सोमवार, 29 मार्च 2021

अश्वत्थामा हतौ ...

 




           किसी ज़माने में झूठ बोलने वाले को राजा दरबार में सबके सामने छड़ी से पिटवाया करता था . गुनाह यह होता था कि झूठ उसने क्यों बोला . झूठ ऐरे गैरों के बोलने की चीज नहीं है . मामूली मुँह झूठ के वजन से खुद ही पिचक जाता है . आम आदमी सीधा-सच्चा और चरित्रवान होना चाहिए . चरित्र एक तरह का बारकोड होता है, ऊपर से कुछ भी समझ में नहीं आए लेकिन अन्दर एक एक लेनदेन दर्ज होता है . लोग घरों में रहते दिखाई देते हैं लेकिन असल में वे बाज़ार में रहते हैं . बाज़ार की पहली शर्त सफलता है . चिंता की बात यह है कि हर कोई झूठ बोलने लगेगा तो झूठ की मार्केट वेल्यू क्या रह जाएगी . घार्मिक विद्वानों ने कहा है कि राजा ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और लोगों ने इस झूठ को श्रद्धा पूर्वक पचा लिया . इसी को राष्ट्रप्रेम कहते हैं . लोगों को पूरे विश्वास के साथ झूठ पर कान देना चाहिए. झूठ सुनना और उस पर सहमत रहना देशभक्ति है . जो झूठ को झूठ मानते हैं वे गलत तरीके से शिक्षित हैं और कम्युनिस्ट भी हैं . देशभक्ति को गरिमा प्रदान करने के लिए इनसे सख्ती से निपटने की जरुरत है . हाथों में लाल रुमाल ले कर, सच के नाम पर आदर्श सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ने की इजाजत इन्हें नहीं दी जा सकती है .

              कहते हैं कि झूठ के पैर नहीं होते हैं . जिस राज्य में झूठ विकलांग रह जाता है वहां की सरकार निकम्मी कहलाती है . झूठ को पैर लगाने का काम राजनीतिक कौशल से ही संभव होता है . जब चलते धर्मयुद्ध में कहा गया कि “अश्वत्थामा हतौ ...” तभी से राजनीति में झूठ को दौड़ने वाले पैर मिल गए . जिस झूठ में प्रभु का समर्थन हो वो संसार का नियम हो जाता है ... और नियमों से ही व्यवस्था बनती है . जो व्यवस्था में नहीं हैं वो कितने ही बड़े क्यों न हों डस्टबिन के लायक हैं . हरी नीली बास्केट में कितने सफ़ेद हाथी अपने पीले दांत बगल में दबाए पड़े हैं किसी को पता है !?

             समझदार कह गए हैं की शिखर पर पहुँच तो सकते हैं लेकिन शिखर पर बने रहना बहुत मुश्किल है . लोकतंत्र के चलते राजा बने रहना तो और भी कठिन है . हर दूसरी सभा में छाती ठोक के ‘अश्वत्थामा हतौ ...’ कहना पड़ता है . इसके लिए सवा किलो का कलेजा लगता है . वक्त जरुरत जब बयान देना हो, कोई वादा करना हो, कोई आंकड़ा बताना हो यानि विकास वगैरह का,  तो झूठ के बिना बड़ी दिक्कत हो जाती है .  हर मौके के लिए अलग रंग, अलग ढंग का, अलग वजन का झूठ चाहिए होता है ! कहीं सफ़ेद झूठ, कहीं ग्रे, कहीं काला, हरा, पीला, लाल झूठ . कभी इतिहास का, कभी वर्तमान का और कभी भविष्य का झूठ . कभी धर्म का, कभी विज्ञान का, कभी भूख, कभी गरीबी, कभी दान, अनुदान का . ज्ञानी कह गए हैं कि संसार मिथ्या है तो इसके मायने अब समझ में आ रहे हैं . राजनीति का बड़ा सच छोटे से राजनीतिक-झूठ में छुपा हुआ होता है . राजनीति में झूठ एक परफोर्मिंग आर्ट है . जनता भी वोट देने से पहले परफोर्मेंस देखती है . कोई चीख कर, चिंघाड़ कर, मटक मटका कर, अंडे को कबूतर में और आदमी को गधे में बदल देता है वही अव्वल आता है . झूठ का जादू मिडिया में चढ़ कर बोलता है . इसीलिए जनता को यानि हम लोगों को नेता नहीं जादूगर चाहिए . जी बोल दे ‘अश्वत्थामा हतौ ...’ और पूरी बाज़ी पलट जाए .

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सोमवार, 15 मार्च 2021

दुखी होने का क्या लोगे ?

 

         


                    

                 पुराने चावल कहाते रहे तो पन्नों में बासमती दर्ज हो गए . सम्हाल ठीक से नहीं हुई तो इल्लियाँ पड़ गयीं और कब बास मरने लगे पता ही नहीं चला . राष्ट्रीय पार्टी का ठप्पा होने के कारण उसकी जिम्मेदारी ज्यादा है . विपक्ष में हैं और उनके रहते  जनता दुखी न हो यह डूब मरने की बात है . इतिहासकार लिखेंगे पार्टी इसलिए डूब गई कि वो जनता को दुख का अहसास नहीं करा सकी ! हालाँकि उनके पास पीढ़ियों का अनुभव है कि दुःख में से सुख कैसे निकला जाता है . कहा जाता है कि डर के आगे जीत है . इसका राजनितिक मतलब है जो डराने में सफल हो जाता है वही जीतता है . विडम्बना ये है कि डरा वही सकता है जो खुद डरा हुआ नहीं हो . महापुरुष गब्बर सिंग प्रवचन दे गए हैं कि जो डर गया वो मर गया . लेकिन इससे डर ही बढ़ता है निडरता नहीं आती . उस पर एक एक करके जय और वीरू पाला बदलते जाएँ तो सीने का नाप बदल जाता है, इधर भी और उधर भी . दाढ़ी बढ़ाने से आत्मविश्वास बढ़ता है लेकिन सुना है कम्बख्त गर्लफ्रेंड नहीं मानती . जिन्हें पहाड़ जैसा कुछ चढ़ना है उन्हें किसी भी तरह की यानी पार्ट टाइम या फुल टाइम गर्लफ्रेंड से दूर ही रहना चाहिए . अनुभवी बताते हैं कि उसका रिचार्ज करवाते करवाते अच्छा भला आदमी पचास का हो जाता है . कोई शायर कह गए हैं कि “खुदा ही मिला न विसाल-ए-सनम, न इधर के हुए न उधर के हुए;  रहा दिल में हमारे ये रंज-ओ–अमल, न इधर के हुए न उधर के हुए ” .  लेकिन अनुभव जलेबी है उज्जैनी मावे की, खाए बगैर कोई मानता भी नहीं है . गुरु कहते हैं कि राजनीति भरवाँ बैंगन नहीं हैं दादी के हाथ के, कि आए बैठे और मजे ले के डबल सटका  गये . इतना आसन भी नहीं है कि जनता से सीधे पूछ लें कि भईया दुखी होने का क्या लोगे !  आजकल लोग सयाने हो गए हैं, ज्यादा कुरेदो तो शेरवानी और लाल गुलाब दिखाने लगते हैं .

                  इधर जानता अपने को सुखी महसूस करने पर अमादा है . औंधा लटका के कोई खाल भी खिंच ले तो थेंक्यू कहने पर उतारू . पता चलता है हर आदमी जबरा फिलासफर है . मानता है सोचो तो संसार में दुःख ही दुःख है नहीं सोचो तो सुख ही सुख . सारी दिक्कत सोचने की वजह से है . सोचने का सम्बन्ध ज्ञान से है और ज्ञान दुकान पर मिलता है . दुकान का नाम टीवी और इंटरनेट है . ये सुख करता दुःख हरता हैं . राजनीतिशास्त्र में लिखा है कि  इन्हें नेवेद्य लगाओ तो प्रसन्न होते हैं या फिर इनकी नाक दबाओ तो मुंह खुलते हैं . राजनीति नकार को स्वीकार में बदलने की कला है . सो पूरी टीम को व्यवहारिक होना चाहिए . नाच मेरी टीवी-बुलबुल तुझे पैसा मिलेगा . जिसे लोग चैनल समझते हैं वो दरअसल चीयर गर्ल है . उधर बल्लेबाज झूम के शाट लगाते हैं इधर गर्ल्स चेयर से उछल उछल जाती हैं . दर्शकगणों  आप सोचो मत, कोई पूछे तो बताओ कि मजे में हो . यह समझ लो कि खुश रहना ही देशप्रेम है . टीवी वालों का क्या है ... रस्सी, डमरू और डंडा सरकारी; नाचे कूदे बंदरिया, खीर खाए मदारी . तो सब लोग बजाओ ताली, जो न बजाए उसको मारे घरवाली.

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बुधवार, 10 मार्च 2021

लाल कोबरा का डिस्को डांस

 


                         लाल कोबरा अपने बिल से बाहर निकला तो जंगल की बदली रंगत देख कर उसकी फूंक निकल गई . चारों ओर सरसों और टेसू फूले हुए थे . माहौल में ग़जब का उछाल था और जमीन से आसमान तक कहीं केसरिया तो कहीं पीला दमक रहा था . वह सोच में पड़ गया कि क्या गजब अनसोचा सीन है !! उसके मुंह में जितने डॉयलाग पड़े हुए थे सारे सकते में आ गए . अभी तक तो सब तरफ लाल था कहाँ चला गया ! वह लाल से ही होली खेलता आ रहा था . जब लोग लाल से होली खेलते थे तो लगता कि पार्टी का प्रमोशन हो रहा है. लाल उसका इतना प्रिय कि खुद अपने खून से उसे ‘कामरेड, कोई शक’ की आवाज सुनाई देती है .  उसने  गरीबों का मसीहा बनने के लिए डंडा पकड़ा था . स्कूल में जब परेड होती थी तो वह लेफ्ट-राइट को अनसुना कर देता था और उसकी जगह लेफ्ट-वन लेफ्ट-टू सुनता . लेफ्ट ही उसका राइट था और राइट हमेशा लेफ्ट . उसने लाठी को उठा कर उसका वजन कूता और हाईकमान को फोन लगाया, -“साहब  इधर तो सब मोसंबी-नारंगी है ! मेरा लाल किधर गया ? होली है सर होली ! सारा लाल साफ कर दोगे तो होली कैसे खेलेगी पब्लिक ! थोड़ा लाल जरुरी है कल्चर के वास्ते.”

