गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

जुलूस

जिस सड़क को हाल ही में राष्ट्रिय  समझदारी की उम्मीद के साथ झाड़ कर साफ किया गया था उस पर पूरे परंपरागत तामझाम के साथ एक जुलूस निकल रहा है। वैसे घोषित यह है कि प्रतिमा का विसर्जन किया जाना है लेकिन इरादों के अनुसार भियाजी का शक्तिप्रदर्शन है। हांलाकि  उनके पास कितनी शक्ति है इस विषय पर विशेषज्ञों और जानकारों में काफी मतभेद है। मान्यता यह है कि प्रदर्शन  जोरदार हो तो शक्ति भी जोरदार मानी जाएगी। इसका मतलब यह है कि प्रदर्शन  ही शक्ति है। भियाजी प्रदर्शन  का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं, बल्कि मौके को आने में देर हो तो पकड़ कर घसीट लाते हैं। ऐसा ही घसीटा जा रहा मौका इस समय उनका रुतबा बढ़ा रहा है।
इस समय भियाजी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। जुलूस में तमाम महिलाएं शामिल हैं और सबने एक जैसी साड़ी पहन रखी है। पुरुष, यानी जिनका युवापा अब जाता रहा, पीले कुर्ते में हैं। युवाओं ने, जिनमें ज्यादातर बारह तेरह साल से सत्रह अठारह साल के हैं लाल टी-शर्ट पहने हुए हैं। चर्चा है कि जोरदार तरीके से नारे लगाए तो शाम को दो-दो सौ रुपए और मिलेंगे सबको। इसी का असर है कि लगता है हृदय-सम्राटी का माहौल बन गया है। हर हजार बारह सौ फुट की दूरी पर स्वागत-मंच बने हुए हैं, जिस पर भियाजी के पट्ठे दो क्विंटल फूलों के साथ तैनात हैं। सारा मार्ग बड़े बड़े पोस्टरों से अंटा पड़ा है। सबमें  जीवित और दिवंगत राष्ट्रिय  नेता भियाजी के साथ उनका समर्थन करते दिखाई दे रहे हैं। मंचों पर उनके पोस्टरों का जलवा अलग है। इनमें भियाजी सीना ताने, मुक्का बांधे, मां-भैन एक कर देने की मुद्रा में मौजूद हैं। ये खासतौर पर उनके विरोधियों के लिए हैं जो कल अखबार में उनकी फोटो देखने वाले हैं।
प्रतिमा के आसपास की भीड़ भगवान की जै-जै कर रही है ताकि उन्हें भ्रम बना रहे, शेष भियाजी की जै-जै कर रहे हैं कि उन्हें भी भ्रम बना रहे। उन्होंने एक युवा-सेना भी बना रखी है जो इस वक्त लाल टी-शर्ट में दिखाई दे रही है। वे सबसे आगे नारे लगाते चल रहे हैं कि जो भियाजी से टकराएगा, उसका ऐसा-वैसा हो जाएगा। यह भी कि जब तक सूरज चांद रहेगा, उससे ज्यादा भियाजी का मंगल रहेगा। जिस भी मंच के सामने से जुलूस गुजर रहा है फूलों की बरसात हो रही है। पट्ठे फूल मालाएं भियाजी के गले में ठूंसे जा रहे हैं और वे बराबर गधे की तरह लदे-फंदे से नजर आ रहे हैं। लेकिन मजे की बात यह है कि उन्हें मजा आ रहा है, वे छा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि यदि कहीं स्वर्ग है तो बस यहीं है, यहीं है। वे फूले तो पहले से ही थे अब समा भी नहीं रहे हैं। कल से वे सोए नहीं हैं लेकिन चेहरे सुस्ती नहीं है। सारा माहौल उनके पक्ष में फुदक रहा है। प्रतिमा अगर प्रतिक्रिया दे पाती तो पता चलता कि वह कितनी खिन्न और लाचार है। उसे लग रहा है कि शक्ति भगवान में नहीं भियाजी में है और वे  प्रतिमा को अपराधी की तरह बांधे सजा देने के लिए जा रहे हैं।
जुलूस के पीछे बहुत कुछ छूट रहा है। फूल जो भियाजी के चरणों में फेंके गए थे, अब भीड़ द्वारा रौंदे जाने के कारण गन्दगी की श्रेणी में थे। पूरे रास्ते पर पानी के खाली पाउच और इसी तरह का बहुत सा कूड़ा-कचरा बिखरा पड़ा था। इससे ज्यादा कचरा पोस्टरों के रूप में उपर टंगा हुआ था। नारे लिखी हुई दीवारे भी शिकायत करती नज़र आ रही थी। लोगों के मन में बहुत कुछ भरा है लेकिन निकल कुछ नहीं रहा है, मुंह सबके एयर टाइट हैं। वहीँ कहीं एक वैद्यराज अपने रोगी से बोल रहे थे कि बीमारी तब तक खत्म नहीं होती जब तक कि उसकी जड़ को खत्म नहीं किया जाए।

-----

बुधवार, 24 सितंबर 2014

मैं एक सफाई पसंद नागरिक

                     दूसरे अगर लग कर मेहनत करें तो मैं एक सफाई पसंद नागरिक हूं। अब आपसे क्या छुपाना, खुद मुझसे मेहनत होती नहीं, यदि होती तो भी मैं करता नहीं। कारण ये हैं कि खुद काम करने की ना मेरी आदत है और ना ही संस्कार, लेकिन सफाई-पसंद हूं तो हूं। आदत और पसंद में थोड़ा टकराव जरूर है पर उम्मीद है आप इसे माइंड नहीं करेंगे। रिक्वेस्ट के बावजूद माइंड करो तो करो, मुझ पर कोई असर होने वाला नहीं है। मेरा काम सफाई को पसंद करना है वो मैं करता रहूंगा।
                   घर में काम वाली बाई आती है। सफाई उसका काम है, मैं पैसे देता हूं काम के। इसलिए मेरे मन में उसके काम के प्रति कोई आभार-वाभार नहीं है, पर मुझे सफाई पसंद है। साफ कपड़े पहनना मेरी प्रथमिकता है, अक्सर झक्क सफेद कपड़े पहनता हूं। कपड़े धोबी धोता है, जाहिर है उसके काम को लेकर मेरे मन में कोई आदर भाव नहीं होता है,  उसका काम है भई,  काम के मैं पूरे पैसे जो देता हूं। मेरा महत्वपूर्ण योगदान यह है कि मैं सफाई पसंद हूं। मेरे वाहन को धोने के लिए रोज एक आदमी आता है, एक माली है जो बागीचा साफ करता है। टायलेट मुझे एकदम साफ और चमकीला चाहिए। एक व्यक्ति बरसों से, बल्कि यों कहना चाहिए कि पीढ़ियों से हमारे यहां यह काम करता आ रहा है। मैं उसे कुछ पैसों के अलावा फटे-पुराने कपड़े भी देता हूं। आप पूछेंगे किसलिए,  तो साफ है कि मैं सफाई पसंद हूं।
                  आपकी जानकारी के लिए बताउं,  मैं रोज सुबह साढ़े सात बजे स्नान कर लेता हूं और इसमें किसी की धेला-भर सहायता नहीं लेता हूं सिवा इसके कि कोई पानी गरम कर दे,  तौलिया और चड्डी बाथरूम में लटका दे,  साबुन-कंघा-तेल रख दे, हर रविवार शेम्पू का पाउच काट कर सामने रख दे और रिमाइंड करा दे कि शेम्पू रखा है। बस। इसके अलावा कुछ नहीं। पत्नी ये काम बिना पैसा लिए,  बिना किसी दबाव के खुद ही कर देती है। संस्कारवश । वो बहुत सारे काम, यानी घर के करीब करीब सारे ही काम करती है। सफाई से खाना बनाती है,  सफाई से परोसती है। अगर मैं सफाई पसंद नहीं होता तो वो क्यों करती ये सब। उसे पागल कुत्ते ने तो काटा नहीं,  न शास्त्रों में कहीं लिखा है और ना ही मायके वालों ने कह कर भेजा है कि जा अपने पति को रोज नहाने-खाने के लिए प्रेरित कर। मैं खुद देश  का सफाई पसंद नागरिक हूं और अपनी आत्मप्रेरणा से रोज नहाता हूं। बीच बीच में कभी नागा होता भी है तो उसका कारण सरकार का जल-बचाओ अभियान होता है। अच्छे नागरिक का कर्तव्य है कि वो सरकार की हर योजना का यथाशक्ति समर्थन करे।

                          अब आइये घर के बाहर का भी कुछ बताते चलें आपको,  वरना कहोगे कि अधूरी जानकारी दी। घर से निकलते ही पेड़ के नीचे बैठे परंपरागत पादुका-सेवक से मैं अपने जूते पालिश  करवाता हूं। इतने चमकवाता हूं कि कोई चाहे तो उसमें देख कर कंघी कर ले। दफ्तर में पहुंचता हूं और सबसे पहले देखता हूं कि चपरासी ने सफाई ठीक से की है या नहीं । एक बात बता दूं कि हमारा चपरासी सफाई तो बढ़िया ही करता है। लेकिन मैं खनदानी सफाई पसंद हूं,  इसलिए मेरी नजर वहीं पड़ती है जहां जरा सी भी सफाई छूट गई हो। ऐसे में एक क्लासिक हंगामा तो बनता ही है। दफ्तर को सिर पर उठा लेता हूं, खूब चिल्ला लेता हूं। इससे मेरा एक्सरसाइज का कोटा पूरा हो जाता है। साथ ही लोगों में मेरी यह धाक भी जम जाती है कि साहब बड़े सफाई पसंद हैं। मेरा ख्याल है कि आप प्रभावित हो चुके होंगे मुझसे। प्रधानमंत्री जी को बताइयेगा, कि देश  में एक नागरिक है सफाई-पसंद। उनके पास मौका है, चाहें तो इस बात पर एक पद्मश्री दे दें। 

