गुरुवार, 29 अगस्त 2024

शुद्ध घी मिलेगा कहीं !?


 


                                    यों तो हर आदमी चिंतक टाइप हो रहा है आजकल। घटते रोजगार, बढ़ती छंटनी और डबल पुलिस व्यवस्था के कारण लोग बैठे आसमान ऐसे ताकते रहते हैं जैसे आदमी नहीं छत पर लगी टीवी डिस्क हों। ज्योतिषियों को नहीं मालूम कि कल कौन से शत्रु-ग्रह मित्र-ग्रह हो जाएंगे । राजनीति सिर्फ जमीन की ठेकेदारी में नहीं है । जहाँ  भी बलवान और कमजोर ग्रह हों उठापटक शुरू हो ही जाती है । कल धूप खिलेगी या बरसात होगी ये मौसम विभाग वाले भी पूरी दमदारी से बोल नहीं सकते हैं । पल और कल की इतनी अनिश्चितता है कि ‘ढोल, गंवार, पशु, शूद्र, नारी’ सब चिंतन के अधिकारी हो रहे हैं । इस माहौल में दसपुत्रे जी सबसे अलग और बड़े वाले चिंतक हैं। उनकी चिंता खासतौर पर यह है कि किसी दिन सरकार ‘टप्प’ से गिर ना जाए। जैसे ही टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज आती है उनकी जान ‘धुक्क’ हो जाती है । टीवी वालियों पर उनको बहुत गुस्सा है । सियारों की तरह इतना ‘हुक्का हुआ’ चीखतीं हैं कि लगता है देश जंगल में तफ़दील हो रहा है । इधर दसपुत्रे सरकार को ऐसे दिल  पर लिए बैठे हैं मानो हुकूमत के सबसे ज्यादा शेयर उनके पास हैं । वे मानते हैं कि सरकार उनकी निजी है। और हो क्यों नहीं आखिर कड़क वोट देकर खुद उन्होंने बनाई है। अपनी के साथ कुछ हो जाए तो इज्जत का सवाल होता ही है। दूसरों की गिराई जाती है तो उनकी गठिया वाली टांगे भी ब्रेक डांस करने लगती हैं। पिछले वर्षों  में जब भी दूसरों की गिरी, उनके घर पर ढोल अवश्य बजे। फिसलन की तमाम आशंकाओं के बीच आज उनका एक ही एजेंडा है की सरकार को मजबूती से चलाने के लिए वे अपनी पूरी ताकत लगा देंगे।

                     पिछली बार जीत के लिए दसपुत्रे जी ने सप्तकुंडी हवन करवाया था। चमत्कार देखिए कि सरकार नहीं बनते बनते आखिर में बन ही गई। इस बार उनका इरादा एकादश-कुंडी हवन करने का है। हवन कर्मियों ने अलिखित गारंटी दी है कि सरकार पूरे पाँच साल चलवा देंगे। जब दसपुत्रे जी ने गारंटी पर उंगली रखते हुए पूछा यदि नहीं चली तो? हवन-कर्मी बोले हमारी गारंटी पिछली सभी गारंटियों से पक्की है। फिर भी सरकार नहीं चली तो उसका कारण हवन सामग्री में अशुद्धि और घी में मिलावट को समझा जाए। फिलहाल दसपुत्रे शुद्ध हवन सामग्री और बिना मिलावट का घी  ढूंढने में पूरी ताकत लगा रहे हैं।
                      इस बीच अलग किस्म के कुछ लोगों ने समझाया कि “दसपुत्रे जी हवन अवन से कुछ होने वाला नहीं है। आप तो फेक न्यूज़, फेक फोटो, फेक वीडियो और फेक मैसेज बनाने की फैक्ट्री डाल लो। स्टार्ट-अप चालू है । हर दिन हजारों फेक सूचनाएँ जनता के बीच पहुँचेंगी तो सारे रोबोट की तरह काम करने लगेंगे। किसी को कुछ समझ में नहीं आएगा कि सच क्या है। सच को नहीं जानने देना बड़ी और कुशल राजनीति है आज की डेट में । और झूठ को विश्वास में बदल देना दीर्घकालीन सफलता है। नेताजियों को देखते ही लोग घंटा बजाने लगें, आरती गाने लगें तो भला उस सरकार को गिराने के लिए मंगल ग्रह वाले आएंगे क्या !?
                       अचानक अंधेरा अंधेरा सा लगने लगा। घबराए दसपुत्रे जी बोले - " देखो जरा बाहर! अंधेरा सा क्यों लग रहा है! सूर्य ग्रहण लग गया है क्या? "
                     " सूर्य ग्रहण नहीं लगा है दसपुत्रे जी । आपकी एक नेत्री का बयान आया है कि किसानों ने यह किया वह किया। लेकिन आप चिंता कतई ना करें। पार्टी ने साफ-साफ कह दिया है की नेत्री भले हमारे गले पड़ी  हो पर बयान हमारे गले का नहीं है। वैसे भी बयानों को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है, वे जुमलों से अधिक कुछ नहीं होते हैं, बोले चाहे कोई भी। जनता एक काम से सुनेगी और दूसरे कान से तुरंत निकाल देगी। आप फिक्र ना करें। "
                   "अरे बकवास बंद करो जी। " दसपुत्रे जी बोले- " जाओ तलाश करो कहीं शुद्ध घी मिलेगा क्या। "

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शुक्रवार, 23 अगस्त 2024

साहित्य में नयी आमद


 

                 कॉलोनी में बीचों बीच एक ज्ञान दीप गार्डन है। पिछले कुछ दिनों से वरिष्ठ कवियों का एक समूह गार्डन में प्रतिदिन जमा होता है। सभी लोग रिटायर्ड हैं और अपने भरे पूरे घर में अकेले और उपेक्षित भी। यान देखा जाए तो यह एक ऊबा हुआ समूह है जिसके पास समय काटने की समस्या है । लिहाजा कुछ ने लिखना शुरू कर दिया है और कुछ अभी मन बना रहे हैं। जिनके पास टेबल कुर्सी थी वह बैठ गए। जिनके पास नहीं है अभी दिक्कत में है। घर में अपने लिए ही जगह नहीं है,  टेबल कुर्सी के लिए तो असंभव है । कोई कोना खाली नहीं है। कुछ लोग आंगन में बैठे, कुछ काफी हाउस निकले, किसी ने लाइब्रेरी पकड़ी। जैसा कि परंपरा है शुरुआत में कविताएँ ही उतरी। सुनाने-सुनने की दिक्कत पेश नहीं आई। इस मामले में वरिष्ठ कवि समूह आत्मनिर्भर है।

           

   इधर ऑल टाइम यंग महिलाओं का भी एक समूह है। किटी पार्टी में जा जा कर खुद तंबोला होने और तंबोला खेलने से जो ऊबी हुई हैं। ये सभी ‘वरिष्ठ-लेखिका’ कहलाने से बचते हुए लेखन के मैदान में हैं। इधर भी कविताएँ पकौड़ियों की तरह छन रही हैं। कथा कहानी की रेसिपी भी खोज निकाली गई है। लघु कथाओं पर भी लपक कर काम चल रहा है। ऐसे उपजाऊ माहौल में प्रकाशक भी शिकार पर निकले हैं और धड़ाधड़ किताबें छाप रहे हैं। कहने वाले कहते हैं कि किताबें नहीं नोट छाप रहे हैं। खैर, लिक्खू लोगों को इससे क्या, सबको अपना-अपना काम करना चाहिए। बाबाओं, साधु संतों, छू छा वालों का मार्केट हाई चल रहा है इनदिनों। माहौल में अलौकिक शक्तियों का हस्तक्षेप बढ़ गया है। इन्हीं के बीच लगता है दिवंगत लेखन के भूत भी सक्रिय हो गए हैं। इनकी पैठ भी बनती जा रही है। घोस्ट रायटिंग यानी भूत लेखन की विशेषता यह है कि भूत नहीं दिखता लेखन दिखता है। जो दिखता है वही छपता है। साहित्य में भूत सहायक होते हैं। जिनमें थोड़ी हिम्मत और कुव्वत होती है वे उन्हें कंधों पर लाद कर ले आते हैं।
                 

