट करके बैठी है। चाय अपनी जगह है, जूता अपनी जगह है। क्वालिटी दोनों की बढ़िया होना चाहिए। पहले पन्ने का जूता दरअसल किसी तोप की तरह होता है। उसमें बारूद और गोला हो के ना हो, वह हर हाल में तोप ही होता है। यहां यह खुलासा जरूरी है कि सरकार वही नहीं होती है जो कुर्सी पर बैठी होती है। असल सरकार वो होते हैं  जो कुर्सी की व्यवस्था को अपने हित में बनाए रखते हैं। यों समझिये कि कुर्सी पर ठाकुर के हाथ हैं और पीछे गब्बर के तलवार वाले हाथ। अगर ज्यादा उलझन हो रही है तो यह देख लीजिए कि पहले पन्ने वाला जूता किसके पैरों में है।
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शनिवार, 16 अप्रैल 2016

असहमतों के लिए राग बाबा-विलाप

               
        जो भक्त शिक्षा से दूऱ रहे वे हमेशा  धर्मगुरूओं के प्रिय रहे हैं। दुर्भाग्यवश पिछली सरकारों की गलत नीतियों के कारण शिक्षा का लगातार बढ़ रहा प्रतिशत धर्म के लिए चुनौती बनता जा रहा है। नकल की आदर्श  परंपरा से उत्तीर्ण यानी पास होने वाले ना हों तो समझो बाबाओं की दुकाने ही बंद हो जाएं। जिस काम के लिए मना किया जाता है लोग उस काम के लिए ताल ठोंकने लगते हैं। धर्म को सेल्फी की तरह लेने लगे हैं लोग,. अपनी मर्जी अपना क्लिक। अदालतों के दम पर भेड़-बकरियां भी सींग दिखाने लगी हैं। ऐसा है तो करो अपनी मनमर्जी, हमें क्या ! कल को रेप-वेप, चोरी, डकैती, हत्या-वत्या., सूखा, बाढ़, भूकंप, बढे़ तो हमसे ना कहियों कि ग्रहशांति  करवा दो।
                       मोमबत्तियां ले कर पुतलों के नीचे भीड़ बढ़ाने वालों को भारी पछतावा होना चाहिए था जब ये बात सामने आई कि रेप का असली कारण शनिपूजन है। महिलाओं को शनिमहाराज से दूर रहना चाहिए और महाराजों की शरण में आना चाहिए इसमें बुरा क्या है ? जब तक महिलाएं शनिमहाराज से दूर थीं उनके साथ कभी रेप नहीं हुआ। जो हुआ वो कानून के नजर में रेप रहा होगा लेकिन बाबाओं की नजर में पूजा के बाद हुआ रेप ही रेप माना जाएगा। जनता खुद अपने पैरों पर पूजा मारती है। कहा था कि सांई पूजन नहीं करो तो इसमें संदेह की गुंजाइश कहां थी ! किन्तु नहीं माने, अब देखिए सूखा पड़ गया। विष्वास नहीं हो तो गीले कपड़े तार पर डाल दो और सांई पूजन करने लगो, कुछ देर में पता चल जाएगा।
                  कुछ अधर्मी नास्तिक जन जबरन हा-हू कर रहे हैं और बाबा के बयान को बकवास बता रहे हैं। तो उन्हें याद दिलाया जाना जरूरी है कि सतिप्रथा पर रोक लगाई तो अंग्रेजों का भारत में कैसा अंत हुआ। कलयुग में सतयुग की मान्यताओं की स्थापना संतो की नहीं तो किसकी जिम्मेदारी है। सूखा पड़ा है तो बारिश करवाए कोई, लेकिन कोई नहीं जानता कि बारिश कैसे होती है। हमारे पास उपाय है, श्रद्धालू जानते हैं कि स्त्रियां निवस्त्र हो कर खेत में हल चलाएं तो वर्षा होती है। ये पवित्र भूमि विष्वगुरू ऐसे ही नहीं रही है। हमने ही दुनिया को बताया कि  चप्पल औंधी हो जाए तो झगड़ा होता है। तलाक का कारण औंधी चप्पल है। दरवाजे पर नींबू-मिर्ची लटका देने से बुरा करने वाले बेअसर हो जाते हैं, दरवाजा दुकान का हो तो आर्थिक मंगल होता है। सफलता तभी मिलती है जब दही खा कर निकलो। सूर्य को अर्ध्य  देने से नेत्र ज्योति बढ़ती है। बिल्ली रास्ता काट दे तो काम बिगड़ जाता है। सुबह सुबह विधवा का मुंह देख लो अमंगल होता है। चौराहे पर सिंदूर लगा कुछ चीजें रख आओ तो आपकी बला दूसरे के माथे चढ़ जाती है। रंगाने-पुताने के बाद मकान पर काली हांड़ी चितर के लगा दो तो मकान को नजर नहीं लगती है। दरवाजे पर घोड़े की नाल ठोंक दो तो जीवन बाधारहित होता है। सुबह बिस्तर से उठते ही दांया पैर जमीन पर रखने से बरकत होती है। नौ कुंवारी कन्याओं को एक बार लपसी-पूरी खिला देने से साल भर कल्याण होता है। दिवाली की रात जुआ खेलना भाग्यशाली बनाता है। चालीसा पढ़ लो भूत-पिशाच पास नहीं आते हैं। किसीके मरने के बाद सिर नहीं मुंडाओं तो यमराज अप्रसन्न हो जाते हैं। ब्राहम्णभोज करवाने से स्वर्ग मिल जाता है। शनिवार को काले जूते दान कर देने से शनि का कोप शांत  हो जाता है। दिन भर कितना भी स्वच्छंद रहो, गाय को चारा और कुत्ते को रोटी दे दो तो हाथ की कालिख साफ हो जाती है। जिसने भगवा कपड़ लपेट लिया वो संत है। संत के ज्ञान और समझ पर संदेह करना पाप है। बाबाओं के माथे पर लेपन और दाढ़ी देख कर आस्था प्रकट करना चाहिए। संतो पर संदेह करने वालों के लिए नरक का पासपोर्ट बन जाता है। नरक में पापियों को गरम तेल की कढ़ाई में डाल कर तला जाता है। घोर पापियों को सीधे आग में भूनने का प्रावधान भी है। स्त्री नरक का द्वार है और ताड़न की अधिकारी भी। भक्तों को आस्थावान होना चाहिए, आस्था हो तो आलू के बोरे को भी कल्याण करने वाला माना जा सकता है। 
                     
                     तो भक्तों, स्त्रियों को शनिपूजन से दूर रखें, संभव नहीं हो तो आपको क्या करना है यह बताने की जरूरत नहीं हैं। धर्म की रक्षा करना आपका कर्तव्य है। सूखे की समस्या से सरकार नहीं निबट सकेगी, आपको ही ‘कुछ’ करना है। लोग कहेंगे कि हमारा ध्यान चढ़ावे पर है, पर आप जानते हैं कि ऐसा नहीं है।

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गुरुवार, 17 मार्च 2016

हाथ में कीचड़, मुंह में आग

                         
जब से राजनीति में कपड़ा फाड़ने, कालिख पोतने और कीचड़ उछालने की उज्जवल परंपरा का विकास हुआ है तब से लोगों के लिए टीवी पर हर दिन होली है। जब देखो तब फाग, कुछ कालिख पोत रहे हैं कुछ धो रहे हैं। जिन्हें कीचड़ में लोटना आनंददायी लगता है वे होलियापा करने में जल्दी सफल होते हैं। हृदय सम्राटों को बारहों मास होली खेलने का सुख मिल रहा है। जिस तरह ‘‘सदा दिवाली संत की, बारह मास बसंत’’ उसी तरह ‘‘हाथ में कीचड़, मुंह में आग, लीडर की बाहर मास फाग’’। 
                    राजनीति की तरह, होली जलाने का त्योहार है और खेलने का भी। पुराने खेलने वाले पहले जलाते हैं उसके बाद लंबे समय तक खेलते रहते हैं। एक बुझती है तो फौरन दूसरी जला देते हैं। कुछ के लिए जलाना ही खेलना है। अक्सर उनकी जलाई हप्तों तक सुलगती रहती है और राजधानी के खबरखोर अधनंगे बच्चे तापते रहते हैं। जलाने का ऐसा नहीं है कि उठाई माचिस और लगा दी और हो गया। उसके लिए अनुभव और प्रतिभा दोनों चाहिए। होली जलाने और आग लगाने में बड़ा अंतर है। 
                               होली जलाने का महूरत होता है, तैयारियां भी खूब लगती हैं। सबसे जरूरी एक ‘डांडा’ होता है, जो एक झाड़ी विशेष  का यानी खानदानी होता है। डांडा भी सामान्य डंडे जैसा ही होता है लेकिन उसको डांडा कहते हैं। जैसे मुख्यअतिथी सामान्य आदमी जैसा ही होता है लेकिन उसे मुख्य अतिथी कहते हैं। यह डांडा हरा होता है, जाहिर है ताजा होता है, थोड़ा कच्चा भी होता है। यह लाठी की तरह न उपयोगी होता है न ही काम में लिया जा सकता है। लेकिन होली उसके बिना सजती नहीं है इसलिए वह सम्मानित डांडा होता है। होली सजाने वाले उसे ठीक बीच में स्थापित कर देते हैं, बिल्कुल अध्यक्ष या उपाध्यक्ष की तरह। माला वगैरह पहना कर उसका सम्मान भी कर दिया जाता है। यहां देखने वाली बात यह है कि डांडा कहने भर को डांडा होता है लेकिन उसमें कहीं से भी डांडापन नहीं होता है। सामने वाले को लग सकता है कि उसे जबरन डांडा बना कर खड़ा कर दिया है। डांडे की अपनी कोई इच्छा नहीं होती कि होली की जिम्मेदारी सिर ले ले और अपने को आग में झौंक दे। लेकिन परिस्थितियों के कारण वह विवष होता है। यों समझ लीजिये कि वह पकड़ में आ गया है बस। वो हमेशा  उहापोह में रहता है, डांडा बनूं या कि नहीं बनूं। लेकिन उसकी एक नहीं चलती है। जोष आ जाने पर कभी कभी वह कोषिष करता है कि खानदानी और आत्मविष्वास से भरा हुआ दिखे लेकिन सफल नहीं हो पाता है। स्थापित होने के दूसरे तीसरे दिन ही वह मुरझा जाता है। हालांकि टोले में ऐसे कई हैं जो बेहतर डांडे सिद्ध हो सकते हैं लेकिन वे प्रहलाद के प्रतीक कैसे बनाए जा सकते हैं।  सो वे डांडा थे, डांडा हैं और डांडा ही रहेगे। 
                           इधर डांडा ने कार्यभार लिया और उधर मीडिया वाले अपनी पिचकारी भरने दौड़ पड़े। पूछा- ‘‘ सर लोग कह रहे हैं कि आपकी होली ठंडी है आप क्या कहेंगे इस बारे में ?’’
                            ‘‘ ये एक साजिश  है हमारे खिलाफ। सूट-बूट वालों को होली खेलने से डर लगता है। लेकिन हम होली के पुराने खिलाड़ी हैं। हमारी होली में लकड़ी कम है लेकिन देश  देख रहा है कि आंच और अंगारे ज्यादा हैं। आपको पता ही है कि हमारी होली इतिहास के पन्नों पर दर्ज है। सब जानते हैं कि हमने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। आप लोगों को भी पता होगा ? और देखिए आजादी मिल गई।’’  डांडाजी ने तन कर कहा।
                              ‘‘ सर मनरेगा पिचकारी तो दूसरों ने छीन ली है, अब आप लोग होली कैसे खेलेंगे ?’’ बायीं तरफ से सवाल आया। 
‘‘ मायावती जी से बात चल रही है, वो नीले रंग पर अड़ी हुई हैं, ममता जी भी लाल खेलना चाहती हैं। .... कोषिष कर रहे हैं। आप देखेंगे कि हम अच्छी होली खेल पाएंगे। ’’ कह कर उन्होंने दायां ओर गरदन घुमाई।
                              ‘‘ सर, दूसरे लोग दावा कर रहे हैं कि उनके पास बहुत सारे डांडा हैं नागपुर से लगा कर दिल्ली तक। लेकिन इधर आपके अलावा कोई नहीं है !? ’’
                               ‘‘ वे झूठ बोलते हैं। यू टर्न लेने में उनका कोई मुकाबला नहीं है। उनके पास डांडा नहीं है, हां डांडू बहुत सारे हैं। वे होली नहीं जलाते, बात बेबात पर भड़काउ बयान दे कर आग लगाते रहते हैं। लेकिन देष जानता है कि होली आपसी प्रेम और भाईचारे का त्योहार है। बात बात पर आग उगलना होली नहीं है। ’’ अच्छे उत्तर पर पीछे से एक बुजुर्ग महिला ने पीठ थपथपा दी। वे मुड़ कर जाने लगे।
                        ‘‘एक अंतिम सवाल सर, प्लीज।’’ आवाज सुन कर वे रुक गए।
                        ‘‘क्या आप आगे भी कीचड़ से ही खेलेंगे ?’’
                       ‘ हां, बिल्कुल। हम जमीन से जुड़े हुए लोग हैं। .... और दूसरों पर इसलिए कीचड़ डालते हैं ताकि वे भी इस पवित्र माटी से जुड़ जाएं किसी तरह। ’’ बाय कहते हुए वे चल दिए।
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