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

साहित्यसेवी दीमकें


                 एक समय ऐसा आ गया जब स्वयं सिद्ध बड़े रचनाकार शब्देश्वर  अपनी दीमक चाट रही किताबों के लिए इतने चिंतित हो गए कि उन्हें अनिंद्रा का शिकार हो जाना पड़ा। रात रात भर वह और दीमक साथ साथ जागते हैं और किताबों के आसपास बने रहते हैं। रात्रि के तीसरे प्रहर में, जिसे विद्वान लोग प्रायः ब्रह्मम मुहुर्त वगैरह कुछ कहते हैं, उन्हें रोना आने लगता है। ऐसे में उन्हें कबीर याद आते हैं, -‘‘दुःखिया दास कबीर, जागे और रोवै। सुखिया सब संसार, खावै और सोवै।’’ उन्हें समझ में नहीं आया कि जब कबीर के पास किताबें नहीं थीं तो दीमक की परेशानी कैसे रही होगी !! उन्हें लगा कि कबीर के दुःखिया होने का कारण अवश्य ही खटमल रहे होंगे। अच्छा है कि उनके अपने घर में खटमल नहीं हैं और वे कबीर होने से बालबाल बच गए हैं। वरना इस बुढ़ापे में कहीं बैठे झीनी चदरिया बुनना पड़ती फोकट में। इधर उनके घर के सारे लोग खा-पी कर सो रहे हैं मजे में। साम्यवादी शब्देश्वर किसी को खाते देखते हैं तो उन्हें भी भूख लगने लगती है। यह स्वाभाविक भी है। काफी देर से जागते और दीमक को खाते देख खुद भूखे हो चले हैं, कमबख्त गांधीवादी दीमकें लगातार खाए जा रही हैं। राजनीति में कोई हरकत नहीं होने के बावजूद खाना या ‘चाटजाना’ दीमक का काम है। कोई जागरुक सिरफिरा जनहित याचिका लगा दे तो विद्वान न्यायाधिपति को अपने फैसले में कहना ही पड़ेगा कि उन्हें खाने दो, खाना और ‘चाटजाना’ उनका हक है, चाहे किताबें हों या कुछ और। देखने वाली बात ये है कि उनके सामने विकल्प हो तो वे किताबों को प्राथमिकता से चुनती हैं। मनुष्य उनके पुस्तक-प्रेम  को गंभीरता से ले यह आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत है। लेकिन देखिए, कितने षरम की बात है कि आदमी के सामने जूता और किताबें रख दो तो वह जूता पहन का भाग जाएगा, लेकिन किताब उठा कर नहीं देखेगा। 
                      दूसरे दिन शब्देश्वरजी ने दीमक-विशेषज्ञ को बुलवाया। संयोग से वह भी जन्मजात कवि था। उसने बताया कि अगर दीमक कविताएं सुन पातीं तो वह सबको एक रात में ही मार डालता, लेकिन अफसोस, ईश्वर  ने सब प्राणियों को अपनी रक्षा के लिए कुछ न कुछ दिया है, वे बहरी हैं। शब्देश्वर भाईसाब ईश्वर  बड़ा चालाक है। शब्देश्वर को उसकी बात अच्छी नहीं लगी, बोले-‘‘ ईश्वर  चालाक नहीं दयालू है। देखो जिस आदमी को आज भी शब्दों का ठीक से ज्ञान नहीं है वह जमाने भर में शब्देश्वर है। कागज कलम ले कर बैठता हूं तो पता नहीं कहां से शब्द आते जाते हैं फरफर फरफर, अपने आप। बोलो, इसे क्या कहोगे तुम ?’’ 
वह बोला - ‘‘शब्द आपके जींस में हैं शब्देश्वर। आपको पता नहीं, जो दीमकें साहित्य की किताबें चट करती हैं वो आगले जन्म में कवि बनतीं हैं। देख नहीं रहे हैं कि गली मोहल्लों में बांबियां भरी हैं कवियों से। पिछले जनम का चाटा हुआ अपना असर रखता है। साहित्य के साथ पुनर्जन्म होता है दीमकों का। आप चाहें तो इसे संस्कार वगैरह कह सकते हैं। अगर आपकी मंशा  है कि साहित्य सचमुच अगली पीढ़ी में जाए तो दीमकों के प्रति दुर्भाव मत रखिए। आज जो दीमकें आपकी किताबें चाट रही हैं वे ही कल, यानी उनके अगले जन्म में समाज के सामने इन्हें प्रस्तुत करेंगी। आपको पता ही है कि साहित्य का मूल्यांकन कवि के जीते जी नहीं होता है, उसे समय जांचता है और आप विचार करके देखिए कि समय और दीमक में कोई अंतर नहीं है। साहित्य के मामले में दीमक को मारना अपने समय को मारना है।’’
              शब्देश्वर कुछ देर खामोश  और गंभीर बने रहे, फिर बोले, -‘‘ कल भोजन पर आइयेगा, मैं दीमकों का श्राद्ध करना चाहता हूं ।’’                    ---

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

दाढ़ी राखिए, और न राखिए कुछ

               यों उनकी उम्र ‘बाऊजी’ लायक नहीं है लेकिन लोगों के बीच कहाते बाऊजी हैं। अभी भी कहीं कहीं ऐसे आदमी को लोग बाऊजी कहने लगते हैं जो जरा सा भी पढ़लिख गया हो, भले ही वो बेरोजगार हो। बाबूगिरी से बाऊजी का कोई संबंध नहीं है। आपके हमारे जैसे आदमी उस वक्त आहत हो सकते हैं जब कोई सुन्दरी भरी सभा में ‘बाऊजी’ का भाटा मार दे, लेकिन बाऊजी पक्के बाऊजी हैं, उन्हें कुछ नहीं होता। दिनभर में उन्हें जितना भी बाऊजी मिलता है सब झोले में भर कर ले आते हैं। जैसे कई लज्जाहीन और ढीठ किस्म के सुबह घुमने निकलते हैं और घर घर फूल चुराते थैली भर कर लौटते हैं। कोई मना कर दे, डांट दे या जूता ही उठा कर मार दे तो भी वे बुरा नहीं मानते हैं। हां, जवाबी कार्रवाई में वे अगले दिन आधा घंटा पहले सैर पर निकलते हैं और दुगनी फूलखोरी के साथ लौटते हैं। 
              बहरहाल, बात बाऊजी की चल रही थी। एक दिन हमने उनसे पूछा कि आपको अंदर से कैसा लगता है जब कालोनी के बाऊजीलोग भी आपको ‘बाऊजी’ बोलते हैं ! 
               वे बोले - ‘‘ साहस उनका है, यह सवाल आपको उनसे पूछना चाहिए। लेकिन आपकी जिज्ञासा सही है। हम भी सोच रहे हैं कि बाऊजी का मान रखने के लिए हमें कुछ करना चाहिए। ’’
                 ‘‘ चलिए देर आए दुरुस्त आए। क्या करने का विचार है ? ’’
               ‘‘ सोचते हैं कि दाढ़ी रख लें। रोज रोज शेविंग का झंझट भी मिटेगा और नहीं जानने वालों को सुविधा हो जाएगी, वे एक झटके में हमें वरिष्ठ साहित्यकार भी समझ लेंगे। क्या कहते हो ? आइडिया कैसा है ?’’
                  ‘‘ आइडिया तो जोरदार है पर आप लिखते तो हैं नहीं !’’
                 ‘‘ हैं तो हम बाऊजी भी नहीं, पर लोग कहते और मानते हैं। साहित्यकार-टाइप दिखने लगेंगे धीरे धीरे लोग अपने आप साहित्यकार समझने-कहने लगेंगे। असल बात टाइप होना है। जैसे पहले कोई नेता नहीं होता है लेकिन हरकतें नेता-टाइप करता है तो लोग  उसे नेता मानने लगते हैं। टीशर्ट-जींस पहनने की उम्र में किसीको  को कुर्ता-पजामा पहन कर बांह चढ़ाना पड़ती है तो किस गरज से ? अगर आप पंडित-पुजारी टाइप रहने लगो तो लोग अपने आप ‘पाय-लागी’ बोलने लगेंगे, कोई संस्कृत का एक श्लोक  नहीं पूछेगा।’’ जवाब में बाऊजी ने लंबा भाषण दे दिया।
                    ‘‘ फिर भी किसी ने पूछ लिया कि इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं तो क्या जवाब देंगे !’’
                    कुछ देर का विराम ले कर वे बोले- ‘‘ देखो भाई, सारे सवालों का स्वाभाविक उत्तर दाढ़ी होती है। आज दुनिया कबीर या गालिब को किसी और चीज से नहीं, दाढ़ी से पहचानती है। आपने किसी दाढ़ी वाले से पूछा कि आप विद्वान हो, साधु-संत हो, नेता हो, मंत्री हो, या जो हो उसका कोई प्रमाण दोगे ? नहीं ना ? अब तो दाढ़ी देख कर जनता कुर्सी तक दे देती है। सदियों से प्रजा को दाढ़ी पर भरोसा है। .... फिर भी तुम्हारा प्रश्न  बेकार नहीं है। एक बार दाढ़ी ठीक से बढ़ जाएगी तो हम कुछ कविताएं भी बटोर लाएंगे। बहुत से हैं जो बिना दाढ़ी के कविताएं लिख रहे हैं और उन्हें कोई कवि नहीं मानता है। चलिए दो लाइन से हमारा लोहा भी मानिए -
                                          बाऊजी दाढ़ी राखिए, और न राखिए कुछ।
                                           बाढ़े दाढ़ी जग पूजे, और न देखे कुछ ।।  
                                                                 -------

सोमवार, 1 सितंबर 2014

गिरवीघर में विचार

              वैसे चीजों को गिरवी रखने का धंधा हमारे यहां यानी भारत में पुराना है लेकिन इनदिनों जबसे टीवी पर ‘पाॅन स्टार’ आया है, इस काम का बहुत विस्तार हो गया है। राजधानी में चल रहे गिरवीघर ‘पटेल पाॅन स्टोर’ में विनोदकुमार बोस पहुंचे।
              ‘‘ जी, मैं आपकी क्या सेवा कर
सकती हूं ?’’ गिरवीघर में कदम रखते ही स्वागत्-सुकन्या ने पूछा। सुन कर विनोदकुमार सोच में पड़ गए। संकोच के साथ बोले,-‘‘कुछ विकल्प बताएं तो मुझे सुविधा होगी।’’
                ‘‘जी अवश्य , ... क्या मैं जान सकती हूं कि आप यहां कुछ खरीदने आए हैं, बेचने या गिरवी रखने ?’’
                  ‘‘मेरे पास कीमती विचार हैं, वैसे तो गिरवी रखना चाहता हूं, लेकिन अच्छी कीमत मिलेगी तो बेच दूंगा।’’
                  ‘‘ठीक है, आप उस तरफ मिस्टर पटेल के पास चले जाइये, पीले काउन्टर पर।’’
                विनोदकुमार बोस अब पटेल के सामने थे, बताया कि ‘‘मेरे पास कुछ विचार हैं, ..... काफी पुराने हैं। कीमती भी हैं, देखिए इन पर मार्क्स की छाप है, लेनिन और माओ के सिग्नेचर भी इसमें हैं। किसी समय भारत में इनकी बड़ी कद्र थी। ... ये अभी भी अच्छी हालत में हैं, सही आदमी मिल जाए तो काम आ सकते हैं। ’’ 
                  ‘‘ हूं ....., आपके पास ये विचार कहां से आए ?’’ गंभीर हो चुके पटेल ने पूछा। 
                  ‘‘ ऐसा है कि पुराने टाइम में, मेरा मतलब है कि ब्रिटिश  टाइम में मेरे दादाजी बड़े कवियों और लेखकों के साथ काफी हाउस में बैठा करते थे। वहीं से उन्हें संपर्कों के कारण मिले। बाद में पिताजी ने इन्हें बहुत समय तक वापरा, उसके बाद अर्से से मेरी अलमारी में पड़े हैं। अब मेरे किसी काम के नहीं हैं इसलिए ......।’’ विनोद कुमार ने तफसील दी।
                   ‘‘ ओके..., आप इनका क्या करना चाहते हैं, गिरवी रखना है या बेचना चाहेंगे ?’’
                    ‘‘ चहता तो था गिरवी रखना पर अच्छी कीमत मिल जाए तो बेच दूंगा।’’
                    ‘‘ कितना एस्पेक्ट कर रहे हैं आप ?’’
                  ‘‘ देखिए ये बहुत कीमती विचार है। इन विचारों से देश-विदेश में कई सरकारें बनी हैं और चलीं भी हैं। इस हिसाब से कीमत करोड़ों में होना चाहिए लेकिन मैं मात्र पांच लाख ले लूंगा। ’’ विनोदकुमार ने अपना प्रस्ताव दिया।
                    ‘‘ पांच लाख !! ये सोचा भी कैसे आपने !?! विचारों की इतनी कीमत अब कहां रह गई है !?’’
                  ‘‘ इसका अतीत देखिए मिस्टर पटेल, अगर आप इसके इतिहास पर गौर करेंगे तो आपको ये कीमत ज्यादा नहीं लगेगी।’’ 
                ‘‘ देखिए मेरे पास गांधी-विचार पड़े हैं, समाजवादी -विचार हैं, सर्वोदयी-विचार भी पड़े हैं लेकिन आजकल इनको पूछने वाला भी नहीं आता है। सच कहूं तो मार्क्स  की फटी कमीज या घिसे जूतों के ग्राहक मिल सकते हैं लेकिन विचारों के नहीं। साॅरी, .... मैं इसे नहीं खरीद पाउंगा।’’ पटेल ने विवशता बताई।
                  ‘‘देखिए आप पुरानी चीजों को खरीदने-बेचने का व्यवसाय करते हैं और आपकी ख्याति दूर दूर तक है। मैं सोचता हूं कि इसकी कद्र करने वाले आपके पास जरूर पहुंचेंगे। .... चलिए पचास हजार दीजिए।’’ विनोदकुमार ने नया प्रस्ताव किया।
                ‘‘ काॅमरेड आप हमारे महत्वपूर्ण ग्राहक हैं। पहले भी आप जैसे एक सज्जन कुछ सिद्धान्त गिरवी रख गए थे, न उन्होंने छुड़वाए और न ही आज तक बिक पाए हैं। अगर जरा भी संभावना होती तो मैं आपको निराश नहीं करता।’’
                    " चलिए पांच हजार दीजिये, मैं भी आपको निराश नहीं कर सकता हूँ । " विनोदकुमार ने उदारता  बताई। 
                       " बेहतर होगा आप इन्हें अपने पास ही पड़ा रहने दें। " पटेल राजी नहीं हुए। 
                  विनोदकुमार की चिंता बढ़ गई, उन्हें हमेशा  से लगता रहा था कि उनके पास बहुत कीमती चीज है लेकिन !! ..., बोले -‘‘ पटेल जी , दरअसल मुझे विकास की मुख्यधारा में शामिल होने का मौका मिल रहा है। उन्होंने कहा है कि वे सबका सहयोग लेंगे, सबको साथ लेकर चलेंगे। लेकिन सुना है कि पहले नार्को टेस्ट करेंगे, अगर कहीं इन विचारों के सिग्नल मिल गए तो दिक्कत हो सकती है। मैं इनसे पूरी तरह मुक्त होना चाहता हूं। .... अब मना मत कीजिएगा,  आप केवल पांच सौ दीजिए। ’’
                 ‘‘ साॅरी, आपको जान कर अच्छा नहीं लगेगा कि अब इन विचारों को स्टोर में रखना कितना जोखिम भरा है।’’
                  ‘‘ चलिए पांच दीजिए .... अब आप कुछ नहीं बोलेंगे। आपको गणेशजी की कसम।’’
                  इसबार पटेल कुछ नहीं बोले, चुपचाप पांच का सिक्का निकाल कर उनकी हथेली पर रख दिया।
                    विनोदकुमार प्रसन्न हो गए-‘‘ थैंक्यू मिस्टर पटेल, अब मैं मुक्त हुआ। वंदे .....वंदे .... वंदे ....।’’
                                                                           ----