 पहले कभी लेखकों को पारिश्रमिक देने का चलन भी था। आय भले ही काम हो पर पत्र-पत्रिकाओं की सोच बड़ी थी। फिर नई तकनीक आई, विकास हुआ, आय बढ़ी और हाथ तंग हुए। मौका मिलते ही बाजार ने अपने हक में देवी देवताओं को खड़ा कर लिया। लेखक सरस्वती पुत्र होते हैं। जानते हैं सरस्वती और लक्ष्मी का बैर है। इसके अच्छे परिणाम सामने आए। पारिश्रमिक बंद हुआ तो लेखन की बाढ़ आ गई। लगता है पारिश्रमिक के कारण ही अभी तक लोग लिख नहीं पा रहे थे। साहित्य साधना है, निस्वार्थ सेवा और पवित्र कार्य है। श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि कर्म किए जाओ फल की इच्छा मत करो। फल की इच्छा से कर्म दूषित हो जाता है। रचना पत्र-पत्रिका को भेजो फल भगवान देगा। भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। तो कुल मिलाकर बात यह है कि साहित्य के क्षेत्र में नई संस्कृति का तेजी से विकास हो रहा है। इसलिए सब मिलकर स्वागत करें इसका और लिखें दिन में दर्जन भर कविताएँ   जय हो।

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शनिवार, 17 अगस्त 2024

मेरे महबूब किसी और जगह मिलकर मुझसे




 




                    दंत चिकित्सक के क्लीनिक का वह वेटिंग रूम... अहा!! वह भी क्या हसीन दिन थे जब दाँत में दर्द हुआ था। एक एक दर्द सात-आठ दिनों की सीटींग लेता है । इतने दिन काफी होते हैं एक रिश्ता कायम हो जाने के लिए । यही वजह है कि दाँत में जरा सा भी दर्द होता है न जाने क्या-क्या याद आने लगता है। कहते हैं दूसरों के दुख को देखो तो अपना दुख कम हो जाता है। यही बात दाँतों के दर्द पर भी लागू होती है। उम्र के इस मुकाम पर हर साल-छः महीने में कोई ना कोई मौजूदा दाँत तलाक-तलाक बोलने पर आमादा हो जाता है। और आप चाहो ना चाहो आपको पहुँचना ही पड़ता है ‘दंत-काजी’ के पास। वहाँ सामने एक पारदर्शी बरनी रखी रहती थी जिसमें तमाम दाँत भरे हुए थे । दाँतों का यह मार्गदर्शक मंडल बिना बोले बहुत कुछ बोलता रहता था, जिसे यहाँ बैठा हर व्यक्ति बिना रेडियो के सुनता था। मजरूह के शब्दों में - रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से प्यारों कि तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह। कोई समझे तो जानेगा कि निकले पड़े हुए बेचारे दाँतों का भी दर्द कम नहीं

      उन्हीं दिनों की बात है, क्लिनिक के वेटिंग रूम में लगातार कुछ दिनों बैठना पड़ा था । सामने गाल पर हाथ रखे बैठी एक सत्तर-इकहत्तर वर्षीय सुंदर महिला रेखा और उमराव जान की याद दिला रही थी । आपको लग सकता है कि कुछ ज्यादा हो गया। लेकिन मरद जात के बारे कुछ कहना कठिन है । रेखा दिमाग में हो तो लोग दिल हथेली पर रख कर चलते हैं । और फिर कहने वाले का गए हैं की उम्र मात्र एक नंबर है और सुंदरता देखने वाले की निगाह में होती है। ये दोनों बातें प्रेम के पक्ष को मजबूती देने वाली हैं । और आपको बता दें कि जिंदादिल हमेशा चुनौती लेने के लिए तत्पर रहते हैं। भले ही दो इंस्टेंट लगे हों, मौका आ जाए तो किसी भी जीत के लिए दिल हारने से पीछे नहीं हटते हैं । लोक-शिक्षक कह गए हैं जब आप किसी को मुस्करा कर देखते हैं तो बदले में आपको भी मुस्कराहट मिलती है । मेरा अनुभव है कि यह बात सही है । जिस वक्त यह सब चल रहा था कमबख्त दाँत का दर्द बिना बताए कहाँ गया कुछ पता नहीं चला । शगुन अच्छा था । अंदर बैठे ग़ालिब बोल पड़े - ' उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक, वो समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है'। जल्द ही यह नामाकूल सवाल भी उठा कि जब सब अच्छा है तो मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ । लेकिन तुरंत समझ भी आ गया कि मैं यहाँ क्यों बैठा हूँ । सालभर  हो गया इस बात को । शरीर लिए घूम रहा हूँ आत्मा वहीं है । दिल क्लीनिक के वेटिंग रूम में रखे रजिस्टर पर पेपर-वेट सा पड़ा है और तीसरी कुर्सी पर दर्द लिए मैं भी । हाल यह है कि दर्द ही नहीं हो रहा है । दिल पुकारे आ-रे आ-रे । दाँत का दर्द अब बड़ी मन्नतों के बाद भी नहीं हो रहा है। देने वाला भी बड़ा तंगदिल है, मांगो तब नहीं देता।
                      आप अगर लोकमतवादी हैं तो इस मुकाम पर मुझे गलत कह सकते हैं। दाँत को उखड़वाना और प्रेम की जुगाड़ करना दोनों एक साथ नहीं हो सकते हैं। आदमी या तो आह कर सकता है या अहा कर सकता है। दोनों अलग-अलग उम्र के मसले हैं। बात आपकी ठीक है लेकिन ऐसे हजारों हुए हैं जिन्होंने प्रेम के चक्कर में अपने दाँत दाँव पर लगाये हैं। भले ही उन्होंने डेंटिस्ट की सेवाएँ नहीं ली हों और यह काम जनसेवा के माध्यम से हुआ हो। शायद आपको पता नहीं है कि साठ के बाद का प्रेम ऑर्गेनिक-लव होता है यानी जैविक-प्रेम। इस तरह का प्रेम च्यवनप्राश कि तरह स्वास्थ्यवर्धक और प्राकृतिक होता है। वृद्धों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कल्चरल पुलिस को चाहिए कि जैविक-प्रेम को बढ़ावा दे । वानप्रस्थि लोग संसार में लगें, प्रेम करें, सक्रिय रहें इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है। कुछ व्यावहारिक दिक्कतें हो सकती हैं उन पर गौर किया जा सकता है । जिन्होंने नोटशीट लिखते जीवन होम किया हो उनके लिए प्रेम पत्र लिखने का क्रैश कोर्स चलाया जा सकता है। हालाँकि लंबा कुछ लिखना नहीं है , आजकल तो व्हाट्सएप कबूतर है। आखिर सबका साथ सबका विकास कुछ मायने तो रखे। प्रेम के धागे कच्चे जरूर होते हैं लेकिन इनमें जंजीर से ज्यादा मजबूती होती है। यम के दूतों को भी दो-चार बार खाली हाथ लौटना पड़ सकता है । याद है गुलेरी की कहानी ' उसने कहा था'! लहना सिंह ने पूछा 'तेरी कुड़मई हो गई?' और उत्तर में एक छोटा सा 'धत्त ' सुन कर पूरा जीवन हार गया था। प्रेम हर हाल में प्रेम ही होता है, उसके लिए बूढ़ा-जवान, अमीर-गरीब, दंतवान-दंतहीन कुछ नहीं होता। ढूँढोगे तो पोपले प्रेमी भी रजाइयों में दुबके मिल जाएंगे ।
                     तो भाई आप समझ गए होंगे कि जो पुराना है वही सच्चा और खरा है। बात की गंभीरता को समझिए, इसके संरक्षण की जरूरत है। इधर नई पौध का प्रेम देखिए, पेस्टिसाइड्स और रासायनिक उर्वरकों से लबरेज मिलेगा । नया प्रेम अब इवेंट मैनेजमेंट के दायरे में आ गया है। लोग बहुत नाप तौल के, सोच विचार कर प्रेम का इंतजाम करते हैं। इसमें ब्रेकअप के कुछ बहुत जरूरी मुकाम भी होते हैं। जब तक साल में दो-चार ब्रेकअप मुकम्मल ना हो जाएँ कोई प्रेम-प्लेयर परफेक्ट नहीं होता है। सब तरफ प्लास्टिक प्रेम का बोलबाला है। खटाखट यूस एण्ड फटाफट थ्रो। पर्यावरण वाले भी समझा रहे हैं कि हर तरह के प्लास्टिक से बचो और अपने जीवन को सुरक्षित रखो। लेकिन सुनता कौन है। इश्क बाजार में है और मुरीद बेपरवाह । लूटपाट सी मची हुई है केम्पसों में । नौजवान फिशिंग के लिए निकलते हैं । एक फँसी तो डिनर का इंतजाम हुआ । अब तो प्रेम जहाँ बहुत जरूरी है वहाँ भी नहीं बचा है। एक फोन के लिए बरसों इंतजार करते माँ सोफे पर पड़ी पड़ी कंकाल हो गई। बेटे को दो बरस बाद खबर लगी, वह भी पुलिस के फोन से।  
                      कहते हैं जोड़ियाँ ऊपर वाला बनाता है। चलो मान लिया। लेकिन गलतियाँ किससे नहीं होती। ईश्वर कोई एक काम लिए थोड़ी बैठा है। हजार काम होते हैं औंधी सृष्टि को सीधा चलाने में। खुशकिस्मती देखिये, बावजूद इसके ऊपर वाले ने हमारा ध्यान रखा। मैं दाँतों की बात कर रहा हूँ। अब तक छः से अधिक दाँतों का इलाज हम साथ-साथ करवा चुके हैं जी । समय ने इस दौरान हमारे बीच अपने किस्म की 'दंत-कथा' विकसित कर दी है। सुख के साथी भले ही नहीं हो सके हों दर्द का साथी तो बना ही दिया ऊपर वाले ने । थैंक यू गॉड । इतना बीजी रहने के बाद भी सुन ही लेता है गरीबों की ।