                “नवजात ... भूल जाओ लाल को, याद रखो लाल को देखते ही भड़क जाना अब तुम्हारी ड्यूटी  है .” साहब ने याद  दिलाया .   

               “लेकिन साहब मैं लाल कोबरा हूँ .”

               उधर से आवाज आई - “कोबरा नहीं तुम डांसर थे और अब सांड हो . कोई डांसर अपने आपको कोबरा-फोबरा कुछ भी समझता रह सकता है लेकिन पार्टी का अपना आकलन होता है .  पार्टी अनुशासन को फ़ॉलो करो, लाल को देखते ही तुम्हें फ़ौरन भड़क पड़ना है . कोई शक ?”

                “नहीं साहब, ... जी साहब, जिधर भड़काओगे भड़क जाऊंगा साहब .  लेकिन होली का क्या ? वो तो लाल से ही ....”

                 “अनुशासन को प्राथमिकता दो डांसर, यहाँ डिस्को नहीं भारतनाट्यम सिखाया जाता है . सुबह जल्दी उठो, प्रार्थना करो और व्यायाम भी . वरिष्ठजनों  से ज्ञान  लो उसके बाद मुंह खोलो . और होली है तो टेसू के फूल चुनने जाओ.  कुछ दिन रहो हमारे साथ , अच्छा लगने लगेगा.  वैसे कोबरा जी, आप चिंता मत करो उचित समय आने पर आपको दूध भी पिलाया जाएगा.” साहब ने फोन बंद कर दिया .

                  कोबरा ने अपने को ऊपर से नीचे तक देखा, एक लहर सी उठी और लगा कि उसका अस्तित्व एक दुम में तब्दील हो गया लग रहा है . उसने ऊपर देखते हुए अपने आप से सवाल किया कि एक कोबरा दुम कैसे हो सकता है !! आकाशवाणी हुई, प्रभु बोले - ‘ वत्स, लेफ्ट से राइट हो चुके हो तुम . विकास के इस मायावी पथ पर अनेक रंगबिरंगी दुमें साथ चलीं जो अब ब्लेक कोबरा हैं .  तुम भी विकास पथ पर आगे बढ़ चुके हो तो दुम क्या चीज है, कुछ भी हो सकता है . वैसे सांड होना भी बुरा नहीं है. प्रमोशन समझो इसे. सोचो भगवान के गले में लिपटे पड़े होने से उन्हें पीठ पर ले कर चलना अधिक सम्मानजनक है. सो अब उठो, चाय-वाय पियो, केंचुली बदलो फटाफट और लाल रंग देख कर भड़को.  ...   क्या पता कल को सीएम ही बना दिये जाओ ...  नई  जिम्मेदारी है, इसमे कोई शक नहीं होना चाहिए ? ”

                  वह बुदबुदाया “भालो पोरभो ... आमि इक्ता कोबरा , इक चोबोल-ई छोबि .”

 

 

 

 

 

 


शनिवार, 27 फ़रवरी 2021

चूल्हा जलई ले पिया, उदर मा बड़ी आग है

 




जब चूल्हा नहीं जलता है तो पेट जलता है. लेकिन जले तो दुनिया का जले, आपका क्यों जले. आइये आज आपको चूल्हे के मामले में आत्मनिर्भर बनने का उपाय बताते हैं. बिजली और गैस की चिंता से मुक्त हो जाइये और समय के साथ चलिए. संकोच मत कीजिये, जहाँ से चले थे वहीँ पहुंचना प्रकृति के साथ चलना है. खाली हाथ आना और खाली हाथ जाना यही ईश्वर की मर्जी है. विकास भी एक परिधि के रूप में गति करता है.

चूल्हा बनाने के लिए हमें सिर्फ छः ईंटों की जरुरत है . मज़बूरी ये है कि ईंट किराने की दुकान पर मिलती नहीं हैं. ऑनलाइन मिल सकती है लेकिन पक्का नहीं है . सबसे अच्छा यही है कि किसी बनते मकान से ले आयें . आसपास देखिये कहीं मकान बन रहा हो तो वहाँ से छः ईंटें लाइए . ईंट आजकल बहुत महँगी है, सस्ती के ज़माने में रूपए की पांच मिल जाया करती थीं . अब सात रूपए की एक मिलती है . बैंकें लोन देने लगें तो चीजें महँगी होने लगती हैं . घ्यान रहे बनते मकानों पर चौकीदार रहता है . लेकिन आप समझदार और  शहरी हैं, काम निकालना जानते हैं . उसे मुस्कराते हुए भईया कहें और दैन्य भाव से छः ईंटें मांगे. गरीब आदमी जल्दी पसीजता है, सम्भावना यही है कि वो दे देगा क्योंकि उसके बाप का क्या जाता है. किन्तु ये भी हो सकता है कि मना कर दे, लेकिन आप कोशिश जारी रखिये. देश और दुनिया के हों न हों अक्सर मकान के चौकीदार ईमानदार होते हैं . दरअसल ईमानदारी के आलावा उनके पास कुछ होता नहीं है . इसलिए लोग उनसे सबसे पहले ईमानदारी ही खरीदते हैं . आप पढ़े लिखे हैं और जानते हैं कि चूल्हा जलाने की समस्या उसके सामने भी है. किसी गरीब के साथ पहली बार डील थोड़ी कर रहे हैं. दस का नोट दीजिये और उसी के सर पर रखवा कर छः ईंटें घर लाइए. आपके मन में स्टार्ट-अप जैसी फिलिंग आएगी जो कि इस वक्त जरुरी है.

आप जानते ही होंगे कि गैस चूल्हा संसार में बहुत बाद में आया . पहले वो चूल्हा आया जो आप अब बनाने जा रहे हैं. ऐतिहासिक चीजों को जानना और अनुभव करना बहुत गौरवपूर्ण होता है. जब लगेगा कि आप संस्कृति की और लौट रहे हैं तो छाती अपने आप चौड़ी होने लगेगी. चौड़ी छाती बड़े काम की होती है . चौड़ी छाती वालों को दहेज़ तगड़ा मिलता है. बैंक वाले चौड़ी छाती देख के लोन फटाफट दे देते हैं . और तो और चौराहों पर लाल बत्ती में इनको रुकने की जरुरत नहीं पड़ती है. खैर, आपको क्या करना है इन सब बातों से, आप चौड़ी छाती से चूल्हा बनाइये. हाँ तो अच्छी समतल जगह देख कर यू शेप में तीन ईंटों को जमाइए, उसके ऊपर तीन और रख दीजिये. लीजिये फटाक से आपका चूल्हा तैयार है. गौर से देखिये, लगेगा जैसे पुलिस के बेरिकेट्स तीन तरफ से लगे हैं और आग चाहे जिसकी हो रोटी सेकने तक यहीं कैद कर ली जाएगी. आग जलाइये और मजे में रोटी सेकिये. चूल्हे की अवधारणा यही है, जलाओ और सेको. अब आपको कुछ सूखी लकड़ियाँ चाहिए जो लोकतंत्र में विरोधी दलों की तरह जल्दी आग पकड़ सकें. वाम लकड़ियाँ जल्दी आग पकडती हैं लेकिन उनके जंगल सूख गए हैं. आजकल देखने को भी मिलती नहीं हैं. कोई बात नहीं आप चिंता नहीं करें. शुक्र है ऊपर वाले का, अभी श्मशान में लकड़ियाँ मिल जाती हैं. वहीँ से ‘मेनेज’ कर लीजिये. मुर्दे को पांच किलो लकड़ी कम मिलेगी तो शिकायत करने नहीं आएगा. अपना चूल्हा जलाने के लिए जागरूक नागरिकों को कुछ तो नया करना ही पड़ता है. तो चूल्हा जलई ले पिया, उदर मा बड़ी आग है ... .

 

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बुधवार, 24 फ़रवरी 2021

कचौरी परमिट

 



राजा पिता होता है प्रजा का . प्रजा को कितना चाहिए, क्या चाहिए, क्यों चाहिए ! विकास तभी होगा जब सारा कुछ बाप के नियंत्रण में होगा. वरना तो भेड़ के झुण्ड की तरह खाया कम उजड़ा ज्यादा. देश बूफे नहीं है समधी का कि ठूंसते चले गए. सबको अनुशासन में रहना होगा. कितना-क्या खाना है, क्या पहनना है, किसकी कितनी पूजा करना है, किसको लाइक, किस पर कमेन्ट करना है, कब सोना-जागना है, पडौसी को कब हाय-बाय बोलना है. सब .

नंबर आने पर  उन्होंने आवेदन लिया और पढ़ा . “माननीय महोदय, सेवा में विनम्र निवेदन है कि मुझे बहुत समय से बेचैनी जैसा फिलिंग हो रहा है . मन बहुत उदास रहता है . भूख लगती है परन्तु नहीं लगती है . रात को नींद खुल खुल जाती है और बड़ी बड़ी कचौरियां दिखाई देती हैं . थाली में पड़ी दाल-रोटी काटने को दौड़ती है . दिल हरी और लाल चटनी  के लिए हूम हूम करता है . बाबा ने भी कहा है कि कृपा वहीँ अटकी हुई है . इसलिए हुजूर से निवेदन है कि मुझे कचौरी खाने का परमिट देने की कृपा करें . आज्ञाकारी, आधार कार्डधारी, बालमुकुन्द गिरधारी . “

देश आत्मनिर्भरता की सड़क पर है जिसमें जगह जगह अनुशासन के स्पीड ब्रेकर भी हैं . क्षेत्रीय कचौरी-समोसा अधिकारी बड़ी सी टेबल लिए, बुलंद ब्रेकर बने बैठे हैं . दीवार पर सुनहरे रंग में लिखा है ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’. बावजूद इसके दफ्तर में लोग खा रहे हैं और खाने दे रहे हैं . कचौरी और समोसों की अनुमति के लिए बाहर अलग अलग लाइन थी .