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

दलपति और गणपति



                       गणेश जी ने दोनों महानुभावों का स्वागत किया,-‘‘ आओ दलपति द्वय, मुंह मत बनाओ, आप लोगों का प्रमोशन हुआ है। संसदीय बोर्ड में रहते तो सुनता कोई नहीं, पूजा और वंदना से भी जाते। यह अच्छी तरह समझ लो कि पूजा से बड़ा सम्मान दूजा नहीं है। भागते भक्तों की अगरबत्ती भली, माला-परसादी ना तो ना सही। मस्तों का टोला जब झूम के निकले तो किनारा पकड़ लेने में  ही भलाई है। आओ बैठो। ’’
                     मन तो हो रहा था कि दोनों फूट फूट के रो लें गणेश जी के सामने, लेकिन मीडिया वाले ताक रहे थे कैमरा लिए। सोचा कि यहां दो मिनिट रो दिए तो टीवी पर दो हप्ते तक दिन-रात रुलाएंगे। हिम्मत नहीं हुई, और अफसोस भी कि क्या समय आ गया है अब कद्दावर रहे आदमी को रोने के लिए भी हिम्मत चाहिए। एक जमाना वो भी रहा है कभी जब आज के तमाम सूरमा खींसें निपोरा करते थे उनके सामने। बड़े वाले यानी जो उम्मीद से लदे चले आ रहे थे, बोले- ‘‘ गणेश जी, आप तो बुद्धि के देवता हैं, छलपति को कुछ देते क्यों नहीं ? आपने तो पता नहीं किस बब्बर शेर को चूहा बना कर उसे अपनी सवारी बना रखा है। और इधर जो कल तक हमारी सवारी थे आज हमारे सिर पर गणेष बने बैठे हैं। ये कैसा न्याय है आपका !?’’
                   ‘‘ आप संसार से अलग नहीं हैं दलपति द्वय, जो रीत सबके लिए चली आ रही है वही आप लोगों के लिए भी है। नींव के पत्थर एक दिन जमीन में दाब दिए जाते हैं। इमारत बनाने वाले कारीगरों को एक दिन उसी इमारत में घुसने नहीं दिया जाता है। बच्चे को बड़ा करने वाली आया को माता का दर्जा नहीं मिलता है, इसलिए शोक मत करो दलपति द्वय। मार्ग किसी का सगा नहीं होता है। जो जीवन भर मार्ग को रौंदते रहे हों उनके सामने भी एक समय ऐसा आ जाता है जब वे केवल मार्ग के दर्शक  बन कर रह जाते हैं।          ... लड्डू खाओगे ?’’
               ‘‘ क्यों परिहास करते हैं गणेश जी, ऐसे में भला लड्डू खाए जा सकेंगे!! ’’ 
             ‘‘ क्यों नहीं खाए जा सकेंगे ! अरे भले मानसों, अब तो लड्डू खाने के दिन आए हैं। खूब खाओ, वनज बढ़ेगा, नींद अच्छी आएगी। लोगों में संदे जाएगा कि आप लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा है। प्रसन्न दिखना वर्तमान में सबसे बड़ी राजनीति है। प्रसन्न दिखोगे तो लोग दुःखी होंगे। हो सकता है इससे स्थिति बदल जाए। ’’ गणे जी ने दोनों के हाथ में लड्डू रख दिए। 
              ‘‘ देखिए गणे जी, आप तो प्रधानमंत्री कक्ष में भी बिराजे हुए हैं। टीवी पर पूरे दे ने देखा है। सत्ता के इतने नजदीक दूसरा कौन हो सकता है। आप हमारी आयु का ध्यान भी नहीं रख रहे हैं और लड्डू दे कर बच्चों की तरह बहला रहे हैं! जबकि आपको पता है कि डाक्टरों ने मीठा बंद कर रखा है। हमें आसन चाहिए यानी कुर्सी। ऐसा आसन जिस पर ससम्मान बैठ सकें। ’’
                      ‘‘ तो योग गुरू के संपर्क में रहो। उनके पास ऐसे कई आसन हैं जिससे आप लोगों को आराम, सम्मान वगैरह सब मिलेगा।’’ 
                                                             ----

सोमवार, 25 अगस्त 2014

गुलाबजामुन नहीं खाए

       

           कुछ लोग सरकार का विरोध करने के लिए गधे को गुलाबजामुन खिलाना चाह रहे थे लेकिन वह राजी नहीं था। दरअसल गधा बुद्धिजीवी-टाइप था। उसका विश्वास  हरामखोरी में नहीं परिश्रम में रहा है। उसके बाप ने कहा था कि बेटा गधे खानदानी होते हैं, मेहनत करके अपना और इंसानों का पेट भरते हैं। इसलिए वह ऐसे मामलों में नहीं पड़ता है जिसमें राजनीति की बू आती हो।
            विरोध प्रदर्शन  का नेतृत्व कर रहे आदमी ने गधे के कान में फुसफुसा कर कहा-- मैं युवा-हृदय-सम्राट हूं। मेरे भाई मीडिया वाले खड़े हैं, मेरी इज्जत आपके हाथ में है, प्लीज गुलाबजामुन खा कर मुझे आशीर्वाद दीजिए। 
                     गधे ने गरदन हिला दी। उसे पता है कि गरज वाले दिन ये लोग वोटरों को भी गुलाबजामुन पेश करते हैं। वह यह भी जानता है कि जरूरत के समय ये लोग किसीको भी बाप बनाने से भी नहीं चूकते हैं। वोटरों को भी बाप बना लेते हैं, पैर छूते हैं लेकिन बाद में खुद बाप बन जाते हैं। उसके बाप को इंसानों ने कई बार बाप बनाया और ‘पिताजी-पिताजी’ कह कर खूब मेहनत करवाई लेकिन काम निकलने के बाद डंडे से ही सेवा की। 
                 हृदय-सम्राट ने गधे के पक्ष में नारे लगवाना शुरू कर दिया। ‘ये सरकार है अंधों की, सुनता नहीं कोई बंदों की।’, ‘गधे खा रहे गुलाबजामुन, सरकार दिखा रही कानून’। गधे के गले में माला डाल दी गई। एक कार्यकर्ता ने गधे के गले में एक तख्ती पहना दी, जिस पर लिखा है ‘सरकार का जमाई’। ढोल बजने लगे, जैसे अक्सर हमारे यहां जमाई राजा के प्रथमागमन पर बजते हैं। एक युवा नेत्री दीपक और थाली ले कर प्रकट हुई और गधे की आरती उतारने लगी। उसे लगा कि अब वह जीजाजी बालेगी। लेकिन कमबख्त नहीं बोली, नेग भी नहीं मांगा तो उसे राहत महसूस हुई। गधा बुद्धिजीवी और प्रगतिशील किस्म का था और उसे आडंबर कतई पसंद नहीं था। वह इस बात के पक्ष में था कि जमाई को ससुराल वालों का शोषण नहीं करना चाहिए और दहेज या कीमती सामान नहीं लेना चाहिए। इसलिए जब मीडिया के कैमरों के साथ दोबारा उसके सामने गुलाबजामुन लाए गए तो उसने दृढतापूर्वक इंकार कर दिया। लोगों में निराशा  छा गई। लोग बात करने लगे कि गधा पार्टी की किरकिरी किए दे रहा है। कल अखबार में हेडलाइन न बन जाए वरना मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहेंगे। 
                    सुना है कि चैरासी लाख योनियों में गधे की योनी ठीक इंसान के पहले वाली होती है। यानी गधे का शरीर छोड़ कर वह तुरंत बाद में इंसान बनता है। साफ है कि जमाई बनने और गुलाबजामुन खाने के लिए वह थोड़ा-सा इंतजार कर सकता है। युवा-हृदय-सम्राट ने एक बार और कोशिश  की, गधे को पुचकारा, उसकी पीठ पर हाथ फेरा, कान में कहा कि हमारा राज आया तो तुझे पुरस्कार भी देंगे। किन्तु कोई असर नहीं हुआ तो उन्होंने गधे को एक लात जमा दी। गधे को गुस्सा आया, सोचा ये काम अब तक मुझे कर देना चाहिए था, उसने अपनी पिछली टांगे उठाई ही थी कि चारों तरफ से उस पर लात पड़ने लगी। गिरता पड़ता वह भाग लिया। लेकिन खुश  था कि मौका मिलने पर भी उसने गुलाबजामुन नहीं खाए। उसने पलट कर देखा कि लूट मची थी, गधे गुलाबजामुन खा रहे थे। 
                                                                        -----

