सोमवार, 25 जुलाई 2022

हिंदी के टट्टू अंग्रेजी पर लट्टू


 

               चाय की दुकान पर हिंदी वाले सर डी.डी. अनोखे टकरा गए . ज्यादा समय वे यहाँ मौजूद मिलते हैं, जिस किसी का मन होता है टकराने का तो आ कर इनसे टकरा सकता है . उनसे टकराने का अपना मजा है . कुछ लोग हैं जिन्हें आदत पड़ गयी है टकराने की . बड़ा घंटा जैसे एक बार ठोक देने से बहुत देर तक गूंजता रहता है वैसे ही सही टक्कर लग जाये तो ये भी देर तक गूंजते रहते हैं . अनोखे आज भी गूंज रहे हैं – “देखिये भई हिंदी अपनी जगह है और बच्चों का भविष्य अपनी जगह . हिंदी की व्यवस्था हमारे आपके लिए है . आम आदमी हमेशा आम आदमी होता है यानि पोल्ट्री प्रोडक्ट,  ब्रायलर पब्लिक . देश में हर दिन पचास हजार से ज्यादा बच्चे पैदा हो रहे हैं . हिंदी के भविष्य से उनका भविष्य जुड़ा  हुआ है . लेकिन ऊँचे लोग, ऊँची पसंद, ऊँचे सपने, ऊँचे काम, ऊँचे मुकाम . जो ऊपर से संस्कृत के हिमायती हैं वो भी अन्दर से अंग्रेजी पर लट्टू हैं . देश में शायद ही कोई नेता मिले जिसके बच्चे हिंदी मीडियम में पढ़ रहे हों . वो देश, वो दुनिया अलग है जहाँ बच्चे सिजेरियन से, अपनी पसंद के मुहूर्त में पैदा होते हैं और माँ के पेट में पहला ‘कट’ अंग्रेजी का लगवा कर बाहर आते हैं . और मजे की बात, इस तरह के बच्चे भी आजकल गोरे पैदा होते हैं. गोरे बच्चे जब अंग्रेजी बोलते हैं तो लगता है दो सौ साल की हुकूमत आंगन में उछलकूद कर रही है . बच्चे हों तो एक्सपोर्ट क्वालिटी के हों वरना क्या फायदा ! फर-फर झर-झर अंग्रेजी उसके बाद सीधे अमेरिका.”

                         ये बात हिंदी के व्याख्याता अनोखे कर रहे हैं जो हिंदी नहीं पढ़ने का छठा वेतनमान ले रहे हैं . उनका संकल्प है कि जिस दिन सातवाँ उनके खाते में आएगा तब पढ़ा देंगे . नाम  उजागर नहीं करने की शर्त पर वे कह देते हैं कि – हिंदी भी कोई पढ़ने की चीज है !! जो भाषा गरीब-गुरबों नंग-धडंग बच्चों तक को आती है उसे क्या पढ़ना और क्यों पढ़ना . पढ़ने पढ़ाने की चीज तो अंग्रेजी है जो अंग्रेजी टीचर को भी ठीक से नहीं आती है .” खुद अनोखे जी ने भी बरसों तक ट्राई किया पर नहीं आई . आखिर विश्वविद्यालय ने हिंदी की डिग्री दे कर इनसे पिंड छुड़ाया . अनोखे भी भागती भाषा की लंगोटी भली यह सोच कर हिंदी से लिपट गए लेकिन अंग्रेजी से प्रेम छुपाए नहीं छुपता है . जैसे गाँव कस्बे वाला अपनी रामप्यारी से फेरे ले तो लेता है लेकिन शहर वाली एनी और लिली को नहीं भूलता है .

                  “आप पढ़ाओगे ही नहीं तो फिर हिंदी मजबूत कैसे होगी सर !” एक ने टोक दिया .

                   अनोखे बोले - “हमारे पढ़ाने से क्या होगा यार ! देश दो भागों में बंटता जा रहा है, अमीर-गरीब, हिन्दू –मुसलमान, राष्ट्रवादी-प्रगतिशील, हिंदी वाले -अंग्रेजी वाले ! जब तक ऊँचे तबके में हिंदी नहीं अपनाई जाएगी तब तक मुश्किल बनी रहेगी . लेकिन हो ये रहा है कि जिन बापों ने अंग्रेजी बोलने पर बच्चों की पीठ ठोकी थी वही बड़े हो कर बाप के हिंदी बोलने पर घूरते हैं ! बहू अपने बच्चों को दादा-दादी के पास इसलिए नहीं छोड़ना चाहती है वे उनकी भाषा बिगाड़ देंगे ! तो हिंदी बेल चलेगी कैसे !?”

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मंगलवार, 19 जुलाई 2022

चल कामरेड ... भजन करेंगे


 


                  जिनके बिना कोई बयान पूरा नहीं होता था, जो हर फैसले का जरुरी हिस्सा रहे आज उनका पता नहीं, मिडिया तक नहीं पूछ रहा है कि मर गए या कि जिन्दा हैं . कभी जो जनता ‘लाल-लाल’ करते थकती नहीं थी वो जय गोविंदा जय गोपाल भज रही है !  लाल को कोई माई का लाल देखता तक नहीं, जिसे भी याद दिलाओ, आँखें लाल करता है ! ऐसे घूरता है जैसे औरंगजेब की याद दिला दी हो ! लाल से गोपाल होने का सफ़र किसी चूक का नतीजा है या फिर नतीजे की चूक है कहा नहीं जा सकता है .

                      रूस चीन जबसे व्यापारी हुए ‘लाल से लाला’ हो गए . देश दुनिया में उन्हें कोई पूछता नहीं, घर में लाल वाली इज्जत रही नहीं . सुबह होती है, शाम होती है ; जिंदगी दाढ़ी खुजाते तमाम हो जाती है . अब लाल को लोरी पसंद है, इधर दूध, दही, आटा, ब्रेड तक पर टेक्स लगा है,  लोग शुक्र मना रहे हैं कि सांसें फ्री हैं . खेंच लो जितनी खेंचते बने . खेंचो-फैंको खेंचो-फैंको, भर लो फेफड़े दबा दबा के, जी लो अपनी जिंदगी इससे पहले कि बोतल बंद हवा जरुरी हो जाये .  वजहें  खुल जाती हैं इसलिए हँसने की इजाजत नहीं है, रोने का मन बहुत करता है पर रुलाई फूटती है तो शरम आती है ! लोग ताना मारते हैं कि कामरेड तुम अगर भगवान की शरण में रहे होते तो ये दिन नहीं देखने पड़ते . दल बदल रहे हैं, दिल बदल रहे हैं, सुबह के भूले शाम तक घर लौट रहे हैं, झुण्ड के झुण्ड इधर से उधर हो रहे हैं लेकिन आपको कोई पूछ नहीं रहा है ! जैसे कि हैं ही नहीं ! जैसे कि कभी थे ही नहीं ! टीवी वाले टिड्डीदल बेआवाज लोगों के मुंह में माइक घुसेड घुसेड कर सरकार पर बुलवा लेते हैं लेकिन इनको जैसे राजनीति का रोहिंगिया मान लिया गया है . अव्वल तो कोई नजर नहीं डालता, कभी पड़ जाये तो मुंह फेर लेते हैं !  देश की राजनीति में जो कभी जवाईं साहब का रुतबा रखते थे अब रामू काका की हैसियत भी नहीं रही ! न देखा जा रहा है, न सहा जा रहा है, न कुछ सूझ रहा है और न ही कुछ करने की गुंजाईश दिख रही है . बच्चे हड़ताल शब्द का मतलब पूछ रहे हैं . इधर लगता है जैसे बेरोजगार अपनी बेरोजगारी को इंज्वाय कर रहा है और गरीब को गरीबी में मजा आ रहा है ! घर जल रहे हैं ! ... रौशनी हो रही है ! कभी डायन कही गयी महंगाई अब उद्योग घरानों की बिटिया और मालिकों की लाडली बहु है . वह घर आँगन में ठुमकती फिरेगी, कोई कुछ नहीं कहेगा .

                   कामरेड गुनगुना रहा है – “रहते थे कभी जिनके दिल में हम कभी जान से भी प्यारों की तरह ; बैठे हैं उन्हीं के कूचे में हम आज गुनाहगारों की तरह .”

                    दिशाएं बोल उठती हैं, दास केपिटल को भूल बन्दे, सुलगते बैनरों को भोंगली बना . भूख, गरीबी, शोषण को भ्रम बताने की कोशिश कर, जिन्दादिली ही जिंदगी है घोषित कर . आगे बढ़ना है तो ले यू टर्न, पीछे मुड़, गर्व कर . इतिहास नया लिख, नयी सड़क चल . जो बीत गया कल, वो गया . आने वाले कल में जगह बना . संविधान से दूरी रख, विधि के विधान पर विश्वास जमा . अब जो करेंगे हुजूर करेंगे, सजन करेंगे ; चल कामरेड, अपन भजन करेंगे .

