बुधवार, 27 मई 2020

धराधीश के कर कमलों से


धरम का काम था । धरम के काम बहुत कठिन होते हैं लेकिन करना पड़ते हैं । धराधीश की धरम करम में कोई आस्था नहीं है, लेकिन राजनीति में है । वैसे राजनीति में रोजना कौन किसी की पीठ खुजाता है । सच पूछो तो राजनीति कुर्सी के पाए से बंधी कुतिया है । जिसे बैठना हो उसे कुतिया की पीठ सहलाना ही पड़ती है । धंधे के लिए आदमी को क्या कुछ नहीं करना पड़ता है । इसी के चलते धराधीश धर्म आयोजन में मगज़मारी करना पड़ी । एक तो लोकतन्त्र में मीडिया वालों की बड़ी दिक्कत है । जरा जूता पहन कर दीपक जला दो तो फोटो खींच लेते हैं । मन मसोस कर रह जाना पड़ता है । वैसे देखा जाए तो खुद उनकी चरण पादुकाएँ लोकतन्त्र का मंदिर हैं और उनको अपवित्र कहना या समझना राजद्रोह हो सकता है । लेकिन कुछ चीजें होती हैं जिन पर धराधीश का भी वश नहीं चलता है ।
अभी तक साधू संतों के पैर धुलवाने का चलन था । इससे महात्माओं का मनोबल बढ़ता है और वे धराधीश के पक्ष में प्रवचन करते हैं । इधर सलाहकारों को नई सूझ पड़ी कि धराधीश श्रमिकों के पैर धोएँ तो नया संदेश जाएगा प्रजा में । यह ऐतिहासिक घटना होगी क्योंकि श्रमिकों के पैर आज तक कमरेडों ने भी नहीं धोए हैं । छोटे मोटे मामलों में घराधीश बहुत सोच विचार के बाद निर्णय लेते हैं । अंदर से उनका मन नहीं हो रहा था । वे बोले – “ पैर नहीं, अगर मुँह धुलवाएँ तो कैसा रहे ? सलाहकार बोले – राजन, मुँह के साथ पेट जुड़ा होता है । राजनीति के लिए प्रजा का पेट सबसे खतरनाक चीज होती है । पैर धोना सेफ है । धोया और फारिग हुए । बहुत हुआ तो एक जोड़ी हवाई चप्पल दे कर बाहर निकला जा सकता है । लेकिन पेट !! आज तक किसी का भरा है हुजूर । और ये भी देखिए कि मजदूरों के पैर धोने से अर्थव्यवस्था और बैंकों की कर्जनीति पर कोई असर नहीं पड़ेगा । जो लोग दशकों तक गरीबी हटाओ का नारा लगाते रहे हैं उन पर पाँच मजदूरों के पैरों की धुलाई भारी पड़ेगी । हर वर्ष अगर पैर धुलाई का आयोजन रख लेंगे तो प्रजा में गरीब होने की होड मच जाएगी । ऐसे में गरीबी हटाओ का नारा लगाने वाली पार्टियों पर लोग पत्थर ले कर दौड़ेंगे । असल राजनीति गरीबी बनाए रखने में है ।
“तो ठीक है, हम मजदूरों के पैर धोएँगे ।“ धराधीश बोले ।
स्थानीय प्रशासन ने पाँच मजदूर पकड़े और उन्हें दूसरे मजदूरों से नहलवाया धुलाया और सेनेटाइज करवाया । सबसे पहले कवर करने के लिए मीडिया जमा हुआ । ठीक समय पर धराधीश ने लक़दक़ इंट्री ली । पांचों मजदूर डर के मारे काँप रहे थे । उन्हें लग रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि उनके पैर अब म्यूजियम में रखने के लिए ले लिए जाएँ । धुलाई के बाद धराधीश आराम से टाटा करते निकल लिए ।
मीडिया मजदूरों की ओर लपका । पूछा – “आप लोगों को कैसा लग रहा है धराधीश जी के हाथों पैर धुलवा कर ?”
“बहुत अच्छा साहब । हम बहुत खुश हैं । पैर बच गए हमारे, हमें और कुछ नहीं चाहिए ।“ वे बोले ।
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गुरुवार, 14 मई 2020

लोगों बात मत करो


“ये क्या, तुम दिन भर फोन पर लगे रहते हो ! कुछ आगे-पीछे का, आज-कल का ध्यान तो रखा करो कि उठाया फोन और लगे खयाली खेत जोतने ।“ सुनीला से आखिर रहा नहीं गया । उन्हें असल में गुस्सा इस बात का है कि उनके घरेलू काम बढ़ गए हैं इन दिनों और ये जनाब पड़े पड़े हांक रहे हैं । तोंद कोरोना के आंकड़ों की तरह हर दिन बढ़े जा रही है और ये सरकार कुछ करने की बजाए सहलाए जा रहे हैं बस ! जैसे तोंद न हो मटका हो खजाने का ।
“लॉकडाउन है भई ! किसी से बात भी नहीं करूँ क्या ! हर आदमी घर में खाली खोपड़ी ले कर खाली बैठा है । जानती हो अगर लोग बात नहीं करेंगे तो सरकार के बारे में उल्टा सीधा सोचने लगेंगे । यह कोई अच्छी बात थोड़ी है हमारे लोकतन्त्र के लिए ।“ अरुण बोले ।
“ढ़ोल पीट पीट कर बताया जा रहा है कि मोबाइल फोन से वायरस फैलता है । पता हैं कोरोना कान से घुसता है ! दिन भर कान और मुँह से सटाए रखोगे तो किसी दिन चपेट में आ जाओगे फिर मुझे कुछ मत कहना हाँ ।“ सुनीला देवी ने अपनी ज़िम्मेदारी का खुलासा किया ।
“मेरे फोन में वायरस नहीं है । कल ही विस्की से साफ किया है मैंने ।“
“हर कोई फोन में विस्की बर्बाद नहीं करता है । ... और वायरस अगर सामने वाले के फोन में हुआ तो ? जो चीन से पूरी दुनिया में जा सकता है वो एक से दूसरे फोन में नहीं आ सकता है क्या ? वो वायरस है शांताबाई नहीं जो पूरे कोरोना सीजन नहीं आएगी । देवी का दर्द ।
“शांताबाई की तरह वायरस भी फोन से आता या जाता नहीं है । समझी ?”
“पैसा आ सकता है जा सकता है, फोटो-वीडीओ आ-जा सकते हैं तो वायरस को अलग से सिम की जरूरत पड़ेगी क्या !? सारे लोग सावधानी रख रहे हैं एक तुम्हारे पास ही हैं अकल के बीज । .... कभी आईने के सामने भी खड़े हो कर अपनी कमाई को भी देख लिया करो ।
“देवी, कोरोना का वायरस छूने से फैलता है । और मैं मूरख नहीं हूँ, जानकारी रखता हूँ । बोलने बात करने से इसका कोई संबंध नहीं है ।“ अरुण ने सूक्ष्म बाणों पर ध्यान न देने की नीति अपनाई ।
“ये तो मानते हो ना कि हमारे नेता, वो चाहे किसी भी पार्टी के हों, सब जनता की सेवा के लिए काम करते हैं ?”
“इसमें भला किसी को क्या शक है । हमारे देश में हर कोई जानता है कि हमारे नेता सेवा के लिए ही राजनीति करते हैं ।“
“तो बताओ लॉकडाउन के बाद कोई बोल रहा है पहले जैसा ! वो हैदराबाद वाले दोनों शांतिदूत कहाँ गए जो बोल बोल के बिरियानी पकाते थे । कोरोना के कारण स्मृति लोप हो गई, लोग माया-ममता तक सब भूल गए । पार्टी प्रवक्ता को टीवी की भट्टी में झोंक कर सारे नेता क्वारंटाइन हैं तो ऐसे ही नहीं । सब जानते हैं कि बोलने से वायरस फैलता है ।“ नीलीपीली होते हुए वे बोली ।
“दूसरे कोई बोलें न बोलें, टीवी वाले तो खूब बोल रहे हैं ना । अब कहोगी कि टीवी समाचारों से भी कोरोना फ़ैल सकता है !“
“फ़ैल क्यों नहीं सकता है ! जब टीवी से आलस्य, मोटापा और चटोरापन फ़ैल सकता है कोरोना क्यों नहीं ?
अरुण को हथियार डालने में समझदारी लगी, बोले – “चलो ठीक है फोन रख देता हूँ, अब तो खुश ।“
“सिर्फ फोन रखने से क्या होगा !! अपनी तौंद भी रख कर आओ कहीं ।“
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सोमवार, 11 मई 2020