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

गंदगी करो और करने दो

           
   जब प्रधानमंत्रीजी बोले हैं कि सफाई रखो तो रखना पड़ेगी, सफाई का महत्व भले ही नहीं जानें पर आदेश  का मतलब तो जानते ही हैं। वरना अपन तो संत है, संत को सफाई से क्या। नहाए तो सीधे गंगा में जिसका कोई अर्थ भी है अन्यथा नहाना-धोना अपना चैन खोना है। इधर एक हमारे बाबूजी हैं, सारी उम्र जल से बैर निकालते रहे हैं। जब चिंतकों  ने कहा कि जल बचाओ तब भी उन्होंने दोनों वक्त स्नान किया। आदमी दिन में झाडू लगाए, मैला साफ करे तब तो उसका एक स्नान बनता है। परंतु सुबह नहा कर बाबूजी सारा दिन धोती समेटे अपने तखत पर पालथी मारे बैठे भगवान की नींद हराम किए रहते हैं, पता नहीं इस काम में वे गंदे किस तरह हो जाते हैं कि शाम को फिर पांच बल्टी का स्नान!! व्यंग्यप्रेमियों, देश  को नहाने-धोने वाले जितना गंदा करते हैं उतना दूसरा कोई शायद नहीं। कुम्भ के मेले को याद कीजिए, लाखों आदमी चला आ रहा है, मात्र नहाने भर के लिए। लोग तो चले जाते हैं अपनी धोती-लोटा ले कर, गंगा कहां जाए नहाने, उसको भी सफाई होना कि नहीं होना ? कहते हैं कि गंगा पाप धोती है, मैं पूछता हूं कि क्यों धोती है जी  ? गंगा बिना कुछ पूछेताछे पाप धो देती है इसलिए बंदे नहा-धो कर फिर भिड़ जाते हैं। अगर गंगा नहीं होती या फिर पाप धोने का ठेका उसके पास नहीं होता तो बहुत संभव था कि लोग पाप के प्रति संजीदा और सावधान रहते। मान लीजिए कि तम्बाखू खाने वाले साल में  एक बार गंगा में कुल्ला कर आए और केन्सर के खतरे से मुक्त हो जाएं तो फिर कौन तम्बाखू की और डाक्टरों की परवाह करेगा ! खूब खाओ और लगे रहो शहर भर की वाॅल-पेंटिंग में। कोई सफाई की बात कहे तो उपर वाले ने एक कान सुनने के लिए और दूसरा निकाल देने के लिए ही तो दिया है।
              बाबूजी को हमने कहा कि प्रधानमंत्री जी बोले हैं कि आसपास का माहौल भी साफ रखने की जरूरत है, कहो तो बाहर की सफाई करवा दें ? वार्मअप में वे पहले खंखारे, खिड़की से मुंह बाहर निकाल कर ‘ठों’ की आवाज के साथ सड़क पर थूका, मानो टीपू सुल्तान के जमाने की बारूद वाली बंदूक चली हो, बोले- ‘‘ क्या जरूरत है !! अभी दिवाली आएगी, लोग घरों की सफाई करेंगे और कचरा बाहर ही पटकेंगे। फिर पटखों का दौर चलेगा, सड़कें उनके कचरे से भर जाएंगी, .... इसी बीच देव उठ जाएंगे, शादियां शुरू हो जाएंगी। लोग बारात के पीछे कप-प्लेट और तमाम तरह की गंदगी छोड़ते जाएंगे। कितना उठाओगे, कितना साफ करोगे। कचरा और गंदगी हमारे उल्लास का, हमारी खुशी  का प्रतीक है। साफ सफाई देख कर हमारे लोग बीमार होने लगते हैं। सफाई के चक्कर में अगर देश  डिप्रेशन में चला गया तो नारे लगाने वालों का टोटा पड़ जाएगा प्रधानमंत्रीजी को। गंदगी देश  को जीवंतता प्रदान करती है। गंदगी करो और करने दो।’’ उन्होंने नारेनुमा शब्द उगले।
                 हमने कहा, - बाबूजी, आप खुद जो दो वक्त का स्नान करते हैं उसका क्या !? 
                वे बोले-‘‘ मन साफ होना चाहिए बालक, फिर बाहर की सफाई का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। संत कह गए हैं ना ‘मन न रंगाए जोगी कपड़ा रंगाए’। देश  भर में कितनी झाडू लगा लो मन काला होगा तो जग में उजाला नहीं हो सकता है।’’
-----

शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

हम एक प्याज-खाऊ देश

       
              बात खाने की हो तो हम लोग प्याज को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं। गोली चाकलेट नहीं मिलने पर जिस तरह बच्चा हायतौबा मचाता है वैसा ही प्याज को लेकर टीवी चैनल करते हैं। दुनिया वाले, जो भी हमारी खबरे देखते सुनते हैं, मानते हैं कि हम एक प्याज-खाऊ राष्ट्र् हैं। कभी हमें दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र समझा जाता था, अब हम सबसे बड़े प्याजतंत्र हैं। प्याजप्रेमी जल्द ही प्याज को राष्ट्रीय  खाद्य घोषित करवाने के लिए रामलीला मैदान में सरकार के छिलके उतारने का प्रदर्शन करने वाले हैं। सरकार को भी समझ में आ गया कि जनता को अच्छी सड़के मिले न मिलें, विकास हो न हो, रोटी भी मिले न मिले, प्याज जरूर मिलना चाहिए। जब तक प्याज मिलता है जनता मुर्गे गिराती है, प्याज नहीं मिले तो सरकार। प्याज है तो सरकार है, प्याज गायब तो समझो कि सरकार भी गायब। सत्ता के पुराने जानकार फुसफुसाते हैं कि जनता को प्याज और टमाटर उपलब्ध करवा कर खाने में व्यस्त रखो और खुद अपने ‘खाने’ का अवकाश  निकाल लो। इसी का नाम राजनीति है। समझने वाले समझ गए हैं ना समझे वो अनाड़ी है।
प्याज में जादुई गुण होते हैं। जब इफरात में होता है तो जनता कहती है कि बास मारता है, और जब कम होता है तो दवा की तरह समझा जाता है। बंदे बाजार में निकलें और उन्हें प्याज-टमाटर के दर्शन  न हों तो सार्वजनिक बेचैनी और घबराहट के दौरे पड़ने लगते हैं। किचन में गृहणी ऐसे उदास हो जाती है मानो रक्षाबंधन का मौका है और भाई नहीं दीख रहा है। पूरा घर प्याज-टमाटर को ऐसे याद करता है जैसे श्राद्ध पर दादा-दादीजी याद आ रहे हों। वो तो अच्छा है कि अभी पंडितों ने प्याज पुराण नहीं लिखा वरना गली गली प्याजनारायण की कथा के आयोजन होने लगते। भक्तगण प्याजप्रदोष का व्रत रखते और पंडितजी ‘दूधो नहाओ, पूतो फलो’ की जगह ‘टमाटो-चटनी लगाओ, प्याज-पकौड़े खाओ’ के आसिस देते। 
                   गरीब आदमी बड़ा चालाक होता है। प्याज मंहगा होता है तो वो पट्ठा प्याज खाना छोड़ देता है। लाल मिर्ची और नमक की चटनी से शांति पूर्वक रोटी खा लेता है और मस्त सो जाता है। इधर बेचारे अमीर आदमी को अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई से मंहगे प्याज खरीदना पड़ते हैं। आप कहेंगे कि वो मंहगी कार में चलते हैं, मंहगे बंगलों में रहते हैं, मंहगे टीवी, मंहगे फोन वगैरह। तो भई जान लो, यह सब बैंक का होता है, लोन देती है बैंकें, बुला बुला के देती है, परंतु प्याज उन्हें अपनी जेब से खरीदना पड़ता है। दीनहीन अमीर बेचारे ! आदत नहीं उन्हें अपना पैसा निकालने की। फेरी वाला जब प्याज के दाम बताता है तो उनकी आत्मा अंदर से चित्कार उठती है- ‘लूट मची है, डाके पड़ रहे हैं, सरकार अंधी-बहरी है ! अगर यही हाल रहा तो देख लेगें अगले चुनाव में। लेकिन बहुत कम लोगों को ध्यान आता है कि चुनाव वाले दिन ये लोग घर में बैठे प्याज के पकौडे खाते रहते हैं और वोट डालने जाते ही नहीं हैं। बैंकों को जैसे ही समझ पड़ेगी वो प्याज-टमाटर के लिए भी लोन देने लगेगी। 
                   इधर भगवान किसान के साथ सांप-सीढ़ी का खेल खेलता रहता है। बाजार में प्याज के भाव बढ़ते हैं तो अगली बार किसान अपने सारे खेतों में प्याज ही प्याज बो डालता है। फसल भी जोरदार होती है लेकिन मंडी में भाव ऐसे रूठते हैं जैसे ब्याव में इकलौता तिरपट जीजा रूठता है। किसान मनाता रहता है पर भाव न आज आता और न ही कल। मजबूरन किसान को प्याज अपने जानवरों के आगे डालना पड़ती है। दूध का जला अबकी बार वो प्याज कम बोता है, तो मंडी में प्याज सोना हो जाती है। पिछली बार उसके जानवरों ने प्याज खाई अबकी उसके छोरा-छोरी को दो डली खाने को ना मिली। उपर भगवान मूंछ मरोड़ता है नीचे किसान। 
                                                                           ----

