बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

पाकी के पास परमानू

                             
 
जब से बदरू ने सुना है कि पाकी ने परमानू बम मारने की घमकी दी है उसकी नींद उड़ गई है। बीवी तो बीवी है, उसकी चिंता ये है कि बदरू दो दिन से सो नहीं पाए हैं। जब वो नहीं सो पाए हैं तो जाहिर है कि वह भी नहीं सो पा रही है। जब दोनों नहीं सो पा रहे हैं तो क्या करेंगे सिवा बातों के। बदरू का ही एक शेर है कि ‘नींद जब न आए तो बातें कर, कोई न हो तो बदरू से कर’। बदरू जब जागते हैं तो खुद से ही बातें करते हैं। उनकी इसी आदत से परेशान घर वालों ने ही उन्हें अफीम की लत लगा दी। लेकिन आज बात अलग है, पाकी के पास परमानू है और उन्हें लग रहा है कि वो सीधे उनके उपर गिराने वाला है। यही चिंता उन्हें खाए जा रही है कि पाकी के परमानू से कौन कौन मरेगा। साइंस से सब कुछ मुमकिन है, अमरिक्का अपने घर में बैठे बैठे दूसरे मुल्क में किसी के ख्वाबगाह पर निगाह रख लेता है तो फिर क्या छुपा है किसी से। इतनी तरक्की के बारे में तो उन्होंने कभी सोचा नहीं था वरना आज चौदह बच्चों के बाप हो कर बेइज्जती के खतरे से सराबोर नहीं रहते। पता नहीं नामाकूलों ने क्या क्या नहीं देखा। चलो देखा सो देखा, उनको देखे से कुछ हमने सीखा और हमें देखे से वो कुछ सीख लेंगे। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन साइंसदानों कुछ इल्म और हाॅसिल करना था। पाकी वाले जो परमानू मारेंगे उससे बदरू नहीं मरें इसका कुछ इंतजाम होना चाहिए या नहीं। अगर यों उठा के मार दिया तो बिरादरान भी मारे जाएंगे ! साइंसदानों को कोई ऐसा बम बनाना चाहिए था जो धर्म-ईमान देख कर फटे। तब तो माने कि सही मायने में तरक्की हुई। पाकी कहता है कि हिन्दुस्तान में हमारे भाई रहते हैं और कल अगर परमानू मार दिया और भाई लोग ही फना हो गए तो !! बम तो बम है भई, बोले तो पक्का सेकुलर। मारने को निकले तो फिर कुछ देखे नहीं, न धरम न जात। आधे जन्नत जाओ, आधे सरग में और बाकी धरती पर पड़े सड़ते रहो। पाकी के हाथ में परमानू का मतलब है किसी बंदर के हाथ में उस्तरा। मालूम पड़े किसी दिन परेशानी की हालत में परमानू से ही सिर ठोक लिया उसने। जो नादानी में बंटवारा करके पाकी बना सकते हैं वो परमानू से सिर नहीं ठोक सकते हैं। 
                   अब आप जान गए होंगे कि बदरू को नींद नहीं आने का कारण वाजिब है। दुनिया में सबसे ज्यादा मुसलमान भारत में हैं और उनका पड़ौसी, जिसका दावा है कि वो उनका खैरख्वाह है, भाई है, वही उन पर परमानू तरेर रहा है। माना कि सियासत में भाई का भाई नहीं होता है लेकिन बदरू को अपने चौदह बच्चों और दो बीवियों की फिक्र भी है। कल को परमानू सीधे आ कर उनके सिर पर गिर गया और दूसरी दुनिया नसीब हो गई तो पता नहीं बीवी-बच्चों को मुआवजा मिले या नहीं मिले। एक जिम्मेदार आदमी फिक्र के अलावा और कर भी क्या सकता है। और आप समझ सकते हैं कि फिक्रमंद आदमी को नींद कैसे आ सकती है। 
                          मुर्गे ने बांग दी, सुबह हो गई। बदरू ने बीड़ी सुलगाते हुए बीवी से कहा, ‘‘ पाकी के परमानू की चिंता में बदन गल सा गया है, आज इस मुर्गे को बना लेना’’।
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शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

देशभक्ति वाला खून .

