मंगलवार, 22 सितंबर 2015

प्यून साहेब पीएचडीराम

                            जब पैदा हुए तो घर वालों ने नाम रखा जगतराम। पांचवी-आठवीं पास करा गए तो मइया-बापू को लगा कि हो ना हो जगतवा घर का नाम रौसन करेगा। जोर लगाया, भिड़ गए सब, खेती-ऊती जरूर बिक गई पर  जगतराम बीए की डिगरी लैके आ गए। सौदा मंहगा पड़ रहा था पर अब क्या करैं ! रस्ता चलता तो लौट आए, पर पढ़ालिखा आदमी पलट कर वापस गंवार तो हो नहीं सकता था। एक बार पढ़ गया तो समझो अड़ गया। तय हुआ कि अब कौनो रास्ता नहीं हैं, आगे ही पढ़ौ। जगतराम पढ़त-पढ़त पीएचडी होई गए। लौटे तो बताया कि पढ़ाई खतम, अब कुछ नहीं है पढ़ै खातिर। खेल खतम पइसा हजम। नौकरी करें तो नाम भी रौसन हो। पर नौकरी कहां रक्खी है ! इधर पब्लिक ने जगतराम को पीएचडीराम नाम दे दिया। अम्मा कहिन नाम के खातिर तो पढ़ा रहे थे, पूरे नखलऊ  में नाम तो जानो हो गया, पर नौकरी का क्या करें, नोकरिया तो अपने हाथै में नहीं है ! अरजी घिसते घिसते पीएचडीराम सब भूल गए और रेस्पेक्टेड सर से लगा कर योर ओबिडियंट तक जिन्दगी सर के बल घिसटने लगी। शुरू में बड़े पदों के लिए अर्जी भेजते फिर धीरे धीरे नीचे उतरने लगे। सोचा पद छोटा बड़ा भले हो पर कुर्सी सबमें मिलती है। 
                           तभी सरकार ने प्यून के 368 पदों की भर्ती का विज्ञापन निकाला। हिचकते हुए आखिर पीएचडीराम ने भी अपना आवेदन उधर भी दे मारा और मान लिया कि ‘यहू नोकरिया तो पक्की’। मंइया-बापू को भी लगा कि नौकरी लगी समझो और अब कोई रिस्ता आया तो ठोंक के दहेज ले लेंगे, आखिर मोड़ा पीएचडी भी है। नौकरी में पद नहीं देखा जाता है, मौका देखा जाता है। मौका मिल जाए तो अंगूठाछाप भी लाल बत्ती के नीचे गरदन तान के बैठ सकता  हैं। सरकारी गलियों में मौका शिक्षा से बड़ी चीज है। सरकारी प्यून गैरसरकारी हलके के किसी भी आदमी से बड़ा हो सकता है बशर्ते उसमें काबलियत हो। खुद सरकारी महकमें में बड़े से बड़े अधिकारी मंत्री वगैरह किसी का भी काम प्यून के बिना नहीं चलता है। प्यून तंत्र का बहुत जरूरी आदमी होता है। जहां तक जानकारी की बात है, जितना एक अधिकारी जानता है उससे कई गुना ज्यादा जानकारी प्यून के पास होती है। प्यून अगर नाराज हो जाए तो बड़े बड़ों को अपना जूठा पानी पिला कर अपनी छाती ठंडी कर सकता है। सरकारी प्यून वो बला है जो शीशे  से पत्थर को तोड़ सकता है। ...... तो तय हुआ कि पीएचडीराम अब प्यून ही बनेंगे।
                              लेकिन दुर्भाग्य, प्यून के 368 पदों के लिए 23 लाख आवेदन आ गए। एक पद के लिए सवा छः हजार उम्मीदवार !! आवेदकों में दो लाख से उपर एमए, एमकाॅम और 255 पीएचडी !! सरकार को संपट नहीं बैठ रही है कि पीएचडियों के इस पहाड़ का करें क्या ! प्योर कुकुरमुत्ते होते तो भी काम आ जाते। विश्व विद्यालयों को नोटिस भेजे जाएं और पता किया जाए कि कहीं डिग्री-चैपाटियां तो नहीं चलाई जा रही हैं। यह भी सोचा जा रहा है कि समाजवाद आ गया है या कि देश  विकसित हो गया है। समझ में नहीं आ रहा कि सरकार अच्छा काम कर रही है या उससे कहीं चूक हो रही है। 
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

जिसने बांटी, उसने आंटी’

                         
‘‘ अरे पगलों, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की बुनियाद में जब दारू-वितरण की अहम भूमिका है तो फिर दारूबंदी कौन नासमझ करेगा। कुछ बातें कहने में अच्छी लगती हैं लेकिन करने की नहीं होती हैं, कुछ करने की होती हैं लेकिन कहने में अच्छी नहीं लगतीं हैं। इसीको राजनीतिक शिष्टाचार कहते हैं। ’’ नेता जी ने समझाया।
‘‘ अब हम लोग ठहरे मूरख, शिष्टाचार के राज-रहस्य भला हमें क्या पता, वो तो क्या है नेताजी, आप वादा कर आाए हैं औरतन से कि अगर आपकी पार्टी को सत्ता मिली तो राज्य में शराबबंदी कर दी जाएगी। बात हो रई कि सरकार मर्दाना वोटरों की उपेच्छा कर रई है इसी से चिंता लग गई, और कछुु बात नहीं है। वैसे सब आपको ही वोट देंगे .... पर क्या भरोसा ना मिले तो ना भी दें। आप यहां गठबंधन में बैठे हो, .... वहां विधानसभा क्षेत्र के सारे आदमी गमजे में दुबलाए जा रहे हैं !! कोई संदेस हो तो आज नगद कल उधार कर लो। वरना एक बार गई भैंस पानी में तो फिर किनारे लगना नहीं है।’’ प्रतिनिधि मण्डल से एक बोला।
                     ‘‘ अरे पगलों, चुनावी वादे तो जुमले होते हैं जुमले। कैसे भारतीय नर हो इतना भी नहीं जानते कि औरतों से किए वादे क्या कभी पूरे करने के लिए होते हैं। शादी में सात वचन तुमही दिए हो, एक्कओं पूरा किए आज तलक ? जब तुम लोग ही वचन पूरा नहीं किए और ससुरे ‘परमेसुअर’ बने बैठे हो ठप्पे से, तो हमारे एक-ठो वचन देने से कौन सा खतरा होने वाला है ?! हम कोई परमेसुअराई तो मांग नहीं रहे तुमारी। भइया सरकार चलाना घर चलाने से जियादा मुसकिल काम है। जब घर की बुनियाद सात झूठ पर टिकी है तो सरकार की बुनियाद सम्हालते हम कितना हलकान हो जाते हैं जानता है कोई ? शास्त्रों में लिखा है कि औरतों से बोला गया झूठ झूठ नहीं होता है .... उसको समझदारी कहते हैं। ’’
                         दरअसल एक बिहारी नेता ने महिला वोटरों से यह वादा कर डाला कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा देंगे। महिलाओं का कहना था कि आदमी लोग अपनी कमाई पीने में खत्म कर देते हैं। पीयें तो पीयें, लेकिन पी कर उनके साथ मारपीट करते हैं। इसलिए वे चाहती हैं कि राज्य में शराबबंदी हो। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। लेकिन सरकार को पता है कि जो सत्ता शराब बाँट  कर हाॅसिल की जाती है उसके लिए शराबबंदी एक तरह की आत्महत्या है। साठ साल से यही हो रहा है, जिसने बांटी, उसने आंटी। 
                             हर सरकार शराब का महत्व जानती है। जल्लाद हों या हत्यारे, या फिर वोटर ही क्यों न हों, काम अंजाम देने से पहले खूब पीते हैं। जनता होशहवास में रहे तो कई तरह के खतरे पैदा हो सकते हैं। समझदार हमेशा   इतिहास से सबक लेते हैं। एक बार नसबंदी करने के चक्कर में सरकार गिरी थी तो आज तक ठीक से उठ नहीं पाई है। निजी मामलों में गरीब आदमी भी हस्तक्षेप पसंद नहीं करता है। दारू पीना उसका निजी मामला है और इसे भी वह नसबंदी की तरह ले सकता है। इसलिए जरूरी है कि माता-बहनें देशहित में थोड़ा पिट-पिटा लें। सरकार इसके लिए दूध-हल्दी और बंडू बाम का इंतजाम कर देगी। चाहोगे तो एक रुपए में ‘पति पिटाई बीमा योजना’ भी शु रू की जा सकती है।  लेकिन ये बाद की बात है, औरतें अभी माने कि शराबबंदी हो रही है और आदमी मानें कि नहीं हो रही है।