राजनीति के शोले

             
   जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो मांईकमान ने बिट्टू को पास बैठाया, लाड़  से सिर पर हाथ फेरते हुए बोलीं -‘‘ देख बिट्टू , एक बात अच्छी तरह से समझ ले, राजनीति सीखने की चीज है। अनुवांशिकता से हाड़-मांस मिलता है, रंग-रूप मिलता है, राजनीति नहीं मिलती।’’
                ‘‘ लेकिन कुर्सी तो मिलती है ना माॅम। मुझे कुर्सी से मतलब।’’ बिट्टू ने हाथ में उठा रखी बेबी चेयर को एक तरफ पटकते हुए कहा।
             ‘‘ वो समय गया बिट्टू जब बिना कुछ किए लोग पीएम बन जाया करते थे। वक्त की नजाकत को समझ, अब तुम बड़े हो रहे हो। तुमको बाकायदा राजनीति सीखना पड़ेगी।’’ 
                ‘‘ किससे सीखूं !! पार्टी का जो भी सामने आता है सीधे पैर छूने लगता है, यहां तक कि बूढ़े भी। तुम ही क्यों नहीं कुछ सिखा देतीं माॅम ?’’ बिट्टू पिछले कुछ समय से अनमना चल रहा था।
                ‘‘ मैंने तुम्हें मुस्कराना सिखाया था बिट्टू ........’’
              ‘‘ तो मैं मुस्कराता तो हूं ना ? अपन हारे थे तब भी मुस्कराया था, मीडिया ने अच्छे से कवर भी तो किया था।’’ 
             ‘‘ अरे बिट्टू ..... बिट्टू..... सही समय पर मुस्कराना राजनीति है, गलत समय पर मुस्कराने से गलत मैसेज जाता है। तुम्हें इस फर्क को समझना चाहिए।’’
              ‘‘ माॅम तुमने ही तो कहा था कि जनता और कैमरे के सामने मुस्कराया करो !! ’’
              ‘‘ लेकिन दुःखियों, पीड़ितों, समस्याग्रस्त लोगों की बात मुस्कराते हुए सुनना अच्छी बात नहीं हैं। ’’
बिट्टू नाराज हो गया। यों भी सारा दिन अकेले रहते बोर होता है। उस पर माॅम के लेसन का हेडेक। अरे भाई थाउजन्ड रुपीस का नोट हर समय थाउजन्ड रुपीस ही होता है। मुस्कराना हर समय मुस्कराने के अलावा और क्या हो सकता है। एक टाइम ये मीनिंग दूसरे टाइम पर वो ! ये पाॅलिटिकल नाॅनसेंस है। 
              मांईकमान ने एक बार और समझाने की कोशिश  की, - ‘‘ देखो बिट्टू , एक बार तुम सही समय पर मुस्कराना और आंसू बहाना सीख गए तो समझ लो कि राजनीति का बहुत कुछ सीख गए। हिन्दुस्तान की रिआया बड़ी भावुक होती है। ’’
               ‘‘ कौन सिखाएगा मुझे ? ’’ बिट्टू कुछ देर सोच कर बोला।
            ‘‘ अपनी गरज के लिए हमें विरोधियों से भी सीखना चाहिए। टीवी पर रामायण में बताया था ना, लक्ष्मण ने रावण से सीखा था। ’’
               ‘‘ तो क्या नरेंद्र  अंकल से सीखूं ?’’ 
              ‘‘ उनसे रहने दे। वो राजनीति नहीं तुझे फैशन-डिजाइन का कोर्स करने में लगा देंगे। ........ लेकिन एक संभावना है। तुम उधर के भीष्म पितामह से राजनीति सीख सकते हो। अभी वे तीरों से बिंधे पड़े हैं, पर होश  में हैं। ’’
                बिट्टू दनदनाते हुए भीष्म पितामह के बंगले पर पहुंचे। चारों तरफ करीब करीब संन्नाटा था। अंदर वीडिओ पर कोई फिल्म चलने की आवाज आ रही थी। हीरो चीख रहा था, गब्बरसिंग, तेरे एक एक आदमी को चुन चुन के मारूंगा। मां का दूध पिया हो तो सामने आओ बुजदिलों। बिट्टू थोड़ी देर रुका, सोचा इस वक्त जाना ठीक होगा या नहीं। लौटने का मन बनाया ही था कि एक कर्मचारी ने बताया कि आप मिल लीजिए, ये फिल्म तो यहां रातदिन चलती रहती है। कह कर वह अंदर पितामह को खबर करने गया। पितामह खुद ही बाहर आ गए और उन्होंने बिट्टू को प्यार से गले लगा लिया।
                  ‘‘ अंकल माॅम ने ये पापड़ भेजे हैं आपके लिए।’’
                   ‘‘ पापड़ !! कहां के हैं ?!’’
                   ‘‘ राघौगढ़ के हैं। स्पेशल हैं।’’
                 ‘‘ थैंक्स ..... देखो तुम्हारी मेरी पीड़ा एक ही है बिट्टू। तुम तो मेरे पास सीखने भी आ गए, पर मैं किसके पास जाउं !!’’
                    ’’ मैं तो आपसे बहुत छोटा हूं अंकल । ’’
                  ‘‘ राजनीति में छोटा-बड़ा कुछ नहीं होता है, जो भी होता है पीएम इन वेटिंग होता है। जो कि तुम भी रहे हो। ’’
                    ‘‘ जो हुआ उसे दुनिया वाले क्या जाने अंकल, आप तो मुझे कुछ सिखाइये। ’’
                    ‘‘ मैं क्या सिखाउं ! आपकी मांईकमान ने मुझे सिखाने योग्य समझा यही बहुत बड़ी बात है वरना हमारी पार्टी वाले तो ...... खैर। ’’
                    ‘‘ मुझे कुछ टिप्स दीजिए ना ।’’
                  ‘‘ शोले पिक्चर देखा करो। उसमें वो दाढ़ी वाला है ना .... गब्बर, लास्ट में उसी ठाकुर से हारता है जिसके हाथ उसने काट दिए थे। एक उम्मीद और हौसला मिलेगा। अभी तो तुम्हें लंबा सफर तय करना है। हो सकता है किसी तांगेवाली पर ही रीझ जाओ। तुम्हारे लिए यह भी बुरा नहीं है। ..... आओ अपन साथ में देखते हैं, नाम शोले है पर काम मरहम का करती है।’’
                                                            ----

बुधवार, 23 जुलाई 2014

सदन में बजेंगी घंटियां


                    भियाजी आप सामने बैठे हो इसलिए नहीं ना बोल रहे हैं, पर सच्चाई येई है कि हो तो आप पक्के-विद्वान टाइप आदमी। पढ़लिख नहीं पाए तो क्या हुआ, उंच-नीच सब देखी है आपने, अच्छा-बुरा सब बराबर समझते हो, इसमें कोई शंका करे वो अपनी टांग तुड़वाए। पढ़ाई लिखाई के भरोसे रहते तो आज कहीं आॅफिस में टेबल के नीचे हाथ पसारे बैठे होते तो अपनी जनता का क्या होता। सही वक्त पर स्कूल से भाग जाने का निर्णय आपकी दूरदृष्टि का सबूत है। जनता के भले के लिए कुछ करना पड़े, वो सब आपने किया है। राजनीति के आप माने हुए कीड़े हैं और अभी तक किसी माई के लाल ने वो पेस्टिसाइड बनाया नहीं जिसका आप पर असर हो। लोग आपको बाणगंगा चैराहे के बड़े पीपल के नीचे बिराजे भैरव बाबा का साक्षात अवतार यूं ही नहीं मानते हैं, कुछ तो होगा ना ! जब से प्रतिभा भाभी को ब्याह के लाए हैं, बाकायदा आप ‘प्रतिभा के धनी’ भी हैं, इसमें भी कोई संदेह करे वो मूरख। देश  क्या दुनिया पे निगाह है आपकी, पांच दफे दुबई और दो दफे अमरिका हो आए हैं। आपसे कोई कुछ छुपाना चाहे तो छुपा ही लेगा, ऐसा कम से कम हमें तो नहीं लगता। अच्छे से जानते हैं ना आपको इसीलिए इज्जत आपोआप दिल में उछालें मारने लगती हैं, वरना कोई किसी को आज फूटी आंख भी देखता है ! नहीं ना ? लेकिन होगा, हमें क्या, हमारे संस्कार कोई आज के हैं ! आपके दद्दा जब मर्डरकेस में फंसे थे तब हमारे दद्दा ने पूरे चौदह साल उनकी जै-जै करी थी, आपको तो पता ही है। पर अब तो खूब तरक्की हो गई है, मर्डरकेस खूब हो रहे हैं पर फंसने का रिवाज खतम हो गया वरना हम भी अपना पुश्तैनी फर्ज अदा करते। तरक्की तो होनई चइये थी, नहीं होती तो आज जो देश  चला रहे हैं उनमें से ज्यादातर कहीं चक्की पीस रहे होते तो अच्छा लगता क्या ? एफडीआई से पूंजी जुटाई जा सकती है, नेता थोड़ी जुटा सकते हैं, वो भी देसी, गुलगुले और मुलायम, सही है ना भियाजी ? राजनीति खेल तो है पर बच्चों का नहीं, कि कोई मम्मी की अंगुली पकड़े आए और अंग-बंग चौक-चंग करने लगे मजे में। जब तक आप जैसा वीर न हो हम जैसों को वोटर से आगे कुछ बनने की सोचना भी खतरे से खाली नहीं है। तो बात ये थी भियाजी कि लोग कड़वी दवाई को लेकर अभी भी अटके पड़े हैं। बजट-वजट तो आया-गया, अभी भी कड़वी दवा जैसा कुछ बाकी है क्या ? बात साफ हो जाए तो बड़ा अच्छा हो।
                     आमतौर पर भियाजी किसी को मूं लगाते नहीं हैं। लेकिन हमारी बात और है ये तो अब तक आप समझ ही गए होंगे। बोले - बात कड़वी दवा की नहीं सुधारों की है। सरकार चाहती है सुधारों का सिलसिला शुरू किया जाए। कांग्रेस को तो सुधार दिया है अच्छी तरह से और उसकी लक्ष्मणरेखा भी तय कर दी है। वामपंथियों ने कांग्रेस के राज में खूब अइंया-बइंया की, अब उनके लिए बियर बार के अलावा कहीं जगह नहीं है। अच्छे दिन हैं, हमारे दक्षिणपंथियों को अपने आंख-कान खोलने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वामपंथी ‘गार्निशिंग ’ के लिए भी उपलब्ध नहीं हैं। मन में आए जिधर मारिए इंट्र्यिां और संसद में बजेंगी घंटियां। हमारा हर युवा हृदय सम्राट भगवा रेशमी कपड़े में बंधी सुधार की सूचि लिए खम ठोकता डोल रहा है। जैसे ही अमृतसिद्धि योग आएगा सुधार योग का सिलसिला चालू हो जाएगा। सबसे पहले मीडिया को सुधारना पड़ेगा। जनता को भड़काने या मूर्ख बनाने का काम उसका नहीं है। उन्हें राजनीति में  नहीं पड़ना चाहिए। सलमान और शाहरुख अभी गले मिले हैं उस पर चार दिन चर्चा करें हमें आपत्ती नहीं है। लेकिन सरकार को लेकर पूछाताछी करोगे तो बताना पड़ेगा कि तुम्हारा काम क्या है। शिक्षा में सुधार की जरुरत है, लोग पढ़लिख कर बेलगाम हो जाते हैं ये नहीं चलेगा। साधु संत तय करेंगे कि विश्वविद्यालय  में क्या पढ़ाया जाएगा, तय क्या करेंगे वो खुद ही पढ़ाएंगे। इतिहास सुधारना पड़ेगा, हमलावर हमारे इतिहास नहीं हैं, जिन्होंने मुकाबला किया, हमारे जो वीर लड़े वो हमारा इतिहास है। लोगों का, खासकर महिलाओं का लिबास सुधारना जरूरी है। उनका लिबास ऐसा होना चाहिए कि एक बार कोई देख ले तो दूसरी बार देखने की इच्छा ही नहीं हो। और भी बहुत से सुधार होगें, जिनको भी सुधारने की जरूरत समझी जाएगी, सुधारा जाएगा।
                                                     ----