गुरुवार, 23 जून 2022

झूठ का सच


 

               

       माँ कसम चारों तरफ अमन चैन है . लगता है प्रभु आँखें बंद किये बांसुरी बजा रहे हैं और प्राणी मंत्रमुग्ध फुर्सत में बैठे हैं . आम आदमी रोने की बात पर भी हँस रहा है . लोग उछल उछल कर फटाफट नए पुराने टेक्स दे रहे हैं . संपत्तियों के ऊँचे दाम मिल रहे हैं. बैंकें पकड़ पकड़ कर बिनदेखे भरभर-के कर्ज दे रही हैं . सायकिल की हैसियत वाले कारों से नीचे पाँव नहीं रख रहे हैं. पेट्रोल पानी की तरह छलक रहा है . पांच छः फुट रस्सी के सहारे लोग उस स्वर्ग में पहुँचे  जा रहे हैं जहाँ रावण सीढी बना कर पहुँचने की मंशा रखता था . मुआवजे की राशि करोड़ से ऊपर पहुँच कर मोहक होने लगी है . लाभार्थियों को बुजुर्गों में झुर्रियों के साथ सम्भावना की लकीरें भी दिखने लगी हैं . गैस सिलेंडर को नए जंवाई की तरह हर बार पहले से ज्यादा मुँह दिखाई मिल रही है . जो दर्द समझे गए अब दवा बनते जा रहे हैं . ... और इधर कुछ नामुराद, मनहूस, शहरी किस्म के जाहिल दीदे बंद किये बैठे  हैं !   ऐसे ही एक अभागे का इलाज होना है . “इनकी आँखें समस्या हो गयी हैं बैधराज जी . जाँच कर बताइए क्या करना है ? इलाज हम करेंगे .” उन्होंने एक अदद मुंडी सामने करते हुए बैध जी से कहा .

              पूछने पर मुंडी ने बताया - “आँखों की समस्या है वैधराज जी . सब साफ साफ दिखने लगा है . जो चीजें, जो बातें लोग छुपाना चाहते हैं वो भी दिखने लगती हैं . झूठ के पीछे का सच झूठ से पहले सामने आ जाता है . कोई साधू का स्वांग रचता है तो शैतान नजर आता है . नौकर चाकर सेवकों को देख कर डर लगता है . पुलिस जनसेवक कहते हुए मुस्कराती है तो खतरनाक लगती है . कुछ कीजिये वैधराज जी कि झूठ सच की तरह दिखे और सच तो दिखना ही बंद हो जाये .” उसने हाथ जोड़ कर वैधराज दयाराम ‘काव्यप्रेमी’ को अपना रोग बताया .

             इनदिनों माहौल बढ़िया है . लोगों में वैधराज जी की साख है कि सभी तरह की पैथी से इलाज करवा चुके निराश रोगी गैरंटी के साथ ठीक किये जाते हैं .  नस नस पर उनकी पकड़ है .  एक बार नब्ज पर हाथ रखते हैं तो अन्दर बैठा रोग काँप जाता है . आधा रोग तो वे अपनी बातों से ही ठीक कर देते हैं, बाकि आधे के लिए पुड़िया देते हैं . कुछ देर आँख बंद कर विचार करने के बाद बोले – “संसार में सच दुःख का कारण है . इसलिए हर आदमी को सच से बचना चाहिए . झूठ में जो आनंद है वो दरअसल स्वर्ग का आनंद है . शिक्षा, समझ और ज्ञान स्वर्ग का आनंद लेने के लिए व्यक्ति को सक्षम बनाते हैं . कुछ लोग शिक्षा का दुरूपयोग करते हैं और सच देखने की कोशिश करते हैं . यह अच्छी बात नहीं है . खूब टीवी देखा करो, अख़बार भी पढ़ा करो, साधू संतों के प्रवचन सुना करो, योग भी करा करो . धीरे धीरे सच दिखना बंद हो जायेगा . सच बहुत ढीठ किस्म का रोग है . किसी को इसकी आदत पड़ जाये तो उसे ठीक करना बहुत कठिन होता है . समाज में नशामुक्ति केन्द्रों से अधिक सत्यमुक्ति केन्द्रों की आवश्यकता है किन्तु समाजसेवी संस्थाओं का ध्यान इस और नहीं है . सरकारें अपनी तरफ से पूरे प्रयास करती हैं लेकिन बहुत से काम होते हैं जो बिना जनसहयोग के अपेक्षित परिणाम नहीं देते हैं . खैर ... विपक्षी दलों के बहकावे में तो नहीं रहते हो ?” बैध जी ने आँखों में आँखे डालते हुए पूछा .

           “हाँ, उनकी बातें सुनता तो हूँ . वे ऑंखें खोलने और खुली रखने को कहते हैं .”

           “तुम्हारे रोग का यह भी एक कारण है . जनता की सच्ची सेवा तो यह है कि उस तक सुख पहुँचाया जाये. बल्कि बढ़ा चढ़ा कर पहुँचाया जाये . विद्वान् लोग कहा गए हैं कि वो झूठ सच से बड़ा होता है जो व्यक्ति को दुःख से बचाता है . इस समय सारा वातावरण जनता को दुःख से बचाने की जी तोड़ कोशिश कर रहा है . सबको इसका लाभ लेना चाहिए ... अब कैसा लग रहा ? ...सुखद ? पहले से ठीक है ना ?” वैधराज जी ने पूछा .

            “जी हाँ, पहले से अच्छा लग रहा है . एक उम्मीद सी जाग रही है .”

             “ये कुछ पुड़िया हैं, इन्हें सुबह दूध से, दोपहर को पानी से, और शाम को शहद से लेना . और यह ध्यान रखो कि ईश्वर ने ऑंखें बंद रखने के लिए भी दी हैं . आँखें बंद रखने का अभ्यास नियमित करो . बंद आँखों से ईश्वर के दर्शन होते हैं . ईश्वर से बड़ा कोई सच है ? नहीं ना ? तो जहाँ तक संभव हो आँखें बंद रखो, भक्त बनो. ”

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शुक्रवार, 17 जून 2022

ड्राइंग रूम में कबीर


 



         “आइये बैठिये, ... और .. हाँ, इनसे मिलिए, ग्रेट पोएट कबीर, आवर फॅमिली मेंबर नाव” . सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए उन्होंने किताब के बारे में बताया .

          गौर से देखा, वाकई कबीर ही हैं . सोफे पर खुले हुए, कुछ बिखरे हुए से एसी में पड़े हैं . वे समझ गए, सफाई देते हुए बोले, - “बच्चे बड़े शैतान हैं, खेल रहे थे . इनके लिए कबीर की पिक्चर बुक भी है लेकिन फाड़ फ़ूड दी होगी .”

               “हुसैन नहीं दिख रहे !?” मैंने पूछा . पिछली बार आया था तो उस दीवार पर टंगे थे . तब भी उन्होंने कहा था कि – ‘ दिस इस हुसैन ... द ग्रेट आर्टिस्ट,  अवर फॅमिली मेंबर नाव. यू नो हमारे पास काफी सारे विडिओ और फोटोग्राफ्स भी हैं इनके.’

             इस वक्त अपना कहा शायद वे भूल गए थे, बोले – “हुसैन !! वो क्या है अभी जरा माहौल ठीक नहीं है . ... यू नो ... सोसाइटी है ... सब देखना समझना पड़ता है .  स्टोर रूम में हैं  ... अभी तो कबीर हैं ना, ... नो ऑब्जेक्शन के साथ .”

             “लेकिन कबीर में तो बहुत डांट फटकार और कान खिंचाई है ! ... आप बड़े बिजनेसमेन ! आपको कैसे सूट कर गए ?”

                “देखिये दो बातें हैं, एक तो आजकल पढ़ता ही कौन है ! ऐसे में किसको पता कि कबीर ने फटकारा भी है .  ब्राण्ड वेल्यू होती है हर चीज की . यू नो ब्राण्ड का जमाना है . सोसायटी अब चड्डी बनियान भी ब्रांडेड पसंद करती है . दूसरी बात खुद कबीर ने भी कहा है कि ‘निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाय’ तो हमने ‘ड्राइंगरूम शोकेस में सजाय’ कर लिया है” .

               “फिर भी आपको लगता तो होगा कि आपका कामकाज और कबीर में टकराहट हो रही है . वे संत हैं, कहते हैं  ‘कबीर इस संसार का झूठा माया मोह‘ . कैसे बचाते हैं इस टकराहट से अपने आप को ?”

              “टकराहट कैसी !! हमने तो अपने दफ्तर में लिखवा रखा है, ‘काल करे सो आज कर, आज करे सो अब; पल में परलय होयेगा, बहुरि करेगा कब’ . इससे मेसेज जाता है कि कबीर ने फेक्ट्री वर्कर्स को फटाफट काम करने के लिए कहा है . इसके आलावा एक और बढ़िया बिजनेस टिप है उनकी – ‘ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय; औरन को सीतल करे, आपहु सीतल होए’ . इस फार्मूले से क्लाइंट को डील करो तो बिजनेस बढ़ता है . आदमी कोई बुरा नहीं होता  है उसको वापरना आना चाहिए .”