’ आंटी - किसी चीज को अपनी अंटी/अपनी गांठ में कर लेना, बांध लेना, कब्जा लेना

हिन्दी के लड्डू


                                 ‘पंडिजी’ जाहिरतौर पर हिन्दीप्रेमी हैं और छुपेतौर पर अंगे्रजी प्रेमी। ऐसा है भई मजबूरी में आदमी को सब करना पड़ता है। देश  पढ़ेलिखे और समझदार मजबूर लोगों से भरा पड़ा है। एक बार कोई मजबूरी का पल्ला पकड़ ले तो फिर उसे कुछ भी करने की छूट होती है। मजबूरी को समाज बहुत उपर का दर्जा देता है। लगभग संविधान की धारा की तरह यह माना जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। अब आप ही बताएं कि महात्मा जी नाम जुड़ा हो तो कोई कैसे मजबूर होने से इंकार करे। मजबूरी हमारी राष्ट्रिय  अघोषित नीति है। सो पंडिजी को मजबूरी में  अपने बच्चों को अंगेजी स्कूलों में पढ़वाना पड़ रहा है तो मान लीजिए कि कुर्बानी ही कर रहे हैं देश की खातिर।
                        अब आपको क्या तो समझाना और क्या तो बताना। जब आप ये व्यंग्य पढ़ रहे हैं तो जाहिर तौर पर समझदार हैं। जानते ही हैं कि हर आदमी को दो स्तरों पर अपने आचरण निर्धारित करना पड़ते हैं। रीत है जी दुनिया की, षार्ट में बोलें तो दुनियादारी है। सामाजिक स्तर पर जो हिन्दी प्रेमी हैं वे निजी तथा पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी प्रेमी पाए जाते हैं। समझदार आदमी सार्वजनिक रूप से हिन्दी का प्रचार प्रसार करता है, मोहल्ले मोहल्ले घूम कर माता-पिताओं को समझाता है, प्रेरित करता है कि भइया रे अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम की पाठशाला में पढने के लिए भेजो और देश को अच्छे नागरिक दो। इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी को प्रेम करना वास्तव में देश को प्रेम करना है। और देश को प्रेम  करना हर आम आदमी का परम कर्तव्य है। जिसे कुछ भी करने का मौका नहीं मिलता हो उसे देशप्रेम का मौका तो अवश्य  मिलना चाहिए। हालाॅकि हिन्दी वाले जरा ढिल्लू किस्म के हैं। उनके पास जरा सा तो काम है कि देशप्रेमी बना दो, कोई बहुत प्रतिभाशाली मिल जाए तो अपने जैसा गुरूजी बना दो, लेकिन वह भी से नहीं होता। सितंबर के महीने में देश भर में हिन्दी के लड्डू बंटवाए जाते हैं। सरकार के हाथ में लड्डू के अलावा कुछ होता भी नहीं है। साल में एक बार हिन्दी का लड्डू नीचे तक पहुंच जाए बस यही प्रयास होता है।
                         पंडिजी की चिंता यह है कि तमाम हिन्दी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। गली गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ऐसे खुल रहे हैं जैसे मोहल्ले के चेहरे पर चेचक के निशान हों। वे इस कल्पना से ही पगलाने लगते हैं कि क्या होगा अगर सारे बच्चे अंग्रेजी पढ़े निकलने लगेंगे। देश हुकूमत करने वालों से भर जाएगा तो कितनी दिककत होगी। आखिर राज करने के लिए रियाया भी चाहिए होगी। हिन्दी नहीं होगी तो प्रजा कहां से आएगी। राजाओं के लिए प्रजा और प्रजा के अस्तित्व के लिए हिन्दी को प्रेम  करना जरूरी है। सरकार में मंतरी से संतरी तक इतने सारे हिन्दी प्रेमी भरे पड़े हैं कि पूछो मत। लेकिन एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूल में न पढ़ा रहा हो। ये त्याग है देश के लिए। सरकारी नौकर जनता का सेवक होता है। जनता मालिक है,  मालिक ही बनी रहे, ठाठ से अपनी सरकार चुने और ठप्पे से राज करे हिन्दी में।
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सरकारी नौकरी और हरे हरे

लोग कहते हैं सावन के अंधे को हरा हरा दिखता है। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो हमें पता नहीं लेकिन अच्छन बाबू का अनुभव ये है कि सरकारी अंधे को भी हरा हरा दिखता है। यों देखो तो अच्छन बाबू की दोनों आंखें वर्किंग हैं, लेकिन नहीं हैं। जब भी देखती हैं हरा ही देखती है। सरकारी कर्मचारी-यूनियन वाले लाल झंडा हिलाते हैं लेकिन इनका मानना है कि हम लोगों को वो भी हरा ही दिखाई देता है। सरकार ने कई बार नोटों के रंग बदल कर कुछ और कर दिये लेकिन सरकारी आदमी के लिए वो हर समय हरे हीे होते हैं। रोजाना वे हरे हरे कहते स्नान करते हैं और हरे हरे कहते पूजन। दफ्तर में कोई काम करना हो तो हरे हरे, न करने की वजह भी हरे हरे। हरा खुषी का प्रतीक है, देने वाले दे कर और लेने वाले ले कर मोक्ष का मार्ग तैयार कर लेते हैं। हरे हरे हों तो नीला आसमान भी हरा हरा। षिकायत करने वाले करते रहते हैं कि सरकार निकम्मी है, कोई काम ठीक से नहीं होता है। व्यवस्था की बातें षुरू होगी तो अंत का पता नहीं कब, कहां और कैसे होगा। लेकिन फिर भी सरकारी नौकरी जिसे मिल जाए तो समझो जन्नत मिल गई। ऐसा क्या है सरकारी नौकरी में ? अच्छन कहते हंै कि कुछ खास तो नहीं बस हरा हरा। सरकार कोई भी हो हमेषा बुरी लगती है और सरकारी नौकरी कैसी भी हो अच्छी लगती है।  अच्छन ने अपने बच्चे प्रायवेट स्कूल में इस लिए पढ़ाए क्योंकि सरकारी में मक्कारी होती है। और बच्चों को सरकारी स्कूल में टीचर लगवाया क्योंकि यहां मक्कारी होती है। करने को मिले तो मक्कारी जीवन का आनंद है। और यदि मक्कारी करने के लिए पांचवा, छःठा या सातवां वेतनमान भी मिले तो पक्का मान लो कि स्वर्ग से भी उपर आ गए। 
अच्छन का मानना हैं कि नौकरी सरकारी बेस्ट होती है उसके तीन कारण वे गिनाते हैं - पहला तो यही कि आप सरकारी हुए और जमाना आपको बाकायदा सरकारी दामाद मानने लगेगा। व्यवहारिक तौर पर देखें तो सरकार का दामाद सरकार से बड़ा होता है। वैसे तो इतना भी काफी है लेकिन मौका पड़ते ही ‘सरकार’ आप खुद भी बन सकते हैं। दूसरा जब आज के समय में आप सरकार हैं तो नामालूम राजे रजवाड़ों से बाकायदा उपर हैं जिनका कि प्रिवीपर्स भी बंद हो चुका है। आम आदमी तो आपके लिए चिकन-चूजों से ज्यादा नहीं। यह एक दैवीय अहसास है, इसी को सत्ता-सुख कहते हैं, नेताओं को पांच साल के लिए नसीब होता है लेकिन आपको जिन्दगी भर के लिए। तीसरा, पकड़े जाने पर सरकारी भृत्य के यहां भी करोड़ों की अघोषित संपत्ती मिलती है। इससे नहीं पकड़े गए क्लर्कों अफसरों के सम्मान मंे इतना इजाफा हो जाता है कि उनकी छाती में दस से पंद्रह इंच का की वृद्धि हो जाती है। 
कल ही अच्छन रिटायर हुए हैं, आज वे मित्रों के बीच बैठे नए नए किस्से सुना रहे हैं मानो जंगल से लौट कर षिकारी बता रहा है कि उसने कैसे कैसे षेर और हिरण मारे। साथ में ये भी बोले रहे हैं कि भइया काजल की कोठरी से बेदाग निकल आए हैं। उनका मतलब है कि पकड़े नहीं गए हैं।  भ्रष्ट वही है जो पकड़ा जाए। जो पकड़ा नहीं गया वो देषसेवक है। आइये हम सब देषसेवक अच्छन जी के लिए ताली बजाएं। 
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बुधवार, 22 जुलाई 2015

तुम तो यार घोचूंनंदन हो

              अपने अच्छे दिनों की उम्मीद में वह अखबार में वैवाहिकी काॅलम देख रहा था। वास्तव में जवानी की दहलीज पर अकेला खड़ा खड़ा ऊब चुका वह, ऐसा मान रहा था कि शादी के बाद हर आदमी के अच्छे दिन आ ही जाते हैं। हाथ की रेखाएं और जन्मकुण्डली वह हमेशा अपनी पतलून की दांईं जेब में तैयार ही रखता है। जैसे ही कोई ज्योतिषी दिखा कि दन्न से उसके सामने फैला  दी। अच्छे दिनों का सारंगी वादन सुन कर वह इतना तन जाता जितना कि साठ साल में उसके  बाप-दादा भी कभी नहीं तने। जवानी के सपनों की मत पूछो, फोरलेन हाईस्पीड होते हैं और देखने वाला बिना ब्रेक के। बात शादी की हो तो मल्टीकलर, घोड़ी बैंड बाजा सब एक साथ, यानी अच्छे दिन फोर्थ-फिफ्थ गियर में। ताडू ज्योतिषी ने कहा आपके अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं, थोड़ी बहुत बाधाएं हैं वो मैं हटा दूंगा। कुछ दे जाओ और घर जा कर प्रतीक्षा करो। समझो अच्छे दिन पीछे पीछे मेट्रो एक्सप्रेस से आ ही रहे हैं।
                  एक सुबह उसे विज्ञापन से पता चला कि किन्हीं भले लोगों को योग्य वर चाहिए। वह योग्य है इसमें उसे कोई शक नहीं था, रहा सवाल दूसरों का तो आज दूसरों पर कौन यकीन करता है। संपर्क हुआ, बात हुई, लड़की वाले अच्छे दिनों का शगुन ले कर आ गए। ऐसे मौकों पर लड़कों को अक्सर घंटियां सुनाई देती हैं, ज्यादातर मामलों में वे इसे मंगलध्वनि मान लेते हैं। लड़की थी, उसकी छोटी बहन यानी साली साहिबा थीं, लड़की के भाई, मामा, अम्मा, भौजी, ताऊ , ताई यानी पूरी पार्टी साथ। मामा बोले शादी तुरंत करेंगे, आखिर सब कारेबारी हैं, और जल्दी लौटना चाहते हैं। अंधा क्या चाहे एक अंधी। कुछ उसने नहीं देखा-सोचा, … कुछ वे नहीं देख-सोच रहे। मौके पर मार ले वो मीर। उसने भी गरम तवे पर शादी के दानों को फटाफट भुना लिया। वो क्या कहते हैं आप लोग ‘चट मंगनी और पट ब्याह’। हो गया, लड़की रो-घो के बाकायदा उसके घर में आ गई। भला और किसे कहेंगे अच्छे दिन। हप्ता भर में चार मंदिर, आठ होटल, पांच सिनेमा और हज्जारों की खरीददारी हुई। स्क्रिप्ट की मांग के बावजूद यहां कुछ और नहीं बताया जाएगा, हालांकि सामान्य परिस्थितियों में सब कुछ सामान्य होता रहा। 
                         आठवें दिन की सुबह वह कुछ देर से उठा, लगा जैसे रात को कुछ नशा करके सोया था। पता चला कि दुल्हन मेंहदी लगे हाथों समेत गायब है। फोन लगाने के लिए हाथ बढ़ाया  तो चला  कि अपना  फोन भी गायब है। शंका  हुई तो अलमारी देखी, जेवर, कपड़े वगैरह सब गायब। और तो और खुद उसके कपड़े भी नदारत थे । वह बाहर निकल कर शोर मचाना चाहता था लेकिन लुटापिटा, ‘अर्द्धनग्न-पीके’ कैसे तो बाहर निकलता और किसको कुछ कहता। मोहल्ले वाले सेन्सर बोर्ड की तरह माडर्न तो हैं नहीं। 
                     दिनों बाद विकास टी स्टाल पर वह एक पुलिस वालाजी साहब को समोसों के भोग के बाद चाय सेवन करवाते हुए बता रहा है कि वो रिश्तेदार नहीं पूरी गैंग थी लुटेरों की। किसी तरह मेरे अच्छे दिन बरामद करवाओ साहब। 
                      साहब बोले-‘‘ तुम तो घोचूंनंदन हो यार, अच्छे दिन ऐसे आते हैं क्या .... हनुमान जी का परसाद है कि हाथ आगे किया और फांक लिया घप्प से ! ..... आगे घ्यान रखना, फिर मत फंस जाना। ’’
                     ‘‘ सो तो ध्यान रखेंगे साहेब,  लेकिन अभी इस केस में कुछ कीजिए ना।’’
                  ‘‘ पुलिस केस है, कोर्ट कचहरी में बीस-पच्चीस साल तो लगते हैं। .... बरामद हो जाएगा .... लेकिन हिम्मत रखो .... पच्चीस साल .... यूं निकल जाएंगे .... अभी देखते देखते ।’’
                                                                     