बुधवार, 16 जुलाई 2014

साहित्य में अनामंत्रित

                    भइया किस्से कहानी का जमाना तो अब रहा नहीं। चुटकुलों को इकट्ठा करके सौ करोड क्लब वाली फिल्मों का मसाला तैयार हो जाता है तो कहानी सुने कौन। लेकिन आप ठहरे पक्के कानसेन, कहोगे कि संता-बंता ही सुना दो, तो बाबू वो हमसे बनेगी नहीं। लेकिन आपको ऐसे जाने भी नहीं देंगे, आजकल सुनने वालों और पढ़ने वालों का भारी टोटा है, इतना कि लगता है ये आदमी नहीं गल्फ के कुंओं का तेल हैं। भले ही सबसीड़ी का मलाल हो पर साहित्य की गाड़ी आपके बगैर चले भी तो कैसे। सच पूछो तो आप जैसा हाथ लग जाए तो और चाहिए क्या कलम साधक को। तो भाई साब जब आपने उठा ही लिया है तो समझ लो कि हम आपके कंधे पर हैं। आज आप हुए विक्रम और हम आपके बैताल। आराम से बैठो और सुनो कहानी।
                 एक था दुखिया-गरीब, वक्त का मारा, किस्मत का हारा। जैसे बाढ़ में फंसा आदमी लता पकड़ कर अपने को बचाए रखता है वैसे ही उसने साहित्य की लता को पकड़ लिया था। दीवाना था कथा कहानियों का, शब्द उसके सिपाही। नगर में जब भी कोई लेखक आए, पुस्तक चर्चा हो, पुस्तक लोकार्पण हो उसे लगता कि वहां उपस्थित होना उसकी नैतिक जिम्मेदारी है। इतना कि साहित्य आगे आगे और वो पीछे पीछे, जैसे किसी लड़की का पीछा करता हुआ कोई आवारा छोरा हो। साहित्य प्रेमी तो बहुत होते हैं, पर वो आशिक लेखन का। इतना कि रातदिन किताबें ही सोचता है, किताबें ही पढ़ता है। लेखक उसके दूसरे आराध्य, मिल जाएं तो बिछ बिछ जाए, प्रेम की इतनी कबड्डी कि भक्ति का पाला भी छू ले कभी कभी। भला आदमी इतना कि विश्वास  न हो, न गरीबी से शिकवा, न दुःख की शिकायत। 
                     नगर में शब्द साधक कम थे, इधर कलम वीरों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। जरूरतमंदों को ‘साहित्यिक-महरी’ का काम मिल रहा था। जहां झाडू-पोछा-बरतन तो होता ही है, वहीं चमक दमक बनाए रखने के लिए कुछ किताबें भी ‘करवाने’ में बुराई क्या है। सूत्र वाक्य यह है ही कि ‘आज के युग में पैसे से क्या नहीं हो सकता है’। और यह भी कि ‘हर चीज बिकती है, खरीदने वाला होना चाहिए’। किताबें ऋतु की तरह नियमित आ रही हैं। कद्रदानों के लिए किताब होन्डासिटि का सा सुख देती है। हर महीना एक लोकार्पण की जरूरत पड़ने लगी। 
                 तो राजा विक्रम, किस्सा ये है कि वो शब्दों का आशिक अखबार में पढ़ कर चला आया कार्यक्रम में। अभी वह अंदर आ ही रहा था कि उसे रोक दिया दरवाजे पर, पूछा कि आपको निमंत्रण दिया है किसी ने ? उसने कहा निमंत्रण तो नहीं मिला, अखबार में पढ़ कर आया हूँ । तत्काल बताया गया कि कार्यक्रम आपके लिए नहीं, केवल आमंत्रितों के लिए है। वो दीवाना जिद्दी था, बोला - साहित्य तो सबके लिए होता है। विद्यानिवास मिश्र ने कहा है कि साहित्य वो होता है जो सबका हित करे, सबको साथ ले कर चले। इसलिए मैं हमेशा , हर जगह आता हूं। 
          ‘‘विद्यानिवास मिश्र ! इनके कहने से चले आए ! इनको भी हमने निमंत्रित नहीं किया है।’’ गेट सम्हालने वाले ने निमंत्रण सूचि देखते हुए कहा।
            ‘‘मैं तो ये कह रहा हूं कि उन्होंने ऐसा लिखा है अपने निबंध में।’’
            ‘‘साॅरी, उनके लिखे के लिए हम जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं!’’
            ‘‘निराला, दिनकर, रामविलास शर्मा वगैरह को भी मैं पढ़ता हूं ।’’
            ‘‘तो उनकी किताबों का विमोचन हो तब जाना वहां !?’’
          ‘‘अंदर बैठे हुए बहुत से साहित्यकारों को मैं जानता हूं और वे भी मुझे जानते हैं। और जिनकी किताब का लोकार्पण होना है उन्हें भी जानता हूं।’’
            ‘‘माफ करो भाई। अभी संभव नहीं है।’’ उसने दूसरे आने वालों पर जांच करती नजर डाली।
            ‘‘अगर मैं अतिथियों को सुन लूंगा तो इसमें दिक्कत क्या है ?’’
            ‘‘अरे !! कल को तुम किसी किटि पार्टी में घुस जाओगे और बोलोगे कि मैं अंताक्षरी सुन लूंगा तो दिक्कत क्या है ! तो कोई घुसने देगा तुमको ! ध्यान रखो किसी भी पार्टी में बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए, ये सभ्य समाज का नियम है।’’
            ‘‘लेकिन ये पार्टी नहीं साहित्यिक कार्यक्रम है।’’
           ‘‘सब तुम्हीं तय कर लोगे ? .... गलती सुधार लो, ये एक पार्टी है और तुम एक पेट हों।’’ गेटकीपर नाराज हुआ।
           ‘‘अंदर जो बैठे हैं क्या वो भी पेट हैं ?’’
          ‘‘हां, वे आमंत्रित पेट हैं। ..... समझो भाई, बजट की प्राबलम है। मंहगाई कितनी बढ़ गई है, तुम्हें तो पता होना चाहिए।’’ उसने उपर से नीचे तक उसकी गरीबी को ताड़ते हुए कहा और हाथ जोड़ दिए। 
वैताल बोला - ‘‘राजा विक्रम तुम बताओ कि एक साहित्यिक कार्यक्रम में एक साहित्यप्रेमी को इस तरह अपमानित करने का कारण क्या था। और क्या तुम भविष्य में ऐसी किसी पार्टी में जाओगे ?’’
          ‘‘सुन वैताल, यह मामला सिर्फ पैसों का नहीं है, छोटे दिल का है। असल साहित्यकार संवेदना युक्त होते हैं, वे इंसान को इंसान समझते हैं। जिनके मन में करुणा, प्रेम और इंसानियत नहीं होती है वे बिजूके की तरह होते हैं। जितनी देर वे खेत में होते हैं, अपने को खेत का मालिक समझते हैं। उनका भ्रम एक दिन टूटता है जब परिंदे उनके सिर पर बीट करके उड़ जाते हैं। वैताल मैं ऐसी किसी पार्टी में नहीं जाना चाहूंगा।’’ 
                                                              -----

शनिवार, 12 जुलाई 2014

खुल जा सिम सिम

             
          देखो जी, बात को जरा बारीकी से समझना पड़ेगा, आज की डेट में विपक्ष का काम है कि अच्छे दिनों को आने से रोके। सरकार अच्छे दिन लाने पर आमादा हो रही है। उसकी नियत साफ नहीं है। ये लोग चाहते हैं कि हम भी साठ साल राज करेंगे। हम ये अन्याय कैसे होने दे सकते हैं ! कसम है हमें, हमारा बस चले तो उन्हें साठ हप्ते भी राज नहीं करने दें। आप देखिए, हमें विपक्ष में बैठने की न आदत है और न ही अनुभव। इसीलिए नींद आ जाती है, नींद तो नींद, सपने भी आते हैं। सपने में कोई कुंवारी दिखे तो भी ठीक, पर मुई कुर्सी दिखती रहती है। कुर्सी पकड़ने बढ़ो तो आंख खुल जाती है और कुर्सी पर वो दिखते हैं जिनसे कुर्सी की लड़ाई में कइयों की बुरी गत हो गई। बुरे दिन आए तो ऐसे घुमड़ घुमड़ के आए कि अपनी पार्टी के पूर्व प्रवक्ताओं ने ही कह दिया कि ‘बाबा’ में प्रधानमंत्री मटीरियल नहीं है। जो किसी समय ‘बाबा’ के पाजामें पर प्रेस किया करते थे आज उनका कुर्ता फाड़ने से गुरेज नहीं कर रहे हैं ! ऐसा जता रहे हैं कि वे हाइकमान की गुलामी से मुक्त हुए और उनके अच्छे दिन आ गए। इनका क्या है भई, मौका मिलते ही इस पार्टी से कूद कर उस पार्टी में चले जाएंगे। बाराती इधर उधर हो सकते हैं लेकिन दूल्हे को तो नाक की सीध में ही चलना होता है।
                       अभी बजट आया और देखिए आप सरकार की कलाई खुल गई। पूरे पलटूराम सिद्ध हुए, अपनी जुबान की लाज भी नहीं रखी। जब इन्होंने कहा था कि कडवी दवा देंगे तो देना थी। भारी कर लगाना थे, मंहगाई और बढ़ाते, गरीब का जीना मुहाल करते तो हमारी जान में जान आती। आखिर हमारा भी कुछ हक बनता है। बिना सत्ता  के जीना समझो बिना सांस के जीना है। संख्या इतनी कम हो गई है कि ‘बाबा’ अलीबाबा हो गए लगते हैं। सारे के सारे जब संसद में प्रवेश करते हैं तो मन ही मन ‘खुल जा सिम सिम’ बोलने लगते हैं। लेकिन फायदा कुछ नहीं होता, अंदर जाते ही नींद आने लगती है। मुसीबत ये कि घर में करवटें बदलते रहो पर झपकी भी नहीं लगती। रात रात भर जाग कर अंग्रेजी फिल्में देखो या फिर वीडियो गेम खेलो  .... लेकिन कोई बताए कि कब तक !! कुंभकरण नसीब वाला था, लंबी तान के सो तो लेता था। इधर तो कबीर याद आ रहे हैं- ‘‘सुखिया सब संसार, खावै और सोवै/दुखिया दास कबीर, जागै और रोवै। 
                     सरकार ढ़ोल पीटती है कि वो सवा सौ करोड़ लोगों के दुःख तकलीफ के लिए जिम्मेदार है। तो भइया, विपक्ष सवा सौ करोड़ से बाहर है क्या !? हमारे दुःख तकलीफ के लिए कोई मीठी दवा नहीं है तुम्हारे पास ? थोड़ी तो नजरें इनायत इधर भी करो। कम से कम मान्यता प्राप्त विपक्ष ही बना दो। भागे हुए भूत की लंगोटी लेने के लिए यहां वहां गुहार लगाना पड़ रही है। रही सही कसर एफएम रेडियो वाले पूरी कर देते हैं, बार बार यही गाना बजा रहे हैं - ‘‘रहते थे कभी जिनके दिल में हम जान से भी प्यारों की तरह, बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनहगारों की तरह।’’

                                 -----

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

जानलेवा अमरबेल

                        जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार के काले हाथ कानून के सफेद हाथ से लंबे होते हैं। बावजूद इसके दोनों हाथों में  किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा नहीं है। कानून अपना काम करता है और भ्रष्टाचार अपना। कई बार दोनों एक ही काम करते दिखाई दे जाते हैं। कभी कभी लगता है कि कानून काम कर रहा है लेकिन असल में भ्रष्टाचार कर रहा होता है। पूरानी कहानी में गधे शेर की खाल औढ़ कर खेत चरते थे, नई कथाओं में देश  चरने लगे हैं। कहा जाता है कि पब्लिक सब जानती है, शायद इसीलिए कि वो कानून से ज्यादा भ्रष्टाचार पर विश्वास  करती है। लोगों को पता है कि महकमों को कानून का पालन करने की तनख्वाह मिलती है, काम के लिए उनके कुछ अलग नियम और रेट होते हैं। अगर आपको कानून का सम्मान करना या करवाना हो तो हाथ टेबल के उपर रखें और किस्मत पर भरोसा करें। यदि अधिकार पूर्वक काम कारवाना चाहते हैं तो टेबल के नीचे हाथ पर कुछ रखें, सुखी रहें। सलीके और शिष्टाचार से सब हो सकता है। 
                   सरकारें कानून के भरोसे नहीं चलती हैं, न ही कानून के सम्मानार्थ कोई नेता बनता है। इसीलिए कभी किसी विद्वान ने कहा था कि हमें नेता नहीं नागरिक चाहिए। लेकिन किसी ने सुना नहीं और गली गली, मोहल्ले मोहल्ले कौड़ी के पचास युवा-हृदय-सम्राट पैदा हो गए। कानून लोकतंत्र की मांग  का सिन्दूर है। इससे साल में एक दिन कानून का करवा-चौथ मनाया जा सकता है। बाकी दिन मुक्त लेन-देन में कोई बाधा नहीं है। जो राजनीति को दुहना नहीं जानते वही इसे गंदी कहते हैं। और जो जानते हैं वे राजनीति से प्रेम करते हैं, उनके लिए राजनीति ‘पारो’ है और वे उसके देवदास। उल्लुओं से पूछो तो पता चलेगा कि देश  एक नाइट क्लब हो गया लगता है। ज्यादातर आधुनिक और सभ्यजन रात में अंधेरा औढ़ कर निकलते हैं। अंदर जाम और सत्ता की मादक थिरकन वातावरण को स्वर्ग सा बनाती है। क्लब के बाहर एक बोर्ड इस सूचना के साथ लगा है कि ईमानदारों और कुत्तों का प्रवेश  प्रतिबंधित है। ईमानदारों का प्रवेश  और भी कई जगह प्रतिबंधित है। यदि कोई ईमानदार है तो जीवन उसका है, वह कैसे भी बरबाद कर सकता है। कानून नागरिक अधिकारों के बीच बाधा नहीं बनता है।
                बावजूद भ्रष्टाचार की सुलभ सुविधा के बहुत से लोग हैं जो इसे समाप्त करने की इच्छा रखते हैं, बशर्ते उन्हें कानून से पूरी सुरक्षा मिले। सुरक्षा का ऐसा है कि अगर मिल जाए तो कोई भी डेढ़ पसली किसी महाखली या महाबली पर भारी पड़ सकता है। वरना एरिया का हप्तेभर पहले पैदा हुआ युवा-हृदय-सम्राट भी खड़े खड़े हड्डियां गिनवा दे तो आश्चर्य  नहीं। इस समय देश  की मुख्यधारा भ्रष्टाचार के नाम है। कार्य संस्कृति के हक में यह छोटा काम नहीं है। बड़े परिश्रम से देश  की जनसंख्या का बड़ा भाग इस मुख्यधारा से जुड़ पाया है। समाज में वंचित लोग सदा से रहे हैं और उनमें व्यवस्था के प्रति असंतोष भी रहा है। लेकिन इस तरह की दिक्कतों से मुख्यधारा को अरक्षित नहीं छोड़ा जा सकता है। कानून ‘व्यवस्था’ की रक्षा के लिए ही होता है। धीरे धीरे शिक्षा और आधुनिकता के संस्कार उपर से नीचे पहुंचेंगे और उनमें सामाजिक सक्रियता के आवश्यक गुण विकसित होंगे। उस दिन हमारे नेताओं का सपना पूरा होगा कि अपने बच्चों के लिए जैसा भारत वे बनाना चाहते थे एक्जेक्टली वैसा बन गया है। 
                      एक जमाना था जब हम पिछड़े थे, हाट बाजार लगा कर बड़ी मुश्किल से कुछ बेच पाते थे। अब घर घर दुकान है, और सब बिक रहा है। ईमानदारीनुमा कुछ जो नहीं बिकता उसे खादी भंडार में हाथ के बने अचार और घानी वाले तेल के बीच रख दिया जाता है। यहां चीजें बिकती कम हैं, सरकारी प्रोत्साहन ज्यादा पाती हैं । हस्तकलाओं की तरह लुप्त हो रही सच्चाई-नैतिकता वगैरह सरकारी अनुदानों के सहारे डम्प पड़ी हैं और वक्त जरूरत नुमाइश  के काम आ जाती है। आखिर हमारे संग्रहालयों में भी कुछ होना चाहिए दुनिया को दिखाने के लिए। 
                                                 ----

