सोमवार, 14 अप्रैल 2025

कला से खौफ


 

               मंत्री ने कहा कि "अपने राज्य में यह एक बड़े कलाकार हैं चित्र बनाते हैं..... "

               राजा ने प्रश्न किया -"चित्र क्यों बनाते हैं!? क्या होता है चित्र बनाने से? अगर कल युद्ध हुआ तो हमारे सिपाही क्या चित्र लेकर मैदान में उतरेंगे!! तुम हथियार बनाओ। राज्य अंदरूनी और बाहरी खतरों से घिरा हुआ है, हमें हथियारों की जरूरत है। तुम जानते हो अच्छा हथियार बनाने और चलने वाला सबसे बड़ा कलाकार और देशभक्त होता है। "
              " महाराज की कीर्ति चांद सितारों तक पहुंचे मलिक। किंतु निवेदन करता हूं कि मुझे हथियार बनाना नहीं आता है। मैं  चित्रों की प्रदर्शनी लग रहा हूं । आप उद्घाटन कर देते और एक नजर डाल लेते तो कला का सम्मान बढ़ जाता। " चित्रकार ने विनम्रता से हाथ जोड़ दिए।
             " हथियार नहीं बना सकते तो गाना तो गा सकते हो। गाना तो कला है कोई भी कर सकता है। चलो गाओ जरा और दरबार का मनोरंजन करो।"
              " गाने वाले कलाकार दूसरे होते हैं महाराज। "
              " सच्चे कलाकार को सब आना चाहिए। इसमें पहला दूसरा तीसरा कलाकार क्या होता है! "
             मामला बिगड़ता देख मंत्री को हस्तक्षेप करना पड़ा। " महाराज यह राज्य का श्रेष्ठ चित्रकार है इसके प्रशंसक भी बहुत है यदि आप प्रदर्शनी का उद्घाटन और अवलोकन कर लेंगे तो कला के लिए यह अच्छी बात होगी। "
               " लेकिन इसके चित्रों से राज्य को क्या लाभ होगा। "
               " राजन इसके चित्र देखकर प्रजा के मन में प्रसन्नता होगी। "
               " ठीक है पर प्रजा की प्रसन्नता से राज्य को क्या लाभ होगा? "
               " महाराज अगले माह आपके लिए राज-कीर्ति पंचकोटि यज्ञ होना है। यदि प्रजा प्रसन्न हुई तो हम उससे यज्ञ कर वसूल सकेंगे। प्रसन्न प्रजा घी और हवन सामग्री का ढेर लगा देगी। इसलिए हे राजन, चित्रकार को सहयोग करने की कृपा करें।"
              " महामंत्री, यदि इसके चित्र देखकर लोग प्रसन्न नहीं हुए, कर और हवन सामग्री नहीं दी तो इससे भरपाई कैसे की जा सकेगी?” महाराज ने सोच कर प्रश्न रखा।
              " चित्रकार तुम्हारे पास कितनी संपत्ति है? "
            " संपत्ति नहीं है भगवान । किराए के घर में रहता हूं, रुखा सूखा खाता हूं। लेकिन मुझे विश्वास है कि  महाराज पधारेंगे तो प्रजा अवश्य प्रसन्न होगी। " चित्रकार ने निवेदन किया।
             " राज कीर्ति यज्ञ की सफलता के लिए आपको चलना चाहिए महाराज। करों के बोझ से दबी प्रजा से एक और कर लेने के लिए चित्रकला प्रदर्शनी दिखाने का प्रयोग बुरा नहीं है। " मंत्री ने समझाया।
              महाराज राजी हो गए और तय स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ पहुंचे।
              " यह क्या! लाल रिबन!! ... लाल हटा दो हरी रिबन लओ और इसे हम कैंची से नहीं तलवार से काटेंगे। "
              तुरंत व्यवस्था की गई और उद्घाटन हो गया। अंदर बहुत सारी पेंटिंग्स लगी थी। महाराज एक पेंटिंग के सामने खड़े हो गए और चित्रकार से पूछा - यह क्या है?
               " यह सूर्योदय का दृश्य है महाराज फूल खिले हैं चिड़िया चहक रही है उमंग उत्साह का वातावरण दिखाया है। "
                " लेकिन सूर्य लाल है! उसके प्रकाश से आकाश लाल है! फूल भी लाल खिल रहे हैं! चिड़ियों की चोंच भी लाल है!! एक एक पेंटिंग में इतना इतना लाल!! ... कम्युनिस्ट हो क्या?!" महाराज नाराज लगे।
                " नहीं महाराज । " चित्रकार ने हाथ जोड़ दिए।
                " प्रजा को क्या संदेश जाएगा इससे!! महामंत्री, आप तो कह रहे थे कि लोग कर देंगे। मुझे तो लगता है इसे देखकर बगावत कर देंगे। "
                " महाराज, कम्युनिस्ट अब हैं कहां!! जो बचे हैं वे बीपी और कोलेस्ट्रॉल की गोलियां खाते पड़े हैं कहीं। उनके सारे लाल झंडों को प्रजा ने धर्मग्रंथो को बाँधने के काम में ले लिया है। आप चिंता ना करें राजन, अब लाल से कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है। "मंत्री ने समझाया।
               "अरे महामंत्री! चित्रकार की दाढ़ी देखो ! खद्दर के कपड़े देखो ! पांव में जूतियां भी नहीं है ! यह जरूर कामरेड है। हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते हैं। सारे चित्र जप्त करें और चित्रकार को मरने के लिए जंगली जानवरों के सामने छोड़ दें। " कह कर वो चले गए।
                चित्रकार समझता रहा कि ऐसा नहीं है, लेकिन किसी ने उसकी नहीं सुनी। भाग्य से मंत्री को दया आ गई। जान बचाने के लिए उसने चित्रकार को राज्य से बाहर कहीं भगा दिया।

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सोमवार, 7 अप्रैल 2025

केटवाक और कदमश्री सम्मान

 




               “नहीं नहीं श्रीमान, कैटवॉक कीजिए। कैटवॉक समझते हैं ना? नहीं समझते हैं तो पहले सीख कर आइये, समझ कर आइये। योग्यता वोग्यता को भूल जाइए, इनके मुगलते में मत रहिये । कदमश्री सम्मान कोई मामूली चीज नहीं है। ड्राइविंग लाइसेंस लेने के लिए भी दस तरह के टेस्ट देना पड़ते हैं तो यहां क्या दिक्कत है! लेने वाले एक ढूंढो तो हजार मिल जाते हैं। यूं कहो कि गले पड़ जाते हैं। कवि प्रतिदिन-पचास का नाम सुना होगा। हिम्मत वाले हैं, जिद्दी हैं, पचासों टेस्ट दे चुके हैं लेकिन नहीं मिला। कैटवॉक करो और मिल ही जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है। टेस्ट परफेक्ट होना चाहिए। बिल्ली चूहा दिखाए और मलाई के मामले में मुंह छुपा ले तो कैसे काम चलेगा। कंप्लीट केट-पन होगा तभी उम्मीद की जा सकती है। अगली बार आओ तो मलाई लेकर आना। मलाई खिलाना शुभ होता है। कदमश्री सम्मान जैसे मामले में शुभ अशुभ का ख्याल तो रखना जरूरी है। इस तरह के बड़े दरबारी सम्मान का मामला मात्र योग संयोग का नहीं होता है। नेपथ्य लीला हमेशा सम्मान से बड़ी होती है। अंतर केवल इतना है कि सम्मान दिखता है । कहने वाले का गए हैं फल की चिंता मत करो कैटवॉक किए जाओ। समझने वाले समझ गए ना समझे वह अनाड़ी है।“ वे एक साँस में बोल गए । उनके पास समय कहाँ, राजधानी देशभर की बिल्लियों से भरी पड़ी है  

                खुद केट भी माँ के पेट से कैटवॉक सीख कर नहीं आती है। कवि प्रतिदिन-पचास अपने मोटापे के बावजूद अभी भी लगे हुए हैं। उन्होंने देखा है कि कोशिश करता रहे तो हाथी भी कैटवॉक कर सकता है। पिछला रिकॉर्ड खंगालोगे तो पता चलेगा कि राजधानी में कई हाथी कैटवॉक कर गए हैं। उनसे ही सीखना चाहिए ।  चलिए कुछ पूछते हैं ।
" गजराज जी आपको पिछली बार कदमश्री सम्मान मिला है तो उसके बारे में कुछ बताइए। "

“कदमश्री मिलता नहीं है लेना पड़ता है। किसी शायर ने कहा है ना, बढ़ा कर हाथ जो उठा ले जाम उसका है।"
" लेकिन वो तो कैटवॉक करने के लिए कह रहे हैं!! हाथ कहां बढ़ाएं । क्या करना पड़ता है?"
" क्या नहीं, यह पूछिए कि क्या-क्या करना पड़ता है। समझिए तनी हुई रस्सी पर चलना होता है।"
" चल लूँगा, कितना दस बीस फुट रस्सी पर? "
" नहीं अपने शहर से राजधानी तक। खूब बैलेंस बनाकर रखना जरूरी है। हाथ में एक बड़ा डंडा हो चिकना, सिफारिश का। उसके दोनों छोरों पर ठीक-ठाक वजन हो, तकि जरूरत पड़ने पर संतुलन बना रहे। इस मामले में आदमी को सुस्ती नहीं रखना चाहिये। कदमश्री का सीजन होता है जैसे आम का होता है। उसके बाद चल जाता है । "
" ठीक है राजधानी पहुंचते ही काम तो हो जाएगा ना? "
" वहां पहुंचोगे तो तुम्हें असली कैट भी मिलेंगी। तुम देखोगे कि वहां मेंढक, खरगोश, कंगारू वगैरह सब कैटवाक कर रहे है !  कुछ डंकी मंकी भी कोशिश में लगे हैं । बहुत कठिन है ।“

“फिर आपने कैसे ले लिया गजराज !?”