                                                                            -----

बुधवार, 8 जुलाई 2015

व्यापम पर स्यापम

                       
  विरोधी दल वाले हाथी-हाथी कहते छाती कूट रहे हैं, जनता भी साफ देख रही थी कि वो हाथी है, मीडिया भी चिल्ला रहा है कि हाथी है लेकिन मंत्री के लिए वह चूहे का बच्चा। उनका कहना था कि आप चीजों को बड़ा करके बता रहे हैं। जिसे हाथी बताया जा रहा है दरअसल वो रस्सी मात्र है। सब जानते हैं कि मेडिकल का क्षेत्र प्रतिभा का क्षेत्र है, वहां उन्हें ही सफलता मिलती है जो प्रतिभाशाली हैं। साठ साल तक लोग ईंट-गारा, डामर-सड़क से अठन्नी-चवन्नी उठाते रहे अगर प्रतिभा होती तो अवसर उस समय भी उपलब्ध थे। उनकी ईर्ष्या साफ दिख रही है, वे विरोध नहीं कर रहे हैं छाती कूट रहे हैं। ‘हाय हम न हुए’, ..... सच बात ये है कि उन्हें पछतावा है। लेकिन जो परिवार पूजन करने को राजनीति कहते हैं वे कुछ नया करने का सोच भी कैसे सकते हैं। आज रस्सी को हाथी बता रहे हैं, कल को जब हाथी जैसा कुछ होगा तो क्या ‘डायनोसार’ चिल्लाएंगे। इससे कुछ नहीं होगा, हम सबको देश  के बारे में सोचना चाहिए। दे से उपर कुछ नहीं है, हमारी माता-बहेनों से उपर कुछ नहीं है। अभी यूपी-बिहार लूटना है, मंदिर बनाना है, गंगा को साफ करना है, उज्जैन में संत-महात्मा आने वाले हैं उन्हें नहलाना है, देव उठ जाएंगे तो लाड़ली लड़कियों के ब्याह कराने हैं। बहुत काम है सरकार के पास, विरोधियों की तरह खाली नहीं बैठे हैं मातृपूजन में मंझीरे बजाते। तो भाइयो और बहनो, प्रदे के विकास के लिए आइये सब मिल कर काम करें। 
                        दूसरे बोले, देखिए हम डरते नहीं किसी से। कानून सबसे उपर है, इसलिए सबसे उप्पर वाले टांड पर बंधा रख दिया है। पार्टी बहुत जिम्मेदारी से काम करती है। जिम्मेदारी हमारी पहचान है। अगर घोटाले या हत्याएं करेंगे तो जिम्मेदारी से करेंगे वरना नहीं करेंगे। जब हम किसी काण्ड की जिम्मेदारी नहीं ले रहे हैं तो इसका साफ मतलब है कि उसमें हमारा हाथ नहीं है। इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए किसी को ! जो आया है संसार में वो एक दिन जाएगा, इसके लिए ईश्वर का विधान जिम्मेदार है पार्टी का नहीं। 
                      पीले कपड़ों में फंसे एक और ‘जी’ बोले, - कोई घोटाला नहीं है न कोई षडयंत्र। व्यापम एक संस्कृति है। भरत को राजगद्दी दिलवाने के लिए राम को चौदह वर्ष वन में भटकने  को क्या कहेंगे आप। बस सेम टू सेम हुआ है। कई क्षेत्रों में राम राज्य लाने का वादा तो हमेशा  करते रहे हैं हमारे पुराने नेता भी। इसमें नया क्या है जिस पर इतना हल्ला मचाया जा रहा है। विरोधियों को संस्कृति का ज्ञान नहीं है और वे चाहते हैं कि लोग अधार्मिक हो जाए। लेकिन सरकार भागवत-भंडारे में लगी श्रद्धालु जनता को बरगलाने नहीं देगी। सरकार से भले न डरें पर विरोध करने वालों को यमराज  से अवश्य  डरना चाहिए। अगर परंपरा पर ध्यान दें तो पाएंगे कि सब उसके अनुरूप हो रहा है। कहा गया है समरथ को कोई दोष नहीं। जो समर्थ है उसके लिए सब सुलभ होता रहा है, यही आदर्श  परंपरा है। इसमें इतना चौंकने वाली कोई बात नहीं है। हमारा कहना है कि सब लोग शांत रहें, दिन में सिनेमा और शाम को सीरियल देखें। सुबह योग करें, लंबी सांस भरें और धीरे धीरे छोड़ें । दो-चार दिन में व्यापम गैस से मुक्ति मिल जाएगी। 
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बुधवार, 1 जुलाई 2015

मस्त-मौन


  मौन किसी एक पार्टी या व्यक्ति की बपौती नहीं है. खुल्ला खेल लोकतंत्र का, जो भी मौन का विरोध करता हुआ कुर्सी कब्ज़ा ले बाद में अधिकार पूर्वक मौन लगा सकता है. मौन राजनीति की लंगोट है. जिसने बांध ली वो पहलवान. अब अखाडा उसका, दांव उसके, जीत उसकी. पांच साल उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. संविधान में मौन के खिलाफ कोई कानून नहीं है. आदमी कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करके लगा सकता है. मौन लगाने से आदर्श व्यवस्था बनी रहती है. सबसे ज्यादा बलात्कार हमारे यहाँ होते हैं, चूँकि ज्यादातर मामलों में मौन-संस्कार प्रभावी रहता है इसलिए व्यवस्था पर कोई आंच नहीं आती है. देवताओं तक ने किया और मौन लगा गए. आज भी हर तरह के बलात्कार का कारण मौन है. पुलिस मौन धारण किये आदमी पर खुलेआम लाठीचार्ज भी नहीं करती है, हालाँकि मुंह खुलाने के लिए उसे अपने विशेष कक्ष में तरह तरह के आसान करवाना पड़ते हैं. अंडरवर्ल्ड और राजनीति में मौन का वैवाहिक जीवन में करवाचौथ का है.
लेकिन हम यहाँ मौन पर मौन नहीं लगाएंगे, बात करेंगे. मौन दरअसल एक बहरी चीज है. जो मौन होता है वो ऊपर से मौन होता है. उसे अंदर इतना शोर चल रहा होता है कि मुक्त भाव से साँस ले तो चीखें सुनाई पड़ने लगाती हैं. आप जानते ही हैं कि टीवी म्यूट कर देने से अंदर की आवाजों पर असर नहीं होता है. मौन आदमी म्यूट टीवी होता है, वो नहीं होने की तरह सिर्फ होता है. आपको संतोष होगा कि हाँ, हमारे पास टीवी है. नहीं होता तो कितना खाली खाली लगता.
            पिछली बार जब देश का पदेन मुखिया मौन रहा तो रह किसी ने उनका मजाक बनाया. ईश्वर में मुंह में जुबां दी है तो इसलिए कि मौन की खिलाफत की जा सके. अब पता चला कि मौन एक कला है. जब खुद हाईकमान मौन हो तो उसके मौन में सुर ,मिलाना त्याग है. तो मौन एक तरह का त्याग भी है.
             राजनीति को ज्यादातर लोग गंदा बोलते हैं. वे मौन को नहीं जानते. मौन एक शानदार राजनीति है. सारा देश भी छाती कूट कूट कर सवाल उछलता रहे और आप मुस्कराते हुए दिल की बात करते रहिये. पांच साल आराम से निकल जायेंगे. अगर कोई साध ले तो मौन हाईकमान से भी बड़ा होता है, बशर्ते वह पुत्रमोह से पीड़ित ना हो. मौन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि विरोधी हमेशा मौन का विरोध करते हैं, और मौनी अक्सर बच जाता है.
             समाज बदल रहा है और सोच भी बदल रही है. दुनिया देख रही है कि मौन एक योग है. आँखे बंद कीजिए, कानों में अंगुली ठूंस लीजिए, और मुंह कास कर बंद कर लीजिए. अब लंबी सांसें भरिये और धीरे धीरे छोडिये. ऐसा तब तक करिये जब तक कि सवालों का राम नाम सत्य नहीं हो जाये. कोई पूछने पर आमादा ही हो तो साफ साफ कहिये कि कोई इस्तीफा नहीं देगा, सब योग करेंगे. आप भी योग करो, करते रहो, एक दिन तनावमुक्त हो जाओगे.