साहब ने उपर से नीचे तक ताड़ने के बाद पूछा – “टेक्स देते हो ? ... रिटर्न की कॉपी नहीं लगाई !”

“टेक्स नहीं देते हैं सर ... हमारा मतलब है टेक्स नहीं बनता है . “

“क्यों नहीं बनता है ?”

“गरीब हैं सर ... मज़बूरी है .”

“फिर तो सरकार खिलाएगी तुम्हें  कचोरी-वचोरी सब. कार्ड बनवा लो बस .”

“कार्ड तो बना है साहब ... “

“फिर क्या दिक्कत है !?”

“कचौरी नीचे आते आते भजिया हो जाती है, वो भी ठंडा-बासी.   ... सुना है सब प्राइवेट हो रहा है, बड़े बड़े लोग बहुत बड़ा बड़ा और गरमागरम खा रहे हैं ... परमिट मिल जाए तो हम गरम कचौरी खा लेंगे” .

“कितनी कचौरी का परमिट चाहिए ?”

“तीन-चार बस .”

“पिछली दफा कब खाई थी ?”

“याद नहीं सर ...बहुत दिनों से नहीं खाई .”

“याद नहीं !! क्या मतलब है इसका ! कचौरी खाई और भूल गए ! सिस्टम को मजाक समझ रखा है ! टीवी वाला पूछेगा तो कह  दोगे कि सरकार कुछ करती नहीं है ! ... एफिड़ेविड लगेगा अब. चले आए मुंह उठा के ! जंगल समझ रखा है क्या ! नियम कानून कुछ है या नहीं ! देश ‘नहीं खाने से’ आगे बढ़ता है, कचौरी के लिए लार टपकाने से नहीं . ”

“करीब डेढ़ महिना हुआ सर ... तब खाई थी .”

“उसका सेंशन लेटर कहाँ है ? फोटो कॉपी लगाना पड़ेगी .”

“अगली बार लगा दूंगा सर, इस बार कुछ ‘मेनेज’ कर लीजिए प्लीज”.

थोड़ी यहाँ वहाँ के बाद पच्चीस रूपए का नोट जेब में डालते हुए बोले -“कितनी खाओगे ?”

“जी ... तीन-चार ... नहीं पांच-छह .“

“सिर्फ दो खाओ वरना कचौरीजीवी हो जाओगे ... वो देखो लिखा है ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ बावजूद इसके तुम्हें परमिट मिल रहा है.”

“सर ये कचौरी के लिए नहीं किसी और चीज के लिए लिखा है !”

“हाँ हाँ समझ रहे हैं . दूर कर लो गलतफहमी ... रिश्वत खाई नहीं जाती है ली जाती है . लेने-देने पर रोक होगी तो विकास कैसे होगा !“

 

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सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

गाँधीजी की लाठी में कोपलें

 


           


   सुबह अचानक खबर फैली कि चौक वाले गाँधीजी जिस लाठी को लिए खड़े हैं उसमें कोपलें फूट आई हैं ! सबसे पहले सेल्फी लेने वालों की भीड़ उमड़ी उसके बाद कमर कस के मिडिया वाले उतरे . चन्द मिनिटों में लाठी देश भर में ब्रेकिंग न्यूज के साथ लाइव हो गई . हर चैनल   का दावा था कि वो ही सबसे पहले ये खबर आप तक पहुंचा रहे हैं . स्टूडियो में बैठी सुंदरी मंथरा सिंह ने चरचराती आवाज में चीखते हुए बताया कि चैनल को उनके विश्वस्त खोजी सूत्रों से पता चला है कि गाँधीजी भी लाइव होने जा रहे हैं और कुछ कहने के लिए उन्होंने खादी पार्टी के ‘पीएम-इन-ड्रीम’ को बुलवाया है . हमारे प्रतिनिधि पत्रकार रवि जलजला मौके पर मौजूद हैं . “रवि, लाठी में कोपलें फूट चुकी हैं, आप प्रतिमा के पास जा कर यह पता लगाइए कि क्या गाँधी जी की धडकनें भी चालू हो रही हैं ? “

            रवि ने अपने तर गले से सूखी आवाज में बताया कि “आप ठीक कह रही हैं मंथरा, अभी अभी मैंने गाँधी जी धड़कन सुनी हैं . उनका दिल असामान्य धड़क रहा है . लग रहा है जैसे पास कहीं से ट्रेन गुजर रही हो .”   रवि का वाक्य समाप्त होने के पहले स्क्रीन पर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ का ब्रेकिंग डांस होने लगा . साथ ही मंथरा स्थानीय प्रशासन को लापरवाह बताते हुए मांग कर रही थीं कि मेडिकल टीम द्वारा गाँधी जी का बीपी और ईसीजी चेक करवाया जाए. आखिर वे देश के बापू हैं और हर नोट पर उनकी तस्वीर छपी हुई है . दिल दिमाग में हों न हों पर हर नागरिक की जेब में वे अवश्य होते हैं.

          खादी पार्टी के प्रवक्ता का बयान आया कि गाँधी जी यह सन्देश दे रहे हैं कि जब उनकी लाठी में कोपलें फूट सकती हैं पार्टी में भी नई जान फूंकी जा सकती है . पार्टी ने फैसला किया है कि वो गाँधी जी की इस प्रतिमा को दिल्ली लाएगी और मार्गदर्शन लेगी. ब्रेकिंग न्यूज का कैबरे हुआ – गांधीजी को दिल्ली लाया जाएगा और पार्टी उनका इलाज बड़े अस्पताल में करवाएगी . दिल्ली की दूसरी सरकार वाले बोले – केंद्र सरकार बजट में कटौती कर रही है जिसकी वजह से हमारी सरकार को अपने हिस्से के पूरे गाँधी नहीं मिल रहे हैं . बावजूद इसके बापू दिल्ली लाए जाते हैं तो हम बिजली-पानी मुफ्त देंगे और उनका वोट लेंगे . इसमें कोई पार्टीवाद या जातिवाद नहीं चलने दिया जाएगा .                                        

               तत्काल प्रदेश के मुख्यमंत्री लाइव हुए और बोले कि गाँधी जी को कहीं ले जाने नहीं दिया जाएगा . कोपलें हमारे प्रदेश में फूटी हैं तो इसका मतलब साफ है कि यहाँ लाठी की जड़ें गहरी हैं . सरकार आभारी है कि बापू ने स्टार्ट-अप के लिए प्रदेश को चुना है . लाठी का यह पेड़ कल बड़ा होगा और उसमें लाठियों की फसल आएगी . प्रदेश में कानून और व्यवस्था के लिए जो कदम उठाए जा रहे हैं उसे गाँधी जी का समर्थन मिलने से सरकार को बल मिला है . रहा सवाल धडकनों का तो हम कोशिश करेंगे कि जो तीन गोलियां अन्दर फंसी पड़ी हैं अब उन्हें निकलवा लें . उनकी कमर में लटकी घड़ी में आज भी पांच बज कर सत्रह मिनिट हो रहे हैं ! एक बार धड़कन ठीक से चलने लगे तो गाँधी जी को एक डिजिटल वाच दी जाएगी कलाई वाली . इधर देर से चुप बैठी चौधरानी बोल पड़ी-- पीपल जब मुंडेर पर उग सकता है तो गांधीजी की लाठी पे क्यों नहीं ! चौधरी ने घुड़क दिया – ओए चुप कर ... तू चेनल वालों से ज्यादा अक्कल वाली हो गई है क्या !!

 

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बुधवार, 20 जनवरी 2021

सातवाँ दांत हिल रहा है

 




पहली बार दांत में दर्द हुआ था तो डाक्टर ने सबसे पहले अक्कल दाढ निकल दी और कहा अब जब भी तकलीफ हो या न भी हो तो कुछ सोचना मत, सीधे चले आना. डाक्टर के पास सीधे चले जाते रहने से उसका आत्मविश्वास बढ़ता है. अब तक छह दांत निकल चुके हैं. डाक्साब का कहना है कि तम्बाकू तो सारे दांतों ने चबाई है, सो न्याय सबके साथ होगा. दंतशाला  में देर हो सकती है मगर अंधेर नहीं. जैसे जैसे नंबर लगेगा बाकी भी निकाले जायेंगे. जिस दिन वे सोलह या इससे काम रह जायेंगे, दंत-सरकार अल्पमत हो जायेगी तो संसद भंग करके राष्ट्रपति शासन यानी डेन्चर लगा दिया जायेगा. चाहे नकली हों पर सलीकेदार दांतों से मुस्कराने का मजा ही कुछ और होता है. कल तेजी से खर्च हो रहे एक नागरिक के सारे दांत निकालने के बाद उनमें बत्तीसी फिट करते हुए डाक्टर ने कहा कि देखिये अंकल जी, अब आप कितने जवान लग रहे हैं ! जब आप मुस्करायेंगे तो मार्निंग वाक करने वाली लड़कियों के अंदर हूम हूम होने लगेगा.

मैं जनता हूँ डाक्टर यही बात एक दिन मुझे भी कहने वाले हैं. मैं तो तब बाल भी रंग लूँगा. मन तो आँख पर चढे चश्मे को भी निकाल फैंकने का है लेकिन आजकल चश्में वालों के प्रति धारणा बदल गयी है. पुराने ज़माने में तो उनकी शादी मुश्किल से होती थी जिन्हें चश्मा लगता था. लेकिन अब मुझे कौन सी शादी करना है !! इश्क लडाने भर को मिल जाये, बस बहुत हुआ. कोरी ऑक्सीजन के लिए रोज सुबह सुबह उठना वैसे भी किसको अच्छा लगता है. कोई टारगेट हो, यानी दिन की शुरुवात ईश्कियाना हो जाये इससे अच्छी बात क्या होगी, ऑफकोर्स इस उम्र में भी .