              “फिर भी धंधे में देना-लेना, ऊंच-नीच, अच्छा-बुरा सब करना पड़ता है . कबीर इनके पक्ष में नहीं हैं . इसलिए कहीं न कहीं चुभते होंगे .”

             “जी नहीं, ... उन्होंने कहा है –‘दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय ; जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय ‘. इसका मतलब है कि फंसने पर तो सब मुट्ठी गरम करते हैं बिना फंसे जो मुट्ठी नरम करता रहे तो मुट्ठी गरम करने की नौबत ही नहीं आये . दरअसल आप जैसे कच्चे पक्के लोगों ने कबीर को किताबों से बाहर निकलने ही नहीं दिया . उन्हें तो बाज़ार में होना चाहिए था . सुना होगा, ‘कबीर खड़ा बाज़ार में, सबकी मांगे खैर; न कहू से दोस्ती न कहू से बैर’. व्यापारी का न कोई दोस्त होता है न बैरी, बस  वो होता है और ग्राहक होता . –‘ जब गुन को गाहक मिले, तब गुन लाख बिकाई ; जब गुन को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई ‘. यानी ग्राहक पटाना सबसे बड़ी बात है .” वे बोले .

               “बाज़ार में कुछ वसूली वाले भी तो होते हैं, उनका क्या ? भाइयों को हप्ता देना पड़ता होगा, पुलिस को महीना, किसी को सालाना ! पार्टियों को भी चंदा-वंदा देना पड़ता होगा ?”

                 “हाँ देते है, ... ‘चलती चाकी देख के, दिया कबीरा रोय ; दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय ‘. यहाँ  क़ानूनी और गैर क़ानूनी दोनों तरह के पाट हैं. सब देते हैं, सबको देते हैं, कोई साबुत नहीं बचता है . ”

               “लगता है कबीर को आपने अपना वकील बना लिया है !”

               “ऐसा नहीं है,  कबीर में सब हमारे काम का तो है नहीं . उन्होंने ही कहा है ‘सार सार को गहि लेय, थोथा देय उड़ाय’ . तो इसमें बुरे क्या है ?”

                “ईश्वर से डर तो लगता ही होगा ?” उठते हुए हमने सवाल किया .

                 “ईश्वर से किसीका आमना सामना कहाँ होता है . सब भ्रम है . वे कह गए हैं – ‘जब मैं था हरि नहीं, अब हरि है मैं नहीं’ . आप अपना बनाओगे तभी कबीर अपने लगेंगे . ‘सैन बैन समझे नहीं, तासों कछु न कैन’, यानी आदमी को इशारा समझना चाहिए, जो नहीं समझे उससे कुछ नहीं कहना.”

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मंगलवार, 14 जून 2022

शांतिपूर्वक तमतमाता देश


 

बयान करोना की तरह फैला . आठ दस दिन में एक के बाद एक कई मुल्क चपेट में आते  गए . संक्रमितों में आरंभिक लक्षण तेजी से उभरे . पता चला कि दिमाग में गरमी और बुखार के चलते हर चपेटित तप रहा है . आँखों के आगे काले के साथ लाल भी छाने लगता है . जिनके पास दिमाग है उनकी नसें चटकने लगी हैं . मन चीखने चिल्लाने का होता है लेकिन मौका नहीं मिल रहा है . रूस और यूक्रेन का युद्ध क्या हुआ तमाम मुल्क सदमें और शांति की लपेट में आ कर दुबक गए लगते हैं . लग रहा है सबने शांति को छाती से बांध कर अपना हिस्सा बना लिया  है . बावजूद इसके लोग तमतमा रहे हैं लेकिन शांतिपूर्वक .

इधर सोशल मिडिया में भारी तमतमाहट मची हुई है . डेढ़-दो जीबी का कोटा है तो जिद भी है रात होने से पहले खर्च करने की . लगता है फोन में लगे रहना ही सच्ची देश सेवा है . दिक्कत ये हैं कि लोगों की सोच नहीं बदल रही है . सोच बदले तो देश आगे बढे . सोचना भी सही दिशा में होना चाहिए . वरना रिस्क ये है कि सोचें इधर वाले और आगे बढ़ जाएँ उधर वाले . दीवारों के कान होते ही थे अब पत्थरों के पांव भी होने लगे हैं . जोखिम हर काम में होता है. देशभक्त होने के नाते मुझे भी लगता है कि मेरे आलावा सब सो रहे हैं . और अगर लोग सोते रहे तो गजब हो जाने वाला है . इस समय सोये हुओ को जगाना एक तरह की क्रांति है . काम असान भी बहुत हो गया है, बस एक बटन दबाया और फट से तमाम लोगों को जगा दिया . बैटरी चार्ज हो और डेढ़ जीबी डाटा हो तो संडास में बैठे बैठे भी जनजागरण किया जा सकता है . देशभक्ति के इससे अच्छे दिन और क्या हो सकते हैं !  

बलदेव बादलवंशी जी कई ग्रुप्स में जुड़े हुए हैं. उनका सारा दिन बरसते हुए बीतता है . शुरू शुरू में कुछ समय शांत भी रहते थे . लेकिन बाद में जैसे जैसे स्कोप दिखा फुल टाइम तमतमाने लगे . सुबह बिस्तर बाद में छोड़ते हैं, तमतमाते पहले हैं . डाक्टर ने कहा इतना तमतमाओगे तो किसी दिन भी लम्बे निकल जाओगे . कोविड काल के बाद से शोकसभा का चलन भी कम हो गया है . महंगाई इतनी ज्यादा है कि अख़बार में फोटो वाला शोक विज्ञापन भी नहीं देते हैं लोग . यह समय लम्बे निकल लेने के लिए ठीक नहीं है . इसलिए सोच समझ के शांति से तमतमाया करो . कठिन काम नहीं है . किसी कवि ने कहा है ‘करत करत अभ्यास के जड़ मति होत सुजन;  रसरी आवत जात के सिल पर पड़त निसान ‘ . कोशिश करोगे तो सिख जाओगे, यह भी अनुलोम विलोम जैसा ही है .

बलदेव बदलवंशी जी टीवी, बहस, समाचार और सोशल मिडिया सब पर भिड़े हुए हैं और बीपी की गोली खा खा कर तमतमा रहे हैं . शांतिपूर्वक तमतमाने की कला को साध लिया है उन्होंने . किसीने दंगे का विडिओ भेजा, देखा लोग नारे लगा रहे हैं, पत्थर फैंक रहे हैं, चट से दो घूंट ठंडा पानी पिया  और पट से तमतमा लिए .  किसी ने भड़काऊ भाषण दिया, नेताओं को गरियाया, कोसा, चुनौतियाँ दी, देखा और मुँह से दो चार गाली निकल कर शांतिपूर्वक तमतमा लिए . सारा देश शांतिपूर्वक तमतमा रहा है, उन्होंने मुझे भी तमतमाने के लिए कहा है .उनके कहे से मुख्यधारा में आने के लिए मैं भी अब ज्यादा पानी पीने लगा हूँ .

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गुरुवार, 9 जून 2022

आग उगलखोर



                   वे दोनों एक दूसरे के खिलाफ आग उगलते रहे हैं . कुछ खास अवसरों पर जहर भी उगलने से उन्होंने परहेज नहीं किया है . जनता के सामने जब वे दूसरे पर कुपित हो रहे होते हैं तो लोगों को लगता है अंगार पंडवानी गायी जा रही है . लोकतंत्र का मजा ये हैं कि जब भी चुनाव टाईप खास माहौल बनता है आग और जहर उगलने वाले एक्सपर्ट टिड्डियों की तरह प्रकट हो जाते हैं . इंतजार होता है कि कब आचार संहिता लगे और कब एक दूसरे के चरित्र की चिन्दियाँ करने में लग पड़ें . कोई चोर कहे, कोई लुटेरा कहे, धोखेबाज़ या झूठा कहे, कोई दिक्कत नहीं है . नेतागिरी की तो डरना क्या ! मतदान तक नेताओं का कहना कहना नहीं है, और सुनना भी सुनना नहीं है . समाज सेवा के लिए कोई सर पर टोपी नहीं रखता है . सब जानते हैं कि राजनीति और भ्रष्टाचार एक ही चीज है . फर्क टेकनीकल है, जब तक पकड़े नहीं जाओ तब तक राजनीति है, जिस दिन पकड़े गए तो भ्रष्टाचार . मिडिया भी मनी और मजे के लिए दोनों के बयान बारी बारी से चलाता है और बेगराउंड में दो सांडों को लड़ते हुए भी दिखाता है . इससे जनता में सन्देश यह जाता है कि राजनीति को गंभीरता से लेने की जरुरत नहीं है, सांड कोई सा भी हो अपनी वाली पे आ जायेगा तो खेत आपका ही उजड़ना है . बावजूद इसके लोगों को लगता है कि अगर ये दोनों आग उगलखोर किसी दिन आमने सामने पड़ गए तो जूता ले कर भिड़ जायेंगे . और फिर इनके गुंडे यानी समर्थक एक दूसरे का लाठी डंडा सम्मान करेंगे इसमें संदेह का कोई कारण नहीं है . आपसी लेन देन का सुसंस्कृत माहौल बनेगा, देश आगे बढेगा .