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बुधवार, 17 जून 2015

लेखन एक खुजली

                    रचनात्मकता के बिना लेखन एक खुजली है। माना जाता है कि खुजली स्वातःसुखाय होती है, जितना खुजाओ उतना बढ़ती है। जिन्हें हो जाती है उनके लिए खुजाना ही रचनात्मक होना है। इसलिए वे आड़े-तिरछे हो कर, खादी-रेशम पहन कर, नहा-धो कर यानी सब तरह के टोटकों से खुजाता है। खुजली के न नियम होते हैं, न सलीका और न ही व्याकरण या परिभाषा। खुजली बस खुजली होती है मीठी मीठी, बस ऐसी जगह बैठ जाइये जहां दूसरों की नजर में आ रहे हों और खुजाने लगिये। कुछ दिनों में देंखेंगे  कि लोग आप पर दृष्टि रखने लगे हैं। बस समझ लीजिए कि सफलता मिल गई। अब जितना खुजाते जाएंगे लगेगा कि इज्जत बढ़ रही है। इज्जत का ऐसा है कि जिनके पास करने को  कुछ नहीं होता है  वे टाइमपास  के लिए दूसरों की इज्जत करने लगते हैं। गीता में लिखा भी है कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए। इज्जत करने से धर्म-कर्म दोनों की पूर्ति हो जाती है और व्यस्तता  भी बनी रहती है । इसलिए इज्जत की चिंता नहीं करना चाहिए, वो तो मिलनी ही है। अगर नौकरी धंधा करते हैं तो मान लें कि यह खुजलीकर्म में बाधक है। ऐसे में वीआरएस ले लेने का चलन है, दुकान हो तो बंद कर सकते हैं, खेतीबाड़ी हो तो मुक्त हो लें। खाज-संसार में फ्रीलांस-खुजली का आपना महत्व होता है। बायोडेटा में फ्रीलांस लिख दो तो बीए एमए की डिग्री पर भी भारी पड़ जाता है। लोग उनका लोहा मानते हुए दीदे फाड़ कर देखते हैं कि मात्र खुजा-खुजा कर वे जीवन यापन कर रहे हैं। अक्सर न चाहते हुए भी उनके हाथ जुड़ जाते हैं, दूसरी सफलता मिली।
                               आमतौर पर खुजावक के पास खुजाने का कोई स्पष्ट कारण नहीं होता है। पूछने पर गंभीर हो कर कहा जा सकता है कि प्रतिभा के कारण खुजा रहे हैं, कुछ प्रेरणा के कारण भी खुजाने का दावा कर सकते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी लोग नाखून घिसते देखे जाते हैं। बहुत से लोग यह बताते हैं कि खानदान में कभी कोई खुजाया करता था, मसलन पिताजी, दादाजी, नानाजी टाइप कोई, सो देख देख कर वे भी खुजाने लगे हैं। इस तरह अपनी खुजली को पारिवारिक परंपरा की खुजली कह कर अतिरिक्त सम्मान की रचना की जा सकती है। खुजलीवान उन लोगों के बीच विशिष्ट  होता है जिन्हें यह बीमारी नहीं होती है। लोग आंखें गोल करके मिलते हैं - ‘‘ अरे भई  आप तो बड़े खुजलीकार हैं !! आपसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई। खुजाना बड़ा कठिन काम है साहब, उपर वाला जिसको नैमत देता वही खुजाता है। अब समाज में हैं ही कितने खुजाने वाले। ’’ लीजिए आज का दिन सार्थक हुआ, फिर सफलता मिली। 
                       कबीर ने कहा है कि ‘ सुखिया सब संसार, खावै और सौवे, दुखिया दास कबीर, जागै और रौवे। इसे फार्मूला मान कर अनेक खुजलीकार रात में खुजाते हैं । कहते हैं खुजाना एकांत में ही संभव है। दिन में खुजाने वाले भी एकांत की तलाश में रहते हैं। 
                 किसीने पूछा - ’’ आप अंग्रेजी में खुजाते हैं या हिन्दी में ?’’
              ‘‘अंग्रेजी में खुजाने से पैसा अच्छा मिलता है, लेकिन मैं तो हिन्दी में खुजाता हूं क्योंकि हिन्दी में स्पेलिंग मिस्टेक का खतारा नहीं रहता है।’’ वे बोले।
               ‘‘ ऐसा कैसे !! ये दिक्कत तो हिन्दी में भी होती होगी। हर भाषा में होती है।’’
              ‘‘ इसके दो कारण हैं, एक तो हिन्दी हमारी अपनी मातृभाषा है सो हर तरह का अधिकार बनता है हमारा। दूसरा हिन्दी वालों का दिल खासा बड़ा होता है। वे अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते हैं। दूध को चाहे ‘दुध’ लिख दो चलेगा, पर भाव सही होना चाहिए। हिन्दी वाले भाव के भूखे होते हैं ... कविता में भी ‘भाव’ सबसे पहले देखा जाता है, चाहे पतली या पनेली कैसी भी हो।’’
                  ‘‘ कविता भी आप स्वयं ही खुजाते हैं ?’’ 
              ‘‘ और नहीं तो क्या ..... जहां तक हाथ पहुंचता है खुद ही खुजाते हैं वरना पीठ तो हर किसी को दूसरे से ही खुजवाना पड़ती है । ’’
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शुक्रवार, 5 जून 2015

आशंका का मौसम

               
    हमारे यहां आशंकाएँ  व्यक्त करने का एक विभाग है जो खासतौर पर मौसम के मामलों में हस्तक्षेप करता दिखाई देता है। समय समय पर कुछ घोषणाएं कर देना उसकी ड्यूटी है। कोई  विभाग अपना काम करे इससे ज्यादा किसी को और क्या चाहिए। घोषणाएं कभी कभी सही भी निकल जाती हैं जिसकी जिम्मेदारी विभाग की नहीं नेतृत्व के सौभाग्य की होती है। नीचे विभाग और उपर मौसम, छेड़छाड़ चलती रहती है। विभाग कहता है बारिश  अच्छी होगी, मौसम मुंह  चिढ़ा देता है। जब कहता है वर्षा कम होगी तो बादल झूम के बरसते हैं। दरअसल मौसम विभाग का काम है आशंका व्यक्त करना और यह काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। बहुत खर्चीला काम है जी। बड़े बड़े वैज्ञानिक और अफसर इस काम में मुस्तैदी से लगे होते हैं। एक पूरा महकमा है जिस पर सरकार करोड़ों खर्च करती है तब कहीं जा कर मानसून के पहले एक अदद आशंका व्यक्त हो पाती है। मौसम आखिर मौसम है, गरीब की जवान छोरी नहीं कि जरा जबान हिलाई और आशंका व्यक्त कर दी। 
                  कुछ लोग हर चीज को गंभीरता से ले लेते हैं, मजाक तक को भी। कुछ मारे डर के दुबक जाते हैं, जैसे केन्सर के अंदेशे  में तम्बाकू-सिगरेट छोड़ देते हैं और शराब पीने लगते हैं। क्यों न पियें, सरकार तम्बाकू-सिगरेट पर प्रतिबंध लगा रही है और शराब की दुकान हर दूसरी गली में है तो डाक्टरों से पूछ कर ही खुलवाई होगी। भरोसा है सरकार पर, खुद जनता ने जिम्मेदारी से चुनी है। लेकिन ऐसे भी कम नहीं हैं जो मानते है कि जन्म और मृत्यु उप्परवाले के हाथ में है, उपर वाला जन्म-मृत्यु मसलता रहता है और नीचे वाला बेफिक्र तम्बाकू-चूना। अपना अपना काम करो भई, डू नाट डिस्टर्ब। जब आना हो आ जाना, बुलाना हो बुला लेना।
              आशंका के बारे में आपको पता ही होगा कि वो कहीं भी, कभी पैदा हो जाती है। पैदा हो जाने के बाद आमतौर पर आशंका को दबाए जाने का चलन है। लेकिन यहां भी विज्ञान के नियमानुसार जितना दबाया जाता है आशंका उससे दुगनी ताकत के साथ बाहर आ जाती है। गीता ज्ञान है कि जो जन्मा है वो मरेगा भी। आशंका पैदा होती है तो उसे व्यक्त भी होना ही है। अगर दक्षता पूर्वक आशंका के बीज बोए जाएं तो सत्ता की हरी हरी फसल भी लहलहा सकती है। लेकिन इधर जब से मौसम विभाग ने सूखे की आशंका व्यक्त की है तो रियल किसानों के प्राण सूख गए हैं। जिन्होंने आत्महत्या स्थगित कर रखी थी वे पुनर्विचार की मुद्रा में आ रहे हैं। अब तक अपने मदारी को देख देख कर शेयर बाजार बंदरों जैसा उछल रहा था, आशंका सुनी कि पट्ट-से लुढ़क गया। अच्छे दिनों का ढोल भी मजे में बज रहा था कि अचानक एक तरफ का चमड़ा फट गया। जो दलहन-तिलहन बाजार में ढ़ीले थे आनन फानन टाइट हो कर गोदाम का रुख करने लगे। चारों ओर तेजी की लाठी के साथ पथसंचलन शुरू हो गया। गिनती की कौडी लाने वाले तमाम घर मुरझा गए। मौसम विभाग पर यों तो किसी को विश्वास  नहीं है लेकिन क्या भरोसा काली जुबान का। इधर विभाग मानता है कि कर्म किये जा फल की चिंता मत कर। बिना वैधानिक चेतावनी के उसने आशंका व्यक्त कर अपना अनुष्ठान पूरा कर दिया है अब आप मानो या न मानो आपकी मर्जी। 