पाकी के पास परमानू

                             
 
जब से बदरू ने सुना है कि पाकी ने परमानू बम मारने की घमकी दी है उसकी नींद उड़ गई है। बीवी तो बीवी है, उसकी चिंता ये है कि बदरू दो दिन से सो नहीं पाए हैं। जब वो नहीं सो पाए हैं तो जाहिर है कि वह भी नहीं सो पा रही है। जब दोनों नहीं सो पा रहे हैं तो क्या करेंगे सिवा बातों के। बदरू का ही एक शेर है कि ‘नींद जब न आए तो बातें कर, कोई न हो तो बदरू से कर’। बदरू जब जागते हैं तो खुद से ही बातें करते हैं। उनकी इसी आदत से परेशान घर वालों ने ही उन्हें अफीम की लत लगा दी। लेकिन आज बात अलग है, पाकी के पास परमानू है और उन्हें लग रहा है कि वो सीधे उनके उपर गिराने वाला है। यही चिंता उन्हें खाए जा रही है कि पाकी के परमानू से कौन कौन मरेगा। साइंस से सब कुछ मुमकिन है, अमरिक्का अपने घर में बैठे बैठे दूसरे मुल्क में किसी के ख्वाबगाह पर निगाह रख लेता है तो फिर क्या छुपा है किसी से। इतनी तरक्की के बारे में तो उन्होंने कभी सोचा नहीं था वरना आज चौदह बच्चों के बाप हो कर बेइज्जती के खतरे से सराबोर नहीं रहते। पता नहीं नामाकूलों ने क्या क्या नहीं देखा। चलो देखा सो देखा, उनको देखे से कुछ हमने सीखा और हमें देखे से वो कुछ सीख लेंगे। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन साइंसदानों कुछ इल्म और हाॅसिल करना था। पाकी वाले जो परमानू मारेंगे उससे बदरू नहीं मरें इसका कुछ इंतजाम होना चाहिए या नहीं। अगर यों उठा के मार दिया तो बिरादरान भी मारे जाएंगे ! साइंसदानों को कोई ऐसा बम बनाना चाहिए था जो धर्म-ईमान देख कर फटे। तब तो माने कि सही मायने में तरक्की हुई। पाकी कहता है कि हिन्दुस्तान में हमारे भाई रहते हैं और कल अगर परमानू मार दिया और भाई लोग ही फना हो गए तो !! बम तो बम है भई, बोले तो पक्का सेकुलर। मारने को निकले तो फिर कुछ देखे नहीं, न धरम न जात। आधे जन्नत जाओ, आधे सरग में और बाकी धरती पर पड़े सड़ते रहो। पाकी के हाथ में परमानू का मतलब है किसी बंदर के हाथ में उस्तरा। मालूम पड़े किसी दिन परेशानी की हालत में परमानू से ही सिर ठोक लिया उसने। जो नादानी में बंटवारा करके पाकी बना सकते हैं वो परमानू से सिर नहीं ठोक सकते हैं। 
                   अब आप जान गए होंगे कि बदरू को नींद नहीं आने का कारण वाजिब है। दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान भारत में हैं और उनका पड़ौसी, जिसका दावा है कि वो उनका खैरख्वाह है, भाई है, वही उन पर परमानू तरेर रहा है। माना कि सियासत में भाई का भाई नहीं होता है लेकिन बदरू को अपने चौदह बच्चों और दो बीवियों की फिक्र भी है। कल को परमानू सीधे आ कर उनके सिर पर गिर गया और दूसरी दुनिया नसीब हो गई तो पता नहीं बीवी-बच्चों को मुआवजा मिले या नहीं मिले। एक जिम्मेदार आदमी फिक्र के अलावा और कर भी क्या सकता है। और आप समझ सकते हैं कि फिक्रमंद आदमी को नींद कैसे आ सकती है। 
                          मुर्गे ने बांग दी, सुबह हो गई। बदरू ने बीड़ी सुलगाते हुए बीवी से कहा, ‘‘ पाकी के परमानू की चिंता में बदन गल सा गया है, आज इस मुर्गे को बना लेना’’।
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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

देशभक्ति वाला खून .

                             डाक्टर ने रिपोर्ट देखते हुए कहा कि ‘‘आपके खून में चिकनाई बहुत है।  मेरा मतलब  है .... खाये से अधिक चिकनाई. ...... कभी भी सीबीआई का छापा पड़ सकता है।’’
          वे चिंतित हो गए। उनके चेहरे का रंग ऐसे उड़ने लगा जैसे दंगों की अफवाह उड़ती है। कोई और होता तो गिर पड़ता, लेकिन वे पहले से ही इतने गिरे हुए थे कि अब और संभावना नहीं बची थी। ऐसे आकस्मिक मिथ्यावार पर वे अक्सर चीखते हैं, झल्लाते हैं लेकिन यहां अभी कैमरामेन नहीं है, मीडिया नहीं है तो कोई फायदा भी नहीं है। कुछ देर पूरे ढ़ीठपन के साथ अपनी मजबूरियों की उन्होंने जुगाली की, फिर बोले -  ‘‘ चिकनाई-विकनाई का तो ठीक है डाक्साब, देशभक्ति कितनी है ये बताओ ?’’
                      ‘‘ देशभक्ति खून में नहीं होती है।’’ डाक्टर पर्चा रखते हुए बोले।
                   ‘‘ ऐसे कैसे नहीं होती है !! जब हुजूर ने कहा है कि उनके खून में देशभक्ति है तो  इसका साफ मतलब है कि खून में देशभक्ति होती है। ’’ हुजूर की इज्जत के लिए वे थोड़ा हुमके।
                     ‘‘ होती होगी, पर खून की जांच रिपोर्ट में देशभक्ति नहीं आती है। ’’ 
                    ‘‘ ऐसा कैसे !! आप फिर से टेस्ट करवाइये। जो चीज खून में है वो रिपोर्ट में बराबर आना चाहिए। वरना समझ लीजिए हमारा मौका आया तो डाक्टरी साइंस पर हमें जांच बैठाना पड़ेगी।’’
                    ‘‘ हो सकता है कि  हुजूर के खून में हो,.... आपके खून में ना हो ।’’ डाक्टर ने गुगली फेंकी ।
                  ‘‘ क्या बात करते हैं आप !! ऐसा कैसे हो सकता है कि  हुजूर के खून में है और हमारे खून में नहीं है।’’
                    ‘‘ आप  हुजूर के खानदान वाले हैं ?’’
                    ‘‘ नहीं, खानदान के नहीं पार्टी के हैं। ’’
                     ‘‘ पार्टी और खानदान में फर्क होता है।’’
                    ‘‘ दूसरों के लिए होता होगा, ...... हमारे लिए नहीं। छोटे हैं तो क्या हुआ, हुजूर मांई-बाप हैं हमारे।’’
                    ‘‘देखिए, हर आदमी का खून अलग अलग होता है। कोई ए, कोई बी, कोई एबी, कोई .....’’
                   ‘‘ हां हां, सब जानते हैं हम,... ए बी। ...... हमारी पार्टी में सबका खून सी-पाजीटिव है। हाई कमान से लेकर हमारे पार्षद पति की बीवी तक सब सी-पाजीटिव हैं।’’
                     ‘‘ सी-पाजीटिव !! .... खून में सी-पाजीटिव नहीं होता है श्रीमान जी। ’’
                    ‘‘ लेकिन पार्टी में होता है। आप ठीक से देखिए, मेरा भी सी-पाजीटिव होगा। ’’
                   ‘‘ माफ कीजिए, आपका बी-पाजीटिव है।’’
                   ‘‘ बी-पाजीटिव !! आप कहना क्या चाहते हैं। क्या मैं बीजेपी में हूं ? .... देखिए डाक्साब, ये अच्छी बात नहीं है। अगर मीडिया वाले यहां होते तो कल के कल में मेरा केरियर चैपट हो जाता। जानते हैं, बी-पाजीटिव वालों से हमारे हुजूर बात तक नहीं करते हैं।’’
                    ‘‘ और ए-पाजीटिव वालों से ? उनसे बात करते हैं ?’’
                    ‘‘ उनकी खांसी ठीक हो जाए तो बात कर सकते हैं, ..... वो अच्छा काम कर रहे हैं, दिल्ली के ही हैं। और भी कई कारण हैं जिसके चलते हुजूर ए-पाजीटिव वालों को एकदम नापसंद नहीं करते हैं। ....... अच्छा एक बात बताइये, क्या ए और बी पाजीटिव खून में भी देषभक्ति होती है ?’’
                      ‘‘ रिपोर्ट में तो नहीं देखा आजतक ।’’
                     ‘‘ सही कहा, ..... रिपोर्ट में कैसे आएगा जब खून में देश भक्ति होगी ही नहीं। ...... लेकिन डाक्टर साब, प्लीज, ये बात बाहर नहीं जाना चाहिए कि मेरे खून में क्या है और क्या नहीं है।’’ 
                      ‘‘ आप चिंता मत कीजिए, हम सारी रिपोर्टें गोपनीय रखते हैं। वैसे भी आपके खून में चिकनाई के अलावा और कुछ नहीं है। ’’
                       ‘‘ क्या करो डाक्साब, राजनीति में चिकनाई के लिए ही तो जाता है आदमी। चिकनाई ना हो तो देशभक्ति के मायने क्या हैं। ’’
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बुधवार, 20 जनवरी 2016