                      इस बीच एक मंत्री के बेटे के विवाह समारोह में दोनों आग उगलखोर आमने सामने हो गए . जैसे ही नजर मिली दोनों एक दूसरे की तरफ लपके . लोगों की साँस थमने का इरादा कर ही रही थीं कि ये क्या !! दोनों गले लग गए, जैसे राजनीति में मेले में बरसों पहले पिछड़े हुए भाई हों ! सबसे पहले हालचाल की ले-दे हुई फिर परिधान प्रशंसा के साथ कन्धा सहलाई . इसके बाद घर परिवार में सब कुशल-मंगल ली गयी और अंत में ‘माता जी को चरणस्पर्श कहना’ से मुलाकात किनारे लगी . जिन्होंने देखा वे समझ नहीं पाए कि क्या देखा ! जाने ये सच है या भ्रम या फिर वो जो होता रहा है सच था या भ्रम !! सोशल मिडिया और टीवी पर यह दृश्य फ़ौरन से पेश्तर दौड़ गया और फिर इस फोन से उस फोन दौड़ता ही रहा . दूसरे दिन अख़बारों में भी राम-भारत मिलाप के फोटो छपे . पक्षधारों ने साफ किया कि राजनीति में कोई स्थाई दोस्त या कोई स्थाई शत्रु नहीं होता है . सच तो ये है कि सब मित्र होते हैं . लोकतंत्र की आदर्श परंपरा नूरा कुश्ती से जिन्दा है . भाईचारा जनता में हो न हो, राजनीति के गलियारों में खूब फल फूल रही है . और यह छोटी बात नहीं है .

 

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सोमवार, 30 मई 2022

उड़ी उड़ी जाये बकरी


 

गरमी का मौसम है, गैलरी में कुछ बर्तन रखे हैं मिट्टी के, पानी भर कर . दिनभर चिड़िया पानी पीने आती हैं , नहाती भी हैं . उन्हें ऐसा करते देखना अच्छा लगता है . अभी एक  दिन जब चिड़ियों को देख रहा था कि आसमान में एक बकरी उड़ती दिखाई दी . विश्वास नहीं हुआ कि जो देख रहा हूँ वो सच है ! बकरी कैसे उड़ सकती है भला ! उड़े तो बकरा उड़े, हक़ है उसका, उड़ सकता है . लेकिन बकरी का उड़ना किसे बर्दाश्त हो सकेगा . हो सकता है कि ये बकरा हो . शिनाख्त करने की कोशिश की ही थी कि वह अचानक गैलारी में उतर आई और पानी पी कर फिर उड़ गयी . यक़ीनन बकरी ही थी .

आप सोचये, यह घटना आपकी आँखों के सामने घटित हुई होती तो ?! काफी देर तक कुछ सूझा नहीं . मन स्थिर हुआ तो दौड़ कर किसी को बता देने की इच्छा से एक चिहुंक सी उठी . लेकिन रुक गया, लोग पागल समझेंगे . फिर सोचा आँखों देखा सच तो सबको मानना ही पड़ेगा . लोग अभी इतने मूर्ख नहीं हो पाए हैं कि सच की तरफ से मुंह फेर कर खड़े हो जाएँ . फिर ये मामला महंगाई बेरोजगारी जैसा भी नहीं है कि दुखता सबको है पर रोता कोई नहीं .  जिक्र उड़ती हुई बकरी का है . त्रिवेदी जी को बताया तो उन्होंने मजाक उड़ाया कि ध्यान से देख लो यार, गैलरी में अंडे भी दे गयी होगी . जब उड़ती है अंडे भी जरुर देती होगी . बकरी के अंडे जब दिखाओगे तो मिडिया हाथोहाथ लेगा और फ्रंट पेज पर छ्पोगे . शुक्ला जी डिस्कवरी विशेषज्ञ हैं बोले बड़ी चीलें अपने पंजों में बकरी को ले कर उड़ती हैं . आपने ध्यान से देखा होता तो पता चल जाता कि ये बकरी भी जरुर किसी चील के पंजे में है . लेकिन आपका क्या दोष, जमाना भी बकरी देखता है चील नहीं . चौहान साहब चौपाटी चेम्पियन हैं . उनकी शंका ये कि बकरी जैसा गैस वाला गुब्बारा हो सकता है . हवा में उड़ता चला आया होगा और आपको लगा होगा कि बकरी है .  

हो सकता है और लोगों ने भी बकरी को उड़ते देखा हो लेकिन मजाक बन जाने के डर से चुप्पी लगाये हों . लेकिन ज्यादातर ने नहीं देखा होगा, यानी उन्हीं की बात मानी जाएगी . बहुमत का जमाना है . सत्य बहुमत से ही हारता है . बहुमत के पास जीत होती है, सत्य भी हो यह जरुरी नहीं है .

दूसरे दिन खुद बकरी का बयान आया . उसने कहा कि मेरे प्यारे देशवासियों, बकरियां अब पंख धारण कर रही हैं . बकरियां भी उड़ेंगी खुले आकाश में . उनके पर क़तर दिए जाते थे . लेकिन अब वो जमाना गया . जो बकरियों को सिर्फ शरीर या गोश्त मानते आ रहे थे उन्हें अपनी धारणा बदलनी होगी .  इस सच को जितनी जल्दी स्वीकार करेंगे उतना अच्छा होगा .

देर नहीं हुई और जवाबी बयान और प्रतिक्रियाएं आना शुरू हो गयी . किसी ने कहा कि बकरियों को परदे में नहीं रखने का परिणाम है ये . अब हर जगह उड़ती फिरेंगी . आज एक ने आसमान देख लिया है तो आगे और भी हैं जो देखेंगी . अगर बकरियां असमान में उड़ने लगेंगीं तो असमान की हैसियत क्या रह जाएगी ! बकरियां बाड़े में बंद ही अच्छी लगती हैं . बकरियों का काम बच्चे पैदा करना और मैं-मैं  करते रहना है, वगैरह .

अभी यह सब चल ही रहा था कि ब्रेकिंग न्यूज चमकी – ‘बकरियों के हैसले बुलंद,  शीघ्र ही चाँद पर जाएँगी’ .

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शुक्रवार, 27 मई 2022

जहाँ पेड़ नहीं है वहाँ विचार भी नहीं है


 




कहते हैं कि सोचना भी एक काम है, और बहुत कठिन काम है. इनदिनों कठिन कामों के लिए  क्रेश कोर्स का चलन है. सुना है अपने वोटर लोग भी सोचने लगे हैं. ये बहुत बुरी बात है, लोकतंत्र के लिए खतरा है.  मैं वोटर हूँ, लेकिन बता दूँ कि मैं नहीं सोचता हूँ, अव्वल तो मुझे सोचने का कभी कोई काम पड़ा ही नहीं .  जब किसी ने कहा कि इस मामले पर सोचो तो सबसे पहले सवाल यही पैदा हुआ कि ‘कैसे’ !! एक अनुभवी ने बताया कि बैठ कर सोचो, गाँधी जी भी बैठ कर ही सोचते थे .  संसद भवन के बाहर उनकी मूर्ति लगी है जिसमें अभी भी वे बैठे सोच रहे हैं. खड़े आदमी के घुटने उसे खड़े रखने में व्यस्त होते हैं. अगर घुटनों में दर्द हो तो सोचने का काम लगभग असंभव है. जिन्हें गठिया हो जाता है वे गठिया के आलावा कुछ नहीं सोच पाते हैं. लेकिन जिनको सर दर्द हो रहा हो उनके साथ ऐसा नहीं है. वे कहीं पेड़ के नीचे बैठते हैं और गर्रर से सोचने लगते है. माना जाता है कि पेड़ आक्सीजन ही नहीं देते विचार भी देते हैं. बड़े बड़े संत-महात्मा पेड़ के नीचे बैठे सोचा करते थे. अब दिक्कत ये हैं कि हमारे यहाँ लोग नये पेड़ लगा ही नहीं रहे हैं. बल्कि आप गवाह हैं इसके कि पुराने पेड़ लगातार बेरहमी से काटे जा रहे हैं. महानगरों में पेड़ नहीं है इसलिए विचार भी नहीं है. एक विचारहीन यांत्रिकता है जिसे लोग जिंदगी कहते हैं. पन्द्रहवें माले की बालकनी से नंदू नीचे भागते दौड़ते लोगों को देखता है और खुश हो जाता है कि वह इस तरक्की का हिस्सा है. वो तो अच्छा है कि कमोड लगे हैं घरों में और कुछ देर मज़बूरी में वहां बैठना ही पड़ता है. जो लोग इस पवित्र स्थान पर फोन ले कर नहीं बैठते हैं वे विचारों की कुछ हेडलाइन झटक लेते  हैं. पुराने जमाने में डूब कर सोचने का मशविरा भी मिल जाया करता था. लेकिन आप बेहतर जानते हैं कि नदी में कूद कूद कर नहाने वाले अब आधी बाल्टी में नहा रहे हैं तो डूबने की गुंजाईश बचती कहाँ है. चुल्लू भर का तो रिवाज ही समझो खत्म ही हो गया है.