 एक दिन अनायास ही उससे कहा - यह दाँत का दर्द भी कितना अजीब है, कुछ दिनों तक ना हो तो क्लिनिक की याद सताने लगती है।
"तुम्हें भी ऐसा लगता है क्या !?"
" हाँ सचमुच। "
" दाँत है तब तक तो अच्छा है, डेंचर लग जाएंगे तो दिक्कत होगी। " उसने कहा।
                   मैं चौंक गया । सच कहूँ तो मुझे इस तरह के उत्तर की उम्मीद नहीं थी। धुँवा  सा उठा, महक फैली, लगा अगरबत्तियाँ जल रही हैं कहीं। पुराने चावल जरा सा फूँक दो तो महकने लगते हैं। लेकिन डर लगता है पुराने होने पर। जवानी की बात और थी । अब किसी को प्रेम करो तो रसीद तैयार करने लगता है जमाना। रसीद नहीं समझे? पानी में डूब रहा हो या प्रेम में, लोग रील बनाने लगते हैं । वह सभ्यताएँ और हैं जहाँ अस्सी बरस के लोग प्रेम कर सकते हैं और शादी भी।
" कितने दाँत बचे हैं तुम्हारे? " मैंने पूछा।
" इक्कीस,... अभी तो बहुत है। "
" मतलब ग्यारह निकल गए!!"
" अभी तो काफी हैं । " उसने अर्थपूर्ण जवाब दिया।
                   मन हुआ की कह दूँ बहुत ज्यादा कीमत चुकाना पड़ रही है हमें प्रेम की । साहिर का एक शेर है ना - ' मेरे महबूब किसी और जगह मिलकर मुझसे, बज्म ए शाही मैं गरीबों का गुजर क्या मानी'

बात समझते हुए उसने पूछा – मंदिर नहीं जाते हो क्या ?

“नहीं । आदत में नहीं है ।“

 “आया करो । प्रेम का अठारह परसेंट जीएसटी चढ़ाना पड़ता है भगवान को । बाकी तो अपना रहेगा ।“

“आइडिया बुरा नहीं है । दाँतों के साथ भी और दाँतों के बाद भी ।“

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सोमवार, 29 जुलाई 2024

आग जो लगाये न लगे, बुझाये न बुझे






                           आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे लाल कवि ने चौथी रोटी बेली, वह भी मुक्त छंद बनी। गोल रोटी बेलना कविता लिखने से ज्यादा कठिन काम है ऐसा कवि को लगने लगा है। उसे अब निराश हो जाना चाहिए था। लेकिन आदत से लाचार वह अपनी रोटी-रचना से अंदर ही अंदर मुदित है। तवे पर पड़ी पहले वाली रोटी अभी सिंकी नहीं थी इसलिए रुक कर प्रतीक्षा करना आवश्यक हो गया था। जब भी प्रतीक्षा का अवसर आता है लाल कवि को कड़क काली चाय लगती है। चाय नहीं हो तो वह घड़ी देखता है। बार-बार घड़ी देखना प्रतीक्षा को सरल करने का भौतिक उपक्रम है। इस वक्त चाय संभव नहीं थी।  उसने टेबल पर पड़ी घड़ी उठाकर अपनी कलाई में बांध ली और टाइम देखा। बार-बार घड़ी देखने के बावजूद समय साठ सेकंड प्रति मिनट की दर से ही कटता है। ऐसे में लाल कवि को नीले आसमान की तरफ देखना अच्छा लगता है। आकाश अनंत है और उसे निहारने से प्रतीक्षा में एक क्लासिक-पुट आ जाता है। बेरोजगारी और मुफलिसी के दिन हैं । कमाऊ होता तो इस वक्त सुंदरियाँ उसे देखकर कह उठती है – ‘अहा... कवि निहार रहा आकाश! क्यों बैठा मालिन मुख निराश!’ यहाँ दिक्कत यह है की रसोई घर से आसमान नहीं दिखता है। इसलिए लाल कवि लाचार ने छत को निशाने पर लिया। छत पर एक छिपकली चिपकी थी। भावुक लाल कवि की दृष्टि उसे पर टिक गई। कुछ ही देर हुई थी कि कवि को लगा कि छिपकली मुस्कुरा रही है। फाकामस्ती के चलते बहुत समय से लाल कवि को किसी ने मुस्कुरा कर नहीं देखा था। कालेज के दिनों की पिंक छतरी वाली लड़की याद आ गई । एक रिपिट टेलिकास्ट सा हुआ । शरमा कर कवि ने नजरें नीचे की। तवे पर पड़ी रोटी अभी भी सिंकी नहीं थी।
                   लाल कवि भयंकर संवेदनशील है । शोषण अन्याय व अत्याचार के खिलाफ ठोक कर कविता लिखते हैं। लोग मानते हैं कि उनकी कविताएँ कविता नहीं धधकते हुए अंगारे हैं। लेकिन विडंबना यह है कि हर बार अंगारे ‘हलवा-सेरेमनी’ के काम आ जाते हैं। बाहर इनका कोई असर नहीं होता है । अब देखिए,  खुद उनकी रोटी अभी तक सिंकी नहीं है। पेट में एक अलग तरह की आग है जो धीरे-धीरे बढ़ रही है। सुना है दिल्ली मुंबई जैसे नगरों में दस पंद्रह रुपयों में भरपेट खाया जा सकता है। हालाँकि आजकल लेखकों और कवियों को पारिश्रमिक देने का चलन समाप्त हो गया है किन्तु उसे ‘भूत-लेखन’ से कुछ मिल जाता है। दिल्ली में अगर तीस चालीस रुपयों में दो वक्त का खाना मिल जाए तो लाल कवि क्रांति कर सकता है। उसे अब समझ में आया कि अर्बन-नक्सल का खतरा होने के बावजूद कवि लेखक अपना गाँव-गली छोड़कर दिल्ली क्यों भागे चले आते हैं। पापी पेट भर जाए तो ‘गालिब कौन जाए दिल्ली की गलियाँ छोड़कर’। लाल कवि के दिमाग में अब चालीस रुपये  और दो वक्त का खाना पकने लगा था। उसने नज़रें उठा कर देखा छिपकली अभी भी मुस्कुरा रही थी। मूड अच्छा था, कवि ने शिष्टाचारवश मुस्कुरा कर उत्तर दे दिया। छिपकली फौरन शरमा का ट्यूबलाइट की पट्टी के पीछे छुप गई। तवे पर पड़ी रोटी अभी भी सिंकी नहीं थी।