लोटी स्नान


“देखिए भाई साब, अब से आप लोग आधी बाल्टी पानी में नहाया करें । पानी बचना है ना अपने को ? जानते हैं ना कि धरती में पानी बहुत नीचे चला गया है ।“ आधी बाल्टी मुहीम के अगुआ भोला भाई जल बचाओ दल के साथ हर घर जा रहे हैं ।
“आप यह बात ध्यान रखिए कि आधी बाल्टी से नहाना एक तरह का कौशल है ।“
“इन्हें पानी से नहाने की क्या जरूरत  !! देखते नहीं पीएचडी हैं, ज्ञान की बाल्टी लबालब भरी हुई है । उसी में गोता लगाएँ, नहाएँ धोएँ किसी को दिक्कत है कोई ?  सिंग साब ने वर्मा जी को देखते ही चिकोटी काटी ।
“डाकसाब देश हित के लिए आधी बाल्टी से नहाना होगा आपको ।“ भोला भाई बोले ।
“आधी बाल्टी पानी बचाने से क्या होगा !?”  वर्मा जी बोले ।
“आप जानते हैं कि देश की जनसंख्या एक सौ छत्तीस करोड़ है । अगर सब लोग आधी बाल्टी से नहाएँ तो 68 करोड़ बाल्टी पानी बचेगा ।“
“नहाने की जरूरत ही क्या है । अगर नहीं नहाएँ तो पूरे एक सौ छत्तीस करोड़ बाल्टी पानी बचेगा । क्यो वर्मा जी ?“ सिंग साब ने फिर चिकोटी का इस्तेमाल किया ।
“नहाने पर पानी बर्बाद होता है या बचता है पहले इस बात को साफ कर लें ।“
“इसमें साफ क्या करना ! नहाने से पानी बर्बाद होता है और नहीं नहाने से बचता है । साधारण सी बात है ।“
“तो हम पानी बचाने की मुहिम पर हैं या बर्बाद करने की ?” सिंग साब ने गरदन पकड़ी ।
“बेशक पानी बचाने की मुहीम पर ।“
“ध्यान रहे कि आप लोगों को आधी बाल्टी पानी से नहाने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं ।“
तो इसमें गलत क्या है ! राष्ट्र हित में यह जरूरी है । मैं तो कहना चाहूँगा कि आधी बाल्टी स्नान का कानून बना कर सख्ती से लागू करना चाहिए ।“
“जो लोग सप्ताह में एक बार नहा कर देश को मजबूत बना रहे हैं उनके बारे में क्या योजना है ? ... क्या वे प्रति सप्ताह साढ़े तीन बाल्टी का उपयोग कर सकते हैं ?”
“मैं एक दिन छोड़ कर नहाता हूँ और दाढ़ी भी एक दिन छोड़ कर बनाता हूँ । ये एक कला है ... इस बात को समझिए ।“ गंगवानी बोले ।
“इसमें कला कि क्या बात है भाई साब !?”
“जिस दिन दाढ़ी बनाता हूँ उस दिन नहाता नहीं हूँ लेकिन नहाया हुआ लगता हूँ । ये कला नहीं है ?”
“लेकिन जिस दिन नहाते होंगे उस दिन तो पूरी बाल्टी पानी बर्बाद करते होंगे ।“
“तो इसमें गलत क्या है सांई ! एवरेज तो बराबर पंद्रह बाल्टी महीने का निकला ना ।“
“देखिए देश के बारे में सोचिए । जब भी नहाएँ यानी एक दिन छोड़ कर या सात दिनों में । हमें आधी बाल्टी से ही नहाना है । देश हित के काम में एवरेज कि चतुराई न करें ।“
“पांडे जी दिन में दो बार नहाते हैं उसका क्या !? पूछिए उनसे । बताइये पांडे जी, आप दिन में दो बार नहीं नहाते हैं ?”
“देखो भाई, बात को समझो । तांबे की एक लोटी में हम तैंतीस कोटी देवी देवताओं को नहला देते हैं तो हम कोई अलग थोड़ी हैं । दिन में दस बार भी नहाएँ नहलाएँ तो भी लोटी का पानी खत्म नहीं होता है ।“
“अरे इस बात पर तो ध्यान ही नहीं गया ! क्यों नहीं सब लोग लोटी स्नान कर देश मजबूत बनाएँ । “
यह नहीं हो सकता है ।“ पांडे जी बोले । “देवस्नान आमजन के लिए नहीं है ।“
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रविवार, 3 मई 2020