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

घोड़ा , घास और दोस्ती

                    वोट मांगते समय जो घासफूस जैसे जन का 'प्रतिनिधि’ होता है वो चुनाव जीतने के बाद बड़े आराम से व्यवस्था का प्रतिनिधि हो जाता है। मतपेटियां सत्ता देती हैं, सत्ता का पहला स्नान उसे शासक बना देती है। शासक के पास विकल्प नहीं होते हैं, जैसे गाड़ी में जोते गए घोड़े पास नहीं होते हैं। देखा जाए तो गाड़ी के पास भी विकल्प नहीं होता है, उसे भी हमेशा एक घोड़े की ही जरूरत होती है। घोड़ा अंततः घोड़ा होता है, वह घास से दोस्ती नहीं करता है, गाड़ी से कर लेता है। गाड़ी में नगरसेठ बैठता है, शहरकोतवाल बैठता है, महल-पुरोहित और साथ में कहीं नगरवधु भी बैठती है। घोड़े का सीना घोषित नाप से दो इंच और चौड़ा हो जाता है, जैसा कि तीसरी कसम वाले हीरामन का हुआ था जब उसे पता चला कि उसकी गाड़ी में नौटंकी वाली बाईजी बैठीं हैं। घोड़े को लगता है कि गाड़ी उसी की है, गाड़ी वाले मानते हैं कि घोड़ा उनका है। सवार अनुभवी होते हैं, वे घोड़े से ज्यादा लगाम पर हाथ फेरते हैं। लगाम लंबी होती है, नापो तो स्विस बैंक तक जाती है। घोड़ा गाड़ी से परे मात्र घोड़ा है, लेकिन गाड़ी से जुड़ कर वह शाही सवारी हो जाता है। सड़क पर जब निकलते हैं तो सिपाही डंडा फटकारता है कि लोग-लुगाई एक तरफ, हिन्दू-मुसलिम-ईसाई एक तरफ.... घोड़ागाड़ी से दूर, शाही सवारी में हुजूर। 
             जनता के साथ पार्टी के कार्यकर्ता भी अपने को ठगा सा महसूस करते हैं। कबीर जनता को कह गए हैं कि आप ठगाइये और न ठगिये कोय, और ठगे दुःख उपजे आप ठगाए सुख होय। देश  की राजनीति कबीर की आभारी है, सूझ पड़ गई तो अगली बार सरकार भारतरत्न दे देगी। ठगाई जनता सुखी है यह तय है, फ्रेश  होने के लिए थोड़ा रो-धो लेती है ये बात अलग है। हुजूर जानते हैं कि सवा सौ करोड़ जनता मन में कुछ नहीं रखती, बकबका कर हल्का हो लेना उसकी आदर्श  परंपरा है। मीडिया इस काम में उनकी मदद करके सरकार को मजबूत बनाता है। 
                इसके अलावा मेनेजमेंट के तहत जनता का तनाव कम करने के लिए तमाम योगगुरू भी मैदान में छोड़ दिए गए हैं। जिनको तकलीफ है वे सुबह उठते ही अनुलोम-विलोम में लग जाएं तो मंहगाई का असर कम महसूस होता है। ताजी हवा में मुंह या नाक से लंबी लंबी सांस लो और कहीं से भी लंबी लंबी सांस छोड़ो तो चित्त को बहुत लाभ होता है। ठीक इसी वक्त पेट अच्छे से साफ हो जाए तो मान लीजिए कि अच्छा दिन भी आ गया है। स्पष्ट है कि अच्छे दिन चाहिए तो सबको कुछ न कुछ करना पड़ेगा। यह बात भूल जाइये कि कुछ करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। जनता भली है, किसी को दोष  नहीं देती है सिवा अपने पापी पेट के। बहुत हुआ तो भाग्य के नाम पर अपना सिर पीट लेगी। उसके बाद ‘जाही बिधि राखै राम ताही बिधि रहिए’ कहते हुए अगली ठगाई के लिए उपलब्ध हो जाएगी। 
                गांधीजी बोल के गए हैं कि कोई एक गाल पे थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो। हुजूर इस बात को समझते हैं और ‘कोई’ की भूमिका निबाहने में विश्वास  करते हुए पहले थप्पड़ में रेल किराया बढ़ा दिया है। वे निश्चिन्त  हैं क्योंकि देश  में ढ़ाई सौ करोड़ गाल हैं। पांच साल खत्म हो जाएंगे लेकिन गाल बाकी रहेंगे। 
                इधर सिनेमा की एक सुन्दरी ने भी सूत्र-संदेश  दिया है कि ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है’। हुजूर को भी प्यार करने की आदत नहीं है। जब भी लगाएंगे थप्पड़ ही लगाएंगे। लोकतंत्र में जनता थप्पड़ खाने के लिए पैदा होती है, जैसे बकरे अंततः हांडी में पकने के लिए होते हैं। जनता के पास बकरे की अम्मा की तरह कोई अम्मा भी नहीं होती है जो खैैर मना ले।  जनता के नसीब में दो पार्टियां हैं, एक पीटे तो दूसरी अम्मा का नाटक कर देती है और दूसरी पीटे तो पहली। अच्छे दिन अभी अंगूर हैं, तके जाओ। गालिब याद आ रहे हैं, - ‘‘ हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल के बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’’ । 
                                                                       -----



इलाज और बीमारी के बीच कूदफांद

                        जो कभी बीमारी घोषित थे, सत्ता में आने के बाद अब इलाज हैं । जिससे बचने का ढोल पीटा जा रहा था अब वो शिलाजीत है, देश को मर्द बनाने की दवा। साम, दाम, दण्ड, भेद के आगे कोई कुछ बोल भी नहीं सकता है। वरना जिसके भाग्य में जितनी साँस  लिखी होगी रामजी उससे ज्यादा किसी को नहीं देंगे। जहां तक राम का सवाल है, सबसे पहले वही लपेटे में आए हैं। ऐसे में जो लोग महूरत निकाल कर काम नहीं करते राज्य में उनके लिए कोई गैरंटी नहीं होगी। प्रातः बिस्तर से उठते हुए पहले दांया पैर जमीन पर नहीं रखने वालों का दिन खराब होगा, गुण्डे गोली मार दें या घर में चोरी हो जाए तो इसमें प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। धंधा उसी का चलेगा जो चैघड़िया देख कर दुकान का ताला खोलेगा। लड़कियां भी वही सुरक्षित होंगी जो पूरी ढंकी होंगी या फिर जिन पर कलयुगी रावण कृपा करेंगे। विकास का दावा है, तो पक्के तौर पर होगा। लेकिन अपने ज्ञानचक्षु खोलिए, विकास आगे नहीं, पांच हजार वर्ष पीछे है। इधर जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। अतीत में दुःख, भविष्य में डर, वह मान लेती है कि ‘दर्द का हद से गुजर जाना अपने आप दवा बन जाएगा’। जानकार कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। किन्तु बचाव हो कैसे, जिस हवा में  सांस लेते हैं उसी मेें बेक्टेरिया तैरते रहते हैं। आंकडे उठा कर देखें तो देश में जितने बीमारी से मरते हैं उससे ज्यादा इलाज से मरते हैं । हरेक को आजादी है, वो चाहे तो शांतिपूर्वक बीमारी से मर सकता है या उतावला हो कर इलाज से। 
‘‘ भाभीजी सुना है भाई साब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ पडौसन ने पूछा।
‘‘ क्या बताउं, हप्ताभर से उछल रहे हैं, ‘युवा- हृदय-सम्राट’ हो गया है।’’
‘‘ नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा। मैं तो हमेषा ‘गेटआउट’ लगा के रखती हूं।’’
‘‘ घर में तो गेटआउट हम भी लगाते हैं, पर ये बाहर मच्छर-मख्खी के बीच ही रहते हैं और तला-गला, गंदा-बासी सब खाते हैं ना।’’
‘‘ अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेकशन  होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
‘‘ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर ‘थर्ड स्टेज लीडरी’ का हो जाता।’’
‘‘ क्या होता है थर्ड स्टेज लीडरी में ?!’’
‘‘ चमड़ी मोटी हो जाती है, दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिनरात खाने की सूझती है, पेट हमेशा  खाली महसूस होता है.....। 
‘‘ जांच करवाई ? कुछ निकला ?’’
‘‘ जांच हुई, पर अभी तक निकला कुछ नहीं। निकलेगा कहां से! अभी तक कोई मौका ही नहीं मिला है।’’ 
                   जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे हृदय-सम्राट इलाज हैं या बीमारी। अभी तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इलाज समझ कर जिनका हाथ थामा वे बीमारी निकले। एक जमाने में कहा जाता था कि घी-मख्खन खाओ, अब डाक्टर बोलते हैं कि ये बीमारी का घर हैं, इनसे बचो। मौसम ऐसा चल रहा है जिसमें हर पार्टी खुद को इलाज और दूसरी को असाध्य बीमारी बता रही है। यही वजह है कि खासी कूदफांद चल रही है। कुछ बीमारी से कूद कर इलाज में आ रहे हैं, कुछ इलाज से बीमारी में जा रहे हैं। 
                                                          ----