                       कवि सोच रहा था कि किसी तरह दिल्ली पहुँच जाए तो फिर घर बसाने के बारे में भी सोचा जा सकता है। एक ‘भूत-लेखन’ से दो लोग हफ्ता भर आराम से खाएंगे और मजा करेंगे। अचानक उसे एक भूत-विचार भी आया की नौकरी वाली पत्नी मिल जाए तो दिल्ली फतेह हुई समझो। खुश मन के साथ कवि ने तवे के नीचे देखा, बर्नर पर आग नहीं थी। उसे ध्यान आया कि गैस खत्म हुए हफ्ता भर हो गया है। गुस्से में उसने बेली हुई रोटियों को मसक कर लौंदा बना दिया। उसकी नजर फिर दीवार पर गई, छिपकली जुबान निकाल कर मानो चिढ़ा रही थी। एक आग सी भड़की अंदर । गुस्से में लाल कवि ने कागज कलम उठाया ।

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गुरुवार, 4 जुलाई 2024

लेखक का मूल्यांकन


राइटर सारासिंह खूब सारा लिख चुके हैं । उन्हें लग रहा है कि अब अच्छा लिखना बेकार है । अच्छे साहित्य का जो माहौल पहले था अब नहीं है  ।   उनकी इच्छा है कि आँखों के सामने मूल्यांकन हो जाना चाहिए । इसलिए उन्होंने अपनी कुछ किताबें नगर के एक समीक्षक- आलोचक को भेज दी । साथ में यह चिट्ठी भी कि

'महोदय पुस्तकें मूल्यांकन हेतु सादर प्रेषित हैं । कृपया समय निकाल कर अच्छी टीप लिख दें ताकि पाठकों को प्रेरणा मिले’।


           अभी वे उम्मीद के तीसरे चौथे चरण में डूब उतर रहे थे कि उनका पुराना मित्तर अक्खरसिंह  सिंह मिल गया । वे अक्खरसिंह  को अपना फैन भी मानते हैं । अरसे तक अक्खरसिंह अपनी टिप्पणियों से सारासिंह की हौसला अफजाई करते रहे हैं । यह बात अलग है कि सारासिंह हर बार उन्हें ( संयोगवश ) दूध लस्सी वगैरा भी पिलाते रहे थे । इससे प्रायः टिप्पणी में तरावट और चिकनाहट आ जाती थी । लेकिन इससे क्या! विद्वान कह रहे हैं कि सार-सार गह ले थोथा दे उड़ाए । अक्खरसिँह. की टिप्पणी भी एक तरह का मूल्यांकन ही है । और यदि यह पौष्टिक भी हो तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । वैसे देखा जाए तो इस दुनिया में कोई भी चीज मुफ्त नहीं मिलती है । मूल्यांकन मेहनत का काम है । सूखा सूखा मूल्यांकन हर किसीके गले में अटकता है ।   

        किसी को दस-पाँच अक्खरसिंह  तो मिल नहीं सकते भले ही आप सचमुच अच्छा ही लिखते हों । जमाना महंगाई का है और लोगों का मिनट मिनट कीमती है । कुछ महीने पहले तक सारासिंह कॉफी हाउस में बैठे थे और प्रायः बिल वे ही चुकाते थे ।   लंबे वक्त के बाद उन्हें समझ में आया कि भाई लोग इडली-डोसा और काफी के बहाने उनकी जेब का मूल्यांकन कर रहे हैं । लेखकों में एक खास बात होती है वे अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी रचना रद्दी है ।   लेकिन मां के लिए तो अपना कुरूप बच्चा भी सबसे सुंदर होता है । उन्हें विश्वास होता है कि जब दूसरों की रद्दी रचनाएँ चल रही हैं बाजार में तो मेरी क्यों नहीं चलेगी । चलती का नाम गाड़ी और छपती का नाम साहित्य । 


            इसी चक्कर में दक्षिणपंथी होने के बावजूद वे वामपंथ और समाजवाद का समर्थन भी  कर दिया करते हैं । यू नो, साहित्य साधना और त्याग का क्षेत्र भी है । सारासिंह का अनुभव कहता है कि गरीब आदमी सस्ता और अच्छा श्रोता होता है । दो चार अच्छे गरीब मिल जाएं तो साहित्य, समाजवाद और मूल्यांकन तीनों लक्ष्य साधे जा सकते हैं ।   लेकिन इन दिनों अच्छे गरीब मिलने में बहुत दिक्कत है । जब से मुक्त अनाज बाँटा जाने लगा है लेखकों की समस्या और कठिनाई बढ़ गई है । चुनाव के चलते कुछ नई बातें भी सीख गए हैं ये लोग । जो रामदास कभी बीड़ी माचिस में सुन लिया करता था, अब पव्वा माँगता है । कहता है सुनने में मेहनत लगती है साहब जी । दिमाग का दही हो जाता है । जब लिखने वालों को थकान उतारने की जरूरत होती है तो सुनने वालों के लिए क्यों नहीं ! अब आप ही बताइए ऐसे माहौल में कोई कैसे और क्यों लिखे भला ! साहित्य सेवा एक महँगा काम है । विडंबना देखिए जमाना इससे फोकटिया काम समझता है ! ये कुछ स्थितियों है जिसने सारासिंह को विरक्त कर दिया है ।   

            कुछ दिनों बाद आलोचक महोदय का लेख छापा जिसमें तमाम लेखकों का जिक्र उनके कारनामों के साथ था । लेकिन सारासिंह ना तीस में थे ना पचास में । पहले कुछ मिनट उन्होंने भारी तमतमाहट में गुजारे । फिर गुस्सा आया तो पूरे दिन मेहमान रहा । दूसरे दिन सोचा कि गलती किससे नहीं होती । अभी देश को पता चला है कि नेहरू और गांधी से भी हुई है तो एक छोटे से आलोचक का क्या ! बुढ़ापे में यों भी आदमी की याददाश्त कमजोर होने लगती है ।   किताबें मिली होगी लेकिन देखना भूल गए होंगे । एक बार उनसे मिल लेना चाहिए था । कुछ प्रेरणा और प्रसाद भी साथ में होता तो उनके दिमाग में जगह मिल जाती । सारासिंह ने कसम खाई कि तुम मुझे भूल जाओ यह मैं होने नहीं दूँगा । फ़ौरन से पेशतर वे आलोचक जी के सामने थे ।   

" साहब जी, ये कुछ बादाम हैं जी कैलिफोर्निया वाले । रख लो जी, इससे याददाश्त बढ़ती है ।   "  कहते हुए उन्होंने पैकेट आगे बढ़ाया । 

" आप खाते हैं ? " जवाब में आलोचक जी ने पूछा । 

" खाते हैं जी, तभी तो आपको याद रखते हैं हमेशा ।  "

" तो यह बादाम ही है जिसके कारण आप मुझे याद रखते हैं!"