अगले जनम मोहे खंबानी कीजों


भारत में हर आदमी शादी करने के लिए पैदा होता है । दरअसल पैदा होना एक पैदाइशी कर्ज है जिसे उतरे बिना मोक्ष नहीं मिलता है । इस तरह बात साफ है कि शादी मोक्ष का द्वार है और पत्नी मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाली देवी । मोक्ष का मतलब तो आप जानते ही होंगे ? कोई बात नहीं, हम बता देते हैं । मोक्ष वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति को दोबारा पैदा होने की जरूरत नहीं पड़ती है । आदमी पापमुक्त हो तो उसे जन्म मरण के चक्र से छुट्टी मिल जाती है । लेकिन पापी संसार में आ कर कोई पाप से अछूता कैसे रह सकता है । उसे बार बार जन्म लेना पड़ता है, लेकिन इसमें बड़ा जोखिम है । आज भारत में पैदा हुए, बहुत अच्छा । लेकिन कल चीन या अफ्रीका में पैदा होना पड़ गया तो !! वैसे ही अपने देसी आदमी को लेंगवेज प्राबलम कितना बड़ी होती है । आज हिन्दू हैं अच्छा, ब्राह्मण हैं और भी अच्छा लेकिन कल ऊपर वाला कौन सी जात में डाल के फेंक दे, कुछ कहा जा सकता है ! कहते हैं  कि करमों वरमों के हिसाब से जनम मिलता है । मिसिर जी सोच रहे हैं कि अब तक तो करम का अच्छा बुरा होना अपुन ही डिसाइड करते आ रहे हैं । लेकिन भैया लोकतन्त्र है, कुछ कहा नहीं जा सकता किसके सिर पगड़ी साज जाए । भाग्य गरीबों गुरबों का होता है और अमीरों का तो पुरुषार्थ होता है । लेकिन दिक्कत ये है कि पैदाइश के मामले में यह नियम लागू नहीं होता है । कुछ दिन पहले पान की दुकान पर यासीन मियां मिले, कह रहे थे कि मुझे सपने में घाट, मंदिर, घंटे, आरती दिखते हैं । ऐसा लगता है कि पिछले जनम में मैं पंडित था बनारस में । सुन कर मिसिर जी ऐसे बेचैन हुए कि अभी तक वैसे ही सिर खुजा रहे हैं । भगवान का भरोसा बस कहने भर को ही है, वरना दुनिया के ये हाल होते । सोच रहे हैं कि कहीं उन्हें भगवान ने गलती से दाढ़ी टोपी में डाल दिया तो क्या होगा !! मेंढक की तरह कूदते रहेंगे जैसे यासीन मियां कूद रहे हैं दिन में इधर रात में उधर ।
देखिए भाई, आत्मा को फिर फिर पैदा तो होना पड़ेगा । उससे बचने का कोई रास्ता नहीं है । सो समझदार आदमी तो यही चाहेगा कि अगले जनम में वो एशिया के सबसे अमीर आदमी के यहाँ पैदा हो । नहीं सबसे अमीर तो टॉप टेन वाले किसी बंदे के यहाँ जरूर । मिसराइन ने सुना तो बमक गई । बोलीं यहाँ कौन बात की कमी है !! हम चुटकी काटते है क्या तुम्हें !! कुंडली में मंगल दोष तुम्हारे, भुगतते रहे हम !
“ शांत देवी, हम तो तुम्हारे बारे में चिंतन कर रहे थे । सात जनम के लिए साथ लगी हुई हो ना । हम अगर टॉप टेन में पैदा हो गए तो असल सुखी तुम ही रहोगी । तुम वर्ष के साढ़े तीन सौ व्रत उपवास करने वाली, भगवान की सगी हो । उपाय बताओ कि कैसे मिसिर से खंबानी हो जाएँ अगले जनम में ।“
वे बोलीं – “हेअनाथ, यह तो संभव नहीं है । महाभारत के बाद एक दंपति के यहाँ सौ पुत्र पैदा होना बंद हो गए हैं । अमीर घराने कि स्त्रियाँ भी जान गई हैं कि एक सन्तान पैदा करने के बाद उनका फीगर बिगड़ सकता है ।“
“तो हे देवी, किसी दूसरे धर्म में, किसी दूसरे देश में, पशु पक्षी या जन्तु के रूप में पैदा हो कर मैं तुम्हारा अगला जन्म खराब नहीं कारना चाहता हूँ ।“
“हेअनाथ, तुम क्या चाहते हो ?”
“मेरी इच्छा है यही कुल, यही गोत्र, यही नगर, यही लोग ।“ मिसिर जी बोले ।
“तथास्तु, .... यही गोत्र, यही नगर, यही लोग मिलेंगे । .... किन्तु हेअनाथ, आप स्त्री बन कर पैदा होगे ।“
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रविवार, 26 अप्रैल 2020

‘आमार शोनार आलू’

हमारे घर में रोज पूजा होती है .... मतलब भगवान की । आज गृह-देवी आलू पर जल चढ़ा रही थीं । लगा कोई चूक हो रही है, सुधार दें, वरना इन दिनों रामायण चल रही है और माहौल में शाप-वाप का मूड बना हुआ है । कब कौन कुपित हो जाए कहा नहीं जा सकता है । सो भागते हुए गए और उनका हाथ पकड़ लिया जिसमें जल का लोटा था । समझाइश की मुद्रा में कहा –“ये क्या कर रही हो भागवान !! आलू पर जल क्यों चढ़ा रही हो !”  
देवी बोलीं – “ये आलू नहीं है जी, आलू महादेव हैं । सवा महीना हो गया है, बताओ किसके सहारे हो ?... भगवान के या आलू के ? देख लेना जब नारे लगाने की छूट मिलेगी तो लोग यही बोलेंगे – हर हर आलू, घर घर आलू । “
वक्त वक्त की बात है ।  पूजा-पाठ के समय अगरबत्ती खोंसने के लिए कुछ नहीं मिलता था तो आलू कट कर स्टैंड बना लेते थे और उसमें अगरबत्ती खोंस कर भगवान के चरणों के पास रख देते थे । अब देखिए ! ईश्वर की सोहबत और ज़िम्मेदारी वाली भूमिका क्या मिली आलू खुद महादेव हो गए ! माना कि उनके कारण किचन आबाद है, सरकार चल रही है, तो भईया आलू महाराज कहो । महाराज भी कोई छोटी बात नहीं है आज की डेट में । ये नहीं कर सकते तो आलू का परसाद चढ़ा दो चिप्स बना कर । लेकिन ये आलू महादेव क्यों ! कल को भगवान माइंड कर गए तो !
असल बात ये है कि महीने भर से पति की सूरत नॉनस्टाप देख देख कर देश की आधी आबादी का मूड जो है धमाधम करने के लिए हुमक रहा है । समाजशास्त्रियों का कहना है कि इस बार करवा चौथ के व्रत पर भारी उलटफेर की आशंका प्रबल है । जो मुए करोना से बच जाएंगे उन्हें करवा से निबटना होगा । अंदर घुमड़ रही आवाज बार बार लीक हो रही है कि काम के न काज के, दुश्मन अनाज के । ऐसे माहौल में किसी भी किस्म का हस्तक्षेप करना अपने हाथ में सुतली बम फोड़ना है । फिर भी इतना तो कह ही दिया कि – “लोग सुनेंगे कि आलू पर जल चढ़ाया तो क्या कहेंगे !!”
“जय जय आलू महादेव कहेंगे और क्या । पता है, हम लौह-लक्ष्मियों ने तय किया है कि मोहल्ले में एक मंदिर बनेगा आलू महादेव का ।“ वे बोलीं । 
आलू महादेव का मंदिर !! कोई नहीं आएगा ।“ हमने दावे से कहा । 
बोलीं- “समोसे का परसाद चढ़ेगा तब नहीं आएगा कोई ?”  
“ओह , फिर तो सोचना पड़ेगा ।“
एक बार फिर जोखिम लेते हुए कहा -  “देखो देवी, तुम आलू के बारे में नहीं जानती हो । आलू को भगवान बनाने से भक्तों की भावनाएँ आहात हो जाएंगी ।“ 
वे बोलीं – बिलकुल नहीं होंगी । कल अगर कांग्रेस अपना चुनाव चिन्ह आलू बना ले तो देख लेना दन्न से सरकार बना लेगी । वैज्ञानिक कह रहे हैं कि कोरोना लंबा चलेगा । अब कोरंटाइन तो बार बार होंगे इसलिए आने वाला समय को लोग लोकतन्त्र नहीं आलूतन्त्र कहेंगे । जिस देश में अस्सी प्रतिशत लोग गरीब हों और आलू पर निर्भर हों वहाँ आलू ही भगवान है ।“ वे अड़ गईं ।
“शांति शांति, ...  देवी अगर गरीबों का सहारा आलू है, तो आलू कामरेड हुआ । उसे अकेला उबाल के खा जाओ या टीवी की बहस में पका पका के । या किसी भी अल्पमत सब्जी में डाल दो बहुमत में आ जाए । सब करो पर इसे भगवान मत बनाओ प्लीज, ... भगवान बनते ही वो दक्षिण पंथी हो जाएगा । उसकी पहचान नष्ट हो जाएगी । ममता दीदी को पता  चला तो आमार शोनार आलू ... आमार शोनार आलू गा गा कर दिल्ली हिला देंगी ।“
“तुम चिंता मत करो, दिल्ली आलू से नहीं प्याज से हिलती है । इतना भी नहीं समझते क्या !!“  
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बुधवार, 15 अप्रैल 2020