                             डाक्टर ने रिपोर्ट देखते हुए कहा कि ‘‘आपके खून में चिकनाई बहुत है।  मेरा मतलब  है .... खाये से अधिक चिकनाई. ...... कभी भी सीबीआई का छापा पड़ सकता है।’’
          वे चिंतित हो गए। उनके चेहरे का रंग ऐसे उड़ने लगा जैसे दंगों की अफवाह उड़ती है। कोई और होता तो गिर पड़ता, लेकिन वे पहले से ही इतने गिरे हुए थे कि अब और संभावना नहीं बची थी। ऐसे आकस्मिक मिथ्यावार पर वे अक्सर चीखते हैं, झल्लाते हैं लेकिन यहां अभी कैमरामेन नहीं है, मीडिया नहीं है तो कोई फायदा भी नहीं है। कुछ देर पूरे ढ़ीठपन के साथ अपनी मजबूरियों की उन्होंने जुगाली की, फिर बोले -  ‘‘ चिकनाई-विकनाई का तो ठीक है डाक्साब, देशभक्ति कितनी है ये बताओ ?’’
                      ‘‘ देशभक्ति खून में नहीं होती है।’’ डाक्टर पर्चा रखते हुए बोले।
                   ‘‘ ऐसे कैसे नहीं होती है !! जब हुजूर ने कहा है कि उनके खून में देशभक्ति है तो  इसका साफ मतलब है कि खून में देशभक्ति होती है। ’’ हुजूर की इज्जत के लिए वे थोड़ा हुमके।
                     ‘‘ होती होगी, पर खून की जांच रिपोर्ट में देशभक्ति नहीं आती है। ’’ 
                    ‘‘ ऐसा कैसे !! आप फिर से टेस्ट करवाइये। जो चीज खून में है वो रिपोर्ट में बराबर आना चाहिए। वरना समझ लीजिए हमारा मौका आया तो डाक्टरी साइंस पर हमें जांच बैठाना पड़ेगी।’’
                    ‘‘ हो सकता है कि  हुजूर के खून में हो,.... आपके खून में ना हो ।’’ डाक्टर ने गुगली फेंकी ।
                  ‘‘ क्या बात करते हैं आप !! ऐसा कैसे हो सकता है कि  हुजूर के खून में है और हमारे खून में नहीं है।’’
                    ‘‘ आप  हुजूर के खानदान वाले हैं ?’’
                    ‘‘ नहीं, खानदान के नहीं पार्टी के हैं। ’’
                     ‘‘ पार्टी और खानदान में फर्क होता है।’’
                    ‘‘ दूसरों के लिए होता होगा, ...... हमारे लिए नहीं। छोटे हैं तो क्या हुआ, हुजूर मांई-बाप हैं हमारे।’’