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शुक्रवार, 22 मई 2015

तबादला-नीति

                   
  भड़कते सूरज और पिघलती सड़कों के बीच सत्ता के गलियारों में कहीं तबादलों का मौसम भी रेंग रहा है। घरों से वही लोग निकल रहे हैं जिनके हाथ में ‘चलो बुलावा आया है’ के संदेश  हैं। हर कोई एक ही दिशा  में बढ़ रहा है और उसका नाम है हिमाला भवन। सुना है सरकार यहीं बैठती है। वैसे देखा आए तो सरकार है कहीं भी बैठ सकती है। बैठे ही यह जरूरी भी नहीं है, बैठे बैठे, नहीं बैठे नहीं बैठे। हालांकि मुनादी तो आठ घंटे बैठने की है लेकिन आपको पता ही होगा कि सारे सरकारी काम बैठ कर थोड़ी होते हैं, कुछ के लिए उठना भी पड़ता है। उठने में शक्ति खर्च होती है, अब शक्ति खर्च होगी तो रीचार्ज भी कराना ही पड़ेगा। समझ रहे हैं ना आप, इतना समझ लेने के बाद ही आदमी राजधानी का टिकट कटाता है। 
             यों कायदे से वे जयकिशन हैं लेकिन हिमाला भवन में जेकीचेन नाम से सिक्कों की तरह बिन्दास चलते हैं। तबादलों के इस मौसम में वे जनसेवा के पुण्य कार्य में व्यस्त हैं। ईश्वर  के चार हाथ होते हैं। या यों कह लीजिए कि उसके चार हाथ हैं इसलिए ईश्वर  है। वह एक से दरवाजा बंद करता है तो दूसरे से खोलता भी है। सरकार के आठ हाथ होते हैं आक्टोपस की तरह। एक हाथ से पकड़ती है तो दूसरे किसी हाथ से छोड़ती भी है। जानकारों का कहना है कि पकड़ती इसलिए है कि छोड़ सके। पकड़ने और छोड़ने के बीच कुछ और हाथ भी होते हैं और सब बिना चूक अपना काम करते हैं। 
              जेकीचेन के सामने एक नए नए विधायक उपस्थित हैं जो अभी तक यह तय नहीं कर पाए हैं कि रौब गांठें या कि धिधिया कर काम निकालें। उनके हाथ में पांच नामों की एक सूचि है जिनका तबादला वे चाहते हैं। 
           ‘‘जी, मुझे पता है कि आप खुद विधायक हैं। आपके ये पांचों नाम मैंने उपर पहुंचा दिए थे। आप चाहें तो खुद उनसे बात कर लें।’’ जेकीचेन ने बहुत सफाई से विधायकजी के सामने चुनौती रख दी कि हो हिम्मत तो बात कर लो। 
              आजकल हालात अच्छे नहीं हैं। सरकार दो-तिहाई बहुमत के साथ चल रही है और अपने विधायकों को भी तबेले की भैंसों से ज्यादा कुछ नहीं मानती है। ऐसे में उपर बात करना अपना कुट्टी-चारा करवाना हो सकता है। लेकिन तब जरूरी हो जाता है जब पीछे पांच बंदे उम्मीद के साथ खड़े हों । 
             ‘‘ सरजी मैं पार्टी का विधायक हूं, पांच नाम आपकी सेवा में दिए हैं ये तो आपको करना ही पड़ेंगे सरजी। आखिर मुझे भी इलाके में मूं दिखाना है सरजी ।’’ 
               ‘‘ फोन पे ये बात नहीं हो सकती है। आपको पता होना चाहिए कि तबादले नीति के अनुसार होते हैं।’’ उधर से आवाज आई, विधायक को पता नहीं था कि मंत्री बोल रहे हैं या उनके पीए का पीए।
                     ‘‘ देखिए सरजी, ये तबादले तो आपको करना ही पड़ेंगे चाहे कैसे भी हों। आखिर ये हमारी इज्जत का सवाल है सरजी।’’
              ‘‘राजनीति में इज्जत का क्या काम विधायकजी ? और पार्टी को किसीकी इज्जत से क्या लेना देना !? आप पता कर लो, तबादले नीति के अनुसार ही होते हैं। ’’ उधर से दोबारा नीतिराग बजा।
              ‘‘ सरजी देखिए मैं कोई उल्टा-सीधा बयान दे मरूंगा । फिर मत कहियो कि पार्टी की छबि खराब कर दी।’’
                ‘‘ देखो जी मुर्गी जब बीट करती है तो वो उसकी निजी बीट होती है और जब अंडा देती है तो वह पोल्र्टी का होता है। हाईकमान राजनीतिक के सेलीब्रिटी शेफ हैं, बीमार मुर्गी को बिरयानी में बदल देते हैं। आप नाराज न हों नीति के संबंध में गौर करें तो ठीक होगा।’’
                   अब जेकीचेन के मुंह खोलने का वक्त हो गया था। बोले - ‘‘ जब वे बोल रहे हैं कि तबादले नीति के अनुसार होगें तो आप ऐसा करें ..... पांचवे माले पर कमरा नंबर पांच सौ पचपन में मैडम नीति राजपाण्डे से मिल लें।’’
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रविवार, 10 मई 2015

गांधीजी के छोड़े काम

                      देखो भइया ऐसा है कि गांधीजी के नाम से गुजारा भत्ता मिल रहा था और पार्टी चल रही थी मजे में ये कोई छोटी बात नहीं है। पार्टी वाला कोई कुछ करे न करे, गांधीजी के किए का टेका आज तक काम आया है। और सच्ची बात ये है कि नोटों पर गांधीजी इसीलिए हैं कि जनता को कुछ याद रहे न रहे उनका चेहरा जरूर याद रहना चाहिए। गरीब की फटी जेब से लेकर अमीर की तिजोरी तक सिर्फ 'गांधीजी ' का ही आना-जाना है। दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद शाम को मजदूरी लेनेवाले और देनेवाले के बीच में  कौन 'मोहन' है ? पार्टी जानती है कि उसके कार्यकर्ता राजनीति में गांधी-निष्ठा के कारण ही आते हैं। जो काम किसी से नहीं होता वो गांधीजी से ही करवाया जाता है। श्रद्धा की यह गंगा उपर से नीचे की तक सबको भिगोती आई है, सब पवित्र हैं। साठ साल में पार्टी की रग रग में गांधी की गंध बस गई है। कुछ छातीकूट विरोधी इसे गलतियों में शुमार करते आए हैं तो उन्हें याद दिला दें कि गांधीजी ने साफ साफ कहा था कि -‘‘आजादी का कोई अर्थ नहीं है यदि इसमें गलतियां करने की आजादी शामिल न हो।’’ जनता ने आजादी का मजा लिया पार्टी ने गलतियों का। 
                  इधर पार्टी का संकट बढ़ गया है। गांधीगण गांधीजी को भूल गए और गांधीछाप के फेर में ऐसे पड़े कि बार बार धरे गए। जनता गांधी विरोधियों के बहकावे में आ गई और अपने आगे-पीछे सहित उनकी हो गई। अब वे राजनीति को बीहड़ और सत्ता को घोड़ा समझे मूंछ मरोड़ रहे हैं। गुजरात में मुर्गी अंडा देती है तो वो अंडा मुर्गी का नहीं गुजरात का माना जाता है। बापू का जनम गुजरात में हुआ तो वे किसी और के कैसे हो सकते हैं। खासकर घर वापसी के इस मौसम में उन्हें उस पार्टी से इस पार्टी में लाना जरूरी था। जब जब भी जरूरी समझा गया उन्होंने गांधीजी का पहले भी खूब आदर किया है। ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध भी उन्हें स्वर्ग की उंचाई प्रदान की। 
                     बापू को वो पूरी तरह से खींच ले गए और पुरातन पार्टी खड़े खड़े गुबार देखती रही। बाद में जनता के सामने जा कर कहा कि गांधीछाप लूटने और गांधीजी को लूट ले जाने में बड़ा फर्क है, लेकिन किसीने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद पटेल पकड़े गए, सुभाष उठाए, शास्त्री और नरसिंहराव भी खेंच लिए। एक एक कर सबकी घर वापसी होने लगी। अब बचे हुए चेहरों को बचाना एक समस्या हो गई। बिना मुआवजे के चेहरों का अधिग्रहण हो रहा है। पार्टी की युवाशक्ति छुट्टी मना कर लौट आई है, अब देखना इस लूट का विरोध। अरे भई जो गांधीविरोधी रहे हैं वो गांधीवादी कैसे हो सकते हैं ! ठोक के पूछेंगे कि कैसे पूरे करोगे गांधीजी के छोड़े काम ? 
                उधर जवाब में वे मानते हैं कि बड़ी जिम्मेदारी है उनके कंधों पर और वे पूरे करेंगे गांधीजी के छोड़े काम। किसी को सिखाने की जरूरत नहीं है और न ही कोई टोकाटाकी करे। बापू ने सत्य बोला और झूठ छोड़ा है। उन्होंने अहिंसा को अपनाया और हिंसा को छोड़ा है। शांति को रखा क्रोध को छोड़ा, बुरा देखना छोड़ा, बुरा सुनना छोड़ा और बुरा बोलना छोड़ा। उन्होंने जो छोड़ा है उसे हमने पहले से ही अपना रखा है।
                 एकता एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। इसके लिए जरूरी है कि समाज टुकड़ों में बंटा रहे। लोग भले ही सांप्रदायिक कहें, दक्षिणपंथी कहें तो कहते रहें, लेकिन एकता की प्रक्रिया गांधीजी की इच्छा के अनुसार ‘सतत’ चलाई जाती रहेगी। उन्होंने ब्रह्मचर्य का महत्व बताया है। उसके बारे में ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है, सब जानते ही हैं। बापू बोले थे - ‘‘ व्यक्ति अपने विचारों से निर्मित प्राणी है, वो जो सोचता है वही बन जाता है।’’ किन्तु सच्चाई आपके सामने है, सोचा तो कइयों ने होगा लेकिन जो बनना जानता  है वही बना।
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शनिवार, 9 मई 2015

दिव्य-नगर के दीवाने

                     पहले अच्छी तरह समझ लो, स्मार्ट सिटी यानी दिव्य-नगर। दिव्य-नगर में हर चीज दिव्य यानी बड़ों के कायदे से होगी। जैसे दिव्य नागरिकों की सुविधा के लिए हर दिव्य-नगर में स्विसबैंक की एक लोकल शाखा रात-दिन काम करेगी। दिव्य नागरिक लोग वोट नहीं सिर्फ आशीर्वाद यानी चंदा देंगे। सरकारें ब्रेल लिपि में उनके संदेश पढ़ने में दक्ष होंगी और इषारों को पहले से अधिक समझेंगी। विकास की योजनाएं दिव्य-नगर के दफ्तर से अनुमोदित होंगी। मंत्री शपथ लेते ही मंदिर से पहले दिव्य-नगर जाएंगे, हालांकि वहां ना कोई धर्म होगा न ही ईश्वर, फिर भी पूजा होगी और वफादारी की चादर चढ़ाई जाएगी। समय समय पर हरे-पीले झण्डों का उपयोग किया जाएगा लेकिन लाल झण्डे पूर्ण प्रतिबंधित रहेंगे। सामाजिक जीवन प्रतिस्पर्धापूर्ण होगा। विवाह नहीं होंगे, लिव-इन संबंधों का दिव्य चलन होगा। बेटियां पैदा नहीं होंगी, किन्हीं आरामदेव बाबा की बूटी से बेटे ही पैदा होंगे। देवियां खुद गर्भवती नहीं होंगी, किराए की कोख का अधिग्रहण होगा। अस्पताल में मरीजों से ज्यादा डाक्टर और उससे भी ज्यादा नर्सें होंगी। दिव्य नागरिक बीमा वसूलने के लिए समय निकाल कर बीमार होंगे। स्वस्थ होने पर उन्हें प्रमाणपत्र मिलेगा जो राष्ट्रिय  सम्मानों के चयन में मान्य होंगे। 
                  दिव्य-नगर में सिर्फ दिव्य लोग रहेंगे। भारतीय संस्कृति वाली ‘धोती-साड़ी पब्लिक’ ढीलीढ़ाली और लजाऊ होती है, एक तरफ से नीची करो तो दूसरी तरफ ऊंची हो जाती है। स्मार्ट पब्लिक सब तरफ से ऊंची होती है। देखने वाला ‘इंटरेस्ट’ के साथ दीदे फाड़ कर देखता है और विकास की भावना से चाहता है कि और थोड़ी ऊंची हो जाए। सरकारें भावनाओं की कद्र करना चाहती है। दिव्य-नगर में कोई आम रास्ता नहीं होगा, हर रास्ता दिव्य रास्ता होगा। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं है कि जो लोग टोले-तबेले में रहने के आदी हैं उनका प्रवेश प्रतिबंधित होगा। 
                  सरकार पर्यटन को बढ़ावा देना चाहती है, पर्यटक झोपड़पट्टियों में गरीबी के और अधनंगों के फोटो खींचने लगते हैं। एक गलत इमेज जाती है दुनिया में हमारी। कुछ दिव्य-नगर होेंगे तो माहौल बनेगा विकास का। विकास हो ना हो माहौल होना चाहिए। माहौल विकास से भी बड़ा होता है। लोकतंत्र में तो माहौल किसी करिश्मे से कम नहीं है। एक बार महौल बन जाए तो सरकार भी बन जाती है। भूखे, नंगे, गरीब माहौल की हवा से गुब्बारे की तरह फूल सकते हैं, दिव्य-नगर एक हवा है। 
                  यों देखिए तो क्या नहीं है देश में। हवाई जहाज हैं, एसी ट्रेनें हैं, बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं हैं, करोड़ों की लागत वाले लेट हैं, बड़े अस्पताल और बहुत काबिल डाॅक्टर हैं, कारों की तो पूछो ही मत। सब है, लेकिन कितने लोगों की पहुंच में हैं। पूछोगे तो पता चल जाएगा कि ये बेजा सवाल है। गोद में बच्चा रोता है तो आसमान में उड़ता हवाई जहाज दिखा कर बहला लेते हो, इसका पैसा तो नहीं लगता। हुआ ना हवाई जहाज आपकी पहुंच में, रहा सवाल बच्चों का तो उसके बारे में पार्टी के जिम्मेदार तय कर ही रहे हैं कि कितने पैदा करो। इसी तरह जब बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं  देखोगे, तेज भागती ट्रेनें देखोगे तो फटी आंखों से देखते रह जाओगे। बिना पैसा खर्च किए स्वर्ग देखने का मजा कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। यह अटल सत्य है कि ईमानदारों को हमेशा  दो रोटी मिला करती है, स्वर्ग तो मिलता नहीं है। भोलेभाले सच्चे संस्कारीजन स्वर्ग की कामना भी नहीं कर पाते हैं, वे कर्म करते हैं और करते ही रहते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी। इसी तरह जो स्वर्ग भोग रहे हैं वे भोगते रहते हैं पीढ़ी दर पीढ़ी। दिव्य-नगर बनेंगे तो दोनों वर्गों की दूरियां कम होगी।
                    आप जानते हैं कि राजनीति के अलावा सब जगह ईमानदारों की मांग रहती है। बड़े बड़े कामों में बेईमानी एक कायदा है, दरअसल बेईमानी अपने आप में बड़ा और सामंजस्यपूर्ण काम है। बड़े काम के लिए बड़ा आदमी ही उपयुक्त होता है। संत साफ साफ कह गए हैं कि ‘समरथ को कोई दोस नहीं गुसाईं’। छोटा आदमी ‘बड़ा काम’ करे तो व्यवस्था बिगड़ती है। इसके लिए जरूरी है कि व्यवस्था को पुष्ट करने वाले स्मार्ट नागरिक थोड़ा हटके यानी दिव्य-नगर में रहें।  