बस बैठे हैं भिया !


जिसे भी फोन कीजिए एक ही जवाब मिलता है बस बैठे हैं भिया । उधर से अगले को भी पूछना ही पड़ता है और ... आप क्या कर रहे हो ?’ , जवाब वही बस बैठे हैं भिया । सेना से लगा कर सेवक तक लगे हैं काम में और हम बस बैठे हैं भिया । लगता है पूरा देश बैठा है, जनवासे में । टीवी, रेडियो, अखबार के जरिए कोई न कोई दिन में दस बार अनुरोध करता है कि जजमान आप बैठिए, आराम कीजिए, बाहर मत निकालिए, कुछ जरूरत हो तो आदेश कीजिए । भूल जाइए कि किसी ने लाल किले से कभी कहा था आराम हराम है । अब तो आराम का फरमान है । इतना आराम करवाएँगे, इतना आराम करवाएँगे तुमसे, कि भूल जाओगे कि पाँव किधर है और हाथ किसे कहते हैं । पड़े पड़े जब पोटले हो जाओ तो एक सेल्फी जरूर डाल देना, गूगल के किसी क्लिक पर दर्ज रहोगे । किसी लोकल शायर ने कहा है कि गूगल की सर्च पर लगते रहेंगे हर दिन मेले, आराम कर कर के मरने वालों का यही बाकी निशां होगा ।   
फोन पर कज़िन पड़ौसी है, यानी पाँच मोहल्ला दूर रहने वाले । उनका फ्लेट है, किचन प्लस स्टोर विथ थ्री रूम्स अटैच टाइलेट । यह बताने के पहले कि उसने अभी मूंग के भजिए खाए हैं, वह खात्री करता है कि तुम्हारे पास आटा-दाल वगैरह की कमी तो नहीं है । आदमी पढ़ालिखा हो, व्यावहारिक हो तो शिष्टाचारवश सावधानी रखता ही है । अच्छा नहीं लगता है कि आप भजिए बखाने और अगले के पास खाने कि समस्या हो । मैं जानता हूँ उसकी गुफ्तगू का सबब, सो उसके मैनु के आतंक से बचाने के लिए कहता हूँ दिक्कत तो है यार, कुछ कर सकते हो ? वह सूझाता है कि नगर निगम की कचरा गाड़ी आती है ना उसी को बोल दो, दे जाएंगे । नहीं तो अपने पार्षद को खड़काओ, पता नहीं इस लोक में है या उस लोक में । या फिर अपने झारा पकड़ विधायक को बोलो, रोज फोटो छ्पवा रहे हैं पूड़ी तलते हुए । साफ हो जाएगा कि खा ही रहे हैं या खिला भी रहे हैं । वैसे यार तुमको पहले से कुछ इंतजाम कर लेना चाहिए था । आसपास किराने वाला है ना, उनको बोलो । हमारे इधर तो जाहिल बस्ती में खूब थैलियाँ बंटी, आटा, दाल, चाय-शकर मिर्च मसाला, आलू कांदा सब । एक एक घर में लोगों ने चार चार थैलियाँ ले ली । इतना माल मिल रहा है तो भला कोई करोना से क्यों डरे ! बैठने वाले बैठे हैं तस्सवुरे जाना किए हुए और जिन्हें फिक्र है खिदमतदारों की वो थैलियाँ बटोर रहे हैं दनादन । पुलिस को लागत है कि लोग बाहर फालतू घूम रहे हैं । उन्हे कौन बताए कि घर में रहने से बच्चों के अलावा कुछ मिलता है क्या ।“
बात बदलते हुए मैं पूछता हूँ, - “और आपके घर तो सब ठीक हैं ना ? बाहर मत निकलना, पुलिस न हो तब भी मत निकलना, सरकार ने कहा है तो हमारा फर्ज है कि अच्छे नागरिक की मिसाल बनें । हमारे इधर तो पूरा सन्नाटा रहता है रात को और दिन को भी । तुम्हारे तरफ कोई निकलता तो नहीं है ?”
वो पाज़ यानी बातचीत में एक ठहराव लेता है, फिर सोचते हुए बोलता है –“ हमारे इधर भी कोई नहीं निकलता है लेकिन सन्नाटा नहीं है ।  सूअर घूमते रहते हैं और झड़पें होती रहती है । खूब शोर होता है । मेडिकल साइंस क्या कहता है, सूअरों को करोना नहीं होता है क्या ?
“ पता नहीं, वेट्नरी डाक्टर ही बता सकते हैं कि करोना की नातेदारी किस किस से है । ... और क्या ?
“बस बैठे हैं भिया”।
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मंगलवार, 31 मार्च 2020