" हाँ जी हाँ ...  आपने सही मूल्यांकन किया । "

" बताइए क्या सेवा करूँ आपकी ? "

" सर जी कुछ किताबें भेजी थी मूल्यांकन के वास्ते ।   कुछ हुआ नहीं ।   "

" क्या होना था? "

" आपके लेख में किताबों का या मेरा कोई जिक्र नहीं है जी …"

" हाँ जिक्र तो नहीं है ।   "

" इसका मतलब है कि मूल्यांकन नहीं हुआ जी !"

" मूल्यांकन तो हुआ । "

" तो जिक्र क्यों नहीं हुआ जी !!"

"ये समझने की बात है  ..."

" आप भूल गए होंगे जी । "

" नहीं याद है मुझे ।   "

" फिर जिक्र क्यों नहीं हुआ जी ?!"

" जिक्र ना होना भी मूल्यांकन ही है जी । "

"जिक्र तो होना चाहिए था, वरना दुनिया को कैसे पता चलेगा कि मेरा लेखन क्या है ।  "

" कुछ बातों का पता न चलना लेखक के हित में होता है । "

" मैं समझा नहीं जी ! "

" ये बादाम ले जाओ और कुछ दिन खाओ समझ जाओगे । "


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मंगलवार, 18 जून 2024

रामभरोसे के जले पर आइसक्रीम


 


जब से चुनाव परिणाम आए हैं रामभरोसे उदास बैठे है। उदास होने का उनका यह पहला अनुभव नहीं है.। वक्त जरूरत के हिसाब से वे उदास होते रहे हैं। लेकिन इस बार बात कुछ अलग है। सोचा था कि लोकतंत्र की चाबी मंदिर में है। धर्मभीरू जनता मंदिर के सिवा कुछ नहीं देखेगी। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा है कि चुनाव के पहले जो जनता अपनी और प्यारी लग रही थी चुनाव के बाद वह आंख की किरकिरी क्यों लग रही है। अब तो उनका भगवान पर से भी भरोसा उठता जा रहा है। किसी जमाने में सवा रूपये के प्रसाद में मान जाते थे। ठीक है कि मंदिर अभी अधूरा है, पर इतना भी अधूरा नहीं है कि टांग तोड़ कर बैसाखी पकड़ा दो!! रामभरोसे मानते थे की जनता भोली है। भजन भंडारे और भगवान के नाम पर जिधर चाहेंगे हाँक लेंगे। पांच साल से भेड़िया आया भेड़िया आया चिल्ला रहे थे। लेकिन भेड़ बकरियों ने अपने चौकीदार को सींग मार कर चित कर दिया यह चिंता का विषय है। इस बार और माहौल बनाए रखते तो देश को एक मैड इन इंडिया बायोलॉजिकल भगवान मिलने ही वाला था । रामभरोसे के पास तो आरती और वंदनाएं भी तैयार पड़ी हैं। सोचा था अपने भगवान के मंदिर बनाएंगे, वे जहां-जहां कदम रखेंगे उसे पवित्र घोषित कर देंगे। संत उनके नाम की कथाएं सुनाएंगे। उनके काम का बखान करते हुए नए-नए पुराण लिखे जाएंगे। देश हजारों साल पुराने नए युग में प्रवेश करेगा। लेकिन सारे सपने धरे के धरे रह गए। किसे पता था कि मूर्ख जनता सांप सीढ़ी खेलने बैठ गई है।

राम भरोसे ने टीवी बंद कर दिया, अब खबरों में वह बात नहीं। मजा ही नहीं आ रहा है। जिनकी सूरतें भूल गए थे वे भी दिखने लगे हैं। डर लगता है उन्हें देखकर। उन्होंने अखबार उठा लिया और उलट पलट कर रख दिया। इनके भी सुर बदलते जा रहे हैं। चंद दिनों में ही कितना कुछ बदल गया! सोचा नहीं था कि यह दिन देखने पड़ेंगे। क्या करें किसी काम में मन नहीं लग रहा।
"आइसक्रीम खाओगे?" पत्नी ने पूछा
" अरे यह कोई आइसक्रीम खाने का मौसम है!! कुछ तो सोच समझ कर बोला करो।" राम भरोसे को गुस्सा आया।
"गर्मी बहुत पड़ रही है और तुम्हारा मन भी थोड़ा खिन्न है। आइसक्रीम खा लो अच्छा लगेगा।"
" अब तुम जले पर आइसक्रीम मत लगाओ। देख रहा हूं तुम भी बहुत बदल गई हो। "
"हफ्ता भर हो गया उदासी औढ़े बिछाए बैठे हो!... सब दिन एक समान नहीं होते हैं। भगवान चाहेगा तो बैसाखियां बहुत जल्दी हट जाएगी। "
" यही तो दिक्कत है भगवान ही तो नहीं चाह रहा है। "
" भरोसा रखो भगवान के घर देर है अंधेर नहीं।"
" इसका मतलब है कि तुमने भी वोट उधर वालों को ही दिया है!! जब घर में ही सेंड लगी हो तो कोई क्या कर सकता है।"
राम भरोसे की उदासी और बढ़ गई और अनमने से आवारगी के लिए बाजार कि और निकल गए।

 

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शनिवार, 1 जून 2024

लोटा साहब को सब पता है !