“गणेश जी ने दिलवाया ।“

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सोमवार, 31 मार्च 2025

आलसी आदमी महान होता है

 




 


                      आलसी आदमी भी दूसरे तमाम प्राणियों की तरह जिंदा होता है। फर्क केवल उसके जिंदा रहने के तरीके में देखा जा सकता है। वह जरूरी / गैरजरूरी किसी भी तरह की हलन चलन में विश्वास नहीं करता है। वह मानता है कि बैठे रहकर या पड़े रहकर भी मस्त जीवन जिया जा सकता है। आलस्य एक तरह का दिव्य गुण है । शेषनाग पर भगवान भी तो सदा लेटायमान रहते हैं । आलसी अपने को ईश्वर का सच्चा पुत्र मानता है। काम या परिश्रम करके वह पालनहार परमपिता की महिमा पर बट्टा नहीं लगाता है। वह आलस्य के आनंद रस में इतना पगा होता है कि उसे निष्क्रिय जीवन वरदान लगता है । वह अपने को सर्वज्ञानी मानता है । उसे नया पुराना कुछ भी करने या सीखने की जरूरत महसूस नहीं होती है। असल में वह बंद गोदाम के आखिरी कोने में पड़ा हुआ बुद्धिजीवी होता है। उसे अच्छी तरह से पता है कि जीवन ओन्ली चार दिनों का है। ना यहां कुछ लेकर आए थे ना यहां से कुछ लेकर जाएंगे। यह दुनिया फोकट की एक सराय है जिसमें चतुर लोग खाते, पीते, आराम करते हैं और चले जाते हैं। 50% दानों पर आलसियों का नाम भी लिखा होता है । वक्त से पहले और भाग्य से ज्यादा किसी न्यायाधीश को भी नहीं मिलता है। लीडर करे न चाकरी मंत्री करे ना काम; दास मलूका का कह गए सबके दाता राम। ऐसे में बिना बात हाड़ तोड़ने का कोई मतलब नहीं है। बैल दिन भर काम करते हैं और बैल ही बने रहते हैं, घोड़ा नहीं हो जाते हैं। आलसी मानता है कि हमसे पहले हजारों भोलारम आए और तमाम काम करके चले गए लेकिन कोई उन्हें नहीं जानता। इसीलिए भगवान कहते हैं कि तू मेरा हो जा और अपनी चिंताएं मुझ पर छोड़ कर सो जा । बताइए क्या आज के समय में भगवान पर विश्वास करना गलत है!? नहीं नहीं, बोलिए, गलत है तो कहिये, फिर पता चलेगा। एक बात और, जो लोग काम करते हैं उनसे जाने अनजाने में कानून टूटता ही है। आलसी कानून के सम्मान के लिए भी काम नहीं करता है। उसे किसी नेता या सरकार से कोई शिकायत नहीं है। इसलिए वोट देकर विरोध या समर्थन दर्ज कराने की उसे कभी जरूरत महसूस नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि वह कुछ सोचता विचारता नहीं है। मतदान वाले दिन बस सुबह से सोचता है कि वोट दूं या नहीं दूँ। नहीं दूं या दे ही दूं। किसी निर्णय पर पहुंचने से पहले शाम हो जाती है और वह भगवान को धन्यवाद कहकर वापस पड़ जाता है।

                   जब आप रुचि से इतना पढ़ चुके हैं तो यह भी जान लीजिए कि आलसी होते कितने प्रकार के हैं। जन्मजात आलसी साउण्ड प्रूफ होते हैं। लोगों के कहने सुनने को, तानों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। आप जानते हैं यह कठिन काम है, बड़े नेताओं से ही सधता है । ऐसा करते हुए वह बोलने वालों को अज्ञानी और मूर्ख समझ कर माफ भी करते रहते हैं, मतलब दिल बड़ा । कुछ आलसी संत टाइप होते हैं। वे मानते हैं कि न उधो से लेना न माधो को देना, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर । कुछ मौका परस्त आलसी भी होते हैं जो वक्त जरूरत और अवसर देखकर अलसाते हैं। जैसे आज संडे है तो लस्त पड़े हैं, कुछ नहीं करेंगे। या फिर काम करने वाली (पत्नी)  है आसपास तो वह कुछ नहीं करेंगे। ससुराल में है तो प्रति घंटा चाय बिस्किट की दर से सोफ़ा तोड़ना उनका अधिकार है। आलसी प्रायः भाग्यवान होते हैं, कोई काम खुद ही उनके पास नहीं फटकता है । घर-परिवार और आसपास के लोग ही उन्हें घोर आलसी मानकर उनसे सारी उम्मीद छोड़ देते हैं।

 

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रविवार, 30 मार्च 2025

हास्य व्यंग्य मंत्रालय


 



                    आपात बैठक में तय हुआ कि एक हास्य व्यंग्य मंत्रालय बनाना बहुत आवश्यक हो गया है। देश महसूस कर रहा है की हास्य व्यंग्य की समस्या ने नक्सल समस्या की तरह जड़े जमा ली हैं । पानी दाढ़ीयों से ऊपर जा चुका है और नाक बंद हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। खुफिया रिपोर्ट से पता चला है कि देशभर में उगे व्यंग्यकार हमारे देशप्रेमियों पर धड़धड व्यंग्य लिखने पर आमादा हैं । दिक्कत सिर्फ यह है कि ये लोग एकदम से पहचान में नहीं आते हैं। लेकिन सरकार को सब समझ में आता है और कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगी।

                हमने तय किया है कि मंत्रालय के प्रमुख को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया जाएगा। ये युवा मंत्री ना खुद हँसेगा और ना किसी दूसरे को हँसने देगा। चेहरे पर हर समय छाई रहने वाली मनहूसियत उसकी पहचान होगी। वह पढ़ा लिखा नहीं होगा..... लेकिन उसके पास डिग्री बड़ी होगी। उसमें व्यंग को समझने की चाहे क्षमता ना हो लेकिन व्यंग्यकार को देख लेने का इरादा मजबूत होगा। इस काम के लिए स्थानीय पुलिस के अलावा उसके साथ पर्याप्त संख्या में कड़क कमांडो मौजूद रहेंगे। मंत्रालय को यह अधिकार होगा कि नगर कसबों से लगाकर ग्राम पंचायत स्तर तक युवाओं का व्यंग्य-भंजक दल गठित करें। पता चला है कि ओटलों, पाटियों, चौपालों, चाय के ठियों या काफी हाउस में मखौल मस्ती चला करती है। सूचना मिलते ही व्यंग्य-भंजक वहां सक्रिय हो जाएंगे। पहली बार व्यंग्य करते पकड़े जाने पर चेतावनी और अगली कार्रवाई का विस्तृत विवरण देकर छोड़ा जाएगा। लेकिन दूसरी बार कटाई छिलाई करके सारे कांटे निकाल दिए जाएंगे और आदमी से एलोवेरा बना दिया जाएगा। हमारी साहित्य समीक्षक संगठन ने बताया है कि व्यंग्यकार एबले किस्म के जीव होते हैं। उनको सोते शेर की नाक आदि में काड़ी करने की बुरी आदत होती है। और जब शेर जाग जाता है तो उछलकर झाड़ पर भी चढ़ जाते हैं। व्यंग्य के ये तरबूज ऊपर से हरे और अंदर से लाल होते हैं। पार्टी लाइन को ना हरा पसंद है ना लाल। सब जानते हैं।

                 सावधानी हटी और चट्ट से दुर्घटना घटी। इसलिए जनहित में बताया जा रहा है की हास्य और व्यंग्य में संक्रमण की भयंकर प्रवृत्ति होती है। यह फूस में आग की तरह फैलता है। इनका वायरस इतना खतरनाक है कि एक व्यंग्यकार को जेल में डाल दो तो तीन चार महीने में सारे कैदी व्यंग्यकार बन सकते हैं। नया मंत्रालय ऐसी जेलों का निर्माण करेगा जो निर्जन स्थान पर होंगी और जहां इन कमबख्तों को सिगरेट, शराब और दोस्त नहीं मिलेंगे। व्यंग्यकार को इसमें क्वॉरेंटाइन करके सड़ाया जाएगा। मंत्रालय जल्द ही एंटी व्यंग वैक्सीन बनवाने कि कोशिश भी करेगा।