                    ‘‘देखिए, हर आदमी का खून अलग अलग होता है। कोई ए, कोई बी, कोई एबी, कोई .....’’
                   ‘‘ हां हां, सब जानते हैं हम,... ए बी। ...... हमारी पार्टी में सबका खून सी-पाजीटिव है। हाई कमान से लेकर हमारे पार्षद पति की बीवी तक सब सी-पाजीटिव हैं।’’
                     ‘‘ सी-पाजीटिव !! .... खून में सी-पाजीटिव नहीं होता है श्रीमान जी। ’’
                    ‘‘ लेकिन पार्टी में होता है। आप ठीक से देखिए, मेरा भी सी-पाजीटिव होगा। ’’
                   ‘‘ माफ कीजिए, आपका बी-पाजीटिव है।’’
                   ‘‘ बी-पाजीटिव !! आप कहना क्या चाहते हैं। क्या मैं बीजेपी में हूं ? .... देखिए डाक्साब, ये अच्छी बात नहीं है। अगर मीडिया वाले यहां होते तो कल के कल में मेरा केरियर चैपट हो जाता। जानते हैं, बी-पाजीटिव वालों से हमारे हुजूर बात तक नहीं करते हैं।’’
                    ‘‘ और ए-पाजीटिव वालों से ? उनसे बात करते हैं ?’’
                    ‘‘ उनकी खांसी ठीक हो जाए तो बात कर सकते हैं, ..... वो अच्छा काम कर रहे हैं, दिल्ली के ही हैं। और भी कई कारण हैं जिसके चलते हुजूर ए-पाजीटिव वालों को एकदम नापसंद नहीं करते हैं। ....... अच्छा एक बात बताइये, क्या ए और बी पाजीटिव खून में भी देषभक्ति होती है ?’’
                      ‘‘ रिपोर्ट में तो नहीं देखा आजतक ।’’
                     ‘‘ सही कहा, ..... रिपोर्ट में कैसे आएगा जब खून में देश भक्ति होगी ही नहीं। ...... लेकिन डाक्टर साब, प्लीज, ये बात बाहर नहीं जाना चाहिए कि मेरे खून में क्या है और क्या नहीं है।’’ 
                      ‘‘ आप चिंता मत कीजिए, हम सारी रिपोर्टें गोपनीय रखते हैं। वैसे भी आपके खून में चिकनाई के अलावा और कुछ नहीं है। ’’
                       ‘‘ क्या करो डाक्साब, राजनीति में चिकनाई के लिए ही तो जाता है आदमी। चिकनाई ना हो तो देशभक्ति के मायने क्या हैं। ’’
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बुधवार, 20 जनवरी 2016