कर्फ़्यू में गधे



गधे भी हमारी तरह ईश्वर की देन हैं और दुनिया में सब जगह पाए जाते हैं । लेकिन हिंदुस्तानी गदहों की बात सबसे अलग है । जो गधे चौपाए हैं वो नहीं जानते कि वे गधे हैं, और जो दो पाए हैं वो नहीं मानते कि वे गदहे हैं । किन्तु आधार कार्ड बनने के बाद से सरकार जानती है कि देश में कितने प्रतिशत गदहे हैं । पिछले दिनों जनता कर्फ़्यू लगाया गया । जनता घरों में थी और तमाम गदहे सड़क पर घूम रहे थे । सारे जोश में थे, कुछ उछ्ल रहे थे कुछ रेंक रहे थे । कोई बंद देखने निकाला था तो कोई समोसा खाने । गदहों को लग रहा था कि जंगल के राजा वही हैं । भियाजी के पट्ठे हैं, रेंक देंगे तो सरकार हिल जाएगी ससुरी । कई गदहे नारे रेंक भी रहे थे, जैसे  “जब तक सूरज चाँद रहेगा, गदहों का राज रहेगा ।“ माहौल में एक खास किस्म की गरमी थी जिसे गदहा गरमी कहा गया है ।
एक ने दूसरे से पूछा – तुम कहाँ रहते हो ?
“दुबई में ।“ वह बोला ।
“टहलने के लिए यहाँ आ तक गए !?!”
“आते जाते रहते हैं । कहना मत किसी से । तुम्हें बता दिया है, भाई हो ना इसलिए ।“ 
“यहाँ तो ऊटपटाँग हरकतें हो रही हैं । देखिए ना, बार बार हाथ धोने को कहते हैं ! इन्हें कौन बताए कि गदहे लीद करने के बाद भी कभी ठीक से हाथ नहीं धोते हैं । हफ्ता पंद्रह दिन से पहले नहाते नहीं हैं तो हाथ क्या धोएँगे, वो भी दिन में दस बार !!”
“सब बकवास है । ऊपर वाले ने गदहों की जितनी लिखी है, उतनी ही मिलेगी ।  हाथ धोने से अगर जिंदगी मिलती तो हमारे पुरखे कभी से नहाना सीख गए होते ।“
पुलिस ने गदहों को रोका तो फिर नारा रेंक दिया – जो हमसे टकराएगा, दो लत्तियाँ खाएगा । उन्होने लत्तियाँ उछाल उछाल कर अपना परिचय दिया । पुलिस विवश थी, क्या करती, बाद में उसे मजबूरन अपना परिचय देना पड़ा । गदहे सूजे हुए पुट्ठे ले कर घर लौटे । एक गदहे ने फोन लगा कर अपने नेता को बताया कि भियाजी, हम राजबाड़ा जा रहे थे तो पुलिस ने हमको पीटा डंडे से, दोनों साइड सुजा दी । हमने आपका नाम बताया तो और दो डंडे और पड़ गए । आप आ जाओ जल्दी से बेसबॉल बेट ले के ।
उधर से आवाज आई – “ अबे गदहों, तुम लोग गए क्यों राजबाड़ा  !!”
“भंडारे बंद हैं भैया । इसलिए करोना-समोसा खाने गए थे ।“ गदहे ने भंडारे की याद दिलाई ।
“किसने कहा कि करोना खाने की चीज है !?
“भियाजी बड़े लोग रूपिया- पईसा, प्लाट, जमीन, मकान, दुकान सब खा जाते हैं तो हमने सोचा चलो अपन करोना खा के देखते हैं । “ 
“गदहों कब अकल आएगी तुम लोगों को । करोना एक बीमारी है और गदहों को भी हो सकती है । बाहर निकलने से उसके किटाणु चिपक जाते हैं बदन से । पुलिस ने वही किटाणु मारे हैं डंडों से । बच गए तुम लोग वरना अगले चुनाव में तुम्हारे नाम की भी बोगस वोटिंग करवाना पड़ती । अब चुपचाप घर जाओ और सिंकाई करवाओ ।“
“भिया जी, झंडू बाम का इंतजाम करवा देते .... ।“
“ गदहों को झंडू बाम कौन लगता बे ! अपने को मलाइका समझते हो क्या ! “
जो सरकार की नहीं सुनते, प्रशासन कि नहीं सुनते और पुलिस जबान से समझाए तो नहीं समझते लेकिन डांडा चलने पर ही समझते हैं  ऐसे गदहे हमारे शहर की पहचान हैं । अबकी बार आपको कहीं दिखें तो उनके साथ सेल्फी जरूर ले लेना ।
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गुरुवार, 12 मार्च 2020