छह निकल गए हैं, सांतवे को मैं देखता हूँ, मेरी प्रयास से वो भी हिलने की कोशिश कर रहा है. रामभरोसे को, जिसे सब आरबी कहते है, मैंने बताया.

आरबी का ऐसा मानना है कि वो एक सुलझा हुआ आदमी है. सुलझा हुआ आदमी उसे कहते हैं जिसके आसपास उलझे हुए आदमी होते हैं. जैसे कि इस वक्त मैं हूँ. अगर कोई उलझा हुआ नहीं भी होता है तो ये उसे उलझा कर अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा कर लेता है. उनका मानना है कि दो सुलझे हुए आदमी साथ नहीं रह सकते चाहे वे पति पत्नी ही क्यों न हों. वे बोले –“ देखो गुरु, सिर्फ नई बत्तीसी लगाने और बाल रंगने से काम नहीं चलने वाला है, तुम्हें च्यवनप्राश भी खाना पड़ेगा. तुम्हारे इश्कियाने के अच्छे दिन तभी आयेंगे.

जिस आदमी की अक्कल दाढ डाक्टर की डस्टबिन में पड़ी हो, और बचे हुए दांत कभी मुलायम कभी माया के हो रहे हों और जिसे अच्छे दिनों की तलब भी हो वह क्या कर सकता है ? पिछली बार तो उसने वोट भी दे कर देख लिया था. लोकतंत्र में विकल्प खुले होते है, आदमी प्रयोगधर्मी हो जाता है, वह कुछ भी कर सकता है. च्यवनप्राश खाना कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन आजकल शुद्ध च्यवनप्राश मिलना कठिन है. मैंने आरबी को कहा तो बोला –“ च्यवनप्राश शुद्ध कैसे हो सकता है !! वो तो एक मिलीजुली सरकार है.  दस-पन्द्रह चीजें एक साथ हों तो वे एक ताकत बनती हैं.

वो तो ठीक है, लेकिन कौन सी चीजें मिलायी जाती हैं सवाल यह है. अगर आलू-रतालू मिला दिए तो चन्द्रशेखरप्राश का क्या मतलब है. इसकी सूचि, अनुपात, आधार वगैरह कुछ तो होगा ?

हाँ हाँ , आधार है ना, पहला सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखना और दूसरा कमान मिनिमम प्रोग्राम इसका आधार है. एक तीसरा आधार भी है, अपना काम है बन्ता, भाड़ में जाये जन्ता .

भाई साब मैं च्यवनप्राश के बारे में पूछ रहा हूँ !! मैंने आरबी को याद दिलाया.

मै भी तो च्यवनप्राश के बारे में ही बता रहा हूँ. इससे जब सेहतमंद सरकार बन जाती है तो निजी तौर पर आपको भी उम्मीद रखना चाहिए.

रहने ही दो, मुझे सरकार के चक्कर में पप्पू नहीं बनना है भईया. दांत जा रहे हैं, कुछ निजी अच्छे दिन आ जाएँ तो समझो गंगा नहाये.

अच्छे दिन कहाँ से आते हैं ये देखो, जिसे जमाना पप्पू कहता है उस तक को मालूम है कि सरकार बनेगी तब अच्छे दिन आयेंगे. इस बात को समझो कि अच्छे दिनों का मतलब सरकार होता है और सरकार का मतलब अच्छे दिन. बाकि सब मिथ्या है.

तो इसका मतलब हुआ कि जनता के अच्छे दिन कभी नहीं आयेंगे !?

जो सरकार के साथ हैं उनके अच्छे दिन हैं और जो नहीं हैं उनके नहीं हैं. तय हमें और आपको करना है.

आपने तो  उलझा दिया, कुछ समझ में नहीं आ रहा है !

ये तो अच्छी बात है, इसका मतलब हुआ कि आप सरकार के कामों और नीतियों के समर्थक हैं. देखिये संवाद करने से स्थिति कितनी जल्दी स्पष्ट हो जाती है. इसी को सार्थक संवाद कहते हैं. मुझे तो लगता है कि आपके अच्छे दिन आना शुरू हो गए हैं. आप बस जरा सा मुस्कराइए.

कैसे मुस्कराऊँ, अभी मेरे बहुत से पुराने दांत बाकी  हैं.

मुक्ति पाओ, जीतनी जल्दी हो सके मुक्ति पाओ पुरानी  चीजों से. नए से जुडो और नए को जोड़ो, यही विकास है.

मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि संसकृति विरोधी बातें कर रहे हैं आप !

कोई किसी को किसी का विरोधी नहीं बना सकता है. समय आने पर दांत खुद गिरने लगते हैं, अंततः आपके पास नए डेन्चर और च्यवनप्राश के आलावा कोई विकल्प नहीं रहता है. .... क्या सोच रहे हो ?

कुछ नहीं, सातवाँ  दांत हिल रहा है शायद.

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 *जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर-452010

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शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

अफ़सर की पुश्तैनी दुम

 




अफसरी के दौरान उन्हें दुमें बहुत मिली । दुम समझते हैं ना आप ? वही जिसके जरिए महकमों में काम होता है, राजनीति में सीढ़ियां चढ़ी जाती हैं और घर में शांति बनी रहती है । दुम का ऐसा है कि कभी दिखती है , कभी नहीं भी दिखती है पर होती जरूर है । लोगों का कहना है की आदमियों की दुम नहीं होती है । ठीक है कुछ लोग जीवविज्ञानी होते हैं या फिर उनकी मानसिकता चिड़ियाघर तक सीमित रहती है । देखा जाए तो लोकतंत्र भी है । सब को अभिव्यक्ति का अधिकार है । आधुनिक समाज की खूबसूरती यही है कि कोई जनाब अपने दौलतखाने को गरीबखाना कह सकते हैं और खीर पूरी को दाल रोटी । कहने और होने में बड़ा अंतर होता है । इसीसे सभ्य और शिक्षित आदमी की पहचान होती है ।

खैर बात अफसर की हो रही थी आदमी कि नहीं । दिक्कत यह है कि जब घोड़े की बात करो तो घास का जिक्र आ ही जाता है । बहरहाल अफसर के पास दुमों का खासा स्टॉक हो गया था । अपने जमाने में उन्होंने नोट किया की दुम के कारण उनसे सही-गलत उचित-अनुचित काम सस्ते में हो जाया करते हैं । इससे बचने की नियत से वे काम के बदले में 'कुछ और' के साथ दुम भी लेने लगे । यूँ कहना ज्यादा ठीक होगा की काम के बाद दुमदार से दुम रखवा लिया करते थे । सोचा न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ।  उन्हें बिश्वास था कि राजधानी में बेदुम-आदमी बेदम-आदमी सिद्ध होगा ।  लेकिन उनका भ्रम जल्द ही टूट गया । जिन की दुम उन्होंने रखवा ली थी वे कुछ दिनों के बाद फिर दुम के साथ हाजिर थे । पता चला कि नई उग आती है इनकी । उन्हें टीवी सीरियल की याद आ गई जिसमें राम रावण का सिर काटते और शीघ्र ही वहां दूसरा सिर उग आता था । लेकिन यह ठहरे खानदानी अफ़सर । बाप-दादा सब अफसर रहे। राजनीति में भले ही इस बात को लेकर निपूते हाय-हाय करते रहें लेकिन अफ़सरी में कोई किसी का बाल बांका नहीं कर सकता है । इन्होंने दुम-दक्षिणा लेना बंद नहीं की । लोगों को मालूम था कि अफ़सर दुम लेते हैं । कोई अगर लेता हो तो राजधानी में देने वाले गटर में भी तैरते मिल जाते हैं । इनका नियम था कि कुर्सी पर बैठते कि पहले अगरबत्ती लगा देते थे । भगवान की तस्वीर पर जब तक अगरबत्ती जलती घीरे धीरे चैरिटी करते हैं । बीस पच्चीस मिनट में अगरबत्ती खत्म होते ही इनकी दुमबाजी शुरू हो जाती है । अफसर के आसपास कटी दुमें छिपकली की दुम की तरह दिनभर हिलती रहती हैं । यह देखने अक्सर जूनियर अफसर जुटे रहते । हर दुम के साथ एक किस्सा भी होता तो महफिल में रंग और जम जाता । अफ़सर को सब दुमवीर कहते तो उसकी छाती पचपन दशमलव पांच इंच की हो जाती ।

दिन गुजरते रहे, काजल की कोठरी से अफसर एक दिन बेदाग बाहर आ गए । रिटायर होकर शेष जीवन काटने के लिए उनके पास पेंशन के अलावा दुमें और किस्से भी थे । सुबह शाम मिलने वालों को बताते हैं कि यह दुम फलां की , यह दुम महीना भर तक हिलने वाली भी ।  यह दुम सुनहरी, काम भी टेढ़ा था लेकिन किया भाई साहब । ऐसी सफाई से कि आज तक लोग दांतों तले उंगली दबाते हैं ! मंत्री-संत्री तक को पता नहीं चला कि कब उनकी आंख का काजल चोरी हो गया । अपना तो एक ही सिद्धांत था कि ईश्वर ने मौका दिया है तो उसे निराश नहीं करना चाहिए । भगवान की इच्छा सबसे ऊपर । अगर वो नहीं चाहता तो मौका सामने आता भला !? कबीर भी कह गए हैं-- 'ऐसी अफसरी कर चलो कि आप हंसे जग रोए' । रोज तमाम किस्से होते हैं, होते ही रहते हैं । लेकिन अफसर ने कभी नहीं बताया कि उनके पास भी एक पुश्तैनी दुम है जिसे दादा ने इस्तेमाल किया पिताजी ने वापरा और उन्होंने भी इसी के साथ अफसरी की । एक दिन किसी ने पूछ लिया तो बोले अफ़सर की दुम दुम नहीं परंपरा होती है । और ये देश परंपराओं का सदा से आदर करता चला आ रहा है । बोलो जय हो ।

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*जवाहर चौधरी
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शनिवार, 9 जनवरी 2021

राज्य का सुखविधान

 