हरेभरे ठूंठ !

                     
       नए राजा को लाल मैदान में अपनी सत्ता का परचम लहराना था, इसलिए वे बघ्घी पर सवार हो कर गुजरे। दूसरे दिन अखबारों में राजा की फोटों के साथ खबर बनी कि राजा जी बघ्धी पर पधारे, झंडा फहराया और लाल मैदान को पीला मैदान बनाने की घोषणा की। लेकिन ‘दैनिक दुकान’ ने घोड़ों के फोटो छापे, और लिखा कि ‘लाल मैदान की ओर जाते घोड़े’। लाल मैदान से ‘दैनिक दुकान’ को भले ही चिढ़ हो पर घोड़ों से प्यार है। घोड़े न हों तो उसकी खबरें ही नहीं बनें। अक्सर वो घोड़ों को सूत्र कहते हैं। जो घोड़े राजा को ढ़ो रहे हैं वे दरअसल वे कई दुकानों का जरूरी हिस्सा भी हैं। आमजन इन्हें लग्गू के नाम से जानते हैं । यदि व्यवस्था बघ्घी है तो लग्गू उनके घोड़े हैं। ऐसे में खबर बघ्धी की हो तो घोड़ो का महत्व ‘सवार’ से ज्यादा हो जाता है। यहां ‘शर्तें-लागू’ हैं, यानी घोड़ा वही जो बघ्धी में लगा हो, बाकी को आप कुछ भी मानने के लिए स्वतंत्र हैं, गधा तक। 
                       तो असल बात लगने या लगे रहने की है। व्यवस्था कोई भी हो, कामयाब वही होते हैं जो लगे रहते हैं। सच्ची बात तो यह है कि कामयाबी लता की तरह होती है और समझदार को ठूंठ की तरह उससे लगा रहना पड़ता है। एक बार अगर ठूंठ ठीक से लग जाए तो लता के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता है। लता की मजबूरी ही सफलता है। अब लगे रहने को देखें तो यह इतना आसान काम भी नहीं है कि आए और लग लिए मजे में। बिना ठूंठ हुए आदमी कहीं लग भी नहीं सकता। दिक्कत यह है कि दुनिया ठूंठ को ठूंठ मानती है और लगे हुए को लगा हुआ। दोनों ही मामलों में तिरस्कार की भावना प्रधान होती है। समझो कि आग का दूसरा दरिया है और इसमें भी डूब के ही जाना है। एक तरह की बेशरम जांबाजी की जरूरत होती है। लेकिन उम्मीद एक बहुत पौष्टिक चीज है, वह जानता है कि एक बार लता लिपट गई तो वह भी उपर से नीचे तक हरा ही हरा है। तो भइया आप समझ ही गए होंगे कि आजकल  इतिहास वही बनाते हैं जो ठूंठ या घोड़े होते हैं। 
                            लाल मैदान के पीछे आज एक समारोह हो रहा है जिसके मुख्य अतिथि वे हैं जो किसी जमाने में रेल्वे स्टेशन  पर कविता करते हुए काला दंत मंजन बेचते थे। मंजन पता नहीं कहां गया पर कविता ने उन्हें मंच दिखा दिया। लगे रहे तो मंच भी सध गया, वे एक बार डायस पकड़ लें तो श्रोताओं के साथ माइक भी पानी मांगने लगे। आयोजकों पर बीतने लगी तो उन्हें मुख्य अतिथि बना कर बैठा देने की युक्ति आजमाई गई। अब वो बाकायदा आदरणीय है, साहिबे महफिल है, माला पहन रहा है। वह हराभरा है और भूल जाना चाहता है कि असल में वह ठूंठ है। ठूंठ को आड़ा पटक कर जब चादरें चढ़ाई जाने लगती है तो वह पीर मान लिया जाता है, लोग उससे मन्नतें तक मांगने लगते हैं। प्रेक्टिल आदमी सफलता इसी को कहते हैं। 
                           लगना या लगे रहना एक बहुआयामी साधना है। जैसे रेडियो या टीवी सेट में कई चैनल लगे होते हैं उसी तरह एक लग्गू भी कई मोर्चों पर लगा रहता है। जैसे कोई मंत्री के साथ लगा और मीडिया के साथ भी लगा है। लोग ताड़ नहीं पाते कि मंत्री के साथ लगा है इसलिए मीडिया से लगा है या मीडिया से लगा है इसलिए मंत्री से लगा है। प्रतिभाशाली लग्गू मंत्री से ज्यादा काम का होता है, इसमें अब कुछ भी रहस्यपूर्ण नहीं है। मंत्री तो बस एक मूरत है, लग्गू पुजारी है। मूरत को तुलसी के पत्ते पर भोग लगता है, चढ़ावे की थाली पुजारी को मिलती है। लगा रहे तो लग्गू इतना ताकतवर हो जाता है कि जिसके सिर पर हाथ रख दे वो भस्म। नहीं क्या ?
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मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कदम कदम, पदम पदम !

                 
 गुरूदेव ने मेरा हाथ पकड़ा और खेंचते हुए सीढ़ियों तक ले गए, बोले- ‘‘ बस बारहवीं मंजिल तक चढ़ जाओ एक सांस में ..... फिर देखना, तुम्हारे हाथ क्या लग जाता है।’’
                  सोच में पड़ा देख वे जान गए कि ये प्राणी अल्पज्ञानी है। इधर मैं डर रहा था कि इतनी उपर चढूं और किसी ऐसे के हथ्थे चढ़ जाऊं जो उपदेश  देते हुए बारहवीं मंजिल से नीचे फैंक दे तो भविष्य  के साथ अतीत भी गया समझो। अरमानों का चौबे जब गिरता है तो कई बार दूबे भी नहीं रहता। बंधी मुट्ठी लाख की और चढ़ गए तो खाक की। संकोच में देख बात साफ करने के लिए वे फुसफुसाए, -‘‘ उपर पद्मश्री है, लपको वत्स, ..... कोई बुला कर नहीं देगा अब। इंतजार करोगे तो आरजू में ही कट जाएगी बची हुई भी । बढ़ा के हाथ जिसने उठा लिया, जाम उसका है। संत भी संकेत कर गए हैं कि ‘अप्प दीपो भव !’ वरमाला भी बहुत प्रयास के बाद गले में पड़ती है। समय की जरूरत है कि आदमी स्वयंसिद्ध होना चाहिए। गांधीजी भी कह गए हैं कि व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना चाहिए। जो काहिल होते हैं वही दूसरों से आशा  रखते हैं। ’’
                    मैंने हाथ जोड़ दिए, -‘‘ आप की बातें सही हैं गुरूवर, लेकिन मैं पद्मश्री के योग्य नहीं हूं।’’ 
                ‘‘ इसीलिए तो !! ...... इसीलिए कह रहा हूं सीढ़ियां चढ़ो। जो योग्य नहीं होते हैं सीढ़ियां उन्ही के लिए होती हैं। योग्य तो सक्षम होते हैं, वे पीछे की पाइप लाइन पकड़ कर चढ़ जाते हैं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, कीमत चुकानी पड़ती है। यही आज के समय का रिवाज है, इसलिए विलंब मत करो वत्स, पद्मश्री की पोटली लिए ‘वह’ अभी बारहवीं मंजिल पर बैठा है पता नहीं कब ताव या भाव खा जाए और बीसवी मंजिल पर जा बैठे तो !! ’’
                    ‘‘क्या यह शर्मनाक नहीं होगा गुरूदेव ?!’’
                  वे बोले - ‘‘ जिसने की शरम उसके फूटे करम। हर सुख के पहले शरम रास्ता रोकती है किन्तु वीरपुरुष रुकते हैं क्या ? शरम है क्या ! मिथ्या आवरण ही तो। विद्वान कह गए हैं कि सार सार गह ल्यो, थोथा देओ उड़ाय। समाज समृद्धि और सफलता की सराहना करता है बिना यह देखे कि इन्हें प्राप्त कैसे किया गया है। चलो, अपने पायजामें को उपर खेंच कर कमर में खोंसो और अपने पद श्री की ओर बढ़ाओ। ’’ 
                      ‘‘ बात ये है गुरूदेव कि आज के युग में कौन किसी को इज्जत देने के लिए पद्मश्री देखता है। बल्कि मुझे तो यह लगता है कि इससे तो मित्र भी अमित्र हो जाते हैं।’’ मुझे नहीं मालूम कि पद्मश्री में व्यवस्था क्या क्या ले लेती है और क्या टिका  देती है। 
                   ‘‘ हे संदेही नर, तुम्हारी बात किंचित सही भी है। दो पद्मश्रीवान एक दूसरे को सम्मान की दृष्टि  से नहीं देखते हैं क्योंकि वे ‘जानते’ हैं। नेता, अधिकारी और कुछ औद्योगिक घराने भी ‘जानते’ हैं। किन्तु तुम क्यों भूल जाते हो कि यह सवा सौ करोड़ लोगों का देश है जिनमें से नब्बे प्रतिशत लोग नहीं ‘जानते’ हैं। अज्ञानतावश  वे तुम्हारी भी  इज्जत कर सकते हैं, संभावना अनंत है। सफल व्यक्ति प्राप्ति उजागर करता है प्रक्रिया नहीं। अब चलो, बहुत हो गया। ’’
                     ‘‘गुरूवर, यदि उन्होंने सीसीटीवी के फुटेज दिखा दिए और सरे- नागपुर मुझे डस लिया तो !!’’
                      वे बोले, - ‘‘ चिंता मत कर चेले, अगर चुनाव न हों तो उनके बयानों पर कोई ध्यान नहीं देता है।’’ नेपथ्य से आवाज आने लगी, ‘ कदम कदम, पदम पदम, ......  कदम कदम, पदम पदम, चढ़ चढ़ अमर,  डर मत, हसरत कर,  पदम पर नजर रख, चल चल  अमर’।
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रविवार, 27 दिसंबर 2015