सुना है सोचने के कुछ कायदे भी हैं. जैसे कवि, शायर या कलाकार टाईप के लोग प्रायः गर्दन को ऊंचा करके सोचते हैं. ऐसे में कोई कोई ठोड़ी के नीचे हाथ रख ले तो माना जाता है कि गंभीर चिंतन हो रहा है. कई बार बड़े नेता भी इसी तरह सोचते फोटो में दिखाई देते हैं. इससे पढेलिखे वोटरों को एक अच्छा सन्देश जाता है. हालाँकि बाकी  लोगों की यह धारणा बनी रहती है कि नेता लोग बड़े वाले कलाकार होते हैं. कलाकार वह होता है जो करता हुआ तो दीखता है लेकिन वास्तव में वो नहीं कर रहा होता है . जो वह वास्तव में करता है वो किसी को नहीं दीखता है. सीबीआई को भी नहीं. जब कुछ सोचने की गुन्जाइश ही नहीं है तो जनता भी अब कलाकारों से काम चला लेती है. वे जानती है कि ये अलीबाबा राजनीति में आया है तो किसी न किसी दरवाजे पर जा कर खुल जा सिम सिम जरुर बोलेगा. ये अकेले नहीं, इनके साथ चालीस चालीस और भी हैं. अगर इन्हें नेता मानेगा तो दुखी होगा, कलाकार मानेगा तो फिल्म या नाटक का मजा मिलेगा. लगता है आप सोचने लग पड़े हैं, सोचिये मत, मस्त रहिये.

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हरी हरी मछली कितना पानी ?


 


                           आदमी को पैदा होने के बाद अपने यहाँ वोटर बनाने में अठ्ठारह साल लग जाते हैं । वो समझता है कि बालिग हुआ अब शादी-वादी करेगा, व्यवस्था मानती है कि वोट हुआ अपने काम आयेगा । हर पाँच साल में, या यों कहें मौके मौके पर वोट को लगता है कि वही मालिक है मुल्क का । इस बात का असर इतना कि उसका माथा गरम और चाल टेढ़ी हो जाती है । आँखों में शाही डोरे से उतार आते हैं । कुछ डाक्टर इसे सीजनल बुखार बता कर गोलियां वगैरह देकर फारिग हो जाते हैं । लेकिन अनुभवी डाक्टर बकायदा टेस्ट आदि करवा कर वोटर की जान को और कीमती बनाते हैं । इधर लोकतंत्र के पक्के खिलाड़ी जानते हैं कि वोटों को भविष्य की चिंता सताती है इसलिए वोटिंग से पहले उसे पिलाना जरुरी होता है । इधर वोट बिना कुछ किए सुखी होना चाहते हैं, भले ही हफ्ता पंद्रह दिनों के लिए ही क्यों न हो । हालांकि सुख एक भ्रम है । लेकिन विद्वान यह भी कह गए हैं कि भ्रम ही है जिससे लोकतन्त्र को प्राणवायु मिलती है । इस सब के बीच अच्छी बात यह है कि वोटर भुलक्कड़ भी है । कल उसकी इज्जत से कौन खेल गया यह उसे याद नहीं रहता है । थोड़ा बहुत हो भी तो भूलाने के लिए प्रायः एक बोतल काफी होती है ।

मैं भी नियमानुसार एक वोट हूँ । किसी ने फुसफुसा कर कहा कि तुम्हें एक ईमानदार वोट बनना चाहिए । लोकतन्त्र एक बड़े दिल की व्यवस्था है । इसमें नेता बेईमान, लुच्चे, लफंगे, झूठे, मक्कार, अनैतिक, अपराधी हों तो भी चलेगा लेकिन वोटर सच्चा, सीधा, धैर्यवान और सबसे बड़ी बात ईमानदार होना जरूरी है । मैंने पूछा वोटर की ईमानदारी के मायने  क्या हैं ? वे बोले यह नेचर का मामला है । ईश्वर ने दिन और रात बनाए, फूल और कांटे बनाए, इसी तरह नेता और वोटर हैं । दो में से एक का ईमानदार होना प्रकृतिक रूप से जरूरी है । चाहो तो इसे ईश्वर की मर्जी कह लो । अच्छा वोटर वह होता है जिसे बार बार ठगने के बाद भी ठगे जाने का दुख नहीं होता है । कबीर इस बात को पहले ही समझा गए हैं –“कबीरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय ; आप ठगाए सुख उपजै, और ठगै दुख होए” । आप जानते हैं कबीर जनता के कवि थे नेताओं के नहीं । हमारी सरकारें चाहे वो किसी भी पार्टी की हों, सबका उद्देश्य जनता को कबीर से जोड़ने का रहा है । आगे संत कह गए हैं – “सांई इतना दीजिए जा में कुटुंब समय ; मैं भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाए” । यहाँ सांई सरकार है  और जानती है कि वोटर का कुटुंब भी वोटर है और आने वाला अतिथि भी वोटर है । और संत की मंशा है कि इन्हें इतना भर मिलता रहे कि सारे बने रहें बस । ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्‍यासंसार केवल छाया है, भ्रम है । वोटर हरी मछली है लोकतन्त्र के तालाब  में । दो चार साल में एक बार पूछ लो कि ‘हरी हरी मछली कितना पानी ?’ बस बहुत हुआ, ड्यूटी ख़त्म .  एक और संत कह गए हैं “क्या ले कर तू आया जग में और क्या ले कर जाएगा ; सोच समझ ले मन मूरख अंत में पछताएगा” । वोटर सरकार की न सुनें लेकिन संतों की तो सुनते ही हैं । भजन, कीर्तन, भंडारा, कथा, प्रवचन ये सब आदमी को अच्छा वोटर बनाते हैं . कल को कोई, यानी  इतिहास, यह न कहे कि सरकारों को उनकी ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं था । चिंता और चिंतन छोडो, खाओ पियो और कीर्तन करो .

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गुरुवार, 26 मई 2022

मच्छरों का चिंतन शिविर


 

                       मच्छरदानी समझते हैं ना आप ?  छोटे से तम्बू जैसी, जलीदार कपड़े की होती है, बिस्तर पर परदे सी लटकी हुई . मच्छर जब आपसे मिलने आते हैं तो सबसे पहले उनका पाला इसी से पड़ता है .  इसे प्रायः रात को सोते समय ताना जाता है . अगर कोई दिन में भी ताने तो मक्खियों से बचाव हो सकता है लेकिन तब दिक्कत ये होगी कि इसे मक्खीदानी कहना पड़ेगा . हालाँकि नाम बदलने में क्या है आजकल ! फट से बदला जा सकता है . फिर भी सोचना इसलिए पड़ता है कि  इससे मच्छरों को बुरा लग सकता है . अपने यहाँ मच्छर भले ही वोटर न हों पर वोटर मच्छर होते हैं. इसी रिश्ते से हर कुर्सीदार और कुर्सीकामी को उनका ख्याल रखना पड़ता है . मच्छरों की कई जातियां होती हैं . जैसे काटने वाले, गुनगुनाने वाले, चूसने वाले, खून पीने वाले, शराब पीने वाले, गटर वाले, ड्रेनेज वाले, मलेरिया वाले, डेंगू वाले, दिन वाले, रात वाले, और भी कई तरह के . कुछ मित्रनुमा भी होते हैं जो ‘न जाने वाले अतिथि’ को बाहर का रास्ता दिखाने में मदद करते हैं . लेकिन मच्छर गुलाम नहीं होते हैं . उन्हें आज़ादी पसंद है . भले ही मर जायेंगे पर खून पिए बगैर नहीं मानेंगे . मच्छर गड्ढों में, अँधेरी, गीली जगहों पर रहते हैं और थोक में लार्वा पैदा करते हैं . लोगों को डराते हैं कि एक दिन पूरी दुनिया मच्छरों से भर जाएगी . लेकिन सवाल ये भी है कि जब सारे मच्छर होंगे तो ये खून किसका पियेंगे ! इसका जवाब उनके पास नहीं है .

                            खैर, बहुत पहले हम मच्छरदानी नहीं लगाते थे . मच्छर भी कम ही थे, जितने घर के अन्दर थे उतने ही . अब तो घुसपैठ होने लगी है, पैदा कहीं और होते हैं खून चूसने कहीं घुस आते हैं . सच तो यह है कि हमारे पास मच्छरदानी थी ही नहीं . मतलब बाज़ार में तो थी, लेकिन हमारे पास नहीं थी . इसे यों समझिये कि कानून तो था किताबों में लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जाता था . उस समय के मच्छर भी गाँधी, अहिंसा और सेक्युलर का पोस्टर ले कर खून चूसने  निकलते थे और कटाने से पहले कान में ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर परायी जाने रे’ गुनगुना देते थे . आदमी भजन पूरा करने के चक्कर में लग जाता और मच्छर अपना काम पूरा करने में . भजन भक्ति के साये में कब रक्तदान  हो गया आदमी को पता ही नहीं चलता था . आज भी यही है, ध्यान नहीं दो तो मच्छर कब खून चूस जाते हैं पता ही नहीं चलता है .