एक नार नौ बीमार



शादी ब्याह का ऐसा है कि अपने यहाँ ज़्यादातर भगवान की मर्जी से होते हैं । अब चूंकि बीच में उप्पर वाला होता है इसलिए लोग आँखें बंद करके कर लेते हैं । यों तो कहा गया है कि प्रेम अंधा होता है । यहाँ पहले अंधत्व होता है और अनुकूलता देख कर बाद में प्रेम भी पसर जाता है । ऐसा ही एक प्रसंग है, काजोल को राज से प्रेम हुआ और दन्न से ब्याह भी हो गया । बापू पहले ना-नू हुए लेकिन जैसा कि उप्पर वाले ने स्क्रिप्ट लिख रखी थी, आखिर में बोल दिए कि – “जा काजोल जा, ... जी ले अपनी जिंदगी
काजोल आज्ञाकारी है और पापा के कहे अनुसार अपनी प्योर जिंदगी जी रही थी कि होली आ गई । काजोल की आँखें तब खुली जब फ्री गिफ्ट मिले चारों देवर होली के नाम पर डरावनी अंगड़ाइयाँ लेने लगे । यही नहीं चचेरे ममेरे देवरों के भी फोन आने लगे कि हम लोग वाट्स एप मेसेज से होली नहीं खेलने वाले हैं, खुद आएंगे, तैयार रहिए । पति राज से कहा तो उसकी लाचारी के पत्ते झरने लगे । बोले – “ क क क काजोल, अगर दिक्कत हो तो मैं नहीं खेलूँगा इस बार । अपना क्या है, आगे देखेंगे कभी । लेकिन भाइयों को रोकूँगा तो बड़ी बदनामी होगी । रिशतेदारों में दूर दूर तक कोई भाभी नहीं है । तुम्हारा अकेले की भाभियाना हुकूमत है । थोड़ी हिम्मत रखो तो होली के मजे ले सकती हो ।“
“हिम्मत !! ... “ काजोल भड़की । “भूखे देवरों के  पिंजरे में कूद जाऊँ !? ... हिम्मत हो न हो, अकल तो है मुझमें । “
“भाग्यवान अक्ल का इस्तेमाल तो तुम पहले ही कर चुकी हो शादी करके । अब मौका है तो हिम्मत का भी इस्तेमाल करो । वैवाहिक जीवन पथ बड़ा दुर्गम होता है । इसमें हमेशा दिवाली नहीं आती है, कभी कभी होली भी आती है ।“ राज ने समझाया ।
“इतने सारे उधार देवरों के साथ होली नगद करना कोई बच्चों का खेल नहीं है । ... मैं होली नहीं खेलूँगी” । काजोल ने मैं झाँसी नहीं दूँगी की तर्ज पर निर्णय सुना दिया ।
दूसरी तरफ तैयारी पूरी है । छोटे देवर ने बड़ी सी पिचकारी खरीद ली है, ए-के 47 जैसी । दूसरा टेंट हाउस से एक बड़ा कढ़ाव आर्डर किए बैठा है । पता नहीं भाभी को रंगेगा या तलेगा । तीसरा भाभी की मांग में सूखा रंग भरने का इरादा बनाए हुए है ताकि भाभी जब जब सिर धोए तो और और रंगती जाए । चौथा भांग और ठंडाई के जरिए होली को यादगार बनाने वाला है । सुबह से शाम तक एक्जिट पोल की तरह होली अनुमान चल रहे हैं । होली का मस्त मजा बतर्ज मुंगेरीलाल के होलियाते सपनों के साथ रंग बरसे भीगे चुनार वाली भी सुनाई दे रहा है । काजोल जितना डरती देवर उतना अपने पिटारे से इरादों के साँप लहराते । बेचारी एक नार नौ बीमार 
आखिर काजोल ने पति राज को साफ साफ कह दिया कि उस पर एक बूंद भी रंग पड़ा तो वह शहर कि प्रदूषित नदी में कूद कर जान दे देगी । राज ने समझाया कि प्रदूषित नदी में मत कूदना क क क काजोल, बड़ी बदबू होती है उसमें । बॉडी निकले वाले मिलते नहीं हैं आसानी से । लेकिन रंग से बचने के लिए ड्रेनेज वाली नदी में कूदना कौन सी बुद्धिमानी होगी !! सरकार जल्द ही नदी साफ करने के लिए टेंडर जारी करने वाली है । अगर साफ हो जाए तो अगली बार कूद जाना । इस बार समझदारी इसी में है कि होली खेल लो ।
काजोल को बचपन की होली याद आई । कुलजीत के कोई भाई नहीं है, अकेला है बेचारा । उसको हर साल रंग भरे सोंटे से पीटने में कितना मजा आता था । बोली- “तुम मुझे मायके भेज दो । कुलजीत के कोई भाई नहीं है और होली पर खुद भी भीगी बिल्ली हो जाता है । उसके साथ खेल लूँगी, इधर तुम जानो तुम्हारे भाई जाने ।“
“कुलजीत अब गाँव में नहीं है, काम मांगने मुंबई गया हुआ है । अब तुम्हें मेरे घर में  ही रहना है, जीना है मारना है और होली खेलना है क क क काजोल । “ राज ने तरकीब से उसकी मजबूरियाँ याद दिलाईं ।
बहुत सोचने के बाद आखिर काजोल ने कमर में पल्लू खोंसा और नौ ग्रहों यानी देवरों को कह दिया कि वह होली खेलेगी । लेकिन पहले राज से खेलेगी उसके बाद फौज से । देवर दल खुश हुआ । होली के दिन खूब भांग छ्नी, कढ़ाव भरा, ठुमके चले पर भाभी नहीं निकली, अंदर राज पर सोंटे चलती रही । बहुत दरवाजा पीटा गया, मिन्नते हुईं तब रंगीपुती काजोल बाहर आई । उधार बैठा देवर-दल टूट पड़ा । जी भर होली खेलने के बाद कोई इधर लुढ़का कोई उधर ढेर हुआ । रंग से सराबोर भाभी भी अपने कमरे में चली गई ।
काजोल ने उसे बिना गले लगाए थेंक यू कहा । रंगी काजोल बोली- “सोरोगेसी का और कोई काम हो तो बताना काजोल दीदी” । राज ने खुश होते हुए पूछा –“सोरोगेसी में और क्या क्या कर लेती हो तुम !?” काजोल नेआँख दिखते हुए जवाब दिया – “सोरोगेट सास भी बन जाती है ये । बनवाऊँ क्या अपनी सास ?”
 फीस लेकर सोरोगेट-भाभी  पिछले दरवाजे से रवाना हो गई ।

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शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

शहर में अस्पताल


शहर में बड़ा अस्पताल बना और लोग फटाफट बीमार रहने लगे । इससे ज्यादा अच्छे नागरिक किसी दूसरी जगह देखने को भी नहीं मिलेंगे । ये लोग जानते हैं की बिना नागरिक सहयोग के सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है । लोकतन्त्र की खूबसूरती यही है कि  सरकार जनता के वोटों से बनती है । शुरू शुरू में वोट गावदी किस्म का सस्ता वोट था, लेकिन राजनीतिक दलों ने वोट कि कीमत लगा लगा कर उसे बाज़ार का महंगा आइटम बना दिया है । कभी अद्धे पौवे में बिकने वाले वोट अब जिंदगी भर का समान मुफ्त मांगने लगे हैं और मजे की बात यह कि शरम भी नहीं आती है ।
ये अस्पताल भी कभी दूसरी जगह के लिए बनना तय था जहाँ गरीबी बहुत है । सरकार को यह समझाने में बड़ा वक्त लगा कि गरीबों का अस्पताल से क्या लेना देना है । उनका इलाज तो खुद भगवान करते हैं । अस्पताल तो उन लोगों के काम का है जिनके पास खूब पैसे हैं । आप टीवी देखिए, बीमा वाले चीख चीख कर बता रहे हैं कि अस्पतालों के खर्चे लाखों में होने लगे हैं । यह एक तरह का अमानवीय कार्य हैं लेकिन लीगल है । अगर किसी को सर्दी खांसी भी हो जाए तो लाख- पचास हजार से कम में ठीक नहीं होता है । शायद इसी को विकास समझा / समझाया जा रहा है । इसलिए आप बीमा करवाइए, सरकार के हाथ में कुछ नहीं है । महंगे इलाज के लिए महंगा बीमा आदमी को सामाजिक प्रतिष्ठा भी दिलाता है । बीमें की प्रीमियम इतनी अधिक होती है कि एक बार दे कर साल भर आपको अमीर होने का अहसास होता है । इधर शहर भर के लोगों ने बीमा करवा कर सरकार की लाचारगी को श्रद्धा सुमन अर्पित किए । बिजनेस सेक्टर में इसे बीमा कंपनी और बीमा एजेन्टों की भारी सफलता बताया जा रहा है ।
लोग साल भर प्रीमियम भरें और बदले में अस्पताल जाने को न मिले तो फायदा क्या !! आदमी अमीर होता है बेवकूफ नहीं । स्कूटर का भी बीमा करवाता है तो खुद ठोक के मुआवजा वसूलता है । बीमा करने के बाद अस्पताल चिकित्सा केंद्र से आगे की चीज हो जाता है । सीजन भर की भागदौड़ और हायबाप के बाद आखिर हर घोड़े को अस्तबल होना चार छः दिन के लिए । ऐसे में अस्पताल दूसरे शहर में हो तो बड़ी दिक्कत होती है । बीमार अकेला महसूस करता है । लोग आ नहीं पाते हैं मुँह दिखाने और मिलने के लिए । सोचिए कोई पैसे वाला बीमार पड़ा हो, अस्पताल में भर्ती हो और उसकी तबीयत पूछने वाले आ नहीं पाएँ तो क्या फायदा ऐसी व्यवस्था से !! अस्पताल शहर में ही हो तो नाते रिश्तेदार अपना फर्ज पूरा कर लें । पास पड़ौसी, पार्षद-विधायक तबीयत पूछ लें तो बीमा और बीमारी सार्थक है वरना क्या धरा है संसार में ! लोकल अस्पताल में लोकल मरीज हो तो लोकल लीडर मिल लें और अखबार के लोकल पेज में खबर छप जाए तो लगे कि दुनियादारी सफल है । कभी कभी फूल लेते-देते फोटू भी आ जाती है तो समझो कि लोकतन्त्र की सांस चलती है इस तरह के माहौल से । अस्पताल असल में एक पूरे सिस्टम को भी जिंदा रखने के काम आता है । रहा सवाल गरीब गुरबों का तो भईया उनके लिए ओपीडी चालू रखो और गोली पुड़िया देते रहो । आखिर वोटों का भी जिंदा रहना जरूरी है । सिस्टम में गरीब की भूमिका वही होती है जो खेत में खाद की होती है ।
पिछले साल अस्पताल का उदघाटन ज़ोरशोर से हुआ था । मंत्री जी ने साफ साफ कहा था कि अब शहर के नागरिकों की ज़िम्मेदारी है कि वे अस्पताल का भरपूर लाभ लें । सरकार केवल अस्पताल का खर्चा उठा सकती है लेकिन बाकी लाभ उठाना जनता और बीमा कंपनियों के हाथ में है । लोगों को पीठ में खुजली भी हो और अगर उसने बीमा करा रखा हो तो उसे भी फ़ार्मेलिटी पूरी करके बकायदा अस्पताल में आ जाना चाहिए । अगर अस्पताल खाली रहा तो वह बीमार हो जाएगा । मंत्री ने इशारों में बात समझा कर सहयोग किया । तभी से शहर के नागरिकों ने तय कर लिया कि वो ऐसा नहीं होने देंगे ।
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भाबी की हॉबी