आमआदमी के कंधों पर सवारी

                          अखबारों में सुर्खियां लगी कि वे आमआदमी की तरह ‘पेश ’ हुए हैं।  वे बताना चाहते हैं कि आमआदमी मासूम होता है और उसकी पेशी  अकारण होती रहती है और यही उनके साथ हुआ है। वे भोले हैं, उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं, उनका पिछला रेकार्ड देखा जा सकता है, वे कुछ करते ही नहीं। वे मानते हैं कि उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। जितना पहले वालों ने कर दिया वही उनके लिए बोफोर्स है। इसी से देश को मान लेना चाहिए कि लोगों ने षडयंत्र पूर्वक उन्हें फंसाने की कोशिश  की है। जिस तरह आमआदमी पर अत्याचार होते हैं और उसकी कोई सुनता नहीं है उसी तरह की पीड़ा से वे भी गुजर रहे हैं। खूब ना नुकुर की मगर जबरिया पेशी  हो गई। इससे बड़ी असहिष्णुता भला क्या होगी ?
                    आमआदमी की ‘तरह’ वाली इस बात में जब कुछ खास नहीं है  तो यह खबर बनी क्यों ! क्या उन्होंने पेश  हो कर न्यायालय पर कृपा की !? कहीं उन्होंने यह उम्मीद तो नहीं लगा रखी थी कि जमानत का नजराना लिए न्यायालय खुद पेश  होगा उनके दरबार ! वे ऐसा क्यों जताते रहे कि न्यायालय ने खुद जुर्म कर दिया है उन्हें पेश  होने का आदेश  दे कर !! या ये उम्मीद रही होगी कि देश  की सवा सौ करोड़ जनता उनके पक्ष में खड़ी हो जाएगी हाय हाय करते हुए। वक्त जरूरत सब करना पड़ता है, किया ही  है  राजनीति में। मन मार कर किसी गरीब के घर रोटी भी तोड़ना पड़े तो तोड़ी  हैं। अपनी उबकाई रोकते हुए अधनंगे सेमड़े बच्चे को उठा कर चूमना पड़े तो चूमते ही हैं, लेकिन ऐसे वक्त की उम्मीद में ही।  प्रजा विश्वास  पर चलती है प्रमाण पर नहीं। वे चाहते हैं कि माहौल बने और न्यायव्यवस्था प्रजा की भावना का न केवल सम्मान बल्कि अनुकरण भी करे। मीडिया कह रहा है कि जमानत का जश्न  मनाया जा रहा है ! जबकि  वे चाहते रहे  कि एक बार वातावरण बन जाए तो हल्दीघाटी मचा के रख दें। 
                       अब मुद्दे की बात, अदालत तो अदालत है, उसके सामने आम क्या और खास क्या। जब पेशी  है तो है, नखरों की गुंजाइश  पार्टी की अदालत में हो सकती है वहां नहीं। वैसे किसी खास को जब पेश  होना पड़ता है तो वह आमआदमी की ‘तरह’ ही पेश  होता है। आजकल खीजे हुए पुलिस वालों का कोई भरोसा नहीं, वे अपनी वाली पर आ जाएं और किसी खास को नहीं पहचानें । इसलिए आमआदमी होना किसी मायने में सुरक्षित होना भी है, हाथ जोड़ो और निकल्लो चुपचाप। आपने देखा होगा कि ऐरेगैरे और चोर उचक्केे पेश  होते वक्त विक्ट्री की दो अंगुलियां दिखाते हैं, मुस्कराते हैं, जिससे अक्सर लोगों को उनके खास आदमी होने का भ्रम होता है। ऐसे में खास आदमी की तरह पेश होना जोखिम भरा भी है। इधर खास आदमी जब आम आदमी बनता है तो अपनी कालिख सब में बांट देता है। राजा काना हो तो आम जन को एक आंख ढंकने के लिए कह कर अपने कानेपन में वह सबको शामिल कर सकता है। लेकिन लोकतंत्र में दिक्कत यह है कि आदेश  केवल न्यायालय दे सकता है और वह भी पेशी  का। आमआदमी के नेहरू चाचा होते हैं , और खास आदमी के नाना-परनाना, तो आमआदमी से उनके घर के संबंध हुए, ..... अड़े-भिड़े में हक तो  बनता ही है। तरह तरह से पेश होने में उनकी मास्टरी भी है। चुनाव पूर्व जो राजा की ‘तरह’ जीवन जीते हैं चुनाव में वे सेवक की ‘तरह’ पेश  आने लगते हैं। खैर, आप दिल पर मत लेना, बड़ी बड़ी कोर्टों में इस तरह की छोटी छोटी बातें होती रहती हैं। वे जफ़र से बड़े बदनसीब तो कतई नहीं है।
                                                                         
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बुधवार, 25 नवंबर 2015

एक असहिष्णु ट्रांजिस्टर के लिए

                   
   इधर असहिष्णुता का राग बजा और उधर तमाम कला प्रेमी  झूमने लगे। इनमें से अधिकांश  को असहिष्णुता का मतलब भी नहीं मालूम है। लेकिन इससे क्या, मतलब तो उन्हें और भी कई चीजों का नहीं मालूम है जैसे अश्लीलता, हिंसा, बलात्कार, नैतिकता, शिष्टता वगैरह। लेकिन सब चल रहा है, देश  ने कभी कोई किन्तु-परंतु नहीं किया। जो परोसा उसे आत्मसात कर लिया भले ही इसके परिणामस्वरूप पुलिस के डंडे ही क्यों न खाने पड़े हों । मां-बहनों की इज्जत के लिए जब तब घरना प्रदर्शन  करना पड़ा तो किया, सरकार को कोसा, पुलिस को गरियाया पर कलाकारों के सामने हमेशा  बिछ बिछ गए। जनता का कोई भरोसा है, जिसे सिर चढा ले उसे आसानी से उतारती नहीं है चाहे जूं की तरह खून ही क्यों न पीता रहे। 
                    एक ‘इडियट प्रेमी’ अभी उठ कर गए हैं, बोले - ‘‘मामला समझ में नहीं आ रहा है यार ? आमिर को किसी ने भड़का दिया वरना वो ऐसा आदमी नहीं है। ’’
                    ‘‘ हां लगता तो यही है कि किसी के बहकावे में आ गया है। मौसम खराब चल रहा है, जनता तक थोक में बहक रही है तो यह भी हो सकता है।’’
                        वे बोले - ‘‘ मुझे तो लगता है कि बीवी जब सीधे सीधे कहे कि उसे विदेश  घूमना है तो उसकी बात मान लेना चाहिए वरना दिक्कत हो जाती है। दो-दो तीन-तीन शादी करने के बाद भी कलाकार औरत के मन की बात समझ नहीं पाएं तो उनके नंबर कटना चाहिए। क्या कहते हो ?’’
                      ‘‘ बात में दम है भई, औरतें अपने मनोभाव अनेक तरीके से व्यक्त करती हैं लेकिन आज तक किसी मेनेजमेंट कोर्स में इस जटिल विषय को पढ़ाया नहीं गया है। सुना है भगवान भी आनी देवियों को समझ नहीं पाए और हमेंशा  उल्लू बनते रहे हैं।’’
                       ‘‘ मेरी बीवी अगर यह कहती तो मैं उसकी नहीं सुनता, भले ही वह मुझे असहिष्णु कहती ।’’ उन्होंने अपनी मूंछों वाले स्थान पर हाथ फेरते हुए कहा। मैंने कहीं पढ़ा था कि दुनिया के सारे पति असहिष्णु होते हैं इसीलिए सहिष्णुता की पूर्ति के लिए कुछ बेचारी स्त्रियों को प्रेमी भी रखना पड़ते हैं। 
                        ‘‘ सारा देश  इस समय यही सोच रहा है कि आमिर आखिर चाहते क्या हैं, उन्हें परेशानी क्या है !?’’
                       कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोले-‘‘ मुझे लगता है कि मामला सिर्फ एक ट्रांजिस्टर का है। एक बार देश  को डपट लें, जनता में हीन भावना भर दें, लोग सहम जाएं तो फिर अगली फिल्म में वो ट्रांजिस्टर भी हटा लें। पिछली बार ट्रांजिस्टर इसीलिए थामना पड़ा था कि डायरेक्टर बार बार यही कह रहा था कि देश  में इतनी सहिष्णुता नहीं है, थामे रहो। अब एक बार आश्वासन  मिल जाए, सरकार कह दे, विरोधी कंधे पर उठा लें तो उनका एक सपना पूरा हो जाए। ट्रांजिस्टर का जमाना वैसे भी खत्म हो गया है, अब मोबाइल फोन इस्तेमाल हो रहा है। एक बार माहौल बन जाए तो फिर मोबाइल की भी क्या जरूरत रह जाती है। तुम्हारा क्या खयाल है ?’’ 
                     ‘‘ आपकी बात में दम तो है। भारत अभी इतना गरीब नहीं हुआ है कि एक ट्रांजिस्टर के कारण उसकी सहिष्णुता संदेह के दायरे में आ जाए।’’ 
                      हमें आमीर को आश्वस्त  कर देना चाहिए कि वे पूरी उदारता से, खुल कर आगे आएं। शरम का तो खैर कोई सवाल ही नहीें है, कलाकार हैं सो होना भी नहीं चाहिए। आपको जैसी जितनी सहिष्णुता चाहिए उतनी यहीं मिलती रही है, और मिल जाएगी। देश  में हज्जारों लोगों के तन पर कपड़ा नहीं है, एक आप और दिख गए तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा। देवी देवताओं की तो खुद उनके भक्त ही परवाह नहीं करते आप जैसा कोई खिल्ली उड़ाए तो किसीने पहले भी माइंड नहीं किया है। अच्छे पति बनो और दोनों कानों का इस्तेमाल किया करो, यानी एक कान से सुनो जरूर लेकिन दूसरे का उपयोग भी किया करो...... । तो आमीर, ..... यहीं रहो भाई, जितनी सहिष्णुता यहां हैं वो कम नहीं है।  
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शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