हरेभरे ठूंठ !

                     
       नए राजा को लाल मैदान में अपनी सत्ता का परचम लहराना था, इसलिए वे बघ्घी पर सवार हो कर गुजरे। दूसरे दिन अखबारों में राजा की फोटों के साथ खबर बनी कि राजा जी बघ्धी पर पधारे, झंडा फहराया और लाल मैदान को पीला मैदान बनाने की घोषणा की। लेकिन ‘दैनिक दुकान’ ने घोड़ों के फोटो छापे, और लिखा कि ‘लाल मैदान की ओर जाते घोड़े’। लाल मैदान से ‘दैनिक दुकान’ को भले ही चिढ़ हो पर घोड़ों से प्यार है। घोड़े न हों तो उसकी खबरें ही नहीं बनें। अक्सर वो घोड़ों को सूत्र कहते हैं। जो घोड़े राजा को ढ़ो रहे हैं वे दरअसल वे कई दुकानों का जरूरी हिस्सा भी हैं। आमजन इन्हें लग्गू के नाम से जानते हैं । यदि व्यवस्था बघ्घी है तो लग्गू उनके घोड़े हैं। ऐसे में खबर बघ्धी की हो तो घोड़ो का महत्व ‘सवार’ से ज्यादा हो जाता है। यहां ‘शर्तें-लागू’ हैं, यानी घोड़ा वही जो बघ्धी में लगा हो, बाकी को आप कुछ भी मानने के लिए स्वतंत्र हैं, गधा तक। 
                       तो असल बात लगने या लगे रहने की है। व्यवस्था कोई भी हो, कामयाब वही होते हैं जो लगे रहते हैं। सच्ची बात तो यह है कि कामयाबी लता की तरह होती है और समझदार को ठूंठ की तरह उससे लगा रहना पड़ता है। एक बार अगर ठूंठ ठीक से लग जाए तो लता के पास कोई विकल्प नहीं रह जाता है। लता की मजबूरी ही सफलता है। अब लगे रहने को देखें तो यह इतना आसान काम भी नहीं है कि आए और लग लिए मजे में। बिना ठूंठ हुए आदमी कहीं लग भी नहीं सकता। दिक्कत यह है कि दुनिया ठूंठ को ठूंठ मानती है और लगे हुए को लगा हुआ। दोनों ही मामलों में तिरस्कार की भावना प्रधान होती है। समझो कि आग का दूसरा दरिया है और इसमें भी डूब के ही जाना है। एक तरह की बेशरम जांबाजी की जरूरत होती है। लेकिन उम्मीद एक बहुत पौष्टिक चीज है, वह जानता है कि एक बार लता लिपट गई तो वह भी उपर से नीचे तक हरा ही हरा है। तो भइया आप समझ ही गए होंगे कि आजकल  इतिहास वही बनाते हैं जो ठूंठ या घोड़े होते हैं। 
                            लाल मैदान के पीछे आज एक समारोह हो रहा है जिसके मुख्य अतिथि वे हैं जो किसी जमाने में रेल्वे स्टेशन  पर कविता करते हुए काला दंत मंजन बेचते थे। मंजन पता नहीं कहां गया पर कविता ने उन्हें मंच दिखा दिया। लगे रहे तो मंच भी सध गया, वे एक बार डायस पकड़ लें तो श्रोताओं के साथ माइक भी पानी मांगने लगे। आयोजकों पर बीतने लगी तो उन्हें मुख्य अतिथि बना कर बैठा देने की युक्ति आजमाई गई। अब वो बाकायदा आदरणीय है, साहिबे महफिल है, माला पहन रहा है। वह हराभरा है और भूल जाना चाहता है कि असल में वह ठूंठ है। ठूंठ को आड़ा पटक कर जब चादरें चढ़ाई जाने लगती है तो वह पीर मान लिया जाता है, लोग उससे मन्नतें तक मांगने लगते हैं। प्रेक्टिल आदमी सफलता इसी को कहते हैं। 
                           लगना या लगे रहना एक बहुआयामी साधना है। जैसे रेडियो या टीवी सेट में कई चैनल लगे होते हैं उसी तरह एक लग्गू भी कई मोर्चों पर लगा रहता है। जैसे कोई मंत्री के साथ लगा और मीडिया के साथ भी लगा है। लोग ताड़ नहीं पाते कि मंत्री के साथ लगा है इसलिए मीडिया से लगा है या मीडिया से लगा है इसलिए मंत्री से लगा है। प्रतिभाशाली लग्गू मंत्री से ज्यादा काम का होता है, इसमें अब कुछ भी रहस्यपूर्ण नहीं है। मंत्री तो बस एक मूरत है, लग्गू पुजारी है। मूरत को तुलसी के पत्ते पर भोग लगता है, चढ़ावे की थाली पुजारी को मिलती है। लगा रहे तो लग्गू इतना ताकतवर हो जाता है कि जिसके सिर पर हाथ रख दे वो भस्म। नहीं क्या ?
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मंगलवार, 5 जनवरी 2016

कदम कदम, पदम पदम !