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गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

मार्च का भूला अप्रेल में

               
     देखो भइया बात का बतंगड़ बनाना ही हो तो किसके मुँह पर ताला पड़ा है, बोलो चाहे बको लोकतंत्र है वरना मार्च का भूला अप्रेल में आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। आदत खराब है आपकी, इसमें अब देर-अबेर को मत घुसेड देना। अपने यहां कौन सा काम टाइम पे होता है ! रेलें तो रेलें अब हवाई जहाज भी लेट हो जाते हैं ऐसे में आदमी की क्या कहें, वो भी कुवांरा। यहां से वहां तक ढ़ोल पीट रखा है कि आजादी है, आजादी है ! क्या खाक आजादी है ! राजा बिटवा पूछ कर छुट्टी पर क्या गया, करोड़ों का धंधा कर लिया मीडिया वालों ने हाय मेरी अम्मा हाय मेरी अम्मा करके। सरकार तक यहां वहां झांकने लगी मानो उनकी लंका में हनुमान घुस आए घासलेट और माचिस ले के। सब जानते हैं कि एक उम्र होती है जिसमें बहुत कुछ निजी रखना होता है। कहीं जाना-आना तक। राजनीति में आ गए तो क्या सारा का सारा सार्वजनिक कर डालें। कल को कहोगे खुले में शौच जाओ तो सोच का क्या होगा। माना कि आमतौर पर राजनीति अपने निजी बच्चों के लिए की जाती है, लेकिन कुछ होते हैं जिन्हें अपने बाप-दादा के कारण भी करना पड़ती है। अपना अपना फील्ड है भई, लेकिन कहते तो सब यही हैं  कि देश  सेवा है। अब तुम जैसे आर्डिनरी यानी कामन मैन कहेंगे कि डाक्टर ने बोला था कि राजनीति करो। तो डाक्टर क्यों बोलेगा जी ! और बोला भी होगा तो फीस ले कर बोलेगा इसमें गलत क्या है  जी ? जिस घर में सुबह से शाम तक काम की कोई बात नहीं हो बस राजनीति ही होती रहे तो अगली पीढ़ी सिवा राजनीति के करेगी क्या। बच्चा किसी और काम के लायक रह पाता है। जमीनों को यहां वहां करें तो करने नहीं देंगे विरोधी कहीं के । सारे लोग इस तरह घूरते हैं कि बच्चे प्रपर्टी ब्रोकर तक नहीं बन सकते। न सामने आने देते हो न छुपने देते हो, और दावा करते हो कि आजादी है। खेलने खाने के दिन खत्म नहीं हुए और खड़ा कर दिया गामा पहलवान बनाके। किसी भोले-भाले भले आदमी को हुर्र हुर्र करके लड़वा देना और उम्मीद करना कि नंबर वन पर आ जाएगा, तो ज्यादती नहीं है क्या ! बंदा लड़े तो हाड़ तुड़वाए नहीं लड़े तो मरे।
                 विपश्यना  के बारे में पता है तुम्हें कुछ ? कैसे पता होगा, अनुलोम-विलोम से फुरसत मिले तब तो। देश  को सांस खींचने और छोड़ने में लगा कर अगला कुर्सी खींच ले गया और किसी को पता नहीं चला। पुराने अखाड़ेबाज खड़े खड़े गुबार देखते रहे, नगद मिला नहीं उधार देखते रहे। और तो और सूरज-चांद को नमस्कार करने में लगा दो तो लोग मंहगाई-गरीबी तक भूल जाते हैं। जनता को भागवत और किसानों को गरूड़ पुराण सुनाने से सुलगती आत्माएं ठंडी हो जाती हैं। बाकी कुछ अंगारे रह जाएं तो भंडारे उन्हें भड़कने नहीं देते। ऐसे में विपश्यना के अलावा करने को क्या रह जाता है। दूर चले जाओ, बोले तो एकांत टाइप भीड़ में। शांति  के साथ बैठो अगर हो तो, पालथी मार के जमीन पर। आंखें बंद करो, महसूस करो कि सांस आ रही है, सांस जा रही है। भइया ये सांसें बड़ी उपलब्धि है खास कर तब जब दस परसेंट सीटें भी न मिली हों, और उनकी नाकामयाबी भी जिन्हें आजकल सरकार कहते हैं। वरना उन्होंने पुरानी पार्टी-मुक्त भारत बनाने का आहव्वान किया था। दम होता तो सारे साघु-संत, तांत्रिक-मांत्रिक लग पड़ते यज्ञ-हवन में। लेकिन जो धंधा 'छू' और 'फू' का हो वो अपने दम पर नहीं मार्केटिंग के दम पर चलता है। तो आप समझ गए होंगे कि विपश्यना से आत्मविश्वास बढ़ा है। खुद अपने होने का पता चला, सीख के आए हैं, ताजपोशी  हो जाए तो पार्टी को सिखाएंगे। पार्टी जनता को सिखाएगी, जनता भालू है, सीख जाती है तो तामाशे  के काम भी आती है। जनता एक बार विपश्यना करने लगे तो सारी समस्याएं खत्म। आवै जब संतोष धन, सब धन घूर समाना। वोटर का मन भी शांत  होना चाहिए। शरीर और संसार के मोह से मुक्त होना चाहिए। समदृष्टि का विकास हो, अमीरी-गरीबी का विचार मिथ्या हो, भूख-प्यास विचलित न करे, मरने को जीना और जीने को मरना समझे, अपना जीवन महज चार दिन का माने, न आरजू की जरूरत हो न इंतजार का टंटा। इसका नाम असली विकास है और तब वे राज करें तो इतिहास बने। बने कि नहीं बने ? बोलो ना।
                                                                     

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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दाम सरकारी, गोदाम सरकारी