दो पेसल, कड़क मीठी

                             
    ‘‘देखो बाऊजी बुरा नी मान्ना, बात भोत बारीक हे, पेले समजना आप ....... नितो कल को केओगे कि ताने मार्ते हो। समजना आप ..... सई बात हे कि आज की डेट में साहित-वाहित की तो बाती कन्ना बेकार हे। सुबे से साम तक आदमी को दम्मान्ने की-बी फुरसत नी हे एसे में किताब पड़ेगा कोन ?! बुरा नी मान्ना, आप लिख्ते-विख्ते हो, ... अच्छई लिख्ते होवगे, पर आपको पूछत्तई कोन हे ?! मोल्ले के लोग बी नी जान्ते होएंगे कि आप जिन्दा हो कि मर गए। ... नी, .... बुरा नी मान्ना बाऊजी ..... आप्ने बात निकाली तो बोल्ने में आ गया। सई हे कि नी ?’’
                       ‘‘बाऊजी जमाना खराब हे,  बुरा मत मान्ना, बात बिल्कुल सई हे। हम लोग ठहरे हिन्दी वाले, ठीक हे कि नी। आप जान्ते हो कि हिन्दी वाले काम धंधे वाले होते है और काम धंधे का मतलब तो आप जान्ते-ई हो। जिसमें पैसा नीं मिले संसार में वो काम, काम-ई नीं है। हिन्दी वाले काम कर्ते  हैं और देस की तरक्की में लगे पड़े हैं जीजान से। इसलिए हमको न साहित-वाहित से कुछ लेना देना है ना किताबों से। सुबे से साम तक मेनत कर्ते  हैं, पेसा कमाते हें। बहोत टेंशन हो जाता है, तबेत तक ठीक नीं रेती हे, डाक्टर होंन के पास हर दूसरे दिन जाना पड़ता है। दिन भर दवाएं खाना पड़ती है, बीच में टेम निकाल के थोड़ा खाना भी खाना पड़ता है वर्ना घर की औरतें चिंता में पड़ जाती हें। आपी बताओ ऐसे में कौन-सी किताब और कां-का साहित-वाहित !? हम मराठी या बंगाली तो हें नीं कि धूप में बैठे किताब होन में फोकट माथा फोड़ते रहें। हर हप्ते अपने सीए से माथाफोड़ी करने के बाद तो आदमी में कुछ कन्ने की ताकत रे-ई नीं जाती है सिवा टीवी टूंगने के। उसमे बी कुछ समज में नी आता हे। 
                  हमें मौन देख कर वे फिर बोले - ‘‘ आप तो चुप-ई  हो गए !!  एसा हे कि, बुरा नी मान्ना ...... हम्म लोग जिम्मेदारी ले-के चलने वाले लोग हें। बाल-बच्चे ले-के बेठे हें। उन्की तरफ भी देखना-ई पड़ता हे। पड़ने-लिखने में तो कुछ नी धरा हे, पर ब्याव-सादी तो समाज के हिसाब से-ई कन्ना पड़ती हे। आज की डेट में गिरी से गिरी हालत में सादी का खर्चा पंद्रा लाख से उप्परी जा रिया हे। ....  बुरा नी मान्ना .... आपको क्या हे ...... कोन पूछता हे !! .... पर हम्को तो समाज में उठना-बेठना पड़ता हे .... किताबों में टेम बरबाद कन्ना हम्को पुसाता थोड़ी हे। दुन्यिा में आएं हें तो दुन्यिादारी तो रखना -ई पड़ती हे। ’’
                         एक छोटा विराम ले कर वे फिर शुरू हुए, - ‘‘ चाय-वाय पियोगे आप ? .... इच्छा नीं होए तो कोई बात नी।  वेसे-ई पूछ लिया आप बेठे हो तो। ..... बुरा नी मान्ना, .... वेसे-ई जान्कारी के लिए पूछ-रा हूं कि एक लेख के कित्ते पेसे मिल जाते हें आपको ?’’
                   ‘‘ ज्यादा नहीं, .... पांच सौ से हजार तक मिलते ही हैं।’’ हमने जरा बढ़ा कर बताना जरूरी समझा, कुछ अपनी इज्जत के लिए कुछ पत्र-पत्रिकाओं की। 
                     वे चौंके, - ‘‘ बस पान सो रुपिये !! इस्से जदा तो मंडी के हम्माल कमा लेते हें ! हम्माल तो ठीक हें, आजकल मंगते होन पान सो से जादा बना लेते हें मजे में। ..... पर आप बुरा नी मान्ना .... एक रिफिल से कित्ते लेख लिख लेते हो आप ?’’
                      ‘‘ चार-पांच तो हो जाते हैं आराम से । ’’
                    ‘‘ एं !! एक रुपे की रिफिल से दो ढाई हज्जार बना लेते हो !! धंधा तो ठीक हे। ..... पाटनरी करते हो ? रिफिल तुमारी कागज हमारे ....... फिप्टी फिप्टी ...... बोलो ? ....... चलो चालिस-साठ कल्लो ....... नईं ? ……  एं ?  …… चाय पियो, मंगवाता हूं । ’’
                   उन्होंने आवाज लगाई , ‘‘ए छोरा ...... दो पेसल बोल कड़क मीठी ।’’ 

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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

शेरों ने लौटायीं हड्डियाँ

             
   शेर नाराज हो गए। नाराज होना और नाराज बने रहना शेरों का काम है। नाराज नहीं हो तो शेरों को कोई शेर न कहे। पहचान की इस चिंता के कारण बेचारे शेर प्रायः मुस्कराते भी नहीं है। लेकिन जब कोई शेर हंसता दिखाई दे जाता है तो उसके कई मायने होते हैं जिन्हें वही शेर समझ पाते हैं जो पहले हंस चुके हैं। हंसी का यह रहस्यवाद एक किस्म की साझेदारी से जुड़ा हुआ है। शेरों की हंसी एक तिलस्मी संघर्ष की हंसी है, यह बेताल की लंबी कथा के अंत की हंसी है। हजारों बरस उनका चमन अपनी बेनूरी पर रोता है तब कहीं पैदा होता है हंसी का सबब कोई। लेकिन आज याद आया कि वे तो शेर हैं इसलिए थोड़े समय के लिए उन्हें बाकायदा नाराज भी होना चाहिए। बहुत सोच विचार के बाद कुछ शेरों ने तय किया कि वे अपनी हंसी लौटाएंगे। उनकी हंसी जंगल की खुशहाली का प्रतीक क्यों हो। अगर अभी नहीं लौटाया तो इतिहास उन्हें हंसीखोर के रूप में दर्ज कर सकता है। सो जोरदार दहाड़ों के साथ इस बात की घोषणा हुई कि शेर अपनी हंसी लौटा रहे हैं। जंगल को समझते देर नहीं लगी कि फिर कोई शिकार हुआ। दाढ़ में एक बार खून लग जाए तो यह क्रम रुकता नहीं है। जल्द ही तमाम दूसरे शेर भी मुंह में अपनी अपनी हंसी दबाए जुट गए। हंसी लौटाने की होड़ सी लग गई। जंगलटीवी ने इसे हंसी लौटाने का मौसम घोषित किया और अपनी टीआरपी में बदल लिया। शेर बयान दे रहे हैं, बहसें कर रहे हैं, दुम उठा रहे हैं कभी पंजे पटक रहे हैं। फोटो छपा रहे हैं, लाइव टेबल ठोंक रहे हैं। जो भुला दिए गए थे अब टीवी पर उनके दांत गिने जा रहे हैं। हंसी ले गए थे तब कितने थे, आज जब लौटा रहे हैं तो कितने हैं। जुबान में तब कितना लोच था, अब कितनी बेलोच है। हंसी कोरी ‘ही-ही’ नहीं है और भी बहुत कुछ है। लेते समय रोम रोम हंसी के साथ था, लौटाते समय अकेली अबला हंसी है। ये हंसी वो नहीं है वनराज, वो तो आप हंस चुके। हड्डियां लौटा कर आप हिरण लौटाने का श्रेय नहीं ले सकते। लेकिन शेर सुनने को तैयार नहीं।
                    इधर चर्चा यह भी है कि शेर किसी विचारधारा के लपेटे में  आ गए हैं। विचारधारा एक तरह का अभयारण्य है। वे उंची जालियों वाली एक हदबंदी में कैद रहते हैं और उन्हें इस कैद की आदत हो जाती है। हालांकि शेरों को भ्रम रहता है कि वे आजाद हैं। उन्हें लगता है कि जो जालियों के पार हैं दरअसल वे कैद हैं। इसलिए वे जालियां फांदने की सोचते भी नहीं हैं। तमाम लोग उन्हें देखने आते हैं, फोटो खींचते हैं, फिल्म भी बनाते हैं। उन्हें लगता हैं कि वे लोकप्रिय हैं, नायक हो जाने का भाव भी जाग ही जाता है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। अनेक शेरों ने अपनी गुफा में बैठ कर बकरगान किया है और बकरियों की कौम में आशा  की किरण पैदा की है। शेरों का यह छोटा काम नहीं है, इसीका ईनाम हंसी है। 
                       कुछ शेरों को सर्कस में भी अवसर मिला। यहां पिंजरा है लेकिन लंच-डिनर की अच्छी व्यवस्था है। थोड़ी बहुत कलाबाजियां करना पड़ती हैं लेकिन भागदौड़ नहीं है। यहां लाइम-लाइट है, कालीन, कुर्सियां हैं, संगीत है तालियां हैं। हां, ..... चाबुक भी है, लेकिन यू-नो, अनुशासन सर्कस की प्राथमिकता है। और यह याद रखने के लिए कि एक रिंग मास्टर है। सर्कस के हुए तो भी क्या हुआ, शेर आखिर शेर हैं, हर शो  में वे भी हंसते हैं। हंसी का ईनाम इधर भी है। 
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बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