जब दुख का पानी सर से ऊपर जाने लगा तो राजा ने राज्य में सुख काल लगाने की घोषणा कर दी । हाथों हाथ एक कानून पास करके राज्य का नाम 'सुखपुरम' रख दिया । इसी कानून में कहा गया कि प्रजा को अब दुखी होने या रहने की आज्ञा नहीं है । दुख अब राज्य के नियंत्रण में रखा जाएगा ।  दुख-मंत्री अपने महकमें और पुलिस की मदद से इस पर सख्त निगाह रखेंगे । जो प्रजाजन बाकायदा यानी आपदा या दुर्घटना के कारण दुखी होंगे उन्हें राज्य की ओर से सांत्वना मिलेगी। लेकिन इसके बाद भी वह दुखी रहे तो सजा का प्रावधान किया गया है । शौकीन दुखियारों, बेवजह दुखियारों  या आदतन दुखीयारों को दुगना टैक्स देना होगा । जो विपक्ष के बहकावे में आकर दुखी होंगे उन पर सरचार्ज भी लगेगा । जो लोग इश्क करके दुखी होंगे उन पर मुकदमा चलेगा और सजा दोनों पार्टी को मिलेगी। किसी परिजन के देहांत पर उसके निकटतम लोगों को तीन दिन दुखी होने की विशेष इजाजत मिल सकेगी  । इसके लिए उन्हें अपनी न्यायसंगत निकटता का उल्लेख करते हुए दुखी होने की लिखित अनुमति थानेदार से लेना होगी । अखबारों की खबर पढ़कर, टीवी देखते हुए दुखी होने पर सुखकाल में पूर्ण प्रतिबंध रहेगा । अखबारों में शोक- समाचार तत्काल प्रभाव से बंद कर दिए गए हैं । निधन का समाचार "प्रभु मिलन गमन" शीर्षक से ही दिया जा सकेगा । प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ भूकंप आदि के संदर्भ में राज्य की रियाया को आधा दिन दुखी होने की इजाजत रहेगी । इन अवसरों पर कारपोरेट जगत भी अगर चाहे तो पांच दस मिनट दुखी होने का प्रस्ताव पास कर सकता है । जो गरीब अपनी गरीबी का बहाना बनाकर दुखी होते रंगे हाथ पकड़े जाएंगे उनके बीपीएल कार्ड तुरंत जब्त कर लिए जाएंगे  । लेखक कवि यदि दुखान्तक रचनाएं लिखेंगे तो उन पर स्वयं दुखी होने और दूसरों को दुख से संक्रमित करने की दो धाराओं के अंतर्गत मुकदमा चलेगा । सजा के तौर पर उन्हें मंच पर बुलाकर सबके सामने संक्रमणश्री या संक्रमणभूषण अपमान से जल्लाद के हाथों अपमानित किया जाएगा।

स्त्रियों के दुखी होने को राज्य गम्भीरता से लेने जा रहा है और इस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी गई है । क्योंकि राज्य मानता है कि जहां स्त्रियां सुखी होती हैं वहाँ स्वर्ग का वास होता है । लेकिन राज्य स्त्रियों को उदारता पूर्वक श्रृंगार करने और ईर्ष्या करने का मौलिक अधिकार प्रदान करता है ।

रोजमर्रा की छोटी मोटी बातें जैसे महंगाई, मिलावट , भ्रष्टाचार, रेप,  चोरी, हत्या वगैरह के मामले में जनता को सीधे अपने अपने ईश्वर से शिकायत करने की छूट रहेगी । राज्य जनता और ईश्वर के बीच  किसी भी मामले पर गौर नहीं करेगा । राज्य दृढ़ता पूर्वक मानता है कि ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है । जो लोग मानते हैं कि ईश्वर नहीं है उन्हें मानना होगा कि महंगाई, मिलावट, भ्रष्टाचार आदि भी नहीं है । ऐसे लोग यदि विनम्रतापूर्वक भी अपना असंतोष व्यक्त करते हैं तो सीधे सरकार की निगरानी में लिए जाएंगे और जरूरत समझे जाने पर सख्ती से सुखी किए जाएंगे । राज्य जनहित के अरमान और ख्वाहिशें रखने जा रहा है अतः प्रजा को निजी स्तर पर कोई ख्वाहिश या अरमान रखने की इजाजत नहीं होगी ।  क्योंकि इससे दम निकलता है ।  ग़ालिब कह गए हैं कि "हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले ; बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले" । इसलिए प्रजा समझ जाए और कानून का पालन करे ।

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*जवाहर चौधरी
BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मंदिर के पास)
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गुरुवार, 7 जनवरी 2021

नफ़रत का प्रकाश

 



नफ़रत एक सरल आदमी को राजनीतिबाज बना देती है । मार्गदर्शन की जिम्मेदारी में लगे लोग इस प्रक्रिया को जागरूकता कहते हैं  । उनका मलाल यह की अभी लोगों में जैसी चाहिए वैसी जागरूकता नहीं आई है । देश जनसंख्या, महंगाई, बेकारी,  बेरोजगारी से नहीं जागरूकता की कमी से त्रस्त है। मजबूरन उन्हें शिविर वगैरह लगाकर जागरूकता बढ़ाना पड़ती है । एक बार कोई ठीक है जागरूक हो जाए तो उसे अपने घर घर-परिवार,  यहां तक कि जीवन की परवाह भी नहीं होती है । ऐसे सिद्ध जागरूकों को जल्द ही जातू बना लिया जाता है । मोटामोटी यूं समझिए कि जातूजन कौम के रक्षक होते हैं । रक्षक वही हो सकता है जो कौम को प्रेम करें। सिनेमा देख देख कर युवा वह प्रेम करने लगे हैं जो अश्लील है । कौम से प्रेम में यही सबसे बड़ी बाधा है । दूसरी कौम से नफरत करना अपनी कौम से प्रेम करने की पहली शर्त है । दुनिया की हर कौम, हर धर्म परोक्ष रूप से यही सिखाता है । अपना धर्म अपने विचार अपने लोग और अपनी नफरत यानी अपना प्रेम।

आजकल दैनिक जीवन में जागरूकता इतनी हावी है कि अक्सर बाप-बेटे पति- पत्नी के बीच भी 'कूटनीति युक्त' संबंध देखे जा सकते हैं । अगर आप व्यावहारिक जीवन में सक्रिय हैं तो आपको इतनी राजनीतिक समझ होना चाहिए कि दूसरों को मूर्ख बना सकें, झूठ बोल सकें और अपने हित को जनहित सिद्ध कर सकें ।  जैसे यह भाई साहब हैं, इनका नाम है मकरंद रोजधुले । पक्के जागरूक हैं और जातू भी । कहते हैं कि राजनीति में इनकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि आदमी कम 'जड़' अधिक लगते हैं । रोजधुले साहब की फिलॉसफी है कि नफरत एक तरह का प्रकाश है जिसे फैलाया जाना चाहिए और प्रेम जो है अंधेरे में किया जाना चाहिए । अपने हिस्से का प्रकाश वे व्हाट्सएप के जरिए फैलाते रहते हैं । मैनेजमेंट गुरु कहते हैं कि काम कैसा भी हो अगर उसे बाँट दिया जाए तो अपेक्षित सफलता मिल जाती है । हफ्ते में दो-तीन प्रकाश युक्त मैसेज वे भेज देते हैं, जिसका सार होता है कि जागो-जागो यानी तुम जागो ।
आज उनका फोन आया, बोले - कैसा लगा ?
"अभी देखा नहीं ।" मैंने टालना चाहा । "परसों भेजा था वह देखा  ?"
" हां वह देख लिया था ।"
"कैसा था ?"
"आंख फाड़ जागरूकता वाला था ।" "कितने लोगों को फॉरवर्ड किया ?" "फारवर्ड तो नहीं किया ।"
"नहीं किया  !! लगता है आप जागरूकता के मामले में एनीमिक हो ! इससे शंका होती है कि आप अपनी कौम को प्रेम नहीं करते हैं । क्यों नहीं तुम्हें राजद्रोही समझा जाए !"
"ऐसी बात नहीं है, मैं करता हूं कौम को प्रेम ।"
" बिना जागरूकता के कौम से प्रेम करना कैसे संभव है !?"  इस बार आपत्ति लेते हुए और कुछ डपटते हुए वे बोले तो मुझे भी कहना पड़ा - "आपकी यह बात समझ में नहीं आई भाई साहब ! आप खुद जब दूसरी कौम वालों के सामने पड़ते हैं तो खुशी जाहिर करते हैं, हाथ मिलाते हैं, गले भी मिल लेते हैं !! इसका क्या मतलब है !?"
"इसका मतलब है मैं मनुष्य से प्रेम करता हूं , इंसान में मैं ईश्वर देखता हूं ।"
"और जागरूकता ? कौम से प्रेम !?"
"ठेके से ... ठेका समझते हो ना ? काम दूसरों से करवाओ तो बड़े पैमाने पर हो जाता है और अपना ही कहलाता है ।  काम मजदूर करते हैं लेकिन भवन तो बनवाने वाले का होता है । ये इनर व्हील की जागरूकता है ।

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*जवाहर चौधरी
BH-26, सुखलिया,
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर- 452 010

फोन- 9406701670

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शनिवार, 2 जनवरी 2021

मीठा कितना रखोगे ?