                पता चला है की हास्य-व्यंग्य को साहित्य में भी जगह मिली हुई है। यह कार्य किसने किया इसकी जांच की जाएगी। दोषी पाए जाने वाले को कब्र से भी निकाल कर मुकदमा चलाया जाएगा। यदि वे कब्र में नहीं मिले तो श्राद्ध पक्ष में उनका सर्च वारंट जारी किया जाएगा। न्यायपालिका पर अब सरकार को पूरा भरोसा है। साहित्य में हास्य व्यंग्य का अतिक्रमण सिद्ध होते ही तत्काल उसकी बुलडोजर सेवा की जाएगी। बहुत से व्यंग्यकार अतीत में पुरस्कृत व सम्मानित हुए हैं। उन्हें प्राथमिकता से असम्मानित करते हुए हिसाब बराबर किया जाएगा। ऐसे व्यंग्यकार जिन्होंने राजनीतिक व्यवस्था पर कुदाली चलाई है और अब दिवंगत है उनके नाम शौचालय पर लिखे जाएंगे। इस मामले में मंत्रालय का निर्णय अंतिम व बंधनकारी होगा।

                    मंत्रालय एक हास्य व्यंग्य आचरण संहिता भी बनाएगा। जिसमें हंसने के नियम वह कायदों का विवरण होगा। मंत्रालय विवेक का इस्तेमाल करके बेजा हँसने पर दंड की व्यवस्था करेगा और अधिक हँसने टैक्स की लगा सकेगा । राष्ट्रीय चैनल पर हर सप्ताह 'हंसी की बात' कार्यक्रम शुरू किया जाएगा जिसमें जनता एक बार निशुल्क हँस सकेगी। छानबीन और छापे के दौरान जिनके घरों में हास्य-व्यंग्य की किताबें बरामद होगी वे देशद्रोही माने जाएंगे। जिन प्रदेशों में हास्य-व्यंग वाले अधिक पैदा होते हैं वहां व्यंग्य कीटनाशक तब तक छिड़काया जाएगा जब तक कि व्यंग्य-कृमि पूरी तरह नष्ट नहीं हो जाएं ।

                      मंत्रालय को पता है कि विरोधी दलों की मिट्टी पलीत करने के लिए कुछ अनुमोदन प्राप्त व्यंग्यकार लगेंगे। जरूरत पूरी करने के लिए ऐसे नए व्यंग्यकार प्रशिक्षित किए जाएंगे। मौजूदा निष्ठावान व्यंग्यकारों का भी रजिस्ट्रेशन किया जाएगा। आवेदन करने पर ऐसे व्यंग्यकारों को मंत्रालय का अनुमति पत्र मिलेगा और गाइडलाइन के अनुसार वे अपनी रचना लिख सकेंगे। आवेदन का प्रारूप ऑनलाइन उपलब्ध रहेगा। आगे और खबरों के लिए देखते रहिये खाज से खुजली तक।

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बुधवार, 19 मार्च 2025

सिस्टम बना रहना चाहिए







                    
सरकारों का क्या है! सरकारी आती हैं, सरकारी जाती हैं, पर यह सिस्टम बना रहना चाहिए । लोग देते रहें,  हम लेते रहें यही धरम हैं । इसी लेनदेन से समाज चलता है, सरकार चलती है, घर चलता है। कहने वाले इसे बुरा कहते हैं, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है। जब ये सिस्टम नहीं था तब भी कुछ बातें थी जिन्हें लोग बुरा कहते थे। हम तो कहते हैं कि समाज में कुछ चीज बुरी अवश्य होनी चाहिए ताकि बुरा कहने वाले निराश ना हों और रोजगार में लग रहें । हालांकि सिस्टम बुरा नहीं है यदि आप सिस्टम के अंदर हों । सच बात तो यह है कि इसे बुरा कहने वाले पहले सिस्टम के अंदर आने की कोशिश करते हैं। बहुत से सफल नहीं हो पाते हैं तो मजबूरन उन्हें सिस्टम के खिलाफ ईमानदार होने का दावा करना पड़ता है। ईमानदारी उनकी प्रथिकता नहीं मजबूरी है ।
                 सिस्टम से बाहर पड़े रह गए कुछ बुद्धिजीवियों का मानना है कि सिस्टम से आदमी की बुरी सोच बनती है और वह बेईमानी की तरफ चला जाता है। जबकि ऐसा नहीं है, सबके कल्याण की सोच से सिस्टम बनता है । देश में कानून है, पुलिस है, जेलें हैं, वामपंथी हैं और नैतिकता वादी भी हैं । इन सबके रहते हुए सिस्टम को विकसित कर लेना बहुत कठिन है । लेकिन कुछ दृढ़ संकल्पित समाज-प्रेमी मिल बैठकर रास्ता निकाल लेते हैं। धीरे-धीरे एक समानांतर व्यवस्था यानी सिस्टम खड़ा हो जाता है । ‘सब का साथ सब का विकास’ की भावना से सिस्टम मजबूत बनता है । कानून अपनी जगह है सिस्टम अपनी जगह । वे कानून का कानून-विशेषज्ञों के निर्देश में आदर करते हैं और पूरी कोशिश करते हैं कि उसे धर्म-संकट में नहीं डालें । सहयोग की भावना से काम करो तो कानून भी सहयोग करने से पीछे नहीं हटता है। अच्छे नागरिकों को और क्या चाहिए । आदमी पैसा ले और काम कर दे आज यही सच्ची ईमानदारी है । हाँ, इस बात को नोट करें, सिस्टम लोकतंत्र को पसंद करता है । हर पाँच साल में पहले से बेहतर और सहयोग करने वाली सरकार चुनने का अवसर मिल जाता है जनता को । देखिए जूता काटता है तो कोई जूते को फेंक नहीं देता है । समझदार आदमी वह होता है जो धैर्य रखता है । कुछ दिनों में काटे जाने वाली जगह की चमड़ी धीरे-धीरे मोटी हो जाती है । कुछ ढीला जूता भी हो जाता है । इस सहयोगी पहल से पहनने वाले को जूता प्यारा लगने लगता है। ईमानदारी भी शुरू-शुरू में काटती है । बाद में परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालती जाती है । वही समाज और सभ्यताएं जिंदा रहती हैं जो समय के अनुसार अपने को बदलती रहती है। हमारे यहां ज्यादातर लोग धार्मिक हैं । पूजा स्थलों पर चढ़ाव  चढ़ना हमारी आदत में है । इससे सिस्टम को मजबूत आधार मिलता है । सरकारी महकमें भी एक तरह के देवस्थान होते हैं। चढ़ावा चढ़ाएंगे तभी देवता प्रसन्न होंगे और उनकी मनोकामना पूरी होगी । यह धारणा सिस्टम को मजबूत करती है।

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गुरुवार, 30 जनवरी 2025

नाच मेरी जान तुझे पैसा मिलेगा


 


हमारे यहां बहुत तरह के मौसम होते हैं। जैसे शादी का मौसम, चुनाव का मौसम, गबन घोटाले का मौसम, पीने खाने का मौसम। मौसम के हिसाब से बाजार अपनी कमर कसता और ढीली करता है। बाजार और मौसम में मौसेरा रिश्ता है। ऊपर से अलग-अलग है अंदर से एक हैं। मौसी माँ बराबर होती है चाहे किसी की भी हो।
इन दिनों बसंत है, फूल खिल रहे हैं। मीडिया बता रहा है सब ओर हरा हरा है। चरने वाले चर रहे हैं। जो ना चर पाए वही आदमी है। मौसम की कहें तो रेवड़ियों का है। जी हां वही जो गुड़ तिल से बनती है। छोटी-छोटी मीठी मीठी। जिसे अंधा बाँटता है और अपने अपनों को देता है। रेवड़ियां जितनी मीठी होती है उतनी ही बदनाम भी। जो विरोध करते हैं वह भी बांटने लगते हैं, अगर मौसम रेवड़ियों का हो। लोग मुंह खोलकर बाहर निकलते हैं, पता नहीं कौन मुट्ठी भर डाल दे। मौसम है इसलिए गैंग बंदूक लेकर नहीं रेवड़ियां लेकर निकलती हैं। आज एक के मुंह में डालेंगे कल दूसरे के हलक से निकाल लेंगे। जन सेवा का काला जादू है। कहते हैं रेवड़ियाँ बांटने से कोई कटता नहीं, जुड़ता है। महिलाएं समझदार और जिम्मेदार होती हैं। टीका लगाकर माइक्रो-पात्र में पांच रेवड़ियां रखकर एक दूसरे को देती है और जुड़ जाती हैं। पुरुष ऐसा नहीं करते हैं। जोड़ने तोड़ने के मामले में वे प्रायः नेताओं की सुनते हैं और साधु संतों का मुंह तकते हैं।
खैर, मनोहर सातपुते बहुत भरे हुए हैं। वे रेवड़ियों के बहुत विरोधी हैं। आते ही बोले - " तुम तो आजकल मुंह खोलते नहीं हो अपना! राजनीति में लोकतंत्र को रेवाड़ी-तंत्र बना दिया है! पुराने लोग जनता को जनार्दन मानते थे। यह लोग पतुरिया बनाने पर तुले हुए हैं। नाच मेरी जान तुझे पैसा मिलेगा! पवित्र लोकतंत्र का आक्शन हो रहा है क्या ! बोली लगाई जा रही है ! अच्छा भला सिस्टम बेगम का कोठा होता जा रहा है। तीन-चार जमीदार थैली दिखा दिखा कर घुंघरू गिन रहे हैं! तुम्हें क्या लगता है लोग समझेंगे नहीं!? "
मनोहर सातपुते का गुस्सा जायज है। दुनिया बाजार हो गई है। सब बिकता है। रिश्ते-नाते, जमीर, शरीर, क्या नहीं है बाजार में। एक जगह के बिके हुए लोग दूसरी जगह खरीददार हो जाते हैं। लोकतंत्र की भी बोली लग रही है तो बड़ी बात नहीं है। वह दिन दूर नहीं जब सातपुते का मुँह भी रेवड़ियों से भर के बंद कर दिया जाएगा।