गोपन गणेश लोटा यानी जी.जी. लोटा साहब प्रशासनिक मामलों के कीड़े हैं । कई पदों से होते हुए  अब रिटायर हैं । खास बात हैं कि रिटायरमेंट शरीर का हुआ है कीड़ों का नहीं । शरीर बहुत कामन चीज है, सबके पास होता है । शरीर से उन्हें उतना प्रेम नहीं है जितना अपने कीड़ेपन से है । लोग भी उन्हें शरीर कि वजह से नहीं कीड़ों कि वजह से इज्जत देते हैं । सरकार पेंशन शरीर को देती है, कीड़ों को आत्मनिर्भर रहना पड़ता है । आजकल आत्मनिर्भर की पीड़ा आत्मनिर्भर ही जानता है । जब भी कोई सामने पड़ जाता है कीड़े कुलबुला उठते हैं. भूख न जाने जूठा भात, नींद न जाने टूटी खाट. जीजी लोटा के सामने जो भी पड़ जाता समझिए वही उनकी खुराक हुआ. पहली शिकार नगर निगम की सफाईकर्मी बसंती बनती है. आज सोचती है कि पता नहीं किस मुहूर्त में बाबूजी से राम-राम कर ली. लोटा उसी से बातचीत करते हैं - " क्या बसंती सब ठीक चल रहा है ना ? तनखा तो अच्छी हो गई है नगर निगम में.  हमें तो सब पता है ना. हम थे नगर निगम में कमिश्नर. कमिश्नर तो नहीं थे पर कमिश्नर का पूरा काम देखते थे. सफाई का बड़ा बजट होता हैलेकिन लोग खा जाते हैं. हमें तो सब पता है. हमने भी खाया है थोड़ा बहुत, लेकिन उतना नहीं खाया जितना आजकल लोग खा रहे हैं. हमारा तो एक सिद्धांत था कि ज्यादा नहीं खाना. रोटी बनाते समय पलथन लगाते हैं ना, ताकि रोटी गोल गोल घूमती रहे. बस उतना ही खाते थे कि केस आसानी से घूमता जाए. लेकिन सब ऐसा नहीं करते हैं. हमें तो सब पता है. "  एक ही सांस में जीजी लोटा बसंती को बोल गए. सही बात है बाबूजी कहकर बसंती झाड़ू में लग गई.
इसके बाद जीजी लोटा टहलते हुए योग सेंटर पहुंचे. योग गुरु हवा खींच रहे थे. लोटा बोले - "हमें पता है अनुलोम विलोम किसे कहते हैं. प्रशासनिक नौकरी में जीवन भर आदमी को अनुलोम विलोम ही करते रहना पड़ता है. आपको नहीं पता हमें तो सब पता है. हम राजधानी में पोस्टेड रहे आठ साल तक. प्रशासनिक भवन में एक भी काम बिना लिए दिए हो जाए तो हमारा नाम बदल देना. हम तो सब जानते हैं अपनी आंखों से देखा है. अजी पूरे कुएं में भांग पड़ी है. सरकार बदल जाए पर प्रशासनिक भवन नहीं बदलता है. अब क्या बताएं हमारे जैसे ईमानदार अफसर को भी लेना पड़ता था. नहीं लेते तो क्या करते ! पानी में रहते हुए मगरमच्छों से बैर किया जा सकता है क्या ! हमें तो सब पता है, कब अनुलोम कब विलोम कब सूर्यनमस्कार करना फायदेमंद होता है."
संग साथ मिल गया तो जीजी लोटा मंदिर की ओर चल दिए. मंदिर में वे आते रहते हैं, लेकिन प्रायः प्रार्थना नहीं करते हैं. बस भगवान को याद दिलाते हैं कि प्रभु आप जानते हैं या फिर हम जानते हैं. जब आपको अफसोस नहीं है तो हमको क्यों होगा. हमने तो सब आप पर ही छोड़ दिया था. जो मिला उसे आपका प्रसाद समझ के ग्रहण कर लिया. अब रिटायर है. भेंट पूजा सब बंद है, लेकिन देखिए आपके सामने हाथ जोड़े खड़े हैं. हम आपको भूले नहीं हैं और उम्मीद करते हैं आप भी हमें नहीं भूलोगे. व्यवहार बना रहना चाहिए चाहे कोई भी हो. हम तो रिटायर हो गए आप तो कभी रिटायर होंगे नहीं. आपका चढ़ावा भी कभी बंद होगा नहीं. हम आपको डरा नहीं रहे हैं. बस इतना बता रहे हैं कि हमें सब पता है. हमारा ख्याल रखिए, आगे आपकी मर्जी.
लोटा साहब घर पहुंचते हैं तो पत्नी इंतजार में  है. पूछती है इतना लेट कैसे हो गए. वह सफाई देते हैं कि "तुम तो जानती हो कि हम सब जानते हैं. इसलिए कोई छोड़ता नहीं है हमें. हरिशरण मिल गया था. उसका केस फंसा हुआ है प्रशासनिक भवन में. उसे किसी ने बताया कि लोटा साहब को सब पता हैउनसे मार्गदर्शन ले लो. उसकी पूरी कथा सुनी.  हरिशरण को यह नहीं पता कि घंटा बजाते रहने से प्रसाद नहीं मिलता. कुछ चढ़ावा चढ़ाना बहुत जरूरी है."
" हरिशरण तुम्हें बजाता रहा! तुम घंटा हो!? " पत्नी ने पूछा.
" अरे हम घंटा नहीं है, लेकिन हमें सब पता है कि  कौन घंटा किधर लटका हुआ है. उसका काम सर्किट हाउस यार रेस्ट हाउस से होगा. हमें तो सरकारी महाकमों की नस-नस पता है.
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गुरुवार, 30 मई 2024

भगवानों के देश में नए अवतार


 



खिड़की से धूप और प्रकाश आ रहा है । प्रकाश मुझे अच्छा लगता है । प्राकृतिक हो तो और भी ज्यादा । मन मुदित हुआ तो आँखें बंद हो गईं । अभी कुछ पल ही गुजरे थे कि आवाज आई – आँखें खोलो भक्त । मैं भगवान हूँ । 

चौंक कर देखा । सामने एक आकृति थी, पाषाण प्रतिमा सी । मुझे डर लगा । प्रायः डर के समय भगवान को याद करता हूँ । अब भगवान सामने हैं तो समझ में नहीं आ रहा है कि किसका स्मरण करूँ !

“डरो मत । मैं तुम्हें कुछ देने आया हूँ ।“ वे बोले ।

“क्या दोगे ?!”  डर काम नहीं हुआ, भगवान हैं, पता नहीं क्या दे दें ।

“एक आइडिया दूंगा जिससे तुम काम के आदमी समझे जाओगे ।”

“काम !! ... काम तो चाहिए मुझे भगवान । बेरोजगार बैठा हूँ । महंगाई कितनी है ! हाथ हमेशा तंग रहता है । स्कूल वाले बोरी भर भर के फीस मांगते हैं । खाना कपड़ा दवाई सब मेरे बस के बाहर है ।“

“रुको रुको, शिकायत पुराण मत खोलो भक्त । मैं तुम्हें काम नहीं आइडिया देना चाहता हूँ ।“

“आइडिया का क्या करूंगा भगवान ! देने वाले ने बहुत दिए हैं । पूरा शहर चाय बनाने वालों से अंटा पड़ा है । मुट्ठी भर पीने वाले और गाड़ी भर पिलाने वाले ! आइडिया तो रहने ही दो, काम की बात हो तो कहो ।"

“काम, नौकरी, रोजगार ये सब दकियानूसी विचार हैं भक्त । तुम्हें इन सब बातों से परे रहते हुए आत्मनिर्भर हो जाना चाहिए ।“

“आत्मनिर्भर क्या होता है भगवान ?”

“जब तुम्हारे आसपास कि सारी निर्भरताएं बेमानी हो जाएं । संगी साथी असहयोग की मुद्रा मे आ जाएं । समाज मे तुम्हारी विश्वसनीयता खत्म हो जाए । तुम हंसी और उपेक्षा के पात्र होने लगो । चौतरफ निराशा घिरने लगे तो एक ही उपाय बचता है ... “

“मेरे साथ यही सब हो रहा है । कौन सा रास्ता बचत है प्रभु ?!”

“तुम अपने को भगवान का अवतार घोषित कर दो ।“

“मजाक मत करों भगवान । मेरे अवतार होने की बात कौन मानेगा !!”

“ये तुम्हारी नहीं लोगों की समस्या है ।  पूरे विश्वास से कहो कि तुम पैदा नहीं हुए हो अवतरित हुए हो । डायरेक्ट भगवान का अवतार ।“

“इससे क्या होगा प्रभु !?”

“लोग गाली देना बंद कर देंगे । सोचो भगवान को कौन गाली दे सकता है ? तुम्हारी आरती करेंगे लोग, कीर्तन होंगे । तुम्हारे किये धरे को भगवान का किया धरा मना जाएगा । तुमसे कोई सवाल नहीं कर सकेगा । गलत निर्णयों के लिए भी तुम जिम्मेदार नहीं ठहरए जाओगे । कुछ ही दिनों में तुम पूजे जाने लगोगे, तुम्हारे मंदिर बनेंगे । हार माला फूल चंदन अगरबत्ती सब होगा । गरीब आएगा और दूर से हाथ जोड़ कर चल जाएगा, उस पर ध्यान देने कि जरूरत नहीं है । अमीर छपन भोग लाएगा, रेशमी वस्त्र और स्वर्ण मुकुट पहनाएगा । महंगे मौसमी फलों के रस से रोज स्नान करोगे । और ये सब एक दो बार नहीं, तब तक चलेगा जब तक तुम रहोगे ।... बोलो ।“

“मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है । भगवान तो आप हैं ! आप क्या करोगे फ्री हो कर !“

“थक गया हूँ भक्त । तुम तो जानते हो राजनीति वालों को । कितना दौड़ाया मुझे । अब मुझे अवकाश चाहिए । तुम जैसे कुछ समझदारों को भगवान बना दूँ और चलूँ ।“

“कोई आपका स्थान कैसे ले सकता है भगवान !?”