घोड़ा और राजकुमार

               
    रियासत परंपरापुर में इस समय हर कोई सदमे में चल रहा है। एक राजकुमार कब से मायूस  बैठा है म्यान में चांदी  की तलवार लिए। उसे न कहीं से ललकार सुनाई दे रही है और न ही कोई मैदान दिखाई दे रहा है कि मार लें फट्ट से। सरकार, जो कि अब सत्ता में नहीं है लेकिन अब भी अपने को आदतन सरकार मान रही है, बुरी तरह से चिंतित है कि आखिर राजकुमार की भूमिका कैसे तय हो। खुद राजकुमार मारे असमंजस के यहां से वहां हो रहा है लेकिन नतीजा जो है सामने नहीं आ रहा है। कुछ करे तो हाथ उठा देते हैं लोग और नहीं करे तो अंगुली। बिन सरकार के मंत्री लोग मीडिया के डर से अंदर ही अंदर प्रार्थना कर रहे हैं कि हे ईश्वर  राजकुमार को जल्द से जल्द काबिल बनाए ताकि उन्हें जंगल लुट जाने से पहले आखेट के लिए आगे किया जा सके। सारे सिपाही बल्लम-भाले लिए तैयार खड़े हैं। राजकुमार एक बार घोड़े पर ठीक से बैठना सीख लें फिर तो समझो शेर मार ही लेंगे। हाथ में बंदूक लिए शेर पर पैर रखे उनका फोटो जब अखबार में छपेगा तो जनता को मानना पड़ेगा कि वे खानदानी शिकारी हैं। लोकतंत्र का असली मजा वे ही उठाते हैं जो अपनी एक छबि बनाने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन यहां दिक्कत ये है कि राजकुमार को घोडे़ पर चढ़ना ही नहीं आता है। एक दो बार कोशिश  की तो पटखनी खा गए और मामला कमबख्त छबि में दर्ज हो गया। बेचारे जब भी हुंकार मारने की कोशिश  करते हैं तो श्याणी  जनता खी-खी करने लगती है। पार्टी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर इस राजकुमार का करें क्या ! छोड़ दें तो पार्टी बिखर जाएगी और लाद लें तो डूब जाएगी। 
                              बहुत सोचने के बाद एक जर्जर बूढ़े किस्म के वरिष्ठ नेता ने सुझाया कि उसे बिना घुड़सवारी के ही शिकारी घोषित कर देना चाहिए। मम्मी तो मान ही गई थी, लेकिन डर मीडिया का भारी है, वो भी आजकल ‘जिधर बम, उधर हम’ की नीति पर चल रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ जाएगा और राजकुमार से बार बार पूछेगा कि लगाम घोड़े की दुम में लगती है या मुंह में । और राजकुमार को तब तक रगड़ेंगा  जब तक कि उनकी कलाई ना खुल जाए। पार्टी की कोशिश  यह है कि सच्चाई सामने ना आए और आवाम राजकुमार को महान शिकारी मान ले। बस एक बार मान ले फिर तो इतिहास में दर्ज करके पीढ़ियों तक यही पढ़ाते रहेंगे। 
                                कहते हैं कोशिश  करने वालों की हार नहीं होती। पार्टी के लोग हिरण के कान काट कर ला रहे हैं लेकिन राजकुमार उन्हें देख कर हकलाने लगता है। चूंकि पार्टी के पास फिलहाल कोई काम नहीं है इसलिए प्रयोग पर बल दिया जा रहा है। पूरी पार्टी प्रयोग में भिड़ी है और दनादन बयान दे रही है। कुछ वरिष्ठ जो अनुभवी भी हैं, कह रहे हैं कि राजनीति के जंगल में शिकारी को खादी पहनने से बड़ा लाभ होता है। जंगल के प्राणी खादी देख कर मान लेते हैं कि आने वाला अहिंसा और गांधीजी का पुजारीनुमा कुछ है। इस चक्कर में वे बड़ी आसानी से शिकार हो जाते हैं। पैंसठ सालों से खादी शिकारियों को मुुफीद पड़ती रही है। लेकिन दामन में दुर्भाग्य हो तो जनता समझदार हो जाती है। प्रयोग के तौर पर राजकुमार को खादी पहना कर जंगल में भेजा गया लेकिन गरीब की झोपड़ी में दो रोटी से अधिक कुछ नहीं मिल सका। सुना है राजकुमार को वो भी हजम नहीं हुई।
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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

साहित्य का शेयर बाज़ार

                         
    एक लंबी चुप्पी के बाद वे बोले - ‘‘देखो भाई, ...... साहित्य का संसार एक अलग किस्म का यानी सुपर मायावी संसार होता है। यहां पाना तो पाना है ही खोना भी पाने से कम नहीं है। जब ‘लिया’ जाता है तब बहुत कुछ ‘प्राप्त’ होता है और जब उसे लौटाने की घोषणा की जाती है तब भी बहुत कुछ प्राप्त होता है। जैसे शेयर मार्केट में एक चतुर व्यापारी मुनाफे में शेयर खरीदता है और जब उसे बेचता है तब भी मुनाफा प्राप्त करता है। साहित्य में इस प्रवृत्ति को कला कहते है। कलाजगत में चतुराई शब्द बोलना वर्जित है। यहां जो होता है वो नहीं होता, और जो नहीं होता है वो होता है, और जो भी गरिमाहीन होता है वो गरिमा के साथ होता है। इसे समझने में अपनी ऊर्जा बरबाद करने से अच्छा यही है कि जो हो रहा है उसे आंख बंद करके देखो, बिना दिमाग लगाए उस पर चर्चा-बहस करो, जरूरत पड़े तो लठालठी कर पड़ो। महौल ऐसा बने कि ‘हम लेखक भी कुछ हैं’। ’’ बाज़ार 
                          बात दरअसल यह है कि इधर अखबारों ने लिखा कि वे अपना समेटा हुआ लौटा रहे हैं। अब चूंकि घोषणा है तो हर कोई मान रहा है कि वे सचमुच लौटा रहे हैं। अखबार में उनकी हाथ उठाई तस्वीर देख कर माहौल बना कि मानो लौटा ही दिया है। कुछ लोग चिंतित होते हैं कि ‘अरे उन्होंने लौटा दिया, अब जाने क्या होगा !!’ वे समझ नहीं पाते कि जिसे प्राप्त करने में कितने गुणा-भाग किए गएं, उसे इतनी आसानी से कैसे लौटा दिया बिना हिसाब-किताब के !! लेकिन कहा ना, यहां जो होता है वो नहीे होता और जो नहीं होता वो होता है। कुछ मजबूर उनके पीछे पीछे चल पड़ते हैं और वे भी अपने शेयर वापस निकाल देने की घोषणा कर देना पड़ती हैं। मुनाफा किसे बुरा लगता है। 
                            घर में पत्नी और बच्चे कहते हैं कि शेयर यहां रखे थे तो कितना भरा भरा लगता था। निकाल दिए तो कितना खाली खाली लग रहा है। कलाकार उन्हें समझाता है कि शेयर रखे रखे दूध तो नहीं दे रहे थे। मुनाफा बड़ी चीज है, ऐसी चीजें मौकों-झोंकों पर ही काम आती हैं। जब प्राप्त किया था तब इतनी हलचल नहीं हुई थी। मीडिया में देखो कितनी चर्चा है हमारी, अखबार काले हुए जा रहे हैं हमारे कारनामे से, साहित्य का संसार कुरुक्षेत्र हो रहा है। अनेक कलमवीर खेत रहे हैं। कोई धृतराष्ट्र किसी संजय से सारे हाल सुन रहा है। वरना हम पर तो खासोआम का ध्यान ही नहीं था। यहां तक कि मार्निंग वाक पर जाओ तो दो-ढाई नमस्ते के लिए भी तरस जाते थे। अब देखो, सुबह से शाम तक फोन बज रहा है, तुनक तुन तुन। साहित्यकार सब कुछ कीर्ति के लिए ही करता है। कीर्ति विहीन जीवन की कल्पना से ही उसके प्राण सूखने लगते हैं। सोचो जब कभी उसके बारे में लिखा जाएगा तो पाने से ज्यादा महानता खोने की बखानी जाएगी। वैसे भी सम्मान समाज का कर्ज होता है। यदि उस कर्ज को उतार पाना संभव नहीं हो रहा हो तो लौटा देना अच्छा है। रहा सवाल उस खाली दीख रही जगह का, तो थोड़ी प्रतीक्षा करो। हमें सम्मान सृजित करना भी आता है। एक लौटा रहे हैं तो चार ले कर आएंगे। सर सलामत हो तो शाल-श्रीफल की दुकानें कम नहीं हैं। 

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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