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मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

पाप का समृद्ध संसार




 



                धक्कों से मैं भी परेशान हूँ  । मेरी यह परेशानी नयी नहीं है। प्रायः सर्दी का मौसम शुरू होते ही यह खतरा मंडराने लगता है। घर वाले धक्का मार मार के मुझे बाथरूम में ठूँस देते हैं। बाल्टी में भरा ठंडा पानी ऐसा चेंटता है ना कि रूह संसद की तरह हिल जाती है। मन बहिर्गमन के लिए हूम हूम करता है पर दरवाजे के बाहर खड़ी सभापति ‘प्लीज बैठ जाओ और नहा लो’ की रट लगाये रहती है ।  मैं तो कहता हूँ नए साल में एक नया क़ानून यह भी बनना चाहिए कि सर्दी के मौसम में किसीको जबरन नहलाना शारीरिक शोषण और धक्का मारना शारीरिक प्रताड़ना माना जाएगा । अबकी चार सौ पार हो गए तो देख लेना सबसे स्नान पीड़ित यही मांग उठाएंगे।


                हमारे देश में नहाना एक परम्परा है और जरूरत भी । नहाने के लिए श्रद्धालु कुम्भ तक में पहुँच जाते हैं । मानते हैं कि पाप धूल गए, यह परंपरा है । सुलझी हुई आत्मा वाले कुछ लोग अपने बूढ़े माँ- बाप को कुम्भ में खपाने आते हैं और हाथोंहाथ पाप धो कर लौट जाते हैं, यह जरूरत है । किसी ने कहा है कि 'राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते धोते '। बात अपने आप में साफ है कि जितने भी नहा रहे हैं उसका कारण मात्र शारीरिक सफाई नहीं है। संसार भर ने देखा कि करोड़ों खर्च हो गए, महीनों कोशिश की लेकिन गंगा साफ नहीं हुईं। आदमी का पाप गंगा में गहराई तक पैठा हुआ है, ऊपर होता तो बुलडोजर से धराशायी  करवाया जा सकता था । सुना है गंगा ने सक्षम अधिकारी से कहा कि मुझे साफ करने की अपेक्षा लोगों को पाप करने से रोको, मैं अपने आप साफ हो जाऊँगी। सक्षम ने अक्षम होते हुए 'सॉरी ' कहा और फिर पलट कर नहीं देखा। ज्यादातर लोग भूल जाते हैं, जिम्मेदार याद नहीं करना चाहते हैं, गंगा नाक दबाये बहती रहती है । किसीने सफाई अभियान को धक्का नहीं मारा लेकिन आइसीयू से बाहर निकल ही नहीं रहा है। पता नहीं जिंदा भी है या मर गया । चलो अपन तो कुम्भ में देखते हैं, पता नहीं कोई सफाई अभियान को मेले में छोड़ गया हो ।


                  इधर आम आदमी, जिसके पास खाने पहनने को नहीं है, जो पाँच किलो मुफ्त राशन के भरोसे घर में पड़ा है, जिसके पास सही गलत कोई रोजगार नहीं है, सडक पर निकलता है तो गुंडों से डरता है, वर्दी वाला दिख जाए तो क़ानून के डर से काँपता है, प्रभु दर्शन को जाए तो अपवित्रता के डर दूर खड़ा रहता है ! वो पाप करने कहाँ जाएगा कोई गुंजाइश है ?! पाप करने के लिए भी सामर्थ्य होना चाहिए। छोटा मोटा लल्लू पंजू पाप के समृद्ध संसार में फिट नहीं बैठता है । वो कहते हैं ना हाथ पैर में दम नहीं और हम किसी से काम नहीं । ऐसा आदमी नहा भी ले तो समझो पाप ही करेगा। उसके लिए तो पीने को पानी मिल जाए तो बहुत है। गरीब का दिल बड़ा होता है, पीने भर को मुफ्त पानी मिल जाए तो सरकार बनवा देता है दन्न से ।

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मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

कुर्सी बाजार के खनकते सिक्के


 

 

“अपन तो पॉलिटिक्स में सेवा के लिए आए थे । सेवा मतलब गरीब की सेवा । ये बोले गरीब की सेवा छोड़ो, अपने को देस की सेवा करना है । मैं बोला ठीक है आज से देस की सेवा ।  देस में गरीब है , गरीब में देस है ।... इसमें मैं गलत क्या बोला !? पहले प्यार किया अब धोखा देते हैं !! पॉलिटिक्स को एकता कपूर का सीरियल बना दिया ! ऐसे में कैसा चलेगा बोलो । मेरे को बर्दस्त नहीं होता, कुछ कुछ होने लग जाता है । “  अपने गुस्से को दबाते हुए वो बोले ।

"पॉलिटिक्स सब दूर एक जैसी है । प्यार और धोखा सिक्के के दो बाजू होते हैं । बाजू बोले तो ऊपर नीचे, हेड और टेल। यह सिक्के कुर्सी बाजार में धड़ल्ले से चलते हैं। शुरू में लगता है कि प्यार के हैं तो लोग धड़ाधड़ लूटने लगते हैं। चुनाव खत्म होते ही सिक्के अपना बाजू बदल लेते हैं। इस मामले में सिक्कों का कोई दोष नहीं। न ही लूटने वालों का और ना लूटाने वालों का दोष है। ये कुर्सी- बाजार का रिवाज है भाऊ । रिवाज बोले तो हिंदी में परंपरा, निभाना पड़ती है सबको। तुम किस्सा सुनके गुस्सा मत हो । इस बेइज्जती को खालीपीली दिल पे लेने का नहीं । दिल बड़ी नाजुक चीज होती है। दिल एक बार बैठ जाए तो उठने में बहुत जोर लगाना पड़ता है। इसका इलाज शहरों में नहीं मिलता है गांव जाना पड़ता है। गांव बोले तो अपना खालिस पैतृक गांव। उधर जाकर दो-तीन दिवस कोई ठहरे तो फिर आराम पड़ता है। " खुलासराव वड़ापाव बोले जो अभी-अभी मुम्बई से नई खबरों के साथ लौट कर आए हैं। बताते हैं कि उन्होंने वडापाव खाकर दिन गुजारे हैं। वडापाव नहीं होते तो खुलासराव नहीं होते। उन्होंने जिंदगी के बहुत सारे उतार-चढ़ाव दूर से देखे हैं। मशविरा देते हैं लेकिन जोखिम उतना ही उठते हैं जितने में जोखिम की लाज रह जाए। प्रैक्टिकल आदमी हैं । “तुम्हारा कोई पैतृक गांव है? मतलब वह गांव जहां तुम्हारे बाप दादा पैदा हुए।" खुलासराव ने फिर पूछा।
         " हमारा तो कोई पैतृक गांव नहीं है। हमारे उधर तो सारे गांव जमीदार के होते हैं। पैदा होने से हमारा गांव कैसे हो जाएगा!? देश पैतृक है पर उसको मातृभूमि बोलते हैं सब लोग। "
         " अरे फिर क्या समझोगे तुम कुर्सी बाजार के बारे में ! 'बाजार से गुजरा हूं पर खरीददार नहीं हूं', ऐसा बोल कर निकल लो चुपचाप।.... कुर्सी बाजार में सब चलता है पर वफादारी नहीं चलती है। जो उम्मीद रखता है वह बीमार पड़ जाता है। इधर सब लोगों को कुर्बानी पसंद है, उल्टी छुरी से हलाल करते सब। "
          " अपन तो प्यार में पड़े थे भाऊ । जिधर बोला उधर बैठा मैं। जिधर बोला उधर साइन मारा कागज पे। अब देख लो तुम ! बदले में मेरे को क्या मिलता है। पहले सब हव हव बोले, अब अक्खा पार्टी नको नको बोलती!! पॉलिटिक्स गंदी चीज है यह तो सब जानते हैं। पर इतनी गंदी चीज है यह नहीं मालूम था मेरे को। ऐसे कैसे चलेगा ! "

“जितनी जल्दी हो सके तुम भी गंदे हो जाओ ।“ खुलासराव बोले ।

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शनिवार, 23 नवंबर 2024

श्यामराव बारतोड़े का कचरा


 