‘‘ अरे ! तुम्हारा नाम भी नारायन !! पूरे गांव ने एक ही नाम रख लिया है क्या !? कोई रामनारायन, कोई सतनारायन, कोई हरनारायन ! तुम लोग आदमी हो या आरटीओ के नंबर ! सही बताओ तुम्हारा नाम क्या है ?’’ कोआपरेटिव सोसायटी में गेहूं खरीदी के तमाम रजिस्टरों के बीच सजे साहब बोले।
‘‘ जपनारायन लिख लो साहेब।’’
‘‘ जपनारयन , .... और ये क्या !! चालीस बोरी गेहूं लाए हो !? दद्दा ये कोआपरेटिव सोसायटी है बनिए की दुकान नहीं कि इत्ता-उत्ता जित्ता भी हो बटोर लाए। ’’
‘‘ जित्ता था सब लाया हूं मालिक। बढ़िया किसम का गेहूं है। एक बार देख लेते ....’’
‘‘ देखेंगे क्यों नहीं ! देखना तो पडै़गा ही। ऐसेई थोड़ी लै लेगी सरकार। बड़ी सख्त ड्यूटी है महाराज। सरकार मेहनत और ईमानदारी से काम करने का पैसा देती है, कोई मजाक नहीं है! इत्ती गरमी में यहां बैठे हम पसीना हेड़ रए हें तो किसके लिए ? सरकार की सेवा के लिए ..... और गेहूं क्यों नहीं लाए ? ’’
‘‘ इत्तई पैदा हुआ साहेब। सारा लै आए हैं। जमीन कम है। हम छोटे किसान हैं। ’’
‘‘ अरे महाराज ! कित्ते जनम तक छोटे किसान बने पैदा होते रहोगे ! कुछ पुन्न-उन्न किए होते तो तुम बड़े किसान के घर में पैदा होते और औलादें भी बड़े किसान की कहातीं। सारी गलती तुम्हारी है। हम पाण्डे हैं, ....... सब्जी-भाजी पैदा करते हो ? आलू-कांदा कुछ ?’’
‘‘ आप गेहूं देख लेते ..... एक एक दाना चमकदार है। ’’ किसान ने ना में सिर हिलाते हुए गुजारिश  की ।
‘‘ चमकदार होने से क्या होता है !? पीसने से आटा ही बनेगा, बिजली तो बनेगी नहीं ! एं ?  ………  भैंस पाली होगी ? घी-वी होता है ?’’
‘‘ पांच पानी का गेहूं है साहेब, देख तो लेते ।’’ किसान ने फिर सिर हिलाते हुए कहा।
‘‘ तो सेम्पल लाओ ना .... अब मैं जाऊँगा क्या तुम्हारे ट्रेक्टर  के पास, ..... सरकारी आदमी उपर से पाण्डे ?’’
किसान सेम्पल ले कर हाजिर होता है, साहब बोले-‘‘हूं ....गेहूं तो अच्छा है! पहले बताना था ना।’’
‘‘ कह तो रहे थे कि देख लेते एक बार।’’
‘‘ ठीक है दद्दा, ऐसे तो सब कहते रहते हैं। .... चालीस बोरे हैं ना ?’’
‘‘ हां पूरे चालीस हैं। ’’
‘‘ देखो एक आदमी साथ कर देते हैं। दस बोरी मेरे यहां पटका दो, दस-दस हमारे बड़े साहबों के यहां और दस बैंक वाले साहब के यहां ।’’
‘‘ पैसे कौन देगा !?’’ किसान चिंतित हो गया।
‘‘ पैसा !! ....... तुमको सरकार पर भरोसा नहीं है तो आए क्यों यहां ?’’
‘‘ हम तो इसलिए बोले साहब कि अनाज तो सरकारी गोदाम में जाता है !’’
‘‘ तो हम क्या सरकारी आदमी नहीं हैं !? ....... सरकार के गोदाम कोई एक जगह होते हैं !……  अब यहां तुम्हारे लिए एक लिस्ट टंगवाए क्या, कि ये-ये बंगले सरकारी गोदाम हैं। .... सुबह-शाम कपालभाती और अनुलोम-विलोम करते हो क्या ?’’ साहब ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ गलती हो गई साहब ..... हम समझे सरकारी गोदाम एक ही होता है। ..... तो पैसा आप लोग ही देंगे ना दस-दस बोरी का ?’’ किसान की शंका अभी भी बनी हुई थी।
‘‘ अरे यार !! …… कहां से आ गए तुम !! ……  महाराज सरकारी गोदाम अलग अलग होते हैं पर सरकारी जेब एक ही होती है। पैसा यहीं से मिलेगा तुमको । ’’
‘‘ ठीक है साहेब, हमें क्या करना है, .... पैसा चाहिए बस ।’’
‘‘ साइन करोगे या अंगूठा लगाओगे ?’’
‘‘ दसखत करेंगे साहब, पुराने जमाने की चोथी पास हैं।’’ किसान थोड़ा तन कर बोला।
‘‘ चैथी पास !! अरे वाह .... चलो ठीक है, दस्तखत करो यहां .... यहां ...’’
‘‘ ये क्या साहब !! आपने तो 400 बोरी लिख दिया ! हम तो 40  ही लाए हैं !’’
‘‘ 400  लिखा है तो क्या 400  का पैसा लोगे !! बड़े भ्रष्ट हो तुम तो ! भगवान से तो डरो जरा !’’
‘‘ राम राम, हम कहां चार सौ का पैसा मांग रहे हैं!! …।   इतनी अंधेर कहीं मची है ! भगवान सब देख रहा है। ’’
‘‘ तो भगवान को देखने दो ना। तुम इधर उधर क्यों देख रहे हो। तुमको ईमानदारी से चालीस बोरी के पैसे मिलेंगे। इसमें कोई दिक्कत है क्या ?’’
‘‘ चालीस के मिल जाएं यही बहुत है, समझो गंगा नहा लिए साहब। ’’
‘‘ तो फिर आंख मींच के साइन करो फटाफट और गंगा नहाओ।’’
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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2015

प्रेम के विरोधी, बच्चों के आग्रही !!

                     ऐसा है बाउजी कि अब अपनी गांठ में कुछ है नहीं किसीको देनेे के लिए, देख ही रहे हो कि हिन्दी का लेखक दो कौड़ी का नहीं रहा इस ‘बे-चना’ जोर-बाजार में, जिम्मेदारियों के मैदान में दम टूटा सो उसकी क्या कहें, ऐसे में बाबा बन जाना अपुन का भी अधिकार है। जन्मसिद्ध है या नहीं इस पर सरकार के दो मत हो सकते हैं लेकिन अधिकार तो है। असफल और निराश  लोग गुफाओं कंदराओं में घुस कर एक नई संभावना को जन्म देते रहे हैं। जानकार बताते हैं कि वस्त्र त्यागने की अपनी पुरानी फिलाॅसफी है। आपत्तियों के बावजूद नंगों के नौ ग्रह आज भी वैधानिक रूप से बलवान होते हैं। अगर एक मौका नाचीज को भी मिले तो किसीको भला क्या दिक्कत हो सकती है। लोकतंत्र में सबको दांवमारने का मौका है। अच्छी बात यह है कि सब ये बात जानते हैं और इसी का नाम राष्ट्रिय चेतना है। 
                    बड़े बड़े नहानों से पता चलता है कि प्रतिस्पर्धा बहुत है और बाबालैण्ड चोर, उचक्कों, यहां तक कि हत्यारों से भी भर गया है, फिर भी आलसियों, मक्कारों के लिए कुछ जगह तो निकलती ही रही है। जबसे राजनीति में नाकाराओं के लिए स्थान और मौके बने हैं बाबाओं ने भी झंन्नाट अंगड़ाइयां लेना शुरू कर दिया है। अपने यहां बारह साल में कूड़े-कचरे के दिन भी फिरने का रिवाज है तो बाबाहोन को कब तक नजरअंदाज किया जा सकता था। सपना तो ये हैं कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब संसद में कामरेडों को छोड़ कर सब बाबईबाबा होंगे। चुन्नी भाई आप नाराज क्यों होते हो जी, सपना तो सपना है, दिखाने वाले दिखाते रहते हैं भले ही पूरा एक न हो। इधर अबकी बार भी पांच-दस बाबे आ गए हैं अपने हठयोग से और चौपन इंच की छाती पे मूंग जैसा कुछ दलने की जीतोड़ कोशिश में हैं। बावजूद इसके बाबाजियों को लग रहा है कि उन्होंने अभी तक देश के लिए कुछ किया नहीं सो कुछ करना चाहिए, लेकिन खुद ढंग का कुछ कर सकते तो बाबा बनने की नौबत क्यों आती। 
               साहब को बच्चा बच्चा पार्टी का होना मांगता। उनका कहना है कि सदस्य बनाओ वोट बढ़ाओ। सो राजनीति में आने के बाद वोट बढ़ाना उनकी प्राथमिक विवशता है। बाबे मान रहे हैं कि भारतीय जच्चाएं बच्चे नहीं वोट पैदा करती हैं। उनके आहव्वान पर सारी की सारी ‘वोट’ जनने लगें तो संख्याबल पर सतयुग आ जाएगा। उन्हें भगवान पर पहले भी भरोसा नहीं था, अब भी नहीं है इसलिए बच्चे पैदा करने के लिए लोगों को उकसा रहे हैं। जो कभी कहा करते थे कि बच्चे भगवान की देन हैं वे अब कह रहे हैं कि खुद पैदा करो। जो प्रेम के विरोधी हैं वे बच्चों के आग्रही हैं!! प्रेम करने से संस्कृति नष्ट होती है बच्चे पैदा करने से वोटबैंक मजबूत होगा। दो से देश का विकास होने में देर लग रही है इसलिए जल्दी करो, चार करो भई। थोक में करो जी, सरकार अपनी है इसलिए डरो मत आठ-नौ-दस करो। कुत्ते-बिल्ली से सीखो या फिर बकरी से ही प्रेरणा ले लो। विकास करना है तो अब इंसान बने रहने की कोई जरूरत नहीं है। भीड़ का मतलब ताकत है, इसलिए भीड़ बढ़ाओ, मक्खी-मच्छर की तरह बढ़ो। जनसंख्या विस्फोट हमारी ‘विकास नीति’ हैं। भारतमाता को पोल्र्टीफार्म समझो। बच्चे राजनीति का ‘राॅ-मटेरियल’ हैं। 
                      उनके विकास की यही स्मार्ट-राजनीति है जिसमें विकास आगे बढ़ाने का नहीं, पीछे लुढकाने का नाम है। स्मार्टनेस के नाम पर पामेरेरियन पिल्ले को चूमने वाले इतनी जल्दी में हैं कि उन्हें दिख ही नहीं रहा कि उसका मुंह किधर हैं। पैंसठ साल में पैंतीस करोड़ से एक सौ पच्चीस करोड़ हो गए हैं। पता नहीं जनसंख्या है या रक्षा बजट जिसे बढ़ते जाना मजबूरी है। किन्तु सौभाग्य से देश जानता है कि उससे क्या गलती हो चुकी है। ‘भेडिया आया’ की राजनीति ने भोलेभाले लोगों को अब समझदार बना दिया है। 
                माफ कीजिए आप तनाव में आ रहे हैं। शांत  हो जाइये और देखिए कि वे मान रहे हैं कि बच्चे खुद आपकी देन ही नहीं आपकी जिम्मेदारी भी हैं। भगवान बरी हुए, आज खुश तो बहुत होंगे वो।
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गुरुवार, 29 जनवरी 2015

सुनो जगदीश्वर !