गाय बीफ देती है।

         बच्चा बच्चा जान गया है कि गाय बीफ देती है। देश  बीफ का निर्यात कर बहुत सारा घन कमाता है। जिसके पास धन नहीं होता उसे गरीब कहते हैं। भारत में बहुत से लोग परंपरागत रूप से गरीब हैं। विदेशी  पर्यटक गरीब देखने के लिए बड़ी संख्या में आते हैं और ताजा बीफ भी खाते हैं। बीफ और गरीबी हमारी विदेशी  आय का साधन है और राजनीति का भी। ये दोनों बुराई भी हैं और आवश्यक  भी। दरअसल अभी तक हम यह तय नहीं कर पाए हैं कि ये बुराई हैं या आवश्यक  हैं। इसलिए इन्हें हटाने और बनाए रखने का काम साथ साथ चलए रखते हैं। विद्वान इसे राजनीति का सौदर्यशास्त्र कहते हैं यानी भारतीय राजनीति की खूबसूरती। 
                         जो भी सरकार आती है गरीबी दूर करने के लिए कटिबद्व हो जाती है। नेता आदतन गरीबों से गरीबी दूर करने का वादा करते हैं। गाय वोट नहीं देती है इसलिए उससे कोई वादा नहीं किया जाता है। हालाॅकि गाय जानती है कि सरकार गरीबी दूर करने के लिए क्या करेगी लेकिन बोल नहीं पाती है। लोकतंत्र में जानने से ज्यादा जरूरी बोलना है। गाय को माता इसलिए कहा जाता है कि वह गरीबी दूर करने के लिए अपना सब कुछ दे देती है।  जो अपना सब कुछ दे देता है उसकी जनता पूजा करने लगती है। यह हमारी आदर्श  परंपरा है। इसके अलावा हम कुछ और कर भी नहीं सकते हैं। एक ने पूजा दूसरे ने बीफ निकाल लिया यह कितना इंसानी तालमेल है। गाय को आजतक यह बात समझ में नहीं आई है। उपर से सरकार कहती है कि सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ना चाहिए। सुन कर रूह हो चुकी गाय भी कांप जाती है। 
                           एक जानेमाने स्वनामधन्य गोपालक ने हाल ही में कहा कि हिन्दू बीफ खाते हैं। चारा खाने की बात से चिढ़ा आदमी पता नहीं कृष्ण के माखन खाने का किस तरह से उल्लेख करता। बाद में पता चला कि बीफ से उनका मतलब बिस्किट और फल से था। अभी तक दे की राजनीति मक्खन विशेषज्ञों के हाथ में खेलती रही है लेकिन अब बीफ को देख कर ललचा रही है। जो मुल्क कभी दूध पीता था मक्खन खाता था अब दारू पीता है और बीफ खने पर उतारू है। 
                        रिपोर्टर ने ब्रेकिंग न्यूज के लिए गाय से पूछा /रिपोर्टर किसी से भी कुछ भी पूछ सकता है और गाय तो जिन्दा है, उसके सामने मुर्दे भी बोलते हैं/  कि - ‘‘मैंडम करीब तीन सौ खरब रूपयों के बीफ का निर्यात आपके सहयोग से होता है। लेकिन शिकायत आ रही है कि आप प्लास्टिक की थैलियां खाती हैं जिस कारण बीफ की क्वालिटी ठीक नहीं होती है। आप प्लास्टिक क्यों खाती हैं ?’’
              ‘‘ मजबूरी है। चारा जब दोपाए खा जाते हैं तो फिर हमें प्लास्टिक खाना पड़ता है। ’’ गाय ने कहा। 
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रविवार, 4 अक्तूबर 2015

भोटर : सीना छप्पन इंची

                               
जो वोटर नहीं वो लोकतंत्र में दोपाया मवेशी  है। चुनाव नहीं होते तो वोटर भी पशु गणना से अधिक काम नहीं आते। पता करना हो कि आदमी और पशु  में क्या अंतर है तो कहा जाएगा कि आदमी वोट दे सकता है। इनदिनों हर तरफ बात बिहार की चल रही है तो अपन भी वंचित क्यों रहें। कहते हैं बिहार देवभूमि है, देवता आए और चले गए। गुणी, ज्ञानी, प्रतिभाशाली सब आए लेकिन चलते बने। रह गए तो बस वोटर। वोटर की खास बात यह है कि वह वोटर होता है। जैसे तैसे संघर्ष करते वह अठारह साल का होता है उसके हाथ में ‘भोटर-आईडी’ आ जाता है। अब वह ‘काम का’ भी है और ‘आदमी’ भी। 
                      कई प्रदेशों में वोटर वोट देने से पहले विचार करते हैं। बिहार का भोटर पहले भोट देता है। विचार करने के लिए उसके पास आगे के पांच साल होते हैं। उसका मानना और कहना है कि अगर वह पहले विचार करने लगे तो फिर वोट देना उसके लिए संभव ही नहीं है। जब वोट नहीं डालेगा तो वह वोटर भी नहीं रहेगा। लोकतंत्र में उसे कुछ मिला है तो वोटर की महान हैसियत है। पांच साल में एक बार आसमान से दिव्य-शक्तियां उतरती हैं और उसकी खुरदुरी दाढ़ी में हाथ डालती हैं, चिरौरी करती हैं, उसके आगे खींसें निपोरती हैं, हाथ जोड़ कर अद्दा-पउवा वगैरह देती हैं तो इतना मान सम्मान कम है क्या ! अगर ये ना मिले तो आम आदमी का जीवन कितना नीसर हो। वोटर हैं तो अस्तित्व है, वरना आदमी नहीं कुकरमुत्ते हैं। व्यवस्था में कोई काम के नहीं, लोकतंत्र की सड़क पर घूमने वाले आवारा श्वान । वोटर की हैसियत आदमी होने की मूल्यवान हैसियत है।
                                        जब खुदा हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है। चुनाव के वक्त वोटर का सीना भी छप्पन इंची हो जाता है। भला क्यों न हो, उसके नामुराद गालों पर नीविया चुपड़ने के लिए दसियों लोग डिब्बी लिए पीछे दौड़ने लगते हैं। उनको भी ‘शैकहैन्डवा’ का मौका मिल जाता है जिनको सदियों से कोई छूता नहीं रहा है। असली चुनाव का मजा इधर ही होता है। जिन घरों में हमेशा  रौनी रहती है वे दिवाली जुआ खेल कर मनाते हैं। असली दिवाली उनकी होती है जो अंधेरे में गुजारा करते आए हैं। चुनाव वोटर की दिवाली है। यह बात अलग है कि उसका क्या रौन हुआ, क्या खाक हुआ इसका पता बाद में चलता है।
                        अपनी आदत से लाचार टीवीमैन ने पूछा-‘‘बाबू चुनाव हो रहे हैं बिहार में, .... आपको पता है ?’’
                       ‘‘चुनाव नहीं होते तो आप लोग क्या हमारी तबीयत पूछने आए हैं ! ...... अब ये भी पूछ लीजिए कि ‘कैसा महसूस कर रहे हैं आप ?’  बिहारी ने टीवीमैन की गर्मी थोड़ी कम की।
                       ‘‘लगता है कि आप बहुत समझदार हैं! ’’
                      ‘‘बिहार का हर आदमी समझदार है। ’’
                       ‘‘ तो फिर अच्छी सरकार क्यों नहीं चुनते आप लोग !?!’’
                      ‘‘ सरकार कौन सी अच्छी होती है !? ...... जनता हमेशा  अच्छे को चुनती है पर बाद में सब ‘सरकार’ हो जाते हैं। ’’
                         ‘‘ इस बार किसे चुनेंगे ?’’ टीवीमैन ने ब्रेक्रिंग न्यूज खोदना चाही। 
                        ‘‘ इधर सब जानता है कि समोसे में आलू ही होता है और टीवी वाला बड़ा चालू होता है।’’
                        ‘‘ऐसा सुनते हैं कि आप लोग जाति के हिसाब से वोट डालते हैं ?’’ टीवीमैन ने खुदाई जारी रखी।
                         ‘‘ पहले धरम, फिर जाति उसके बाद गोत्र ..... और सबसे बड़ी बात बाहुबली ...... ’’
                          ‘‘इस तरह तो विकास नहीं हो पाएगा !’’ 
                        ‘‘ विकास !! विकास का चुनाव से क्या लेना देना ! रंगदारी बंद हो जाए, हप्ता वसूली बंद हो जाए, अपराध न हों तो बिहार का विकास हुआ समझो। ’’ 
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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

प्यून साहेब पीएचडीराम

                            जब पैदा हुए तो घर वालों ने नाम रखा जगतराम। पांचवी-आठवीं पास करा गए तो मइया-बापू को लगा कि हो ना हो जगतवा घर का नाम रौसन करेगा। जोर लगाया, भिड़ गए सब, खेती-ऊती जरूर बिक गई पर  जगतराम बीए की डिगरी लैके आ गए। सौदा मंहगा पड़ रहा था पर अब क्या करैं ! रस्ता चलता तो लौट आए, पर पढ़ालिखा आदमी पलट कर वापस गंवार तो हो नहीं सकता था। एक बार पढ़ गया तो समझो अड़ गया। तय हुआ कि अब कौनो रास्ता नहीं हैं, आगे ही पढ़ौ। जगतराम पढ़त-पढ़त पीएचडी होई गए। लौटे तो बताया कि पढ़ाई खतम, अब कुछ नहीं है पढ़ै खातिर। खेल खतम पइसा हजम। नौकरी करें तो नाम भी रौसन हो। पर नौकरी कहां रक्खी है ! इधर पब्लिक ने जगतराम को पीएचडीराम नाम दे दिया। अम्मा कहिन नाम के खातिर तो पढ़ा रहे थे, पूरे नखलऊ  में नाम तो जानो हो गया, पर नौकरी का क्या करें, नोकरिया तो अपने हाथै में नहीं है ! अरजी घिसते घिसते पीएचडीराम सब भूल गए और रेस्पेक्टेड सर से लगा कर योर ओबिडियंट तक जिन्दगी सर के बल घिसटने लगी। शुरू में बड़े पदों के लिए अर्जी भेजते फिर धीरे धीरे नीचे उतरने लगे। सोचा पद छोटा बड़ा भले हो पर कुर्सी सबमें मिलती है। 
                           तभी सरकार ने प्यून के 368 पदों की भर्ती का विज्ञापन निकाला। हिचकते हुए आखिर पीएचडीराम ने भी अपना आवेदन उधर भी दे मारा और मान लिया कि ‘यहू नोकरिया तो पक्की’। मंइया-बापू को भी लगा कि नौकरी लगी समझो और अब कोई रिस्ता आया तो ठोंक के दहेज ले लेंगे, आखिर मोड़ा पीएचडी भी है। नौकरी में पद नहीं देखा जाता है, मौका देखा जाता है। मौका मिल जाए तो अंगूठाछाप भी लाल बत्ती के नीचे गरदन तान के बैठ सकता  हैं। सरकारी गलियों में मौका शिक्षा से बड़ी चीज है। सरकारी प्यून गैरसरकारी हलके के किसी भी आदमी से बड़ा हो सकता है बशर्ते उसमें काबलियत हो। खुद सरकारी महकमें में बड़े से बड़े अधिकारी मंत्री वगैरह किसी का भी काम प्यून के बिना नहीं चलता है। प्यून तंत्र का बहुत जरूरी आदमी होता है। जहां तक जानकारी की बात है, जितना एक अधिकारी जानता है उससे कई गुना ज्यादा जानकारी प्यून के पास होती है। प्यून अगर नाराज हो जाए तो बड़े बड़ों को अपना जूठा पानी पिला कर अपनी छाती ठंडी कर सकता है। सरकारी प्यून वो बला है जो शीशे  से पत्थर को तोड़ सकता है। ...... तो तय हुआ कि पीएचडीराम अब प्यून ही बनेंगे।
                              लेकिन दुर्भाग्य, प्यून के 368 पदों के लिए 23 लाख आवेदन आ गए। एक पद के लिए सवा छः हजार उम्मीदवार !! आवेदकों में दो लाख से उपर एमए, एमकाॅम और 255 पीएचडी !! सरकार को संपट नहीं बैठ रही है कि पीएचडियों के इस पहाड़ का करें क्या ! प्योर कुकुरमुत्ते होते तो भी काम आ जाते। विश्व विद्यालयों को नोटिस भेजे जाएं और पता किया जाए कि कहीं डिग्री-चैपाटियां तो नहीं चलाई जा रही हैं। यह भी सोचा जा रहा है कि समाजवाद आ गया है या कि देश  विकसित हो गया है। समझ में नहीं आ रहा कि सरकार अच्छा काम कर रही है या उससे कहीं चूक हो रही है। 
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