                             पिछले दिनों मच्छरों का चिंतन शिविर चल रहा था .  उनकी कुछ मांगें तय हुई . पहली मांग तो यही थी कि मच्छर मारने वाले प्रोडक्ट से बाज़ार भरा पड़ा है . इस पर प्रतिबंध होना चाहिए . अहिंसावादी भी मच्छर मारने के मामले में बहादुर हो रहे हैं, इन पर रोक लगे . कुछ शहरों में साफ सफाई की मुहीम चलाई जा रही है , ये मच्छरों के खिलाफ षडयंत्र है . मच्छरदानी के प्रयोग को पाप घोषित किया जाए . यदि इन मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो मच्छर अपने अलग राज्य ‘मच्छारिस्तान’ के लिए आन्दोलन शुरू कर देंगे . मच्छर जानते हैं कि किसी सरकार के पास मच्छरों की रोकथाम का कोई उपाय नहीं है .

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सोमवार, 23 मई 2022

फूलों पर लिखो यार


 


“आप फूलों पर लिखा करो यार . सिर्फ फूलों पर .” आते ही उन्होंने आदेश सा दिया .

“फूलों पर क्यों !?” मैं चौंका .

“क्योंकि फूल भी हैं संसार में . खिल रहे हैं चारों तरफ . आँखें खोल कर देखो . दिनरात सरकार पर ही भिड़े रहोगे तो फूलों पर कौन लिखेगा ? कवियों और लेखकों को प्रकृति प्रेमी ही होना चाहिए .” उनका स्वर शिकायती था, लगा कुछ नाराज हैं .

“ऐसा है भाई जी, लेखक वो लिखता है जो उसे प्राथमिक रूप से जरुरी लगता है . घर में बिजली तो है आपके यहाँ . अगर कहीं शार्ट सर्किट हो, जलने की गंध आ रही हो तो मेन स्विच की और ही दौड़ोगे ना ? ... अव्यवस्था की गौमुखी जिधर होगी लेखक उधर ही जायेगा . ” उन्हें समझाने की कोशिश की .

“अपने को सुधारो जरा . खुद की नज़रों में खोट हो तो हर तरफ बुरा बुरा ही दिखता है . अच्छी नजरें वो होती हैं जो कीचड़ में भी कमल को ही देखती हैं, समझे . कबीर कह गए हैं –  ‘साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय ; सार सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाए’ . जो बुरा बुरा है वही थोथा है, उस पर ध्यान मत दो . जो बुरा नहीं देखता वही साधु है . साधु हर जगह पूज्य है, हर राज्य में पूज्य है . कुछ साधु सीधे भजन, पूजन, आरती, कीर्तन, गान आदि करते हैं, बहुत से लोग यह काम लिख कर करते हैं . हम उन्हें उन्हें साधु-लेखक मानते हैं और मनवाते भी हैं . अच्छे साधु-लेखकों को राज्य पुरस्कार, सम्मान, पदवी वगैरह दे कर उनके कर्म को सम्मति और प्रोत्साहन देता है . अगर लेने वाला डिफाल्टर न हो तो देने में किसी दाता को कोई दिक्कत नहीं होती है .” उन्होंने अपनी समझ बताई .

“पुरस्कार, सम्मान अच्छे हैं लेकिन जरुरी नहीं कि ...”

“देखो, तुम्हें ऐसे कुछ नहीं मिलेगा . तुम फूलों पर कुछ लिखो और फिर देखो क्या क्या होता है ! फूलों पर लिखा साहित्य एसिडिटी की गोली की तरह होता है . पिछला एसिड न्यूट्रल करने का और कोई उपाय नहीं है . प्रकृति कवि बनो, नीला आसमान, मादक पवन, चहचहाते पंछी देखो . तितलियों पर लिखो,  फूलों पर कलम चलाओ ताकि कल तुम्हारे आंगन में फूल खिलें और दीवारों पर प्रशस्ति-पत्रों की अंगूरी झालर टंकी हो . ... अमलतास फूल रहा है इन दिनों, उस पर लिखो . ” वे बोले .

“अमलतास पर तो ... मुश्किल है . मैंने तो अभी तक ठीक से देखा भी नहीं है . आप कहें तो गुलाब पर लिखूं ?”

“ठीक है , गुलाब पर लिखो, ... लेकिन लाल गुलाब पर मत लिखना.  नेहरू ने सीने पर लगा लगा कर गलत सन्देश दिया था और नतीजे में कम्युनिस्ट ऐसे सर पर चढ़ गए कि आज तक उतरना मुश्किल है .” उन्होंने उंगली उठा कर कड़ी हिदायत के साथ कहा .

“लेकिन इन दिनों तो कम्युनिस्ट सोये हुए हैं . कहीं कोई हलचल नहीं . इतनी भरपल्ले महंगाई में भी जो नहीं उठे वो तो पूंजीवाद के समर्थक हुए ना . फिर उनसे डर कैसा ?” हमने परोक्ष रूप से लाल गुलाब पर लिखने की मंशा जाहिर की .

“ डर वर कुछ नहीं, गुलाब से लोग लाल गुलाब और शेरवानी ही समझते हैं . तुम तो अमलतास पर लिखो .” वे नहीं माने .

“ गुलमोहर पर लिखूं, वह भी खूब फूल रहा है इनदिनों ?” अब हमने भी मजाक का मूड बनाया .

“कहा ना लाल नहीं, बड़ी मुश्किल से लोग लाल झंडा भूले हैं . चलो गेंदे पर लिखो ... गेंदा तो जनम से ही देखते आ रहे हो . गेंदा ठीक है ? ”

“गेंदे पर कविता निकलेगी नहीं , आप कहें तो मोगरा चमेली ...”

“निकलेगी कैसे नहीं ! वो कितना अच्छा लिखा है किसी ने ‘फूल गेंदवा न मारो, लगती करजवा में तीर’, एक और भी है ‘ससुराल गेंदा फूल’  . साहित्य को मोगरा चमेली वाली  कोठागिरी से बाहर निकालो . जरा सोचो और फटाफट लिख डालो ‘गेंदा खण्डकाव्य’ और चार महीने बाद सम्मनित होने के लिए तैयार रहो .

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शनिवार, 14 मई 2022

महंगाई एक भ्रम है






“देखो संसार में महंगा सस्ता कुछ नहीं होता है . महंगाई सिर्फ एक भ्रम है .  फिर भी  अगर तुमको लगता है कि दाल महँगी हो गई है तो पानी थोड़ा ज्यादा डाल दिया करो . अभी पानी तो सस्ता है ना .” वीर सिंह ने पत्नी को समझाया .

“मिर्च-मसाला, प्याज-लहसुन, तेल सभी तो महंगा है ! इनकी जगह क्या डालूं ... धूल !”

“ अरे तो कौन सा पहाड़ टूट गया है जो नाराज हो रही हो ! सादी दाल खायेंगे. हमारी दादी कहा करती थी कि सादी और पतली दाल स्वास्थ्य के लिया बढ़िया होती है . बीमार भी पड़े पड़े पचा लेता है . सादी दाल ही बना लिया करो यों भी हम लोगों का पेट पिछली सरकारों का सस्ता सस्ता खा कर ख़राब हो गया है . आम आदमी हैं, हमें जीने के लिए खाना चाहिए . खाने के लिए जीने का अधिकार उनका है जिनके जेब में दो चार एमपी पड़े होते हैं . “

“लेकिन गैस का क्या !? ...सिलेंडर हजार से उप्पर जा कर भी उछलूँ उछलूँ कर रहा है . “ वे बोलीं .

“थोड़ी सी समझदारी बताओ भागवान . थोड़े दिनों की बात है दो हजार पैंतीस तक सब ठीक हो जायेगा . दिन जाते कोई देर लगती है . भामाशाह ने महाराणा प्रताप के सामने सोने चांदी के आभूषण ला कर रख दिए थे . बताओ आभूषण क्या वे पहनते थे ? घर की महिलाएं पहनती थीं, उन्होंने दिए थे . आज समय विकट है लेकिन कोई भामाशाह महाराणा के चरणों में कुछ रख नहीं रहा है बल्कि अपने आभूषण दुगने चौगुने कर रहा है .”

“तो पेट्रोल-डीजल, गैस से इसका क्या मतलब है !”

“वित्तमंत्री को किसी ने बताया कि सीधी अंगुली से घी नहीं निकलता है सो उस बेचारे ने टेक्स लगाने पड़ रहे हैं . देखो, महंगाई को लेकर शोक या क्रोध करने का समय नहीं है . देश जनसँख्या पीड़ित भी है . लाख से ज्यादा पैदा हो रहे हैं रोजाना . महंगाई जनसँख्या नियंत्रण का एक उपाय भी है . हमें इसमे सहयोग करना चाहिए .”

“दो बच्चे हैं हमारे ... ये सहयोग कम है क्या ?! ... कम और ज्यादा बच्चे वालों के लिए एक ही महंगाई !! ये तो अन्याय है .”

“सोचो कल हम विश्वगुरु होंगे, महाशक्ति बनेंगे, जहाँ भी खोदेंगे वहां पानी, तेल और  मूर्तियाँ मिलेंगी, दुनिया हमें झुक कर सलाम करेगी, हम ... हम ... हम ...”