 



मैनेजमेंट सही हो तो किसी को सम्मानित करना भी फायदे का काम है । करते-करते बैल भी सीख जाता है । साल भर होने को आया अब उनके कर कमलों में फड़कन शुरू हो गई है । सम्मान के लायक कोई ढंग का आदमी सपड़ नहीं रहा है । दिक्कत यह है कि किसी ऐरे गैरे को सम्मानित कर दो तो लोग लंबे समय तक लत्ते लेते रहते हैं । इधर बूढ़ों को जान की पड़ी है । जिस से बात करो वह हाथ जोड़कर कोविड-कोविड करने लगता है । एक जमाना था जब जान से ज्यादा सम्मान की कदर थी । जान छूट जाती है पर सम्मान दीवार पर फोटो के साथ टंगा  गरिमा बनाए रखता है । जीवन के रहस्य को समझते थे लोग । कुछ को याद दिलाया कि समाजसेवी हो आप , मौका दे रहे हैं, काम आ जाओ समाज के । लेकिन उनकी गूंगी हिम्मत जवाब नहीं देती है । वैसे जो मजा फेमस आदमी का सम्मान करने में है वैसा दूसरे में नहीं है। दो साल पहले एक फिल्मी एक्टरेस सपड़ गई थी । क्या शानदार फोटू आई !  ओ हो !! ... साहब मजा आ गया, क्या बताएं आपको । आज भी देखो तो लगता है वरमाला का सीन चल रहा है। फूल-फूल पंखुड़ी-पंखुड़ी तक वसूल हो गई। सम्मान के मार्केट में माइलस्टोन था वह कार्यक्रम । लोग टूटे पड़ रहे थे , हाल सेमी खचाखच भरा था । इधर हाथ में माला और सामने साक्षात स्वप्न-सुंदरी ! हर दिल में एक ही बात थी कि 'हाय हम ना हुए' ।  दूसरे दिन अखबारों में वो गजब चर्चा, वो सानदार फोटू कि पूछो मती । आज भी एलबम देख लो तो रात बिना ड्राइवर की ट्रेन सी निकल जाती है सट्ट से । 

अब कुछ बदल छंट रहे हैं । 2020 पर नजर डालो तो पता चलता है कि कवियों के अलावा साहित्य के मार्केट में कोई सक्रिय नहीं रहा है । लॉकडाउन से लोगों ने बहुत कुछ सीखा है । बंद घरों में लोग बीमार कम हुए कवि ज्यादा हो गए ।  घर-घर कवि, भर-भर कविता । जिन्होंने कभी नहीं लिखी वे भी तीन-तीन पांडुलिपियां थामें प्रकाशक पकड़ने के लिए दिल्ली-तालाब की ओर बंसी डाले बैठे हैं । बीवियां जमाने की भले ही सुन ले अपने मियां की कभी नहीं सुनती, खासकर तब तो कतई नहीं जब वह कविताओं से संक्रमित बैठा हो । खुद क़वारन्टीन होने के बजाए अगर सुन लेतीं और अपने कोप का रेमडेसीवीर ठोक देतीं तो फेसबुक आभारी हो जाता उनका । हम कोई अतिशयोक्ति में ये नहीं कह रहे हैं । यह ग्राउंड रिपोर्ट है । और फर्स्ट, सेकंड, थर्ड फ्लोर की भी यही रिपोर्ट है । अब सवाल यह कि सम्मान करने की हूक का क्या करें । सौ-पचास को इकट्ठा  सम्मानित कर दें ?  दर्जन से कोई चीज लो तो सस्ती पड़ती है, मतलब माला, शाल वगैरा । हो तो जाता है लेकिन मजा नहीं आता । यूनो सम्मान ऐसा होना चाहिए जिसमें मजा आ जाए वरना मतलब क्या है मगजमारी का । एक सम्मान को लोग आज भी याद करते हैं जिसमें मेनका बिहारी का डांस प्रोग्राम भी रखा था । लेकिन उसमें बजट गड़बड़ा गया था । जब से राजनीति वाले चंदा वसूलने लगे हैं लोग सम्मान सेवकों को दूर से ही टरका देते हैं । फिर इस बार तो कोविड ने किसी को चंदा देने लायक छोड़ा ही नहीं । वैसे तो फूल माला सम्मान का भी चलन खूब है । लेकिन फीका सम्मान डायबिटीज वालों को भी पसंद नहीं आता है, जिससे भी बात करो पहले पूछता है 'मीठा कितना रखोगे ?'
सुन रहे हैं कि जनजीवन सामान्य हो रहा है तो विभूतियां भी पटरी पर आ जाएंगी । आज नहीं तो कल कोई न कोई सपड़ जाएगा । आप आइयेगा जरूर ।

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*जवाहर चौधरी
BH 26 सुखलिया
(भारतमाता मन्दिर के पास)
इंदौर 452 010

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बुधवार, 30 दिसंबर 2020

रॉयल्टी ! ये क्या होता है!?

 




प्रकाशक महोदय पीले प्रकाश में सोने की सीआभा में दमक रहे थे । दो चार तोला असली भी पहने हुए थे । दफ्तर क्या था मंदिर ही समझो । अभी तथास्तु कह दें तो भक्त फेसबुक, वाट्स एप पर 'प्रकाशक-नारायण' की कथा करवाता फिरेगा । लेखक अपनी पाण्डुलिपि के साथ है । उसे लग रहा है कि पन्ना की जमीन से वह हीरा खोज लाया है । बस इसके ठीक ठीक दाम मिल जाएं तो वह घर मिठाई के साथ और दोस्तों के बीच खंबा लेकर लौटे । प्रकाशक ने बिना पूछे लेखक को पानी पिला दिया है । लेखक मना तो कर रहे थे लेकिन आग्रह था ।  दिल्ली की सरकार ने पानी के बिल फिलहाल माफ कर रखे हैं इसी का साइड इफेक्ट था । पांडुलिपि को देखते पलटते  प्रकाशक ने लेखक परिचय पर भी आठ परसेंट गौर किया, और पूछा- कॉफी-टी कुछ लेंगे ?

"अभी लेकर आए हैं । आपसे टी नहीं रॉयल्टी लेंगे " । लेखक बोले । 

"रॉयल्टी !! ये क्या होता है !!"  प्रकाश अपने पाण्डुलिपि पर रखे पेपरवेट को उठाकर किनारे किया।

" रॉयल्टी ... !  वही जो आप किताब छाप कर लेखक को देते हैं । मेहनताना, पारिश्रमिक या उसका हक। जो भी हो । " 

" हम तो नहीं देते हैं "। प्रकाशक ने छाती चौड़ी करके मन की बात कह दी ।

"लेकिन लोग कहते हैं कि आप देते हैं !!  हमारे इधर के संग्राम सिंह की किताब आपने छापी है , वह तो कहते हैं की उन्हें लाखों की रॉयल्टी मिलती है !" 


"दिल्ली में अब प्रदूषण ही प्रदूषण है। रॉयल्टी कहां है ! संग्राम सिंह एक किताब छपाने में दमे का शिकार हो गए, उसी को रॉयल्टी समझते होंगे  । " 

"देखिए साहब रॉयल्टी जरूरी है ।"

" किसके लिए ?"

"लेखक के लिए ।"

"लेखक के लिए रॉयल्टी नहीं है पाठक जरूरी होते हैं ... और आपको पता ही होगा  पाठकों की नस्ल खत्म होती जा रही है । अब पढ़ने का चलन नहीं रहा तो किताब कौन खरीदेगा और क्यों !'


'लेकिन आप छाप तो रहे हैं ।"


"वह तो इसलिए कि आप लोगों का मनोबल बना रहे ।  किताब के पन्नों के बीच सूखे फूल  सा पड़ा लेखक वर्षों तक बना रहता है । आज की तारीख में किताब लेखक के लिए वैक्सीन है । एक छप जाए तो फेफड़ों में जान रहती है ।"


 "कुछ तो दीजिए रॉयल्टी, ऐसा भी क्या । मेरे काफी पाठक हैं , रिश्तेदार भी बहुत हैं , हमारी तो गांव के गांव में रिश्तेदारी है । किताब तो बिक जाएगी आराम से ।"


" कितनी बिक जाएगी ?" 


"मान के चलिए की दो तीन सौ तो मामूली बात है । हाथो हाथ बिकेगी ।"  लेखक ने अपना कांफिडेंस रोका ।


"चलिए तीन सौ आप बेच लेना । मुनाफा भी आप ही रख लेना । ठीक है ?"


"लेकिन तीन सौ की रॉयल्टी भी तो बनेगी ?"


" कहा ना रॉयल्टी का चलन खत्म हुए बरसों हो गए हैं , और तीन सौ किताबों के लिए भी आपको पैसे देने होंगे । फिरी में कुछ नहीं होता है दुनिया में, हर चीज और बात की कीमत चुकाना पड़ती है ।"


"यह तो लगता है गलत है । ... लेकिन लेखक हूं , बाजार का गरल पी लूंगा । देश और साहित्य के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा । लेखन साधना है, तप है,  हठ है, योग है और त्याग भी है । कबीर ने कहा भी है कि आप ठगाए सुख होए । तो ठीक है ।" 


"कुछ त्याग और करना पड़ेगा आपको। ... साठ हजार अलग से देने होंगे ।"


"वह क्यों !!"


"मुआवजा समझो । आपकी किताब पर हमारे प्रकाशन का नाम जाएगा । मानहानि या क्षतिपूर्ति जो भी मानना चाहो मान लो ।...  देखिए हमारे यहां छपने से आप तो महान हो जाएंगे फटाफट ... हमारा क्या होगा यह भी सोचिए।  जोखिम तो हम उठा रहे हैं ।"


" तो क्या कुछ कमाओगे नहीं इसमें !?" लेखक ने पूछा ।


" कमाएंगे क्यों नहीं ! हम लेखक थोड़ी है।" वे बोले ।


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*जवाहर चौधरी

BH 26 सुखलिया

(भारतमाता मन्दिर के पास)

इंदौर   452 010

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

फोटोफ्रेम में फंसा आदमी

 



इन दिनों अपनी फोटो पर मेरा ध्यान बार-बार जाता है । आजकल हर हाथ में कैमरे वाला फोन है तो फोटो ऐसे खींचे जा रहे हैं मानो संसार में इसी कर्म के लिए भेजा है ईश्वर ने । या फिर सरकार को सालाना रिटर्न के साथ हर बार नए फोटो दिखाना पड़ेंगे । कभी मन होता है कि सेल्फी दर सेल्फी लेते रहें,  शायद कोई पसंद का फोटो मिल जाए ।