जिसने बांटी, उसने आंटी’

                         
‘‘ अरे पगलों, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की बुनियाद में जब दारू-वितरण की अहम भूमिका है तो फिर दारूबंदी कौन नासमझ करेगा। कुछ बातें कहने में अच्छी लगती हैं लेकिन करने की नहीं होती हैं, कुछ करने की होती हैं लेकिन कहने में अच्छी नहीं लगतीं हैं। इसीको राजनीतिक शिष्टाचार कहते हैं। ’’ नेता जी ने समझाया।
‘‘ अब हम लोग ठहरे मूरख, शिष्टाचार के राज-रहस्य भला हमें क्या पता, वो तो क्या है नेताजी, आप वादा कर आाए हैं औरतन से कि अगर आपकी पार्टी को सत्ता मिली तो राज्य में शराबबंदी कर दी जाएगी। बात हो रई कि सरकार मर्दाना वोटरों की उपेच्छा कर रई है इसी से चिंता लग गई, और कछुु बात नहीं है। वैसे सब आपको ही वोट देंगे .... पर क्या भरोसा ना मिले तो ना भी दें। आप यहां गठबंधन में बैठे हो, .... वहां विधानसभा क्षेत्र के सारे आदमी गमजे में दुबलाए जा रहे हैं !! कोई संदेस हो तो आज नगद कल उधार कर लो। वरना एक बार गई भैंस पानी में तो फिर किनारे लगना नहीं है।’’ प्रतिनिधि मण्डल से एक बोला।
                     ‘‘ अरे पगलों, चुनावी वादे तो जुमले होते हैं जुमले। कैसे भारतीय नर हो इतना भी नहीं जानते कि औरतों से किए वादे क्या कभी पूरे करने के लिए होते हैं। शादी में सात वचन तुमही दिए हो, एक्कओं पूरा किए आज तलक ? जब तुम लोग ही वचन पूरा नहीं किए और ससुरे ‘परमेसुअर’ बने बैठे हो ठप्पे से, तो हमारे एक-ठो वचन देने से कौन सा खतरा होने वाला है ?! हम कोई परमेसुअराई तो मांग नहीं रहे तुमारी। भइया सरकार चलाना घर चलाने से जियादा मुसकिल काम है। जब घर की बुनियाद सात झूठ पर टिकी है तो सरकार की बुनियाद सम्हालते हम कितना हलकान हो जाते हैं जानता है कोई ? शास्त्रों में लिखा है कि औरतों से बोला गया झूठ झूठ नहीं होता है .... उसको समझदारी कहते हैं। ’’
                         दरअसल एक बिहारी नेता ने महिला वोटरों से यह वादा कर डाला कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा देंगे। महिलाओं का कहना था कि आदमी लोग अपनी कमाई पीने में खत्म कर देते हैं। पीयें तो पीयें, लेकिन पी कर उनके साथ मारपीट करते हैं। इसलिए वे चाहती हैं कि राज्य में शराबबंदी हो। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। लेकिन सरकार को पता है कि जो सत्ता शराब बाँट  कर हाॅसिल की जाती है उसके लिए शराबबंदी एक तरह की आत्महत्या है। साठ साल से यही हो रहा है, जिसने बांटी, उसने आंटी। 
                             हर सरकार शराब का महत्व जानती है। जल्लाद हों या हत्यारे, या फिर वोटर ही क्यों न हों, काम अंजाम देने से पहले खूब पीते हैं। जनता होशहवास में रहे तो कई तरह के खतरे पैदा हो सकते हैं। समझदार हमेशा   इतिहास से सबक लेते हैं। एक बार नसबंदी करने के चक्कर में सरकार गिरी थी तो आज तक ठीक से उठ नहीं पाई है। निजी मामलों में गरीब आदमी भी हस्तक्षेप पसंद नहीं करता है। दारू पीना उसका निजी मामला है और इसे भी वह नसबंदी की तरह ले सकता है। इसलिए जरूरी है कि माता-बहनें देशहित में थोड़ा पिट-पिटा लें। सरकार इसके लिए दूध-हल्दी और बंडू बाम का इंतजाम कर देगी। चाहोगे तो एक रुपए में ‘पति पिटाई बीमा योजना’ भी शु रू की जा सकती है।  लेकिन ये बाद की बात है, औरतें अभी माने कि शराबबंदी हो रही है और आदमी मानें कि नहीं हो रही है।

’ आंटी - किसी चीज को अपनी अंटी/अपनी गांठ में कर लेना, बांध लेना, कब्जा लेना

हिन्दी के लड्डू


                                 ‘पंडिजी’ जाहिरतौर पर हिन्दीप्रेमी हैं और छुपेतौर पर अंगे्रजी प्रेमी। ऐसा है भई मजबूरी में आदमी को सब करना पड़ता है। देश  पढ़ेलिखे और समझदार मजबूर लोगों से भरा पड़ा है। एक बार कोई मजबूरी का पल्ला पकड़ ले तो फिर उसे कुछ भी करने की छूट होती है। मजबूरी को समाज बहुत उपर का दर्जा देता है। लगभग संविधान की धारा की तरह यह माना जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। अब आप ही बताएं कि महात्मा जी नाम जुड़ा हो तो कोई कैसे मजबूर होने से इंकार करे। मजबूरी हमारी राष्ट्रिय  अघोषित नीति है। सो पंडिजी को मजबूरी में  अपने बच्चों को अंगेजी स्कूलों में पढ़वाना पड़ रहा है तो मान लीजिए कि कुर्बानी ही कर रहे हैं देश की खातिर।
                        अब आपको क्या तो समझाना और क्या तो बताना। जब आप ये व्यंग्य पढ़ रहे हैं तो जाहिर तौर पर समझदार हैं। जानते ही हैं कि हर आदमी को दो स्तरों पर अपने आचरण निर्धारित करना पड़ते हैं। रीत है जी दुनिया की, षार्ट में बोलें तो दुनियादारी है। सामाजिक स्तर पर जो हिन्दी प्रेमी हैं वे निजी तथा पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी प्रेमी पाए जाते हैं। समझदार आदमी सार्वजनिक रूप से हिन्दी का प्रचार प्रसार करता है, मोहल्ले मोहल्ले घूम कर माता-पिताओं को समझाता है, प्रेरित करता है कि भइया रे अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम की पाठशाला में पढने के लिए भेजो और देश को अच्छे नागरिक दो। इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी को प्रेम करना वास्तव में देश को प्रेम करना है। और देश को प्रेम  करना हर आम आदमी का परम कर्तव्य है। जिसे कुछ भी करने का मौका नहीं मिलता हो उसे देशप्रेम का मौका तो अवश्य  मिलना चाहिए। हालाॅकि हिन्दी वाले जरा ढिल्लू किस्म के हैं। उनके पास जरा सा तो काम है कि देशप्रेमी बना दो, कोई बहुत प्रतिभाशाली मिल जाए तो अपने जैसा गुरूजी बना दो, लेकिन वह भी से नहीं होता। सितंबर के महीने में देश भर में हिन्दी के लड्डू बंटवाए जाते हैं। सरकार के हाथ में लड्डू के अलावा कुछ होता भी नहीं है। साल में एक बार हिन्दी का लड्डू नीचे तक पहुंच जाए बस यही प्रयास होता है।
                         पंडिजी की चिंता यह है कि तमाम हिन्दी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। गली गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ऐसे खुल रहे हैं जैसे मोहल्ले के चेहरे पर चेचक के निशान हों। वे इस कल्पना से ही पगलाने लगते हैं कि क्या होगा अगर सारे बच्चे अंग्रेजी पढ़े निकलने लगेंगे। देश हुकूमत करने वालों से भर जाएगा तो कितनी दिककत होगी। आखिर राज करने के लिए रियाया भी चाहिए होगी। हिन्दी नहीं होगी तो प्रजा कहां से आएगी। राजाओं के लिए प्रजा और प्रजा के अस्तित्व के लिए हिन्दी को प्रेम  करना जरूरी है। सरकार में मंतरी से संतरी तक इतने सारे हिन्दी प्रेमी भरे पड़े हैं कि पूछो मत। लेकिन एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूल में न पढ़ा रहा हो। ये त्याग है देश के लिए। सरकारी नौकर जनता का सेवक होता है। जनता मालिक है,  मालिक ही बनी रहे, ठाठ से अपनी सरकार चुने और ठप्पे से राज करे हिन्दी में।
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