“घर मुझे चलाना होता है . जब भी मैं अपनी समस्या बताती हूँ तुम बौद्धिक देने लगते हो !! महंगाई का तुम्हें दर्द नहीं है तो कम से कम कहीं ओवर टाइम करो, कोई एक्स्ट्रा काम करो, चार पैसे लाओ ताकि दाल को पानी होने से बचाऊँ तो सही . पनीली दाल से बच्चों को देश का भविष्य कैसे बना पाएंगे !?”

“अरे देवी ! ... एक तो तुम सोचती बहुत हो . सरकार को पता चल गया तो देशद्रोह में पकड़ी जाओगी . देखो, सोचना ही है तो सही दिशा में सोचो . अतीत का सोचो, कितना गौरवशाली था . वर्तमान का सोचो कि कितना खतरा है अन्दर बाहर से . भविष्य में सिर्फ डर है लेकिन उस डर को जिन्दा रखो क्यों की डर के आगे पार्टी की जीत है, ... समझी ?”

“और महंगाई ?!”

“कहा ना शुरू में ... महंगाई एक भ्रम है .”

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मंगलवार, 10 मई 2022

आज गरमी बहुत है भाई !


 



‘बहुत गरमी है भाई !’ , आते ही हरगोविंद जी बोले . मैंने सहमति जताई, आप सही कह रहे हैं, आज बहुत गरमी है . गरमी एक ऐसी चीज है जिससे हर कोई सहमति जता सकता है . वरना तो आजकल माहौल ऐसा है कि किसी भी मुद्दे पर सहमत होना बड़ा मुश्किल है . जहाँ तक हरगोविंद जी का सवाल है उनसे प्रायः  सब सहमत हो कर सिर हिला देते हैं . कुछ तो उनकी बड़ी बड़ी मूंछों का मान रखते हैं जो हाल के वर्षों में उन्होंने पालपोस ली हैं . और हम जैसे नाचीज तो उनसे कम उनकी लाठी को देखते हुए बात करते हैं . वे पुलिस विभाग से रिटायर हुए जवान हैं . सो लाठी, मूंछों और उनका लंबा संग-साथ है . सुना है वे दोनों को तेल पिलाते हैं सुबह शाम, कहते हैं कि इससे दोनों असरदार बनी रहती हैं . दरअसल लाठी उनके व्यक्तित्व के साथ जुड़ गयी है, जैसी गाँधी जी की प्रर्तिमाओं में हम उन्हें लाठी के साथ देखते हैं . हरगोविंद जी की मूंछे और लाठी परस्पर पूरक भी हैं . लाठी के बिना मूंछ और मूंछों के बिना लाठी जैसे नाड़ा और पजामा . दोनों मिल कर हरगोविंद जी को वो बना देते हैं जो वे नहीं हैं . पुलिस विभाग ने भी दरअसल मूंछों और लाठी को ही रिटायर किया है, हरगोविंद जी तो केयर टेकर हैं सो साथ ही बाहर आ गए . वे फिर बोले –‘इस बार गरमी कुछ ज्यादा ही पड़ रही है’ . हमने समर्थन किया – ‘आप ठीक कह रहे हैं, वातावरण बहुत गरम है’.

“वातावरण गरम है मतलब !?” वे बोले .

“मतलब वातावरण में बहुत गरमी है .” हमने सफाई दी .

“आपकी बातों में सरकार के विरोध की बू आ रही है ! ‘वातावरण’ कहने की क्या जरुरत है ? ‘बहुत गरमी है ‘ इतना कहना पर्याप्त नहीं होता क्या !?” उन्होंने मूंछों और लाठी पर हाथ फेरते हुए कहा . 

“वातावरण का कोई खास मतलब नहीं है, वैसे ही कह दिया कि बात प्रभावी हो जाये”.

“शब्दों की यह फिजूलखर्ची आपको किसी दिन महँगी पड़ सकती है . वातावरण एक आपत्तिजनक शब्द है, समझते  नहीं हो क्या ?!”

“वातावरण में अपत्तिजनक क्या हो सकता है !! न यह साम्प्रदायिकता बढ़ने वाला शब्द है न ही किसी का अपमान करने वाला .”

“है क्यों नहीं ! ये सांप्रदायिक भी है और अपमानजनक भी . ठीक से सोच कर देखिये .”

“अब इतनी बारिकी से कौन सोचता है हरगोविंद जी ! किसके पास इतना वक्त है .”

“किसी गलत फहमी में मत रहिये, जिन पर जिम्मेदारी है देश की उन्हें सब सोचना पड़ता है . वातावरण के लिए करोड़ों खर्चने होते हैं, जगह जगह जा कर भाइयो-बहनो कहना पड़ता है तब कहीं जा कर एक वातावरण बनता है . और आप हैं कि बातों बातों में ‘वातावरण’ ऐसे उछाल देते हैं जैसे वह रास्ते में पड़ी कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतल हो ! अगर पुलिस चाहे तो मामला देशद्रोह का बन सकता है .”

“अब आप तो रिटायर हो गए हैं ... दूसरा कोई तो है नहीं यहाँ .”

“विभाग ने वर्दी ले ली है लेकिन मूंछे और लाठी हमारे पास है. ...पुलिस न हो पर मोराल पुलिस हमारे साथ है ...  तो अपने को सही कीजिये, कहिये ‘आज गरमी बहुत है और गरमी के सिवा कुछ नहीं है’. “

“आप सही कह रहे हैं हरगोविंद जी, आज गरमी बहुत है गरमी के सिवा कुछ नहीं है’.”

 

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शुक्रवार, 6 मई 2022

बौनों के बीच गुलिवर


 समुद्र तट पर अजनबी को देख कर लोग इकठ्ठा हो गए, पूछा – “तुम कौन हो जी !? और यहाँ आये कैसे !?” 

“मैं गुलिवर हूँ बौने मित्रों, पिछली बार की तरह यात्रा पर निकला था लेकिन तूफान में मेरा जहाज फँस कर टूट गया . मैं बड़ी मुश्किल से तैर कर यहाँ पहुँचा हूँ .” गुलिवर ने बताया . 

सुन कर बौने एक दूसरे को देखने लगे . उन्हें याद आया कि ऐसा ही कुछ पहले भी हुआ था . पुरखों से सुना था कि थका यात्री गुलिवर जब सो रहा था तो बौनों ने उसे कैद भी कर लिया था . एक बौना मुस्करा कर बोला – “ आप हमारे अतिथि हैं जरुर थक गए होंगे, सो जाइये ना .” 

“थका तो हूँ पर सोऊँगा नहीं . पिछली बार थक कर मैं सो गया था तब उस समय के बौनों ने मुझे रस्सियों से बांध लिया था . बहुत दिनों तक उनकी कैद में रहना पड़ा था .” गुलिवर ने कारण बताया तो बौने समझ गए कि ये वही आदमी है . बोले – “ आप डरो मत, अब यहाँ किसी को बाँधा या कैद नहीं किया जाता है, मोबलीचिंग करते हैं .”

“मोबलीचिंग ! ये क्या नया कानून है ?”

        “ये कानून से ऊपर एकता का दिव्य कर्म है .  मतलब सब इकठ्ठा हो कर, झुण्ड बना कर सेवा कर देते हैं और सामने वाले का पुराना संस्कार निकाल कर नया डालते हैं .... “

“झुण्ड बना कर क्यों करते हैं ... सेवा !!” गुलिवर चौंका .

“बौने हैं ना, ऊँचाई कम है . तुमने सुना होगा कि लकड़बग्घे झुण्ड बना कर प्रयास करते हैं तो बड़े शेर को भी चट कर जाते हैं .”

“ओह ! आप लोगों की ऊँचाई कैसे कम हो गयी !!” गुलिवर डर गया लेकिन बातों में उलझा कर कोई रास्ता निकलना था उसे . 

“महंगाई और टेक्स बहुत है,  बोझ से दब कर छोटे होते जा रहे हैं . राजा चाहता है कि उसकी प्रजा बेक्टेरिया की तरह हो जाये तो पूरी दुनिया पर राज करेंगे .  उसका हुकम है कि एकता रखो, संगठन में शक्ति है, पढ़लिख कर ऊँचाई प्राप्त करना मूर्खता है , शिक्षा दूसरों की गुलामी का औजार है . इसलिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं संगठन में जाते हैं .”

“फिर भी यह समझ में नहीं आया कि शरीर इतना बौना कैसे हो गया !? क्या महंगाई के कारण पेट नहीं भर पाता है आप लोगों का ?” गुलिवर ने सहानुभूति पैदा करना चाही .  