“चिंता मत करो, लोग सच झूठ सब मान लेते हैं । जनता बहरूपियों के भी हाथ जोड़ती है । तुम अवतार हो यह भी मान लेगी । बस तुम्हें कहते रहना है कि ‘तुम पैदा नहीं हुए हो, तुम्हें भगवान ने भेजा है’ । तो आज से तुम अवतार हुए । टेक केयर । “

कह कर आकृति गायब हो गई । खिड़की में केवल प्रकाश रह गया है । आइडिया बुरा नहीं है लेकिन खतरा यह है कि देश जल्द ही नए अवतारों से भर जाएगा । काम्पिटिशन तगड़ी रहेगी ।  मुझे रंगे पत्थरों की तरह सड़क किनारे पड़ा रह जाना पड़ेगा तो !?  

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बुधवार, 22 मई 2024

हमारे आदमी


 


पिछले कुछ दिनों से मुझे लग रहा है कि मैं उनका आदमी हूँ । पहली मुलाकात में उन्होंने कहा था कि ‘तुम तो हमारे अपने आदमी हो जी’ । मैं मना करना चाहता था लेकिन चुप रहा । मेरा अनुभव है कि जब भी लाठी लिया हुआ कोई आपसे बात कर रहा हो और आप असहमत हों तो चुप रहने में ही भलाई है । आपके पास जवाब देने ले लिए केवल जुबान है लेकिन उसके पास विकल्प भी है । वे जब भी मिले साढ़े पाँच फुट के विकल्प के साथ मिले और हर बार मुझे चुप रहना पड़ा । एक दिन बोले –“हमारे आदमी हो यह अच्छी बात है लेकिन तुम्हें हमारे आदमी की तरह लगना भी चाहिए “ ।

“आपका आदमी कैसा होता है ?” हिम्मत करके पूछ ही लिया ।

“हमारे आदमी भी आदमी कि तरह ही दिखाई देते हैं । उनके भी हाथ पैर शक्ल सूरत होती है । अक्सर हिन्दी बोलते हैं, मौका पड़ जाए तो हिन्दी में ही समझाते भी हैं । ... तुम्हें हिन्दी आती है ?”

“हाँ आती है । पढ़ना लिखना हिन्दी में ही करता हूँ ।“

“अच्छी बात है । ...गर्दन के ऊपर क्या है ?” उन्होंने सिर की ओर इशारा करते हुए पूछा ।

“सिर है ।“

“सिर क्या काम आता है ?”

“सोचने विचारने के काम आता है ।“

“यही गलत सोच है  ... सिर ठोस होना चाहिए । धर्म, संस्कृति, इतिहास, परपराओं और हमारी अपनी मान्यताओं से कूट कूट कर भर हुआ ठोस सिर ही असली सिर है । लेकिन आप चिंता मत करो । कुछ काम हम पर छोड़ दो । सिर सलामत रहेगा तो धीरे धीरे ठोस हो जाएगा ।“

“सिर तो ठोस ही होता है जी ! “

“ठोस नहीं, आमतौर पर पिलपिला होता है । ठोस होता तो हम हजारों साल विधर्मियों के गुलाम नहीं होते । देश को मजबूत करने के लिए लोगों को मजबूत करना जरूरी है ।... ये बात मानते हो ना ? ...  लोग तभी मजबूत होंगे जब सिर ठोस होगा । ठोस सिर ही ठोस कामों के लिए उपयोगी होते हैं । हमारी आज कि शिक्षा लोगों के सिर में दही जमा देती है । जरा सा  हिलते ही बिखर जाता है । लेकिन तुम चिंता मत करो, अब हमारे आदमी हो ।“

“जी मैं समझ गया । आपका मतलब है कि सिर नारियल की तरह होना चाहिए ।“

“नारियल सिर्फ ऊपर से ठोस होता है । अंदर या तो वह पानीदार होता है या फिर मलाईदार । हमें ठोस सिर होना ... भाटे की तरह ।“

“लेकिन भाटे वाला सिर तो ... !!”

“सोचो मत, ठोस सिर की ओर पहला कदम है सोचना बंद । जो कुछ भी कहा जाए उसे ठीक मानो । धीरे धीरे हमारी संख्या बढ़ेगी । हम अपने आदमी हर जगह बैठा देंगे । टीवी मीडिया में अपने आदमी, साहित्य अकादमियों में अपने आदमी, स्कूल कालेज और विश्वविध्यालयों में, प्रशासन में, सरकारी दफ्तरों में, सरकार में, यहाँ तक कि हर घर में अपने आदमी होना चाहिए । ये हमारा लक्ष्य है । एक दिन वो आएगा कि जिधर भी देखोगे हमारे आदमी दिखेंगे । देश शुद्ध रूप से हमारे आदमियों का देश बनेगा । ... कैसा लग रहा है तुमको यह सुनकर ?”

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बुधवार, 15 मई 2024

खानदानी गरीब घुइयाँराम


 


‘‘ का हो घुइयाँ ..... क्या हाल हैं ? ’’

ः राम राम बाबू ... गरीब का भी कोई हाल होता है बाबू !

‘‘ अरे जिन्दा हो तो कुछ हाल भी हुए ना ..... कि नहीं हुए ? ’’

ः हां ..... आप कै रए तो कौन मने कर सकत है ... हाल हुए तो ।

‘‘ वही तो पूछ रहे हैं ... क्या हाल हैं ? ’’

ः वोई हाल हैं जो बाप-दादा के रहे। .... हाल के लाने पूंछो तो खानदानी हैं।

‘‘ ऐसा कैसे रे घुइयाँ ! बाप-दादा चवन्नी-अठन्नी कमाते थेउनसे तो ज्यादा नहीं कमाते हो तुम ? ’’

ः उ बखत मा बड़ी औकात रही चवन्नी-अठन्नी की। अब ससुरा सौ का नोट भी लजाऊ हो गया है ।

‘‘ अरे सुना नहीं तुमने कि अनाज, इलाज सब फिरि-फ़ोकट मिल रहा है । सबके अच्छे दिन आ गए हैं ! ऐसे में तुम्हारा फर्ज है घुइयाँ कि खुश हो जाओ। ’’

ः अरे का बाबू .... कहने से कौनो खुसी आती है का ?! अच्छा दिन जिनका आया उनका आया ... सबका थोड़ी आया है ।

‘‘ ऐसा क्या ! ... फिर ? ’’

ः फिर का बाबू .... आपही बताओ।

‘‘ वोट तो डालोगे ना ? चुनाव लगे पड़े हैं सामने । ’’

ः गरीब तो सबही डारैंगेकिसी के लिए मनै थोड़ी है।

‘‘ सबकी छोड़ोतुम डालोगे या नहीं ? ’’

ः अभही का कहें बाबू .... मन हो जाई तो डार देंगे।

‘‘ अरे इसमें मन की क्या बात है .... मन नहीं हुआ तो नहीं डालोगे ?’’

ः कछु कैं नहीं सकत बाबू , डार भी दैं ना भी डारैं।

‘‘ पिछली दफे डाला था ?’’

ः हओ ... डारै रहे।

‘‘ मन हो गया था डालने का ?’’

ः हओ ...

‘‘ कैसे हुआ था मन ?’’

ः वा लोगन ने गांधी बाबा के दरसन करबाए .... तो मन हो गया। बाबा का मान तो रखबै को पड़े।

‘‘ इस बार दरसन नहीं हुए बाबा के  ?’’

ः अभी तलक तो नहीं हुए .... हो जैहें, ..... अभी टैम है।

‘‘ कौन से गांधी के दरसन की इच्छा है ?’’

ः इच्छा की बात नै है, रिबाज की बात है । पांच सौ बाले दो के करवा दओ।

‘‘ हजार !! घुइयाँराम गांधी बाबा तो बीस-पचास में भी लगे पड़े हैं।’’

ः पड़े होएंगे .... जा में बाबा कोई काम के नहीं हैं।

‘‘ काम के कैसे नहीं हैं ! सरकार रुपइया किल्लो गेंहूं देती हैदो रुपइया में चावल किल्लो भर ।’’

ः कभहीं देखे हो सरकारी गेहूं-चावल ! गइया-भैंसी को डारो तो खाए नहीं ।

‘‘ तो हजार से कम पर मानोगे नहीं। ’’

ः मन के खातिर पैसा मांग रहे हैं बाबू । गरीब आदमी के पास कब मौका आता है !  