बुधवार, 25 जून 2014

सेकुलरों के पाप नहीं धो रही गंगा



              पता ये चला है कि बहुत समय से नेताओं को स्वर्ग में प्रवेश  नहीं मिल रहा है। ना जाने कौन से पाप हुए कि गंगा स्नान के बावजूद पवित्र नहीं हो पाए। नेता तो नेता, धोने-नहाने से रह जाए पर बयान से बाज ना आएं। मीडिया में बकबका दिये कि गंगा जो है सेकुलर पापियों के पाप नहीं धो रही हैं। जब देशभर के कामरेड तक छुपछुपा कर यानी गुपचुप तरीके से गंगा स्नान करके पवित्र हो रहे हैं तो सेकुलर पापियों के साथ ये भेदभाव क्यों ? राजनीति किसी भी जगह हो पर आस्था तो अपनी जगह है। कल को स्वर्ग कामरेड़ों से भर गया तो भगवान अकेले पड़ जाएंगे उसका जवाबदार कौन होगा ?! और अगर सांप्रदायिक ताकतों को ही मौका मिला तो उनका बहुमत नहीं हो जाएगा !? लोकतंत्र में हर पापी को गंगा स्नान का बराबर अवसर मिलना चाहिए, चाहे वो किसी भी पार्टी या विचारधारा का क्यों न हो।
                 अब ये तो होता है भइया, एक ने कही तो दूसरा चुप कैसे बैठेगा। एक तो गंगा मइया, पाप धो रही सबके, उपर से नेता लोग आरोप ठोंक रए दनादन। गंगामांई को भी कहना पड़ा कि जो लोग अपने को ‘दूध का धुला’ और पाक-साफ, पवित्र मानते ही हैं उनको गंगाजल की आस क्यों करना चाहिए ! पहले वे अपने को पक्केतौर पापी मानें, गंगा को हाइकमान से ऊंचा दर्जा दें, तब उनके पाप धोने पर विचार किया जा सकेगा। ये लोग आस्था की झूटी बात करते हैं। इनके राज में ड्रेनेज  की बड़ी बड़ी लाइनें छोड़ दीं गंगा में !! गंगा मुर्दों को ढ़ो सकती है लेकिन मल को ढ़ोना उसका काम नहीं है। जब तक गंगा साफ नहीं होती कोई नेता पवित्र नहीं माना जाएगा।
                 तुमसे ये बात छुपी तो है नहीं कि संसार मृत्युलोक है और यहां सब पापी रहते हैं। पर  डरने की कोई बात नहीं है क्योंकि देवभूमि में नियमानुसार गंगा स्नान कर लेने से पाप जो हैं एकदम से धुल जाते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि जो नहा लिए वो पवित्र और जो आलसी नाहाने से रह वो समझो पापी ही रह गए। कहते हैं कि भारत अनंतकाल से एक नहाऊ देश  है। जिधर देखो उधर हर आदमी नहाने के लिए कमर ढ़ीली किए बैठा है। कहने सुनने में बुरा लगेगा पर सच ये है कि पूरे देश  से जितनी भी ट्रेनें  उत्तर प्रदेश  जाती हैं उनमें अधिकांश  पापी होते हैं और वे नहाने जाते हैं। खास तिथियों, त्योहारों और अवसरों पर लाखों पापी स्नान करके नया सा महसूस करते हैं, जैसे फेफड़े-किडनी बदला लिए हों। गंगा स्नान के बाद नहालू के मन और इरादों में नई धार लग जाती है। पाप-धुला आदमी नए उत्साह और नए संकल्पों के साथ अपने गांव या शहर में लौटता है और ‘नए कामों’ में लग पड़ता है। बात हमारी तुमारी नहीं लाखों लोगों के भरोसे और विश्वास  की है, नहीं करोगे तो तुम भी हुए पक्के पापी। वरना तो सब मानते हैं कि गंगा नहाया कर्मवीर इतना पवित्र हो जाता है कि स्वयं भगवान को उसके लिए स्वर्ग का दरवाजा खोलना पड़ता है। कुछ बात तो होती होगी ना, वरना भगवान को क्या पड़ी कि चल के खुद आएं और दरवाजा खोल के ‘वेलकम’ बोलें और यह भी कि ‘बड़ी देर कर दी आने में !’ जानते हो ना  कि बड़े से बंद दरवाजे के भीतर का हिस्सा स्वर्ग होता है। और यह भी कि नरक में उल्टे दरवाजे होते हैं, घुस कोई भी सकता है पर निकलने की बनती नहीं है। इधर स्वर्ग की बात अलग है, सुरक्षाकर्मी विमानतल पर ही आने वाले को नंगा करके अच्छी तरां से जांच करते हैं कि शरीर का कोई हिस्सा पाप-पगा तो नहीं रह गया, इसने ठीक तरां से गंगा स्नान किया या नहीं। पूरी और पक्की खातरी होने के बाद, मेडिकल चेकअप कराके और जरूरी टीके-वीके लगाके उसको अंदर ठेला जाता है। जो इलाहाबादी दामाद होते हैं उन्हें इस तरह की झंझटों से दो-चार होने की जरूरत नहीं होती है। यों समझ लो कि संगम का इस्पेसल परमिट होता है, सीधे आए और घुस गए। सुरक्षाकर्मी मात्र तोरण मारने की रस्म करके अंदर छोड़ आते हैं। खैर, हम-आप ठहरे आमजन, लाइन में लगने में कोई ऐतराज थोड़ी है।
 अब देखो क्या होता है आगे ! हम तो पिछले साल के नहाए बैठे हैं अभी नंबर नहीं लगा। डर यही लगा है कि नेताओं की भीड़ लग पड़ी तो भगवान दरवाजा खोलें कि नहीं खोलें।
                                                              -----

बुधवार, 11 जून 2014

अच्छे समय का रोड-शो

           
         सुबह सबेरे लोगों ने देखा कि दीवारों पर पोस्टर चिपके हैं और झुण्ड के झुण्ड लोग उन्हें पढ़ रहे हैं तो रनवीरसिंह भी उधर दौड़ चले। लिखा था कि नागरिक खुशियां मनाएं, नाचें गाएं, क्योंकि अच्छा समय आ गया है। बाजार को हमेशा  अच्छे समय की लगी पड़ी रहती है सो उससे कहा गया है कि वो चौपन इंच तक सीना तान ले और सेंसेक्स की तरह उछल उछल कर आसमान नापने की कोशिश करें। दफ्तरों में प्रतिदिन कुर्सी-नमस्कारासन होगा जो दिल्ली की ओर मुख कर किया जाएगा। प्रभातफेरियां अच्छे समय का बिगुल बजाती दिनभर निकलेंगी। शिवालों में बुरे दिनों की भस्म से विशेष  आरतियां होंगी। पंडित दूध से काया को धोएंगे, चोटी को गो-घृत से सींचेंगे और मंत्रोच्चार से अच्छे समय का अभिषेक करेंगे। मौलवी-मुल्ला जयपुरी मेंहदी से अपनी दाढ़ी को गहरा रंगेंगे ताकि मालूम हो कि इधर भी अच्छा समय आ गया है। ज्योतिषी-कथावाचक अपनी पुरानी पोथियों को नए लाल रेशमी वस्त्र में बंध कर तैयार रहें, अच्छा समय एकदम आ ही गया है। विध्नहर्ता, लंबोदर देव से प्रार्थना की गई है कि वे शीघ्रतिशीघ्र दुग्धपान के लिए उपलब्ध हों। गली-गली भजन कीर्तन और भोजन-भण्डारे होंगे इसके बाद भी कोई भूख से मरा तो जिम्मेदारी उसके भाग्य की होगी। हर आम और खास, अमीर और गरीब शादी-ब्याह पूरे घूमघाम से यानी शानोशौकत से करेगा ताकि हवाएं इन संदेशों  से भर उठें कि अच्छा समय आ गया है। इसके लिए बैंके भारी से भारी लोन देने के लिए दौड़ पड़ेंगी। जिनके पास पेट्रोल  के पैसे नहीं हैं उन्हें आॅडी कार के लिए लोन मिलेगा। मंगते-भिखारी भी पांच लाख तक की कार एक रुपए के डाउन पेमेंट पर खरीद सकेंगे। लोन न चुका पाने की स्थिति में मोक्ष और मुक्ति दोनों का लाभ लेने की स्वतंत्रता होगी। साधु महात्मा कुपित हो कर किसी भी पापी को श्राप दे सकेंगे और संस्कृति रक्षक उसे लागू करके उनके सम्मान की रक्षा करेंगे। अच्छा समय आ गया है इसलिए स्कूल कालेजों में छुट्टी रहेगी, विश्वविद्यालय बंद रहेंगे। प्रोफेसर लोग योग गुरुओं से अनुलोम-विलोम और बटर फ्लाय वगैरह सीखेंगे और आत्मशुद्धि करेंगे। डाक्टरों को मरीज के रक्त परीक्षण, मल-मूत्र परीक्षण के साथ जन्मकुण्डली परीक्षण भी कराना होगा। दवा की दुकानों में दवा के साथ गंडे-ताबीज, नगीने-अंगूठियां, तांबे-पीतल के तंत्र आदि भी जनता के कल्याण के लिए उपलब्ध रखें जाएंगे। कवियों, लेखकों, साहित्यकारों को कलम चलाने की मनाही होगी, हल चला कर वे उत्पादक  कार्य में संलग्न किए जाएंगे जो एक तरह का रचनात्मक कार्य ही है। केवल वे लेखक छुट्टे घूम सकेंगे जो अच्छे समय को बढ़ावा देंगे। इसी तरह कलाकारों को भी विकास कार्यों में लगाया जाएगा, वगैरह।
‘‘ क्या सचमुच अच्छा समय आ गया है !!’’ रनवीर सिंह ने पूछा।
‘‘ इसी बात का डर था कि कहीं इस बार अच्छा समय न आ जाए।’’ सुच्चादास ने मायूस सा जवाब दिया।
‘‘ जब भीड़ अच्छे समय के लिए आमादा हो तो हम आप दो-चार वोटों से रोक नहीं सकते हैं। ’’
‘‘ जब रोक नहीं सकते हैं तो समझदारी इसी में है कि अच्छे समय का स्वागत् हम भी कर दें। ’’
दोनों टहलते हुए दूर निकल आए। दिन चढ़ने लगा। वातावरण में एक तरह की हलचल थी। पूछा - ‘‘ क्या बात है भाई ! सारे लोग भाग क्यों रहे हैं ? ’’
‘‘ तुम्हें पता नहीं !! अच्छा समय आ गया है। ‘‘ 
लोग भागे चले जा रहे थे मानो अच्छा समय उन्हें दबोचने के लिए पीछे दौड़ा चला आ रहा है। दोनों को कुछ समझ में नहीं आया। करें क्या आखिर ! अगर भागना जरूरी है तो किधर भागें ! अच्छा समय तो सब तरफ आया होगा। 
चैराहे पर पुलिस वाले ने कुछ लोगों को रोक लिया। बताया कि वे लाल बत्ती में चैराहा क्रास किए हैं सो बाकायदा चालान बनेगा। उनमें से एक कुर्ता-पायजामा युक्त ब्रान्डेड नेता अपना पचास इंची सीना बजाते हुए आगे बढ़ा, - ‘‘ अबे हाट, .... बड़ा आया चालान बनाने वाला। हमें लाल बत्ती बताएगा ! अब अच्छा समय आ गया है। .... चल फर्शी-सलाम कर जल्दी से। ’’
सब एक साथ चिल्ला पड़े। पुलिस वाला अकेला पड़ कर घिर गया। लोगों ने देखा कि वह पुटपाथ की फर्शी  तक झुक कर सलाम कर रहा है। 
‘‘ अरे !! ये कैसा समय आ गया सुच्चा !!’’
‘‘ चुप ..... धीरे से निकल ले .... अच्छे समय का रोड-शो  चल रहा है।’’
                                                                 ----