हॉबी बहुत अलग टाइप की चीज होती है । जिसको होती है उसी को होती है, सबको नहीं होती है । जलेभुने लोग इसे खुजली भी कहते  हैं । हालाँकि खुजली का मामला भिन्न है, उसका इलाज भी हो जाता है । भाबी जी ने चाय पकौड़ा मुलाक़ात में बताया कि उनकी बहुत सारी हॉबी हैं । पहली तो यही कि उनको पीएचडी करने का बड़ा शौक है । हँसते मुस्कराते दो बार कर चुकीं हैं । तीसरी बार भी करना चाहती हैं । लेकिन इस बार मन नहीं हो रहा है ।
आप सोच रहे होंगे कि पीएचडी बड़ा मेहनत का काम है । लोग एक करने में टूट  जाते हैं, भाबी जी ने दो दो निबटा दी हैं, उच्चशिक्षा कोई मज़ाक नहीं है । अब शायद हिम्मत जवाब दे रही होगी । सुना है ज्ञान व्यान का मामला है । कुछ लोग कहते हैं कि ज्ञान हो तो पीएचडी होती है और कुछ का मानना है कि पीएचडी हो तो ज्ञान होता है । पक्का क्या है यह अभी तक पता नहीं चल पाया है । एक पीएचडी इसी बात पर होना चाहिए । कोई कह रहा था किसी किसी को पीएचडी के बाद ज्ञान का सींग उग आता है । लोग सींग देख कर डरते हैं चाहे वो किसी का भी क्यों न हो । शायद पीएचडी का फायदा भी यही है । इधर दो दो सींग हैं । जिसका मतलब है कि बस हो गया । शिवजी का नंदी हो या कामधेनु गाय, सबके दो ही होते हैं । भगवान का ऐसा है कि जो करते हैं अच्छा ही करते हैं वरना नहीं करते हैं । अगर किसी के सिर पर तीन चार या ज्यादा सींग सुहाते तो जरा देर नहीं करते । हाथी, गधे और शेर को एक श्रेणी में रखा है तो कुछ सोचा ही होगा । दो पीएचडी की बधाई देते हुए भाबी जी से पूछा कि तीसरी क्यों नहीं आखिर !?’
“हॉबी तो है लेकिन ... अब मन नहीं हो रहा है ...”
“हॉबी का क्या होगा !!  .... कर लीजिए ना दिक्कत क्या है ?
“करने में कोई दिक्कत नहीं है ... लेकिन अब लगता है फायदा नहीं है कुछ । “
“सब ऐसा सोचेंगे तो कैसे काम चलेगा ! ... मुर्गी को अंडा देने से क्या फायदा है, यह सोच कर वो अगर अंडा देना बंद कर दे तो !”
“देखिए जब पहली करी तो नाम के आगे डॉ. लगा । जब दूसरी करी तो डॉ.डॉ. लगाना चाहिए । पर लोग लगाने नहीं दे रहे हैं । जब दो पीएचडी में एक डॉ. तो तीन में भी एक ही डॉ. लगाने को मिलेगा । फिर फायदा क्या !?
“कायदे  से तो डॉ.डॉ.डॉ. लगाना ही चाहिए ।  बल्कि डॉ.डॉ.डॉ. इतना बड़ा और प्रतिष्ठापूर्ण होगा कि इसके बाद नाम लिखने की जरूरत ही खत्म हो जाएगी ।  आखिर कौन है इस जहाँ में जिसने तीन तीन पीएचडियाँ  कर रखी है !... डॉ.डॉ.डॉ. बोलते ही गूगल बता देगा कि आप हैं ।”
“अरे नहीं, नाम तो लिखना ही पड़ेगा । आखिर मेरी सारी हॉबीस नाम के लिए ही तो हैं ।“
“और क्या हॉबी हैं आपकी ।“
“साहित्यकार हूँ, चित्रकार हूँ, गाती हूँ, होम्योपैथिक डाक्टर हूँ ... और हाँ ... आपकी हॉबी क्या है ?
“मेरी हॉबी !! .... वॉक करना .... पाँच किलोमीटर पैदल चलता हूँ । अच्छा याद दिला दिया .... अभी मैं निकलता हूँ डॉ.डॉ.डॉ. भाबी जी । फिर कभी आऊँगा फुर्सत में ।
 “लेकिन अभी ये तीसरा डॉ. क्यों !? पीएचडी तो करने दो पहले ।
“तीसरा डॉ. होम्योपैथी का है ..... नमस्ते । “
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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