‘‘ अरे !! जरा सा तो काम है यार । बटन दबाना है बस । ’’

ः आप लोग बटन दबाने का कितना तो लेते हो बाबू ।

‘‘ हम कहां लेते हैं ! तुम तो बदनाम कर रहे हो खिलावन। ’’

ः नौकरीभत्तापेंसनउप्पर-नीचे की कमाईठेका-कमीसन .... । का हम जानते नहीं बाबू!

‘‘ ये बटन दबाने का मिलता है क्या ! काम करते तब मिलता है।’’

ः कितना काम करते हो बाबू हमें पता है। मुंह ना खुलवाओ।

‘‘ तुम तो लड़ने पर आमादा हो गए घुइयाँ ।’’

ः बाबू हम हक्क की बात करत हैं तो संसार को लगता है कि लड़ते हैं।

‘‘ देखो वोट के लिए पैसा लेना-देना गलत बात है। ’’

ः कोई बाद में लेत है कोई पहले मांगत है। .... एक बार बटन दबवा लेने के बाद हमार कोई इज्जत है !! ...   रुपइया किलो का सड़ा गेहूं हो जाते हैं हम । नाम भरे के ।

‘‘ नाराज हो गए घुइयाँराम । चलो छोड़ो ... और बताओ ... क्या हाल हैं ?’’

ः गरीब का हाल कोई सुन सकता है बाबू ! ..... जिगर चहिए । ऐसन कोई सरकार होई कभी ?

छोडो घुइयाँराम ... हमसे क्यों झूठ बुलवा रहे हो । तुम ठहरे खानदानी गरीब । तुम ही लोकतंत्र की आत्मा हो । अजर अमर हो ।

०: का बोले बाबू !?

तुम नहीं समझोगे घुइयाँराम ।

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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

दद्दू की जेनरिक-पोलटिक्स



इधर हमारे एरिया में एक दद्दू बड़े पापुलर हैं । प्यार से लोग इन्हें खरबुज्जा दद्दू कहते हैं । आप सोच रहे होंगे मीठे होंगे, मीठा बोलते होंगे । हमसे या किसी से भी चुपके से पूछेंगे तो उत्तर होगा नहीं । लेकिन डाइरेक्ट उनसे पूछेंगे तो वे कहेंगे हाँ । गजब का कान्फ़िडेन्स है उनमें । सच बोलने में लोगों की जुबान लड़खड़ा सकती है लेकिन दद्दू का झूठ सच का बाप होता है । उनका कहना है कि सच तो अप्पू-टप्पू, दिन-हीन, कमजोर आदमी बोल लेता है , लेकिन झूठ के लिए सवा छप्पन इंच का सीना लगता है । लोकतंत्र में एक अकेला झूठ सैकड़ों सच पर भारी होता है । कृष्ण बिहारी नूर ने लिखा है –“सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे ;  झूठ की कोई इंतिहा ही नहीं “ ।  खरबुज्जा दद्दू भी यही कहते हैं, झूठ की पतंग सातवें आसमान तक उड़ाई जा सकती है । उड़ाने वाला होना चाहिए । वे मानते हैं हमारा मोहल्ला टोला ही नहीं पूरा संसार मिथ्या-मलाई है । इधर जलवा है का, झूठ से सदियाँ फलती फूलती आ रही हैं, सच के भरोसे एक दिन निकल जाए किसीका तो बताओ । अब आप समझ गए होंगे कि हमारे दद्दू विद्वान टाईप भी है । सही बता  दें ? असल में दद्दू राजनीति का कीड़ा हैं, वो भी पेस्टिसाईड प्रूफ । हम उनके खास हैं, ऐसा हम मानते हैं और अब हमारी नालायकियत देख कर वो भी मान रहे हैं । हम अभी सीख रहे हैं राजनीति का पंचतंत्र । इन दिनों वे झूठ बोलने की कला सिखा रहे हैं । उनका कहना है कि झूठ हमेशा खम ठोक कर बोलना चाहिए । जो बढ़िया झूठ बोलेगा, जो बार बार झूठ बोलेगा, जो हर बार नया झूठ बोलेगा, जो किसम किसम का झूठ बोलेगा, जो दमदार झूठ बोलेगा, जो दावेदार झूठ बोलेगा, अपने हों या पराए एक जैसा झूठ बोलेगा, जब भी मुँह खोलेगा झूठ ही बोलेगा, झूठ को सच की तरह बोलेगा और सच को कभी भी सच नहीं मानेगा,  वही लोकतंत्र का सच्चा रक्षक होगा । दद्दू कहते हैं उनकी यह बात बेजोड़ है । अगर कोई आदमी ढंग से झूठ भी न बोल सके तो एक दुकान तक नहीं चला सकता है देश क्या चलाएगा । संविधान में भले ही लिखा हो ‘सत्यमेव जयते’ लेकिन असल राजनीति संविधान से परे होती है । जो संविधान ले कर राजनीति में कूदते हैं उन्हें जीवन भर सूखी-सेवा ही करना पड़ती है । राष्ट्रीय चिन्ह देखा होगा, वही चार शेर वाला । शेरों के पैरों के नीचे लिखा है ‘सत्यमेव जयते’ । यह इतना चुभता है कि चारों शेरों की चीख निकल रही है । महाभारत में ‘अश्वत्थामा हतौ’ वाला झूठ नहीं बोल गया होता तो  शायद भगवान जीतते नहीं । इसलिए राजनीति में पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ झूठ बोलना चाहिए । कल वे बताएंगे कि कमीनापन कितना जरूरी गुण है ।

हमारे एरिया में लोकल लोकतंत्र भी है । इसमें कोई सवाल मत उठाइएगा । जब पूरे देश में लोकतंत्र है तो हमारा एरिया उससे बाहर थोड़ी है । तो ... यहाँ डबल इंजन लोकतंत्र है, मतलब लोकतंत्र के अंदर एक और लोकतंत्र है , दद्दू का लोकतंत्र ।  अपने लोकतंत्र को जिंदा रखने के लिए दद्दू कितना आलोकतांत्रिक होंगे यह समय और जरूरत के हिसाब से तय  होता है । आसपास के सभी केबल टीवी वालों को दद्दू ने गोद ले रखा है । पोलटिक्स में करना पड़ता है, अपुन सिख रहे है उनसे । आदमी सही हो और मेढकों को गोद ले ले तो वे सांप बन जाते हैं । बस जरूरत के हिसाब से तमाशा दिखवाओ और ताली बजवाओ । आसपास के टोलों-बस्तियों की नस नस पता है दद्दू को । दलित टोले में जाएं या बाभन टोले में , जिस टोले में जाते हैं उसके हिसाब से रंग बदल लेते हैं । हिजड़ा बस्ती में नाच लेते हैं और वृद्ध आश्रम में रो भी लेते हैं । लोग भले ही समझें कि दद्दू  सस्ती टुच्ची राजनीति करते हैं लेकिन दद्दू  का कहना है कि वे जेनरिक-पोलटिक्स करते हैं । मल्टीटेलेंट वाले आदमी हैं दद्दू । बहुरूपिया भी पंद्रह बीस दिन एक भेष में रहता  है, दद्दू एक दिन में आराम  से पंद्रह बीस भेष धर लेते हैं । गिनिस बुक वालों का ध्यान गया नहीं उन पर अभी तक, लेकिन गलती उनकी है । सारी दुनिया उनके कारनामे देख रही है लेकिन वो ही नहीं देख रहे हैं ।

तो लगे हैं भईया, कुछ सीख लें अच्छी अच्छी बातें । काबिल हो गए तो राजनीति के तालाब में हम भी मछलियाँ मार लेंगे । फिर दद्दू को भी तो चाहिए अपना उत्तराधिकारी ।

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