आधी रात को अपने असलहे के साथ कवि ने उस वक्त मंदिर में प्रवेश किया जब वहां कोई नहीं था। हृदय की अंतिम गहराइयों से लगाकर आकाश के आखरी छोर तक फैली अपनी अनंत श्रद्धा के साथ उसने जगदीश्वर के सामने शीश नमाया। घूप-अगरबत्ती के घूंए और फूलों व जल की सीलन से भरा पूरा गर्भगृह कवि की सच्ची भक्ति भावना से गमक उठा। ऊबे-अलसाए बैठे जगदीश्वर में ऊर्जा का संचार हुआ, यंत्रवत उनका हाथ आशीर्वाद के लिए उठा लेकिन उनका ध्यान कवि के थैले पर अटक गया। आराधना का तांडव समाप्त कर कवि ने थैले का मुंह खोला और एक लंबी कविता निकाली, बोले-कृपया इरशाद कहें जगदीश्वर, कुछ कालजयी कविताएं पेश करता हूं, आशीर्वाद दीजिएगा, मेरी पहली  कविता है मंजर में खंजर
‘‘ ठहरो कवि, ये क्या हो रहा है !! जानते नहीं हो कि मंदिर में किसी भी व्यसन के साथ आना मना है ! बाहर सूचनापट्ट पर भी साफ साफ लिखा हुआ है।’’ जगदीश्वर ने आरंभ में ही आपत्ती लेना आवश्यक समझा।
‘‘ ये तो मेरी पूजा का हिस्सा है प्रभु ।’’
‘‘ किसने कहा कि पूजा कविता सुना कर की जाती है,  तुम यहां कविता नहीं सुना सकते हो। ’’ जगदीश्वर ने आज्ञा नहीं दी ।
‘‘ ऐसे कैसे नहीं सुना सकता हूं !! सारा संसार जानता है कि जिसकी कोई नहीं सुनता उसकी भगवान सुनता है। इस हिसाब से मेरा हक बनता है। ’’ कवि ने तर्क दिया।
‘‘ वो प्रार्थना के संदर्भ में कहा गया है। और यहां मैं केवल आरती सुनता हूं।’’
‘‘ आपको सुनना पड़ेगी जगदीश्वर, आपकी मर्जी के बगैर पत्ता भी खड़कता है। आपने ही मुझे कवि बनाया है, अब भुगतेगा कौन ’’
‘‘ पत्नी को सुनाओ ना, भारतीय हो , उस पर तो तुम हर तरह के अत्याचार कर सकते हो। ’’जगदीश्वर ने सुझाया।
‘‘ आपका सूचना तंत्र ठीक नहीं है जगदीश्वर । किसकी पत्नी सुनती है !! सुनती होती तो इतने कवि बनते,खरी-खोटी सुनी होगी पहले कवि ने, आह से निकला होगा खण्ड-काव्य। मुझे तो आश्चर्य है कि आप कवि क्यों नहीं हो गए अब तक !! ’’ कवि ने जगदीश्वर को लपेटा तो वे थोड़े नरम पड़े।  कविराज मैंने कानबहाद्दुर भी तो बनाए हैं। थोड़ा प्रयास करो, थोड़ा खर्च करो। एक भी मिल गया तो काम चल जाएगा। ’’
‘‘ आप एक नहीं हो क्या !, ..... अफवाह तो यह फैला रखी है कि ईश्वर एक है ! ..... अगर किसीकी सुनोगे नहीं तो हर कोई अपना अपना भगवान बना लेगा। प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी तो आपका बाजार बिगड़ेगा। आपकी लापरवाही के कारण अब लुच्चे-लफंगे तक भगवान हो रहे हैं। ’’ कवि ने जगदीश्वर को डराना शुरू किया।
‘‘ जहां तक मुझे याद आ रहा है तुम तो कामरेड हो कवि। ’’ जगदीश्वर ने घूरते हुए पूछा।
‘‘ तो इससे आपको क्या ! देर रात आता हूं, अंधेरे में आता हूं, गेट से नहीं कंपाउन्डवाल फांद कर आता हूं, अपना नगर छोड़ कर आता हूं, लेकिन आता हूं, ..... सारा रिस्क मेरा है। मैं किसी भी दक्षिणपंथी से ज्यादा विश्वास करता हूं आप पर, आपको तो प्रसन्न होना चाहिए मेरी काली-श्रद्धा से। ’’ कवि ने पूरे आत्मविश्वास  से उनकी बात खारिज कर दी।
‘‘ देखो कवि, .....  मैं थका हुआ हूं और अब सोना चाहता हूं। तुम अपने श्रोताओं को पकड़ो।’’
‘‘ कवियों के लिए श्रोता अब बचे ही कहां हैं, सब प्रधानमंत्री को ही सुनते हैं। नगर में कवियों के छत्ते के छत्ते हैं जो गुस्साए बैठे हैं। आपको एक एक कवि के पीछे कम से कम पांच पांच कानसेन भी बनाना चाहिए थे। ......  आप मेरी दो-तीन सुन लो वरना मैं अफवाह फैला दूंगा कि भगवान ने अब कथा सुनना बंद कर दिया है और  आजकल कविता ही सुन रहे हैं । ’’
‘‘ एक तो तुम आधी रात को आते हो, इस वक्त तो हरकोई थक-हार कर सो रहा होता है। ऊपर से धौंस देते हो !! ..... तुम मुझे क्षमा करो कामरेड। .... मैं तुम्हें एक ऐसा जीवित श्रोता देता हूं जिसे तुम चौबीस घंटे कविता सुना सकते हो। ये लो उसका फोन नंबर और जाओ प्लीज।  ’’जगदीश्वर ने हाथ जोड़ दिए।
मजबूर कवि ने नंबर लिया और अँधेरे में कंपाउन्डवाल की ओर चल दिया। जाते जाते बोला-‘‘आपकी कोई बात विश्वसनीय नहीं है जगदीश्वर । बाहर तो अफवाह है कि जगदीश्वर अब किसी की बलि नहीं लेते हैं !! ’’
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सोमवार, 5 जनवरी 2015

बाजार में नंगे

           
                 
बाजार अकच्छ ( नंगे ) संस्कृति के प्रभाव में है। बेटों को बाप समझा रहे हैं कि जिसने की शरम उसके फूटे करम। अकच्छ इकोनाॅमिक्स का बाजार पर कब्जा है। कहते हैं कि नंगों से भगवान भी डरते हैं, शायद इसीलिए वे बाजार से दूर रहते हैं। संसार में सब कुछ भगवान के भरोसे है। सिर्फ बाजार ही बेशरमी के भरोसे है। नंगापन जहां भी होता  है वहां अपने आप एक बाजार तैयार हो जाता है। आकाश  में कोई दर्जी नहीं है इसलिए स्टार नंगे  होते हैं। बाजार अगर कोई नंगा है तो समझिये कि वह स्टार है। स्टार बनने के लिए हर कोई उतावला है। बस एक मौका चाहिए, जाहिर है कि मौकों की अपनी कीमत है। आज नंगे हो कर  चुकाइये कल नंगई से ही वसूलिए। कुछ पाने के लिए कुछ खोने का मंत्र बाजार ने ही दिया है। नंगई  से ही कीमत तय हो रही है। मुनाफा बाजार की जान है। बाजार रक्तबीज की तरह है, जिस भी जमीन को छूता है वहां एक नया बाजार खड़ा हो जाता है। किसी जमाने में बाजारों का मुकाम शहर होते थे अब गांव गांव खरीद फरोक्त हो रही है। रामनामी औढे बाबा इठ्यान्नू-निन्यानू-सौ जप रहे हैं । पिछली पीढ़ी ने जिस घरती को माता कहा, बाजार के कारण अगली पीढ़ी को उसके ‘रेट’ बताना पड़ रहे हैं। हर नजर सौदों की संभावना से भरी लगती है। ईश्वर  ने केवल मनुष्य को मुस्कान दी है लेकिन बाजार ने मुस्कराने के अर्थ बदल दिए हैं। पहले जिन होठों पर प्रेम की चहल कदमी होती थी अब वहां बाजार की छम्मकछल्लो ठुमक रही है। आदमी का हर अंदाज सौदा है और कोई सौदा सच्चा सौदा नहीं है। किसी जमाने में बाजार जरूरतों की पूर्ति किया करते थे, अब वे जरूरतें पैदा करते हैं। एक शायर ने कहा है कि बाजार से गुजर रहा हूं पर खरीदार नहीं हूं। बाजार ने ऐसे लोगों के लिए ही अब सीसी-कैमरे लगवा रखे हैं। 
                   बाजार में हर चीज बिकती है, नंगे  न बिकने वाली चीजों को भी बेचने का हुनर जानते हैं। कूड़ा-कचरा तक बेचा जा सकता है, खरीददार हर समय पैदा किए जा सकते हैं। सुनार का कचरा बाकायदे अच्छे भाव में बिकता है। उसके यहां झाडू लगाने वाला उस कचरे से सोना-चांदी निकालता है। एक कवि के यहां काम करने वाली महरी को कवि के कचरे का "अकच्छ ग्राहक" मिल गया। आज वह ग्राहक महाकवि है हालाॅकि कवि अभी अख्यात ही हैं। कुछ लोग मिट्टी उठाते हैं और सोना बना लेते हैं। बाजार  इसी को टेलेन्ट कहता है। 
                      जिनके पास भेड़-बकरियों का झुण्ड होता है वे खेत में एक रात झुण्ड को ठहराने की खासी कीमत लेते हैं। क्योंकि रातभर की मेंगनियां और पेशाब खेत की उपज बढ़ा देती हैं। अगर हमें मालूम पड़ जाएं कि हमारा एक एक अंग बाजार की मूल्य सूचि में शामिल है तो शायद  हम घर के बजाए लाॅकर में रहना पसंद करें। जिस तरह बाजार किसान की इज्जत नहीं करता है लेकिन अनाज से पैसा कमाता है उसी तरह रचनाओं से कमाने वाले प्रकाशक वगैरह लेखक की इज्जत नहीं करते हैं। साहित्य का क्षेत्र भी "अकच्छ बाजार" से अछूता नहीं है। कहानी, उपन्यास, नज्म, गजल सब लिखा लिखाया मिल सकता है। खरीदिये, छपवाइये और फटाफट साहित्य के ‘बड़े मिंया’ हो जाइये। कुछ ‘खां-साहबों’ के बाड़े में लिखने वाले गाय-भैंसों जैसे स्थाई रूप से पलते और ‘दूध’ देते हैं। अक्सर प्रसिद्ध गीतों के बारे में मालूम होता है कि कोई अनाम गीतकार का लिखा हुआ है जो दो-चार सौ रुपयों में नामचीन कलमकार ले गए थे। लेकिन नंगों का  बाजार बकरा बेचने के बाद उसकी खाल देख कर रोने की इजाजत किसी को नहीं देता है। आज नगद गिनो और कल दूसरा गीत लिखकर लाओ, वरना अपना सायकिल रिक्षा चलाओ। अकच्छ बाजार में जेबकटाई भी खूब होती है। एक लेखिका ने मुस्करा कर अपना उपन्यास अधोवृद्ध रचनाकार को सुधारने के लिए दिया। वे अपनी बकरी को उनसे ऊंट बनवा कर ले गईं, और अब बाकायदा ऊंट उनका है। अधोवृद्ध कुछ दिन चीखे चिल्लाए फिर खांसी की दवा खरीदने लगे। कहीं खबर छपी थी कि पीएचडी लिखने वालों का ‘मार्केट’ खूब फलफूल रहा है। क्यों न हो, बाजार ज्ञान का नहीं डिग्री का होता है। और जिसका बाजार होता है वही बड़ा होता है, और जायज भी। पैसा मिले तो कोई काम छोटा नहीं है, बशर्ते पुलिस वगैरह की पकड़ में न आएं।
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