 रोज अखबार फोटो में शेष रह गए लोगों की सूचना देता है । कुछ के यहां जाना भी पड़ता है । देखते हैं फोटो बढ़िया है । सारे दाग धब्बे फोटो से गायब हैं ।  आजकल तकनीकी का जमाना है आदमी से बेहतर उसकी फोटो होती है । मेरे माथे पर चेचक और चोट के दो निशान हैं । जब भी फोटो खिंचवाई फोटोग्राफर ने दोनों निशान गायब कर दिए और इसे अपनी कला कहा । इससे थोड़ा बहुत पहचान का संकट बना, पर अच्छा लगा । गालों पर मुहांसों के छोड़े हुए निशान किसको अच्छे लगते हैं ! स्टूडियो वाले इस बात को बहुत अच्छे से जानते हैं । एक बार तो फोटो इतना साफ सुथरा बना दिया कि जरूरी लगने लगा कि नीचे अपना नाम भी लिख दूं । कॉलेज के दिनों में ऐसी एक घटना हुई जो भूलती नहीं है । परिचय पत्र के लिए फोटो चाहिए था । फोटो चिपकाकर प्रिंसिपाल के पास हस्ताक्षर के लिए उपस्थित हुए तो उनका सवाल था कि यह कौन है !?  मतलब फोटो किसकी है , बताया कि मेरी है सर । वे बोले जैसी शक्ल है वैसी फोटो लाओ । इसमें तुम्हें कौन पहचानेगा । मजबूरन बिना टचिंग की फोटो लेकर जाना पड़ा जो पसंद नहीं थी । अच्छी तरह याद है कि मैंने परिचय पत्र हर बार इसी तरह आगे बढ़ाया जैसे फटा नोट चलाने की कोशिश करता है कोई ।

 बहुत समय बाद जब पिता बीमार रहने लगे मैंने फोटो को लेकर उनकी चिंता को महसूस किया । उनके जमाने में फोटो कम उतरते थे । जो थे उनमें ज्यादातर दीवार पर टंगे हुए थे । उनके ही थे लेकिन अब लगता था किसी और के फोटो हैं । समय के साथ शक्ल इतनी बदल जाती है आदमी खुद अपने आप से परायापन महसूस करने लगता है । उन्हें एक नई फोटो चाहिए थी जिसके विस्तार में जाए बिना उनकी पहचान साफ हो । आखिर एक फोटो ऐसी खींची गई जिससे उनकी मनोकामना पूर्ति हो गई । उस फोटो की कई प्रतियां बनी । एक बड़ी सी, जिसे फ्रेम करवाकर ठीक से सामने दीवार पर लगवा दी । अब आगंतुक की प्रतिक्रिया उनकी नई जरूरत बन गई । तब मुझे यह सब ठीक नहीं लगा था ।


मुझे अपनी एक अच्छी फोटो की जरूरत हर सुबह महसूस होती है । पता नहीं क्यों लगता है कि फोटो अच्छा होगा तो लोगों में अच्छी भावनाएं आएंगी । हो सकता है लोग कहेंआदमी अच्छा था । हालांकि कबीर ने कहा है की ऐसी करनी कर चलो कि हम हंसे जग रोए । अब करनी तो सबकी एक जैसी है । और जैसी भी हो गई उस फाइल को दोबारा खोल नहीं सकता है ।  ज्यादातर मामलों में कर्म छुपाने की चीज होते जा रहे हैं । वह तो अच्छा है कि जा चुके आदमी के बारे में कोई बुरा बोलने की परम्परा नहीं है । सच तो यह है की किसी का बुरा देखो तो वह अपना ज्यादा लगता है । वैसे फुर्सत किसको है अब ! पहले भी नही थी, कहते हैं आज मरे कल दूसरा दिन । अच्छी फोटो सामने है तो फूल चढ़ा दो । बस हो गया असेसमेंट । ऊपर वाले का काम ऊपरवाला जाने । आदमी कर्म ऊपर ले जाता है और बढ़िया सा फोटो नीचे छोड़ जाता है । उस फोटोग्राफर की याद आई जिसने मुझे अपनी कला से आई एस जौहर बना दिया था । पता चला कि वह माला और फ्रेम के बीच फंसे मुस्कुरा रहे हैं । बेटे से पूछा -- आखरी तक ऐसे ही दिखते थे क्या ? 

लड़का बोला -- दिखने से क्या होता है !!  नील-पासबुक थे । 

उसकी बात समझ कर कहा कि सिकंदर गया तब उसके भी हाथ खाली थे । उसने गौर से देखा जिसे लगभग घूरना भी कहा जा सकता है, बोला -- हाथ खाली थे लेकिन पासबुक यानी खजाने में तो था । पीछे जो रह जाते हैं उनका काम सिर्फ फोटो से चलता है क्या !? महल-बाड़ा ना हो तो शेरवानी में पुरखे फिल्मी पोस्टर से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते हैं ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

दमदमा दमदम

 




यहां दम की बात हो रही है । किसी के लिए बुरा नहीं सोच रहे हैं । हालांकि दम यानी दमें की बीमारी बुरी होती है  । किसी भी बीमार से पूछिए यही कहेगा की 'भगवान यह बीमारी किसी को ना दें, बहुत बुरी होती है' । लेकिन हम अपनी बता रहे हैं वह भी मजे के लिए । कोई डायरेक्ट दिल पर ना लें , वैधानिक चेतावनी जैसा है  , मानना ना मानना आपकी मर्जी, दिल आपका । वैसे दिल का क्या पच्चीसों डेंट तो पहले से ही लगे पड़े होंगे ।


हम देसी लोग जिसे दमा कहते हैं ना उसे ही शहरी लोग अस्थमा कहते हैं । वैसे नाम में क्या रखा है,  गुलाब का हो या बीमारी का या फिर आदमी का ही क्यों ना हो । भारतीय संस्कृति में बीमारियों को भी सम्मानित करने का रिवाज था । सो दमे को राजरोग कहा जाता है । आप यों चाहे फकीरी इंजॉय कर रहे हों, लेकिन दमावान होते ही राजयोगी हो जाते हैं । अगर इस इज्जत अफजाई को तवज्जो दें तो हम भी हो गए । इस बात को संस्कृति समर्थक खासतौर पर नोट करें तो राजरोगी भी अपने को मुख्यधारा में मान कर छाती छप्पन कर ले ।


देखिए हमारी जिम्मेदारी को जरा अलग से महसूस कीजिए। जब संसार सारी रात सोता है,  यहां तक कि भगवान भी, तब देशभर में दमदार जागते हैं । तो  भइया ऐसी ही एक रात की बात है अपनी । दम से हाथापाई करते बहुत देर हो गई थी तो याद किया भगवान को । दमदारों के पास उनकी डायरेक्ट हॉट लाइन होती है । हमने लॉजिक रखा कि देखिए साहब, आत्मा सो परमात्मा, सब जानते हैं ।  इधर आत्मा जो है दम इसे बेदम हुई जा रही है और उधर परमात्मा मजे में स्वर्ग के सुनहरे सपने देखें !! यह नहीं हो सकता । माना की आत्मा जमीनी कार्यकर्ता है और परमात्मा हाईकमान । लेकिन सुनना तो पड़ेगा । परमात्मा के रहते आत्मा को दमे ने दबोच रखा है और सारी ऑक्सीजन कॉंग्रेसी खेंचे जा रहे हैं ! यह तो नहीं चलेगा कुछ कीजिए वरना ....

परमात्मा 'वरना' के झांसे में आ गए और 'फूं' जैसा कुछ किया फटाफट । फौरन दमे ने अपनी पकड़ ढीली कर दी । वे बोले - अब कैसा लग रहा है ?


हमने यानी आत्मा ने कहा -- राहत महसूस हो रही है । धन्यवाद है जी आपका ।

 परमात्मा बोले धन्यवाद से काम नहीं चलेगा । दमे पर कुछ सुनाओ । कोई अच्छा सा  दमदार व्यंग्य । 

आत्मा बोली- अभी बड़े दर्द में हूँ, फिर दामे पर कोई व्यंग्य लिखता है क्या !!


दूसरों का कष्ट सुनने से परमात्मा को भी मजा आता है यह तो चौंकाने वाली बात है ! आत्मा बोली -- अभी कहो तो कविता सुना दूँ,  इन दिनों व्यंग से ज्यादा अच्छी कविताएं छन रही है बाजार में ।

परमात्मा अचानक उठकर खड़े हो गए, बोले -- तुम कविता संक्रमित हो !! 

ओह मैं सैनिटाइजर नहीं लाया ! अगर कविता की चपेट में हो तो चौदह दिनों के लिए क्वारंटाइन हो जाओ, इसी में साहित्य जगत की भलाई है । सोचो अगर  संक्रमण फैला और देश में सवा सौ करोड़ कवि पैदा हो गए तो लोग लॉक डाउन में भी मर जाएंगे । श्रोता नहीं मिले तो कवि जानलेवा हो जाता है । दुनिया पहले ही  आतंकवादी गतिविधियों से  परेशान है । तुम अच्छी आत्मा हो,  मुझे क्षमा करो । कहते हुए परमात्मा चले गए। 


निद्रा एक तरह की अचेतना का समय होता है । ज्ञानी तो यहां तक कहते हैं कि यह एक तरह की स्थाई मृत्यु है । इस तरह प्राणी रोज मरता है और रोज जीता है । कुछ लोग दोपहर में आधा-एक घंटा अतिरिक्त मर लेते हैं । गीता में कहा गया है की आत्मा वस्त्र बदलती है और उन्हें धारण करती है , लेकिन दमदार लोग सोते नहीं हैं इसलिए उसे औपचारिक रूप से जागने की जरूरत भी नहीं पड़ती है । घर में अगर एक खांसते जागते पिताजी पड़े हों तो घर के बाकी लोग चैन की नींद सो सकते हैं ।


ऐसी ही एक रात है और मैं जाग रहा हूँ । मोहल्ले के कुत्ते तक सो गए हैं । बाहर सुई पटक सन्नाटा है । पास लगे हाईवे से ट्रकों की आवाजाही की आवाज नहीं आ रही है । लग रहा है सन्नाटे का हाईवे पसरा पड़ा है दारू पी के । आज तो हवा भी बंद है,  पत्ते तक हिल नहीं रहे हैं । इसलिए अंदर के शोर को साफ-साफ महसूस कर रहा हूँ । सांसो में साएं साएं की आवाज मन की बात की तरह जबरिया सुनाई दे रही है । राहत नहीं मिल रही, शोर बहुत हो रहा है । लग रहा है शरीर में सांस एक आवश्यक बुराई है । सांस का सिस्टम नहीं होता तो आज मुझे दमा भी नहीं होता । लोगों को पता नहीं मछलियों को दमा होता है या नहीं । मस्तिष्क में पूरा संसार घूम रहा है । जो गुजर गया और जो गुजर सकता है वह दृश्य सा आ जा रहा है । एक बार फिर कहा -- कुछ करो परमात्मा,  इधर ले लो या फिर उधर आने दो । डॉक्टर मरने नहीं देते दमा जीने नहीं देता । एलओसी का गांव हो गए हमारे फेफड़े । 


दूसरे दिन बारिश हो रही थी, जोरदार से जरा कम । तीन-चार दिनों तक मौसम रह रह कर सुबकता रहा । किसी की हिम्मत नहीं कि बिना काम बाहर निकलता ।  हिदायतें , सावधानी और दवाओं के अलावा लोगों की दुआओं का भी जोर था कि दमे ने सिर नहीं उठाया । रात को खांसी नहीं  आई ! 