                 
 गुरूदेव ने मेरा हाथ पकड़ा और खेंचते हुए सीढ़ियों तक ले गए, बोले- ‘‘ बस बारहवीं मंजिल तक चढ़ जाओ एक सांस में ..... फिर देखना, तुम्हारे हाथ क्या लग जाता है।’’
                  सोच में पड़ा देख वे जान गए कि ये प्राणी अल्पज्ञानी है। इधर मैं डर रहा था कि इतनी उपर चढूं और किसी ऐसे के हथ्थे चढ़ जाऊं जो उपदेश  देते हुए बारहवीं मंजिल से नीचे फैंक दे तो भविष्य  के साथ अतीत भी गया समझो। अरमानों का चौबे जब गिरता है तो कई बार दूबे भी नहीं रहता। बंधी मुट्ठी लाख की और चढ़ गए तो खाक की। संकोच में देख बात साफ करने के लिए वे फुसफुसाए, -‘‘ उपर पद्मश्री है, लपको वत्स, ..... कोई बुला कर नहीं देगा अब। इंतजार करोगे तो आरजू में ही कट जाएगी बची हुई भी । बढ़ा के हाथ जिसने उठा लिया, जाम उसका है। संत भी संकेत कर गए हैं कि ‘अप्प दीपो भव !’ वरमाला भी बहुत प्रयास के बाद गले में पड़ती है। समय की जरूरत है कि आदमी स्वयंसिद्ध होना चाहिए। गांधीजी भी कह गए हैं कि व्यक्ति को अपना काम स्वयं करना चाहिए। जो काहिल होते हैं वही दूसरों से आशा  रखते हैं। ’’
                    मैंने हाथ जोड़ दिए, -‘‘ आप की बातें सही हैं गुरूवर, लेकिन मैं पद्मश्री के योग्य नहीं हूं।’’ 
                ‘‘ इसीलिए तो !! ...... इसीलिए कह रहा हूं सीढ़ियां चढ़ो। जो योग्य नहीं होते हैं सीढ़ियां उन्ही के लिए होती हैं। योग्य तो सक्षम होते हैं, वे पीछे की पाइप लाइन पकड़ कर चढ़ जाते हैं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, कीमत चुकानी पड़ती है। यही आज के समय का रिवाज है, इसलिए विलंब मत करो वत्स, पद्मश्री की पोटली लिए ‘वह’ अभी बारहवीं मंजिल पर बैठा है पता नहीं कब ताव या भाव खा जाए और बीसवी मंजिल पर जा बैठे तो !! ’’
                    ‘‘क्या यह शर्मनाक नहीं होगा गुरूदेव ?!’’
                  वे बोले - ‘‘ जिसने की शरम उसके फूटे करम। हर सुख के पहले शरम रास्ता रोकती है किन्तु वीरपुरुष रुकते हैं क्या ? शरम है क्या ! मिथ्या आवरण ही तो। विद्वान कह गए हैं कि सार सार गह ल्यो, थोथा देओ उड़ाय। समाज समृद्धि और सफलता की सराहना करता है बिना यह देखे कि इन्हें प्राप्त कैसे किया गया है। चलो, अपने पायजामें को उपर खेंच कर कमर में खोंसो और अपने पद श्री की ओर बढ़ाओ। ’’ 
                      ‘‘ बात ये है गुरूदेव कि आज के युग में कौन किसी को इज्जत देने के लिए पद्मश्री देखता है। बल्कि मुझे तो यह लगता है कि इससे तो मित्र भी अमित्र हो जाते हैं।’’ मुझे नहीं मालूम कि पद्मश्री में व्यवस्था क्या क्या ले लेती है और क्या टिका  देती है। 
                   ‘‘ हे संदेही नर, तुम्हारी बात किंचित सही भी है। दो पद्मश्रीवान एक दूसरे को सम्मान की दृष्टि  से नहीं देखते हैं क्योंकि वे ‘जानते’ हैं। नेता, अधिकारी और कुछ औद्योगिक घराने भी ‘जानते’ हैं। किन्तु तुम क्यों भूल जाते हो कि यह सवा सौ करोड़ लोगों का देश है जिनमें से नब्बे प्रतिशत लोग नहीं ‘जानते’ हैं। अज्ञानतावश  वे तुम्हारी भी  इज्जत कर सकते हैं, संभावना अनंत है। सफल व्यक्ति प्राप्ति उजागर करता है प्रक्रिया नहीं। अब चलो, बहुत हो गया। ’’
                     ‘‘गुरूवर, यदि उन्होंने सीसीटीवी के फुटेज दिखा दिए और सरे- नागपुर मुझे डस लिया तो !!’’
                      वे बोले, - ‘‘ चिंता मत कर चेले, अगर चुनाव न हों तो उनके बयानों पर कोई ध्यान नहीं देता है।’’ नेपथ्य से आवाज आने लगी, ‘ कदम कदम, पदम पदम, ......  कदम कदम, पदम पदम, चढ़ चढ़ अमर,  डर मत, हसरत कर,  पदम पर नजर रख, चल चल  अमर’।
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रविवार, 27 दिसंबर 2015