           " यार तुम यह बताओ कि दुनिया में क्या मियां बीवी में झगड़ा नहीं होता है! और कौन बीवी झगड़ा होने पर अपने आदमी को कचरा घोषित कर देती है!!" श्यामराव  बारतोड़े  ने आते ही शिकायत छोड़ी ।
           " आपका झगड़ा हुआ क्या!? "
           " हुआ नहीं रे चल रहा है। तीन हफ्ते हो गए। दोनों तरफ से बम और मिसाइलें चल रहे हैं। उसका मायका अमेरिका है और हम पड़ोसियों पर निर्भर हैं। पड़ोसी कमबख्त मजा पूरा लेते हैं लेकिन मदद कुछ नहीं करते। तुम भी पड़ौसी हो !"
          " झगड़ा किस बात पर हुआ? "
          " यह तो पता नहीं, भूल भाल गए। लेकिन कोई ना कोई बात तो होगी ही झगड़े की। हमारे यहाँ तो शुरुआत की जरूरत रहती है बस, उसके बाद तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरा भारत नप जाता है। "
         " तो आप भी यार बारतोड़े ! दीवार से सिर क्यों मारते हो हमेशा। उस रास्ते पर जाना ही क्यों जिसमें आपके कचरे हो जाते हैं।... अभी आप कचरे का कुछ कह रहे थे। "
            " हाँ,  झगड़े में हम बाहर आ कर चिल्लाते है । इस्टाइल है हमारा । पिछले हप्ते उसने मुझे कचरा घोषित कर दिया। घोषणा इतनी जोर की थी कि आसपास के सारे लोगों ने सुन लिया। मोहल्ले भर के बच्चे अब मुझे कचरा-अंकल बोलने लग गए हैं । कल मिसेस ढाईघोड़े आई तो वह बार-बार मुझे कचरा भाई साहब कह रही थी। सुबह जब कचरा गाड़ी आती है तो लोग घरों से झांक कर देखते हैं मुझको । "
            " आप भी यार कचरा भाऊ, ...  जरा पॉजिटिव सोचा करो। कचरा कोई मामूली चीज नहीं होती है आजकल। बिजली बनाते हैं उससे। बचपन में आपने वह पाठ भी तो पढ़ा होगा स्कूल में, ' घूरे से सोना बनाओ '। घूरा मतलब कचरा ही तो होता है।"
             " देखो मुझे लग रहा है कि अब तुम मेरे मजे ले रहे हो! तुम पर गुजरती तो तुम्हें पता चलता। इस तरह किसी का मजाक नहीं उड़ाते। कल को तुम्हारे यहाँ भी मिसाइलें उड़ सकती हैं । "
            " छोटी मोटी बातों को नजरअंदाज कर दिया करो भाई बारतोड़े इसी में भलाई है। "
            " मेरे अकेले के नजअंदाज करने से कुछ थोड़ी होता है। कल किसीको फोन लगा कर कह रही थी कि अखबार में जाहिर सूचना छपवा दो कि श्यामराव  बारतोड़े कचरा आदमी है, इससे सावधान रहें। इस तरह तो सारा शहर मुझे कचरे के नाम से जाने लगेगा। "
           " अरे तुम टेंशन मत लो यार। दस दिनों में फेमस हो जाओगे, हाथ आगे बढ़ा के कहना मजे में – माय सेल्फ श्यामराव बारतोड़े कचरा नको । "
           " अरे भैया आज बाल बाल बचा में। वो सुबह कचरे की गाड़ी में डालने पर आमादा थी । वह तो अच्छा हुआ कि कचरे वाले ने पूछा कि गीले में डालूँ या सूखे में। यह कुछ समझ नहीं पाई और कचरे की गाड़ी आगे बढ़ गई। "
           " तुम तो ऐतिहासिक आदमी हो गए यार बारतोड़े । मैं तो समझता था कि भारत में अभी तक सिर्फ एक ही आदमी का कचरा हुआ है और अभी तक हो रहा है। जबकि उस बेचारे की शादी भी नहीं हुई है। "
            " उसकी छोड़ो मेरी बताओ कल फिर गाड़ी वाला आएगा और कहीं इन्होंने मुझे गीले या सूखे में डालना तय कर लिया तो!"
             " गीले में डलवाए तो तुम मना कर देना एकदम साफ-साफ। ठंड का मौसम है यार। सूखे में रहोगे तो सुखी रहोगे। "
             " मैं तुम्हारे पास इसलिए आया हूँ कि कल जब कचरे की गाड़ी आए तो तुम आ जाना यार। पड़ोसी भी उसकी तरफ है कहीं कचरे में डलवा ही ना दे।"
             " तुम भी यार आदमी हो या फटा पजामा!!"
             " तुम भी कैसे आदमी हो!! कुछ खाने-पीने को पूछो घर का। बाहर का खा खा के मेरा पेट कचरा हुआ जा रहा है। "
            " बारतोड़े इससे पहले कि तुम खुद अपना कचरा कर लो माफी मांग लो चुपचाप । माफी मांगने से कोई छोटा नहीं हो जाता। सॉरी ही बोल दो। सॉरी की कोई वैल्यू है क्या आजकल । लोग पीक की तरह कहीं भी थूक देते हैं। "
            " वह नहीं मानेगी पुतीन कहीं की। कोई बड़ा मध्यस्थ लगेगा तभी बात बनेगी। ... दिल्ली में कोई पहचान है क्या ?“

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मंगलवार, 12 नवंबर 2024

साहित्य समारोह में एक्सपोजर


 


 


           “देखिए मीडिया का मैं बड़ा रेस्पेक्ट करती हूँ ये आप जानते हैं । आप लोगों के आगे मैं कभी कुछ नहीं छुपाया। तो ये मान कर चलिए कि आज भी कुछ नहीं छुपाऊँगी। कुछ लोग आए थे मेरे पास। बहुत रिक्वेस्ट किया, कुछ डील वील भी की। यू नो हम आर्टिस्ट लोगों के कुछ कमिटमेंट होते हैं, कुछ एथिक्स होते हैं इसलिए हर जगह जाना पड़ता है। साहित्य का क्या मीनिंग है यह मुझे नहीं मालूम। हाँ साहित्य नाम का एक बॉयफ्रेंड जरुर था मेरा, लेकिन अब वह नहीं है ब्रेकअप हो गया। और मुझे तो उन्होंने फेस्टिवल में बुलाया है तो कुछ सोच समझ के ही बुलाया होगा । बोले कि वहाँ खूब एक्सपोजर मिलता है। आज के टाइम में एक्सपोजर कितना जरूरी है यह तो आप लोग जानते हैं। और फिर उन्होंने बताया कि तुम पहली उर्फी नहीं हो जो वहाँ शिरकत करोगी। उर्फी का मतलब क्या होता है यह तो आपको पता होगा। इस मतलब है मशहूर। वैसे तो मैं पहले से मशहूर हूँ । तो यह भी हो सकता है कि मेरे जाने से फेस्टिवल को एक्स्पोज़र मिले। मैं मानती हूँ कि मेरे जैसे परसन को थोड़ी चैरिटी भी करना चाहिए। मेरी वजह से कोई चर्चा में आता है, उसके टिकट विकट बिक जाते हैं, कुछ कमाई हो जाती है तो इसमें बुराई क्या है। इंसान दुनिया में आया है तो उसे कुछ भले काम भी करना चाहिए।“
" मैडम आपको पता है साहित्य का मतलब कविता कहानी वगैरह होता है? " एक मीडिया पर्सन ने पूछ लिया।
" ऐसा क्या!! अच्छा!... हाँ पता है मेरे को। बहुत से पोएट्स को मैं जानती हूँ । बहुत से तो मुझे देखकर ही कविता लिखते हैं। एक पोएट हैं उनके रूम में मेरी बहुत सारी फोटो लगी है। बहुत लिखते हैं वो। अब देखिएगा, जब लोग मुझे लाइव देखेंगे तो सोचिए कितना लिखेंगे।"
" आप स्कूल गई है क्या कभी? " दूसरे मीडिया मैन ने पूछा।
" हाँ ... जाती रहती हूँ मैं। प्रोग्राम की सिलसिले में जाना पड़ता है। अभी पिछले महीने ही गई थी। "
" किसने बुलाया था आपको? "
" ऑबवियसली स्कूल वालों ने बुलाया था... और किसने बुलाया!!" मैडम तुनकी।
" अच्छा प्रिंसिपल ने बुलाया होगा? "
" नहीं... लड़कों ने बुलवाया था। फेयरवेल पार्टी थी सीनियरों की। "
" मैडम आप साहित्य समारोह में जाने वाली हैं। वहाँ आपको कुछ बोलना भी पड़ेगा। क्या बोलेंगी आप वहाँ ? "
" डायलॉग दिए हैं उन्होंने। अभी प्रेक्टिस करना है मुझे। आपको तो पता है हमें डायलॉग ही बोलने पड़ते हैं। देखिए इंडस्ट्री में टिकना है तो चैलेंज लेना पड़ते हैं । एक आर्टिस्ट को अपना बेस्ट देने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। "
" मैडम क्या आपको पता है कि पिछले वर्षों में गुलजार साहब जावेद साहब जैसे बड़े गीतकार वहाँ शिरकत कर चुके हैं।"
" तभी मैं कहूँ कि मुझे क्यों बुलाया है इन्होंने !! दोनों कितना लंबा लंबा कुर्ता पहनते हैं।भूल सुधार तो सबको करना पड़ता है ना । “
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रविवार, 3 नवंबर 2024

अगले जनम कुत्ता बिल्ली बन लेंगे पर वो नहीं बनेंगे


 


 