मंदी का संगीत



दिन मंदी के हैं और हरगोविंद को दुकान पर बैठे अपने तमाम दोस्तों की याद आ रही है । मंदी का यह बड़ा फायदा है, वरना दिन अच्छे हों तो लोग भगवान को भी याद नहीं करते हैं । कवि भी कह गए हैं –“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय” । यही वजह है कि जब कोई दरवाजे पर आता है या फोन पर, तो मन में पहला सवाल यही उठता है कि कुछ काम होगा वरना बिना मतलब के कौन किसे याद करता है ! बाज़ार में भी जब कामकाज ज्यादा होता है उस समय को सीजन कहते हैं । सीजन में कारोबारी इतने व्यस्त होते हैं कि लघुशंका रोके गल्ले पर बैठे रहते हैं । ऐसे में उन्हें कोई याद आ जाए यह संभव नहीं है । लेकिन इन दिनों मंदी है और कारोबारी खूब पानी पी रहे हैं और बिना इमरजेंसी के लघुशंका भी जा रहे हैं । यू नो, टाइमपास । काटे नहीं कटते ये दिन ये रात .... । बाज़ार में ठंडापन इतना है कि लगता है कि सेमी कर्फ़्यू लगा हुआ है । अव्वल तो लोग आते ही नहीं, जो आते भी हैं तो लगता है परिक्रमा लगाते निकल जाते हैं । पोपली जेबें विधवा सी हो चली हैं । कभी लदी फँदी और भरी मांग वाली थीं अब भजन गा रही हैं – क्या ले कर आया बंदे, क्या ले कर जाएगा ; खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा
कल हरगोविंद ने अपना पुराना रेडियो निकल लिया । सोचा खाली बैठ कर सड़क टूँगने से अच्छा है कि विविध भारती पर साठ-सत्तर के दशक वाले गाने ही सुने जाएँ । पुरानी यादें उछलने कूदने लगेंगी तो दर्द पता नहीं चलेगा । मंदी का भी एक दर्द ही है । हालाँकि फेसबुक और वाट्स एप के जमाने में रेडियो से चिपकाना आउट डेटेड है । लेकिन ठीक है, पीत्ज़ा बर्गर के जमाने में लोग गुझिया गुलगुले भी तो खाते ही हैं । दुकान में तीन नौकर थे, दो को हटा दिया है । एक बचा है वह भी अब मालिक के साथ फ्री बैठा रेडियो सुनता रहता है । हरगोविंद को यही नहीं सुहाता है । मंदी हुई तो क्या हुआ मालिक मालिक है, नौकर नौकर है । उन्हे बेइज्जती सी महसूस होती है । लगता है जैसे दोनों एक ही कप से चाय पी रहे हों । मालिक नौकर एक ही जाजम पर बैठ कर उमराव जान का मुजरा सुने यह तो करीब करीब लानत जैसी बात है । लेकिन मंदी हैं भाई । मंदी में चौतरफा गिरावट दर्ज की जा रही है तो मालिक कौन चमेली का तेल डाल रहे हैं ! नौकर को तो फिर भी खाली बैठने के पैसे मिल रहे हैं, फालतू तो हरगोविंद है । यहाँ तक तो ठीक था, नौकर गाना सुनते हुए पैर हिलाता है । हरगोविंद को कतई अच्छा नहीं लगता है । एक दो दिन से वह सिर भी हिलाने लगा है । गुस्सा तो इतना आ रहा है कि नौकरी से निकाल दें । लेकिन मजबूरी है, कमबख्त को रुपए उधर दे रखे हैं जो तनखा से कटते हैं हर महीने ।
दूसरे दिन हरगोविंद रेडियो घर ले गए और कान में ईयर फोन लगा कर सेलफोन से गाने सुनने लगे । उन्हें देख कर नौकर ने भी अपना फोन निकाला और कान में बट्टे ठूंस लिए ।
हरगोविंद को यह भी पसंद नहीं आ रहा है ।
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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

कविता का कपोल वाइरस


सेवानिवृत्ति के बाद इधर बहुत से स्थगित काम हाथ में लेने का चलन है । मेरे मित्र मिसिर बाबू के सामने ऐसी ही कुछ स्थिति थी । सो उन्होने अपना लेखकीय उपनाम कपोल रखा और रोजाना आठ-दस कवितायें लिखने लगे । जल्द ही उनकी कविताएँ कोरोना वाइरस की तरह फैली और लोग संक्रमित होने लगे । सेवानिवृत्त कहाँ नहीं हैं, आजकल तो कुछ ज्यादा ही हो गए हैं । जो भी चपेट में आता गया वह भी लिखने लगा । पीड़ितों के घर वाले शिकायत करते कि “प्लीज, कपोल जी को किसी और काम में व्यस्त कीजिए, वरना ......” । लेकिन ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया । कपोल जी को विश्वास हो चला कि उनके शब्दों में गजब की ताकत है । वाइरस हों या बेक्टेरिया या फिर कविता ही हो, देश और दुनिया को हिला सकते हैं । वे कहते कि एक दिन कपोल-काव्य संसार में उथल पुथल मचा देगा । माहौल देख कर उन्होने घोषणा की कि वे जल्द ही खंड काव्य लिखने जा रहे हैं । खबर मिलते ही पड़ौसी चौबे जी ने लोगों को सूचित किया कि उनका ट्रांसफर हो गया है और वे तत्काल शहर छोड़ कर जा रहे हैं । वे चले भी गए । पीछे चर्चा है कि उन्होने रिश्वत दे कर अपना ट्रांसफर किसी सेफ जगह करवाया है ।

कपोल जी की चर्चा और आतंक देख कर तमाम सेवानिवृतियों ने कलम उठा ली । कुटीर उद्योग की तरह कविता-उद्योग घर घर में दनादन शुरू हो गया । कपोल दूसरे ... तीसरे ... चौथे .... पांचवे .... सीना तान कर पल्लवित होने लगे । लेकिन जैसा कि नियम है एक कपोल दूसरे की नहीं सुनता है इसलिए कविता के मार्केट में सुनने वालों का अकाल पड़ गया । सबको अपना अपना नया शिकार ढूँढना पड़ा । कविगण अपने दूधवाले, सब्जी वाले, फेरी वालों को पकड़ पकड़ कर सुनाने लगे । कई घरों में महरी यानी काम वाली बाइयों ने माइग्रेन की तकलीफ के कारण काम छोड़ दिया । बहुएँ अपने मायके फोन करने लगीं कि भैया आ कर ले जाओ हमें कुछ दिनों के लिए, वरना हमारा मरा मुंह देखोगे ।
नगरनिगम की एक बैठक हाल ही में हुई है । सातवें वेतन मान के लिए फिर से मांग उठी है लेकिन बजट नहीं है । किसी ने सुझाव दिया है कि सफाई कर का दायरा बढ़ाया जाए और कविता फैलाने वालों को भी दंडित करने की व्यवस्था हो । पता चला है कि कुछ लोग बहला फुसला कर, चाकलेट-कुल्फी का लालच दे कर कपोल-कृत्य करते हैं । शहर बदनाम हो रहा है , व्यवस्था को इसका संज्ञान लेना चाहिए । कोई रंगे हाथो पकड़ा जाए तो उस पर लोक आस्था के अनुरूप कार्रवाई होना चाहिए । यदि प्रशासन सुस्त रहा तो आशंका है कि मौब-लीचिंग की घटनाएँ होने लगेंगी । हमें याद रखना चाहिए कि कानून अपना काम नहीं करेगा तो प्रगतिशील समाज खुद कानून की भूमिका में आ जाता है । सब जानते हैं कि कानून अंधा होता है लेकिन उसके कान  होते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि वो हर समय हर कहीं हर किसी की कविता सुनता रहेगा ।
इधर कपोल कर्मियों को जब पता चला तो उन्होने अपना एक संगठन बनाने का ऐलान कर दिया । जल्द ही वे कविता लिखने और सुनाने को मौलिक अधिकारों में स्पष्ट रूप से शामिल करने के लिए धारना देने की योजना बना रहे हैं । जैसे ही शाहीन बाग वाले जगह खाली करेंगे कपोल कर्मी वहाँ जा कर बैठ जाएंगे ।
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