घर वाले ठीक से सो नहीं सके । रात में तीन चार बार नाक के पास हाथ लगाकर चेक किया है --"अभी तो हैं ! सो रहे हैं शायद !"


सुबह मित्रों के फोन आए । कैसा है भाई ? सावधानी रख यार । मौसम जानलेवा है । तेरी ही चिंता लगी रहती है । वैसे डरना मत ... दमे वालों की उम्र लंबी होती है । हालात भले ही खराब रहें पर जिंदा ज्यादा रहते हैं ।


शनिवार, 12 दिसंबर 2020

जो नहीं जानते और नहीं जानते कि नहीं जानते

 



बस्ती में एक सीधासाधा आदमी था जो हमेशा खुश रहता था इसलिए लोग उसे पागल कहते थे । कुछ की राय थी कि वह मूर्ख है वरना आज की डेट में दस प्रतिशत समझदारी वाला आदमी भी खुश नहीं रहता है । जिनके पास जरा भी समझ या ज्ञान है वे बकायदा दुखी हैं । आप कह सकते हैं कि जरा सा ज्ञानी होना भी दुखी होने के लिए काफी है । जो नहीं जानता वही खुश है, जो जनता है वो दुखी है । कबीर कह गए हैं – “सुखिया सब संसार, खावै और सोवै ; दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै” । अच्छा राजा वही होता है जो चाहे जो करे पर जनता को कुछ भी जानने न दे । जिस दिन लोग जानने लगेंगे वे दुखी होने लगेंगे । जो नहीं जानते हैं और नहीं जानते हैं कि वो नहीं जानते बस वही सुखी हैं, खुश हैं । जो जानने की कोशिश में लगे रहते हैं वे दरअसल दुखी होने का आत्मघाती प्रयास कर रहे होते हैं । एक विद्वान बोले हैं कि लोकतन्त्र दुखी करने, दुखी होने और दुखी बनाए रखने की व्यवस्था है । व्यावहारिक जीवन में भी कहा गया है कि बंधी मुट्ठी लाख की, खुल गई तो खाक की । राइट टू इन्फर्मेशन यानी सूचना का अधिकार क्या है ! यही ना कि मुट्ठी खोलिए । आप पूछिए, जानिए और दुखी होइए । अगर मीडिया में कुछ जुगाड़ है तो इसे छ्पवा दीजिये, आपका दुख अकेले का दुख नहीं रहेगा । जनहित याचिका लगा दीजिए, देश भी दुखी हो जाएगा । आपको लगेगा कि आप नागरिक अधिकारों का लाभ उठा रहे हैं लेकिन सच ये है कि आप स्वेच्छा से दुखी हो रहे हैं और दूसरों को दुखी कर रहे हैं । मूल रूप से यह काम सरकार की मंशा के खिलाफ है । मुल्क के जिम्मेदारों को जनता के सुख के लिए बहुत सी बातें छुपना पड़ती है, बात बात पर झूठ बोलना पड़ता है । वे मानते हैं कि झूठ बोलना यदि पाप है तो जनता के सुख के लिए वे जिंदगी भर झूठ बोलने के लिए तैयार हैं । याद रखिए संत कह गए हैं कि अगर आपके किसी झूठ से दूसरे को सुख मिलता है तो वह सच से ज्यादा अच्छा है ।

अब गरीबी को ही लीजिए । किसी जमाने में सरकार ने नारा दिया था गरीबी हटाओ । सीधेसाधे गरीबों ने समझा कि हमारी हटाने वाले हैं  । लोगों को नहीं मालूम कि उनसे ज्यादा गरीब वे होते हैं जो अमीर भी दिखते हैं । जिनके पास बहुत होता है उन्हीं को बहुत चाहिए होता है । बरसों तक उनकी गरीबी हटती रही किसी को पता नहीं चला । जानते नहीं थे सो खुश थे । एकदिन जान गए तो सदमे में आ गए । गुस्सा इतना आया कि सत्ता में बैठे लोगों को घर बैठा दिया, पार्टी बदल दी । इतना करके वे खुश थे, नहीं जानते थे कि सरकार गई है तो आई भी सरकार ही है और सरकारें अपने चरित्र में कभी नहीं बदलती । अब गरीबों के कल्याण की योजनाएँ हैं । सस्ता अनाज, सस्ता इलाज के बाद लोग सस्ती मसाज की उम्मीद में घर से निकलना पसंद नहीं करते हैं । टीवी पर सुखदाई खबरे हैं और मोबाइल पर दो जीबी डाटा मुफ्त कैबरे करता है । हफ्ते में दो बार भोजन भंडारे ... और क्या चाहिए गरीब को ।

 

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बुधवार, 9 दिसंबर 2020

जनपथ सो रहा है, ‘डू नॉट डिस्टर्ब’



वे नाराज हुए, उन्हें लगता है कि एक राष्ट्रीय पार्टी को चलाने के लिए नाराज होना बहुत जरूरी है । उनके पिता के नाना जब नाराज होते थे तो पार्टी कसावट में आ जाती थी । दादी नाराज होती थी तब भी ऐसा ही होता था । अब वो नाराज होते हैं तो चुटकुले बनने लगते हैं । विदेश से नाराज होने का क्रेश कोर्स भी किया उन्होने पर बात नहीं बनी । जिम जा कर कसरत की, वजन उठाया, बॉडी बनाई पर पार्टी कमजोर होती गई । वे फिर नाराज हुए और दलदारों को कहा कि सुबह जल्दी उठो, जॉगिंग करो, लेकिन नहीं माने । बोले आप फोकट नाराज होते हो । आपको पता होना चाहिए कि खाने से पार्टी मजबूत होती है कसरत करने से नहीं । अब सवाल ये हैं कि कहाँ खाएं, कैसे खाएं ! खाने को कुछ नहीं होगा तो कितनी भी कसरत करो कोई फायदा नहीं है । और फिर यह भी ध्यान रखिए कि कमजोर आदमी ज्यादा नाराज होता है ।

इस बार वे थोड़ा डरते डरते नाराज हुए । बोले कुछ तो करना होगा । एक एक करके सारे राज्य भारत छोड़ो कहते जा रहे हैं । लगता है जैसे हम पार्टी नहीं आदिवासी हैं और हमें अपने जंगल से खदेड़ा जा रहा है । हमारे लिए जान दे देने वाले वो कम्युनिस्ट अब रहे नहीं । राजनीति में नक्सल होने की कोई परंपरा भी नहीं है । मैं अकेला बैठे बैठे अनुलोम विलोम करता रहूँ तो पार्टी के फेफड़ों में जान आ जाएगी क्या ! आप सब लोग सुख के साथी रहे हो, आज मुसीबत का समय आया है तो घर में बैठे भोजपुरी सिनेमा देख रहे हो ! क्या लगता नहीं कि आपको शरम आना चाहिए ?

“राजनीति में शरम का क्या काम !? ... बाबा आपको ठीक से पढ़ाया नहीं गया है । न आपको खाने का पता है और न ही शरम का ! अपनी कानभरू केबिनेट से कहो कि पहले पार्टी का इतिहास पढे और आपको भी पढ़ाए । बिना परंपरा जाने केवल नाराजी के भरोसे आप पार्टी को चला नहीं सकोगे ।“

 बाबा चौंक पड़े । ये क्या ! पार्टी में पहली बार किसी गांधी को लोग दस का नोट समझ कर बात करने लगे हैं । पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ दिया तो कट चाय की वेल्यू रह गई ! इससे तो अच्छा है कि पहले वे ही झोला उठा कर चल दें । किसी मामले में तो आगे निकालें । कुछ देर कि खामोशी के बाद बोले – आपको पता है परंपरा ? दादी के सामने आप लोग बैठने की हिम्मत नहीं कर पाते थे और लत्ते खींच रहे हो पोते के !! अगर परंपरा नहीं रही तो पार्टी कैसे रहेगी !  कह कर वे कोप के साथ कक्ष में चले गए ।

दूसरे दिन उनका दरवाजा नहीं खुला । लोगों को लगा कि नानी के यहाँ गए होंगे । हप्ता गुजर गया और नौकरों से बात बाहर आई कि वे सो रहे हैं । उठते हैं टीवी पर खबरे देखते हैं और सो जाते हैं । रात को जागते हैं और सुबह सो जाते हैं । सुबह किचन से मुर्गे की बांग होती है और उनके मुंह से गुडनाइट एवरी बडी निकल जाता है । पार्टी खुश नहीं है मुर्गा खुश है । अभी भी उनके कुछ फॉलोवर हैं, वे भी सो रहे हैं । सत्तर साल पार्टी ने काम किया उसकी थकान उनमें उतार आई है । देश के लिए उन्होने एक संदेश छोड़ दिया है, पार्टी सो रही है डू नॉट डिस्टर्ब 

 

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