                  देखो बाबूजी वैज्ञानिक ज्ञान तो गया तेल लेने अपने को इसकी किसी चीज से मतलब नहीं। अपन तो एक ही बात जानते हैं कि पुराने जमाने में जो था वो खरा सोना था। आज के जमाने में वैसा कुछ हो ही नहीं सकता है। और जो होता दिख रहा है वह भी यह समझ लो कि पुराने जमाने की नकल है। पहले के जमाने में विमान थे भगवान आते जाते थे । आकाश मार्ग में लगातार ट्रैफिक चलता रहता था। लोगों के हाथों में इतनी शक्ति होती थी कि जिसका कोई जवाब ही नहीं। लोग पर्वत भी उठा लेते थे एक हाथ से । साधु संत श्राप दे कर मार देते थे और मौका आए तो जिंदा भी कर देते थे। ये बात आज के साइंस में नहीं है। बिना रेडियो और बिजली के आकाशवाणी होती थी और सब लोग सुना करते थे। कोई अच्छा काम करे तो ऊपर से पुष्प वर्षा होती थी। क्या ऐसा हो सकता है आज के जमाने में!! नहीं ना?
              चमत्कारों का समय था जनाब चमत्कारों का। कोई महान आत्मा तथास्तु कह दे तो वह काम हो जाता था फट्ट से । आज आप नेताओं को लेकर भटकते रहो, पैसा फूँकते रहो तो भी काम नहीं होता। पहले थोड़ी बहुत तपस्या करो तो भगवान स्वयं प्रकट हो जाते थे और आपको कोई ना कोई वरदान दे जाते थे। वह तो अच्छा है कि आज लोगों को समझ में आ गया है और भगवान के भजन पूजन में लग गए हैं। बाबा लोग कहट हैं कि सच्ची श्रद्धा होगी तो सब की मनोकामना भी पूरी होगी। और अगर झूठे होंगे तो दंड मिलेगा। कथा सुनी होगी ना, सोने से भरी हुई नाव फूल-पत्र बन जाती है और अगर कोई दिल से प्रायश्चित कर ले तो फूल-पत्र से भरी नाव सोने से भर जाती है। इस बात को मानना पड़ेगा कि होता वही है जो प्रभु की इच्छा हो। सही है कि नहीं ?
                नौकरी वोकरी के पीछे मत भागो। सैलरी या वेतन बड़ा नहीं होता है, बड़ा होता है संतोष । यानी आत्मिक शांति और आनंद । एक अंटा लगाओ भाँग का और मस्त हो जाओ चकाचक । अपुन टन्न दुनिया जाए भाड़ में । टन्न आदमी यानी संतोषीआदमी सबसे सुखी ।  कुछ समझ में आ रहा है तुमको कि नहीं। लोग मक्खी मच्छरों की तरह टपक रहे हैं टपाटप टपाटप। लेकिन मान के चलो कि ठसाठस जनसंख्या ताकत है देश की। कोई लड़ेगा तो झोंक देंगे आँख मूँद के । जहाँ एक की जरूरत होगी वहाँ पाँच लगा देंगे। समझ क्या रखा है दुनिया ने हमको। हम हैं तभी न हमारा हजारों साल का सिस्टम है । जो सिस्टम का नहीं वह किसी काम का नहीं। जो एक नहीं होगा वह वन पीस भी नहीं रहेगा। और जो हमारी बात नहीं मानेगा उसे तो हम ही वन पीस नहीं रहने देंगे, यह बात ध्यान रखना। इस समय समाज हार्डकोर स्टेज में है। सबको मिलकर काम करना है जरूरत पड़े तो। विपत्ति के समय कोई छोटा नहीं कोई बड़ा नहीं। कोई सवर्ण नहीं कोई अछूत नहीं। सब एक है। यह जागरण का समय है। जागो जागो सब लोग जागो। सोते हुए लोगों जागो, और जगे हुए लोगों तुम और जागो। यह जागरण काल है। हम ना सोएँगे ना सोने देंगे।
             कुछ सेकेंड के लिए उन्होंने मुंह बंद किया तो कहने का मौका मिल गया - "अच्छे विचार हैं आपके, क्या आप पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं? "
               "क्यों नहीं करेंगे !! ... पुस्तकों में कहा गया है कि आत्मा अमर है और वह शरीर बदलती है। अर्थात आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर में चली जाती है।"
            "एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने का क्या मतलब है? "
            "कर्म के हिसाब से आदमी को शरीर मिलता है। कर्म अच्छे होंगे तो अच्छा शरीर मिलेगा, कर्म अच्छे नहीं होंगे तो नहीं मिलेगा। मतलब आदमी का कर्म खराब है तो वह पशु, पक्षी, कीट-पतंगा कुछ भी बन सकता है।" वे बोले।
            "मतलब मरने वाले को मानव शरीर भी मिल सकता है?"
            "क्यों नहीं मिल सकता। मनुष्य एक शरीर छोड़ता है दूसरा शरीर उसे मानव का भी मिल सकता है। "
             "कौन से मानव का मिलेगा? "
             "कोई से भी मानव का मिल सकता है।"
             "यानी दूसरे जन्म में किसी हिंदू को मुसलमान या ईसाई या सिख का शरीर मिल सकता है?"
             " वैसे तो नहीं हो सकता लेकिन... हो भी सकता है।"
             "आज आप 'इस' धर्म में है कल अगर मरने के बाद 'उस' धर्म में पैदा हो गए तो क्या करेंगे !?"
            " हम 'उस' धर्म में क्यों पैदा होंगे !! कोई घर का राज है क्या कि किसी को कहीं भी पैदा कर दो !!"
           "मान लीजिए ईश्वर ने आपके कर्म के हिसाब से आपको 'उस' धर्म में पैदा कर ही दिया तो आपको इस धर्म का विरोध करना पड़ेगा !"
          " !! एँ !! ... “

          “अगले जनम में धरम बदला तो क्या करोगे ?”

          “ !! कुत्ता बिल्ली बन जाएँगे पर वो नहीं बनेंगे जो तुम बता रहे हो  ... चलो निकाल लो तो यहाँ से । जाने काँ-काँ से आ जाते हैं ! “

 

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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2024

एक था दायाँ एक बायाँ


 



             
             एक दायाँ था और एक बायाँ । दोनों जुड़वाँ थे यानी एक साथ पैदा हुए थे। पैदाइश का समय और मुहूर्त के हिसाब से दोनों की किस्मत एक होना चाहिए थी। लेकिन दाएं और बाएं दोनों की स्थिति बहुत अलग-अलग थी। दाएं के भाग्य में राजयोग था और बाएं के भाग्य में निरंतर संघर्ष और उपेक्षा । दायाँ लिखना पढ़ना जानता था। बाएं को हस्ताक्षर करना भी नहीं आता था। किस्मत की सारी लकीरें दाएं हाथ में थीं, बाएं हाथ में लकीरें तो थीं लेकिन कोई उन्हें देखता भी नहीं था । नाभिनाल से जुड़े होने के बावजूद दोनों अलग-अलग थे लेकिन दोनों में भाईचारा था ।  वक्त जरूरत के हिसाब से कभी-कभी दोनों साथ भी हो जाया करते थे। लेकिन जब भी खाने का मौका आता तो बाएं को प्लेट पकड़ना पड़ती और दाएं को मुँह तक पहुँचने का सम्मान मिलता । मलिक को जब स्वाद लेने के लिए उँगलियाँ चाटने की जरूरत पड़ती तो यह मौका भी दाएं को ही मिलता। किसी से परिचय करते हुए शेक हेंड करना हो, किसी को सिर पर हाथ धर के आशीर्वाद देना हो, हाथ में कलावा या रक्षाबंधन करवाना हो मौका दाएं को ही मिलता। जब पूजा होती आरती होती तो दाएं बाएं मिलकर ताली बजाते लेकिन जब प्रसाद की बारी आती तो दाएं को ही प्राथमिकता मिलती। जयमाला दोनों ने मिलकर डाली थी लेकिन चुंबन आज तक दाएं को मिलते रहे हैं। ये कुछ कारण थे कि बाएं में  हीनभावना घर किये हुए थी। वह हमेशा सोचता है कि आखिर इसका कारण क्या है। उससे लगता है कि पढ़ने लिखने का अवसर मिला होता तो आज वह दाएं से पीछे नहीं रहता। वह भी शान से लिखता, हस्ताक्षर वगैरह करता । हर खास और आम मौकों पर दाएं को पवित्र माना जाता है । धीरे धीरे बाएं को  समझ में आने लगा कि अपनी अपवित्रता क्या कारण वह खुद नहीं है। सिस्टम ऐसा है कि कुछ जिम्मेदारियाँ केवल उसके ऊपर लाद दी गई हैं और दाहिने को उससे मुक्त रखा गया है। बायाँ कई बार सोचता है की हड़ताल कर दे। पता चल जाएगी उसकी अहमियत। लेकिन सोचता ही रहता है हड़ताल नहीं कर पाता। जब भी काम पड़ता है मालिक उसे ही आगे ... नहीं पीछे कर देते हैं ।