“महंगाई की कोई बात नहीं है जी, अब तो लाल झंडे वाले भी चुप हैं तो टापू के सामने महंगाई कोई मुद्दा ही नहीं है . दरअसल राजा साहब चाहते हैं कि प्रजा स्वस्थ और सक्रीय रहे  . सक्रीय रहने के लिए भूखा रहना जरुरी है .  भूखे अपने लक्ष पर पूरी ताकत से टूट पड़ते हैं. जो लोग खाए अघाए होते हैं वो आलसी-लद्दड़ टापू पर बोझ होते हैं . अगर वे टेक्स-पेयर  नहीं होते तो बौनों ने अब तक उनका मोबलीचिंग कर दिया होता . टापू को विकास की तेज दर हासिल करना है उसके लिए धन भी चाहिए . उस दिन का इंतजार है जब पूरा टापू भूखों और बौनों से भर जायेगा . इसके  बाद हमारे राजा विश्वगुरु बन जायेंगे .” 

“क्या टापू में इतने बौनें हैं की राजा विश्वगुरु बन पायें ? .”

“सच बात ये है कि टापू जनसँख्या वृद्धि का शिकार है . बौनों के पेट आधे या चौथाई हो जाते हैं . इस तरह पचास लोगों के भोजन में सवा सौ लोग पाले जा सकते हैं . हमारा राजा बहुत दूर की सोचता है .” एक बौना बोला .

दूसरे बौने ने और खुलासा किया – “ पूरी जनसँख्या अगर बौनी हो गयी तो अनाज बचेगा, भूखे काम भी खूब करते हैं,  जनसँख्या नियंत्रण की गति भी बढ़ेगी और संगठन को शक्ति भी मिलेगी .” 

“कितना कीमती विचार है !! फिर तो राजा को महंगाई को लेकर कुछ ठोस सोचना चाहिए .”  गुलिवर ने कहा . 

 “राजा सोचते हैं, उनके मन की बात बौने जानते हैं . वे वैज्ञानिकों से भी बड़े वैज्ञानिक हैं . जिस तरह धूप से सोलर-इनर्जी निकलती है उसी तरह भूख से बाटम-इनर्जी निकलती है . टापू पर बाहरी लोग घुसे चले आते हैं . ....”

“बाहरी लोग कौन ?!”

“जैसे एलियन, जैसे इस वक्त तुम ... इनसे लड़ने के लिए बौनों में टापू प्रेम और मार मिटा देने का जज्बा होना चाहिए . भूखों में जीवन का कोई आकर्षण नहीं होता है इसलिए आधी रात को भी मरने मारने को तैयार रहते हैं .”

“लेकिन पिछली बार जब मैं आया था तो टापू के लोगों ने बहुत प्यार किया था मुझे .  खूब खिलाया पिलाया था ...” 

“टापू वही है, बौने वही हैं, सेना भी वही है . लेकिन राजा बदल गया है . गुलिवर ... तुम भले ही जाग रहे हो पर अब तीसरी यात्रा तुम्हारे भाग्य में नहीं होगी .” कह कर बौनों की भीड़ गुलिवर पर टूट पड़ी .


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बुधवार, 27 अप्रैल 2022

देहला पकड़


 

आदमी अपनी वाली पे आ जाये कि लिखना है तो कुछ भी लिख सकता है . फुरसत का तो पूछो मत ; अब दिनों, हप्तों, महीनों, वर्षों की होने लगी है . आप ही सोचिये कितनी ही बेरोजगारी क्यों न हो आखिर कोई कब तक दहला पकड़ खेल कर टाइम पास पर सकता है ! लेकिन सिर्फ यही एक वजह नहीं है कि हर कोई लेखक हुआ पड़ा है . हर घर में बेरोजगार है जो ग्रेजुएट या इससे भी ऊपर तक पढ़ा है . कुछ ने बहकावे में आ कर चाय की दुकान तक लगा डाली लेकिन दुर्भाग्य, नाले से पर्याप्त गैस नहीं मिली . पांच छह सालों में बेरोजगारों की भीड़ इतनी बढ़ गयी है कि कोई भक्त सरकार यदि इन्हें गैस चेंबर में भर कर मोक्ष प्रदान करना चाहे तो गैस ही कम पड़ जाये . दुविधा और भी है आदमी पूरा मरा हो तो तकनीकी रूप से उसका वोट दो-चार चुनाव तक मेनेज हो सकता है . लेकिन अधमरे बेरोजगार से वोट लेना भी महंगा पड़ता है, नाशुक्रे रुपये ज्यादा मांगते हैं या फिर नोटा का भाटा मार देते हैं . इन्हें डंडे भी मारो तो कमबख्त नौकरी मांगते जोंक की तरह चिपक जाते हैं . वो तो अच्छा है बीच बीच में रैली-उद्योग, दंगा-उद्योग, सभा-उद्योग में बेरोजगारों की जरुरत निकल आती है और हजार पांच सौ उनके हाथ में आ जाते हैं वरना बीडी सिगरेट के डोडे पीने वाले हाथ कब पत्थर उठा लें कहा नहीं जा सकता है .

इधर साक्षर कालोनी से चार पांच साप्ताहिक पाक्षिक अख़बार निकल रहे हैं जो राष्ट्रीय स्तर के हैं ऐसा उनका दावा है . अख़बार अपना हो तो बाहर का साक्षर संपादक रखने की जरुरत नहीं पड़ती है . योग्यता का कोई सवाल ऐसी स्थिति में पैदा ही नहीं होता है . कुछ ने तो अपनी संगिनी को संपादक की कुर्सी पर बैठा लिया है . जब पार्षद-पति / सरपंच पति हो सकता है तो संपादक-पति क्यों नहीं ? एक राज्य में तो अपढ़ पत्नी को मुख्यमंत्री तक बना लिया गया था . और लोकतंत्र की जय हो कि वह पांच वर्ष राज भी कर गयी ! साक्षर कालोनी के इन राष्ट्रीय अख़बारों का च्यवनप्राश सरकारी विज्ञापन  हैं . मिल जाएँ तो पूरा अख़बार विज्ञापनों से भर दें . लेकिन थोडा बहुत दूसरा भी छापना पड़ता है . अच्छा ये है कि लिख्खाड अपनी रचनाएँ ले कर लम्बी लम्बी लाइन लगाये खड़े होते हैं . जीतनी जगह बचती है उस हिसाब से हांका लगा दिया जाता है . ‘चलो पांच सौ शब्द वाले आ जाओ’ . और एक झुण्ड आ जाता है . तीन सौ, दो सौ वाले भी बुला लिए जाते हैं . कभी कभी तो सौ वाले छः सात ले कर गरीबों के साथ न्याय करने का अवसर मिल जाता है . हजार पंद्रह सौ शब्द वालों को अब कोई नहीं पूछता है और गलती से भी कोई पारिश्रमिक मांग ले तो उसे बलात्कारी की तरह देखा जाता है .

खैर, साक्षर कालोनी की बात चल रही थी सो वहीं पर आते हैं . तमाम खाली हाथ इतने खाली हैं कि फ्री के स्लो-वाईफाई के बावजूद खाली ही रहते हैं . पहले दो जीबी डाटा फ्री देने वालों ने जबसे खुद हाथ पसारना शुरू कर दिया है यार लोग साहित्य का दहला-पकड़ खेलते हैं . अच्छी बात यह है कि एक दो रचना से मजे में आठ दस लोग खेल लेते हैं . किसी ने कविता, कहानी सुनाई तो कुछ आह और कुछ वाह भी ठोंकते हैं . हिसाब हर बात का होता है, नंबर सबका आता है . साहित्य का स्टार्ट-अप है जिसमें हर हाथ और मुँह के लिए काम है . नियमानुसार तारीफें ‘फटाफट-लोन’  हैं, मौके पर उसकी किस्तें जमा करना होती हैं .  कुछ की रचनाएँ कालोनी के राष्ट्रीय अख़बारों में छपते ही उस दिन का वह राष्ट्रीय कवि हो लेता है . सुख एक अनुभूति है जो निजी होती है . इसे आप नहीं समझोगे .

 पिछले दिनों तय हुआ कि शीघ्र ही ‘दहला-पकड़ साहित्य सम्मान’ शुरू किया जायेगा . पकड़ी जाने वाली विभूति को फूल माला, प्रशस्ति-पत्र, और ‘दहला-अलंकरण’ मोमेंटो वगैरह दिया जायेगा .  कुछ पैसा प्रायोजकों से और कुछ सम्मान प्रेमियों से एडवांस लिया जायेगा .  हाल या परिसर मालिकों को अध्यक्ष या मुख्य अतिथि बना कर उन्हें कार्यक्रम के दौरान पांच बार ‘महान हिंदी सेवी’ या ‘महान साहित्य सेवी’ संबोधित किया जायेगा . स्व-लेखन/प्रकाशन की अनिवार्यता से ‘पकड़-सम्मान’ मुक्त रखा जायेगा ताकि साहित्य की ओर अधिकारी, नेता, व्यापारी, उद्योगपति आदि आकर्षित हों . बेरोजगारी की आपदा में अवसरों का सृजन कोई बुरी बात नहीं है . पहले रूपरेखा तय हो जाये फिर दहला पकड़ते हैं . आयोजन समिति के ‘विवेक’ पर सारी बातें छोड़ी जाएँगी . जहाँ विवेक नहीं होगा वहाँ बहुमत से निर्णय लिए जायेंगे . पकड़ प्रतिभाओं की बुकिंग चालू रहेगी . शीघ्रता करें, निराशा से बचें .

 

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