       एक दिन दोनों लड़ पड़े । बायाँ उपेक्षित और नाराज था सो तैश में भी था । बोला - “भाई हम तुम एक साथ पैदा हुए एक साथ पले बढ़े लेकिन तुम कहाँ पहुँच गए और मैं कहाँ रह गया !! ये इंसाफ नहीं है । मुझसे अब बरदाश्त नहीं होता है ।”

              दायाँ रोज भगवान की आरती करता था, मालिक को भोजन कराने, मंजन कराने जैसे काम उसके जिम्मे हैं । जाहिर है भाई हुआ तो क्या, दोनों की हैसियत में जमीन आसमान का अंतर है । कुछ अभिमान भी था ही,  बोला – “अपनी औकात को समझो बाएं, तुम कभी दाएं नहीं बन सकते ... तुम शूद्र हो । तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं हुआ है । तुम जो करते हो उसी के लिए बने हो ।“

       “ऐसा नहीं भाई , जो मुझे करना पड़ता है वो तुम भी कर सकते हो । सारा ठेका मेरा नहीं है । मालिक सिर्फ मेरे अकेले के मालिक नहीं हैं । मुझमें और तुममें सिर दाएं बाएं का अंतर है बाकी सब समान है । देख लो ।“ बाएं ने हाथ उठा कर रेखाओं सहित अपनी हथेली दिखाई ।

      जरा देर के मौन के बाद दायाँ बोल - “बाएं ... मेरे भाई ... मेरे पास भाषा है, मुझे हमेशा काफी सारा लिखना पड़ता है । बड़ा जिम्मेदारी का काम है । तुम तो हस्ताक्षर भी नहीं कर पाते हो ! ... फिर भी तुम मुझसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो ... जहाँ तक तुम्हारी पहुँच हैं वहाँ तक किसी और की पहुँच नहीं है । किसी का बायाँ हाथ होना बड़ा ताकतवर होना माना जाता  है । राजनीति की तरफ देखो ... बायाँ हाथ बनने की होड़ मची है देश भर में । लोग लीडर को कम ढूंढते हैं उसके बाएं हाथ को ज्यादा । .... बताओ कैसा लग रहा है अब ? ठीक लगा ?”

“काहे की राजनीति !! ... एक पार्टी ने अपना चुनाव चिन्ह भी दायाँ हाथ रखा है ! मेरी तो सब जगह बेइज्जती है !”

“अरे पागल ... चुनाव चिन्ह तो एक पार्टी का है । मतदान के बाद निशान किस उँगली पर लगता है ? कौन सी उँगली दिखा कर लोग सेल्फ़ी लेते हैं ! तू लोकतंत्र की, मतदान की पहचान है । तू न हो तो सरकार ही नहीं बने देश की । कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत किस हाथ से उठाया था पता है ? बाएं हाथ से । ... अपने को छोटा मत समझ । पता है तेरे को, तू नहीं होता तो मालिक को कोई अपने पास बैठने भी नहीं देता ।... चल खुश हो जा और दे ताली ।“

      बाएं ने ताली तो दे दी .... लेकिन उसकी उलझन अभी भी दूर नहीं हुई ।

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मौका निकालो हग करो


 



                                                                                            लोकतंत्र किसी के लिए कुछ भी हो राजनीति वालों के लिए मानो लड़की का ससुराल होता है। जैसे ही कोई व्यक्ति सामने पड़े झुक जाओ, चरण छू लो या फिर लपक के उसे हग कर लो। हग दो तरफा क्रिया होती है इसलिए इज्जत भी रह जाती है। पता ही नहीं पड़ता कि कौन किसको कर रहा है। दोनों सीना भिड़ाए एक दूसरे कि पीठ सहलाते हैं। दोनों अपना बड़प्पन क्लेम कर लेते हैं। इसलिए जब भी जरूरत महसूस हो तुरंत हग करें और ससम्मान खुश रहें।

अपने बाउजी राजनीति के पुराने खिलाड़ी हैं लेकिन हक के मामले में अभी प्रोबेशन पीरियड पर हैं । उन्हें गुरु ने समझाया था की राजनीति में कोई स्थाई शत्रु या स्थाई मित्र नहीं होता है। यानी जो शत्रु है वह भी मौके पर मित्र है और जो मित्र है वह भी अंततः शत्रु ही है। गरज है तो फरज है। राजनीति में गरज बड़ी चीज होती है आदमी और सिद्धांत नहीं। कभी-कभी पिद्दा सा आदमी की बड़े काम का होता है।  ऐसे में उसके गले में हाथ डालना और खींच-खेंच कर अपने साथ खड़ा कर लेना जरूरी हो जाता है। बैठे आदमी का हग नहीं होता है, करो तो संसद हँसती है । इसलिए जैसे ही आदमी खड़ा हो लपक के उसका हग कर लो। सफल नेता बोलता कम है हग ज्यादा करता है। राजनीति में जानी दुश्मन भी जब चिपक के हक करते हैं तो मैसेज जाता है कि वे जबरदस्त मित्र हैं । मंच पर हों तो घोड़ा घास के चरण छू सकता है और शेरनी बकरे से अपनी मांग भरवा सकती है। राजनीति में और बॉलीवुड में जमने के लिए सब करना पड़ता है।

                  दुनियादारी का ज्ञान रखने वाले हमारे मित्र सरदार सच्चासिंह कहते हैं राजनीति बड़ी कुत्ती-चीज होती है। अवश्य होती होगी, अभी तक किसी शहरी-गैरशहरी कुत्ती-चीज ने आपत्ति दर्ज नहीं करवाई है। कुत्ती-चीजों का ऐसा है कि उनकी राजनीति बड़ी अलोकतांत्रिक होती है। उन्हें जब आपत्ति दर्ज कराना होती है तब अक्सर वे सहमत हो जाती हैं । इससे गलत संदेश जाता है और लोग उनके नक्शेकदम अपनी पार्टियाँ व निष्ठाएँ तक बदलने में देर नहीं करते हैं। वैश्विक राजनीति में भी इसी प्रकार की कुत्ती-अदाएं दिखाई देती है। कौन कब गुर्राने लगेगा, कब किस पर झपट पड़ेगा कुछ कहा जा सकता है ? दुनिया में शांति कायम रखना है तो बारूद-युद्ध नहीं हग-युद्ध कि जरूरत है । जिसने आगे बढ़ कर हग किया उसे फट्ट से  उतना ही हग मिला। अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हग एक शोध का विषय हो सकता है। जो हग के कीड़े हैं वे हग की ताकत जानते हैं।

                    अपना देसी वाला हग थोड़ा अलग होता है । बाजार को हग का मुनाफा मालूम है। एक लाफ्टर शो वाला हग हग के अरबपति और नंबर वन हो गया। समय का संकेत है कि ‘गले पड़ के’ धंधा करो। कंपटीशन बहुत है। संस्थान सोच रहे हैं कि अब रिसेप्शनिस्ट के साथ-साथ हगीस्ट भी रखना पड़ेगा। रिसर्च वाले कह रहे हैं कि मेल फीमेल दोनों हगेरियंस की मांग में जबरदस्त उछाल आने वाला है । बाजार और राजनीति के उसूलों में ज्यादा अंतर नहीं है। धंधों में काम अलग-अलग हो सकता है लेकिन नियत एक ही होती है। तो चलिए, निकलिए बाहर, हग-मार्केट की ओर चलते हैं।

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शनिवार, 21 सितंबर 2024

सेहत अच्छी है ! टेक्स लगेगा जी


 


 


                         “हेल्थ सर्वे चल रहा है । आपको कोई बीमारी है कोई तकलीफ है? बीपी शुगर कुछ? अधिकारी से दिखने वाले व्यक्ति ने पूछा। साथ में दो-तीन लोग और भी थे।
" जी सब ठीक है ।  बीपी शुगर वगैरह कुछ भी नहीं है। "
" बुखार वगैरह कब आया था? "
" काफी टाइम हो गया,  अभी सब ठीक है..। "
" उल्टी दस्त कब्ज वगैरह हुआ कभी? "
" बहुत पहले हुआ था, पिछली बरसात में। उसके बाद सब ठीक है। "
" चश्मा लगाते हो पढ़ते वक्त? "
" नहीं, अभी तो ठीक है आंखें। "
" दांत में कोई कैविटी कोचर वगैरह ? "
"नहीं नहीं । .... सरकार बड़ा ध्यान रख रही है इस बार ! "
" पिज़्ज़ा, बर्गर, बाजार का कुछ तला-गला खाते हो? "
" नहीं जी,  सादी दाल रोटी सब्जी खाते हैं। बस। "
"कोल्ड ड्रिंक वगैरह कुछ पीते हो?"
"कभी नहीं। पानी भी साफ पीते हैं आरो का।"
" सोने का क्या है, कब सोते हो? "
" जल्दी सोते जल्दी उठते हैं साहब। हमारी तो हमेशा की आदत है।"
" मॉर्निंग वॉक को जाते होंगे? आपके पास में तो गार्डन है और खुली हुई सड़क भी। "
"जी हाँ,  मॉर्निंग वाक पर जाते हैं । हमारा पूरा परिवार जाता है।"
" मतलब यह कि सेहत आप लोगों की बढ़िया है। "
"जी हाँ सब ठीक है।"
" चलिए ठीक है अब आप यह समझ लीजिए कि आपको स्वस्थ रहने का टैक्स लगेगा। "
" स्वस्थ रहने पर टैक्स क्यों लगेगा!? "
" क्योंकि बीमार पर टैक्स नहीं लगाया जा सकता। उन पर तो सरकार को खर्च करना पड़ता है ना। "
" तो स्वस्थ रहकर क्या हमने गलती की है!? "
" गलती तो कमाने वाले लोग भी नहीं करते हैं, उन्हें भी टैक्स देना पड़ता है कि नहीं? "
" इस तरह तो लोग स्वस्थ रहने से बचेंगे!"
" ऐसे कैसे बचेंगे! टैक्स के मामले में सरकार के हाथ बहुत लंबे हैं। हलक में हाथ डालकर तीसरी आंत को भी खंगाल डालते हैं। "
" बच ही रहे हैं। लोग देश का करोड़ों रुपया लेकर भाग जाते हैं और फिर संसार में उनका कोई पता ही नहीं चलता। असली सेहतमंद तो वे लोग हैं। उन पर टैक्स लगना चाहिए और कर्ज भी वसूलना चाहिए।"
" वह पुलिस और कानून के दायरे में है। देख लेना वह बच नहीं पाएंगे। "
" अब तक पकड़ लेना था ! हमने तो सुना है कि कानून के हाथ लंबे होते हैं। "
" वह पुरानी बात है, आजकल अपराधियों के हाथ और पांव दोनों लंबे होते हैं। लंबा हाथ मारते हैं और लंबे पांव भाग जाते हैं। "
" सरकार कुछ करती क्यों नहीं है इस मामले में!"
"इसमें कोई क्या कर सकता है। एक सिस्टम बना हुआ है जो सबके लिए है। कोई भी जागरूक नागरिक स्वहित में लंबा हाथ मार कर लंबे पाँव से भाग सकता है। मौका देखकर अवसर का लाभ उठाना कोई अपराध नहीं है। "
" इसका मतलब है कि यह काम हम भी कर सकते हैं!"
" आप नहीं कर सकते हैं । कंडीशन अप्लाई यानी शर्तें लागू है इसमें। आदमी पहले से धनी और पहुँच वाला होना चाहिए। विदेशों में उसके खाते और राजनीतिक संबंध होना चाहिए।... चलिए टाइम मत खराब कीजिए, अब आपका टैक्स कैलकुलेट कर लेते हैं।"
"हम लोग अपने प्रयासों से स्वस्थ हैं इसमें टैक्स की क्या बात है!"
" आप लोग साफ हवा पानी का उपयोग कर रहे हैं, छः सात घंटे की बाधा रहित नींद ले रहे हैं। सुबह की धूप से भरपूर विटामिन-डी खेंच रहे हैं। टीवी से फ़ील गुड वाली कहबरें सुन रहे हैं । .... आपका टैक्स बन रहा है एक हजार रूपये सालाना प्रति व्यक्ति। कितने मेम्बर हैं घर में ?"
" साहब आप तो हमको बीमार लिख लो, इतना टैक्स हम नहीं दे पाएंगे।"
" सरकार की आंख में धूल झोंकना आसान नहीं है ... पैसा लगता है अलग से। "
" कितना लगेगा!? "
" आधे में काम कर देंगे, यानी पाँच सौ रूपये पर हेड। एक बार दोगे तो पक्का बीमार लिख देंगे । "
"ज्यादा मांग रहे हो, …. रिश्वत तो टैक्स फ्री होती है। "
" हिस्सा देना पड़ता है ऊपर तक। सिस्टम है ।"
" रिश्वत तो मैं नहीं दूंगा जी।“

           “ ज्यादा ईमानदार मत बनो । सेहत के लिए अच्छा नहीं है ।“

“ठीक है , सिस्टम अगर ईमानदारी को बीमारी मानता है तो उस कॉलम में मेरा नाम लिख लो। "
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सोमवार, 16 सितंबर 2024

मेकअप उतर जाए तो फिर काहेका लोकतंत्र बे !


 


                देखो भाई जमाने की चाल को समझो। संसार का एक सूत्रीय फार्मूला यह है कि दिखाओ और दिखाते रहो। आगे बढ़ने के लिए दिखना/दिखाना जरूरी है। ऊपर बेल बूटा हो, चाहे नीचे पेंदा फूटा हो। भगवान ने भी आँखे सुंदरता देखने के लिए दी है। इसीलिए तो आदमी का प्रयास होता है कि वह सुन्दर  रचे, सुन्दर बनाए, सुन्दर दिखाए। राजनीति में भी जिम्मेदारों का प्रयास होता है कि अच्छा चाहे ना हो पर अच्छा दिखे जरूर । अच्छा दिखाने के लिए किए गए बुरे काम को भी राजनीति कहते हैं। अच्छा दिखने से ही फीलिंग अच्छी आती है। मन में आनंद की अनुभूति होती है। किसी ने कहा है कि पल भर के लिए कोई हमें प्यार कर ले झूठा ही सही। सवाल सही-झूठ का या प्यार-व्यार का नहीं है। सवाल अच्छी फीलिंग यानी अनुभूति का है। राजनीति गुड फिलिंग मांगती है । मेरे पैरों में घुँघरू बंधा दे, फिर मेरी चल देख ले ।
                   ब्यूटी पार्लर तो जानते हो ना। एक तरह का सर्विस स्टेशन होता है डेंटिंग-पेंटिंग वाला । जाना पहचाना दीवाना इंसान अंदर घुसता है और दो घंटे बाद अपनी पहचान खो कर भ्रमित बाहर निकलता है। इस घटना को आधी दुनिया मेकअप के नाम से जानती है। इस प्रक्रिया को बार-बार करते रहो तो कुछ समय में असली पहचान खो जाती है और मेकअप ही दिखता रहता है। बाद में जो दिखता रहता है वही पहचान बन जाती है। मेकअप न हो तो एक वोट भी ना मिले । किसी जमाने में लोग टीवी को चौथा खंबा मानते थे अब ब्यूटी-पार्लर कहने लगे हैं। अंदर दौड़ते भागते ब्यूटीशियन के पास फेशियल का काम ओवरलोड चल रहा है। दागी पीतल को इतना घिसा जाता है कि वह सोने का भ्रम देने लगे। रुपइए के लिए  भागते दौड़ते लोग भी चमक ही देखते हैं, कसौटी पर परखने की फुरसत किसेके पास है। आमजन तो परिधान ही देख कर धारणा बना लेता है। रेशमी वस्त्र, आभूषण, गदा-चक्र आदि देखकर समझ लेता है कि यही देवता है। संस्कार ऐसे हैं कि जहाँ भी यह ‘चीज’ दिख जाए हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं और शीश झुक जाता है। फिर चाहे सड़क पर भीख माँगता बहुरूपिया हो या मोहल्ले में वोट माँगता हृदय सम्राट ही क्यों न हो ।
                 आजकल हमारे ज्यादातर सेवक दाढ़ी में दिखाई देते हैं। लोगों को लगता है कि मधुमक्खी का छत्ता लगाए घूम रहे हैं जनता के वास्ते । लोग उम्मीद करते हैं कि एक न एक दिन इन छत्तों में शहद भी इकठ्ठा होगा। सोचते हैं चलो अच्छा है कभी बीमार पड़े और वैद्यजी ने शहद से दवा लेने को कहा तो इन्हीं से माँग लेंगे या बाजार में सस्ता मिल जाएगा। विकल्प भी बहुत रहेंगे मार्केट में। सनातनी शहद ले लो या समाजवादी। मिलेगा तो भारत जोड़ने वाला खानदानी शहद भी, लेकिन मार्केट में उसकी शर्ट सप्लाई हमेशा बनी रहती है। शहद मिले या ना मिले, चारों तरफ छत्तों को देखते रहने से ही मन मीठा हुआ रहता है। फिलिंग अच्छी आती है ।
                      हर काम में थोड़ा रिस्क होता ही है। मेकअप का मामला भी इससे अलग नहीं है। मेकअप से ज्यादा कठिन मेकअप को बनाए रखना है। बरसात में तो यूँ समझो की जरा चूके तो नीचे से असली सूरत निकल आती है। जैसे सजी सँवरी बल खाती चिकनी सड़क खड्डों और मुँहासे के साथ लजाऊ हो जाती है। पुल तो ऐसे ढ़हते हैं मानो किसी ने लिपस्टिक पर रगड़ कर पोंछा फेर दिया हो। जरा आँधी चलती है तो ऋषि मुनि हों  या महापुरुष इतिहास में नए पन्ने दर्ज करा जाते हैं। राजनीति के कीड़े कहते हैं कि सरकार की टाँग खींचने वाले दो हैं, एक विपक्ष दूसरा बरसात। बरसात को तो टप्पू कह कर उसकी खिल्ली उड़ाई नहीं जा सकती है और ना ही उसे दबाया जा सकता है। हाँ कभी संभव हुआ तो चार माह के लिए ट्रैफिक के नियम बरसात पर भी लागू किए जाएंगे। बारिश अगर तेज गति में बरसती पाई गई और सरकार का मेकअप बिगड़ा तो चालान भी बनेगा। एक बार मेकअप उतर गया तो फिर काहेका लोकतंत्र बे !
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