आमआदमी के कंधों पर सवारी

                          अखबारों में सुर्खियां लगी कि वे आमआदमी की तरह ‘पेश ’ हुए हैं।  वे बताना चाहते हैं कि आमआदमी मासूम होता है और उसकी पेशी  अकारण होती रहती है और यही उनके साथ हुआ है। वे भोले हैं, उन्होंने तो कुछ किया ही नहीं, उनका पिछला रेकार्ड देखा जा सकता है, वे कुछ करते ही नहीं। वे मानते हैं कि उन्हें कुछ करने की जरूरत ही नहीं है। जितना पहले वालों ने कर दिया वही उनके लिए बोफोर्स है। इसी से देश को मान लेना चाहिए कि लोगों ने षडयंत्र पूर्वक उन्हें फंसाने की कोशिश  की है। जिस तरह आमआदमी पर अत्याचार होते हैं और उसकी कोई सुनता नहीं है उसी तरह की पीड़ा से वे भी गुजर रहे हैं। खूब ना नुकुर की मगर जबरिया पेशी  हो गई। इससे बड़ी असहिष्णुता भला क्या होगी ?
                    आमआदमी की ‘तरह’ वाली इस बात में जब कुछ खास नहीं है  तो यह खबर बनी क्यों ! क्या उन्होंने पेश  हो कर न्यायालय पर कृपा की !? कहीं उन्होंने यह उम्मीद तो नहीं लगा रखी थी कि जमानत का नजराना लिए न्यायालय खुद पेश  होगा उनके दरबार ! वे ऐसा क्यों जताते रहे कि न्यायालय ने खुद जुर्म कर दिया है उन्हें पेश  होने का आदेश  दे कर !! या ये उम्मीद रही होगी कि देश  की सवा सौ करोड़ जनता उनके पक्ष में खड़ी हो जाएगी हाय हाय करते हुए। वक्त जरूरत सब करना पड़ता है, किया ही  है  राजनीति में। मन मार कर किसी गरीब के घर रोटी भी तोड़ना पड़े तो तोड़ी  हैं। अपनी उबकाई रोकते हुए अधनंगे सेमड़े बच्चे को उठा कर चूमना पड़े तो चूमते ही हैं, लेकिन ऐसे वक्त की उम्मीद में ही।  प्रजा विश्वास  पर चलती है प्रमाण पर नहीं। वे चाहते हैं कि माहौल बने और न्यायव्यवस्था प्रजा की भावना का न केवल सम्मान बल्कि अनुकरण भी करे। मीडिया कह रहा है कि जमानत का जश्न  मनाया जा रहा है ! जबकि  वे चाहते रहे  कि एक बार वातावरण बन जाए तो हल्दीघाटी मचा के रख दें। 
                       अब मुद्दे की बात, अदालत तो अदालत है, उसके सामने आम क्या और खास क्या। जब पेशी  है तो है, नखरों की गुंजाइश  पार्टी की अदालत में हो सकती है वहां नहीं। वैसे किसी खास को जब पेश  होना पड़ता है तो वह आमआदमी की ‘तरह’ ही पेश  होता है। आजकल खीजे हुए पुलिस वालों का कोई भरोसा नहीं, वे अपनी वाली पर आ जाएं और किसी खास को नहीं पहचानें । इसलिए आमआदमी होना किसी मायने में सुरक्षित होना भी है, हाथ जोड़ो और निकल्लो चुपचाप। आपने देखा होगा कि ऐरेगैरे और चोर उचक्केे पेश  होते वक्त विक्ट्री की दो अंगुलियां दिखाते हैं, मुस्कराते हैं, जिससे अक्सर लोगों को उनके खास आदमी होने का भ्रम होता है। ऐसे में खास आदमी की तरह पेश होना जोखिम भरा भी है। इधर खास आदमी जब आम आदमी बनता है तो अपनी कालिख सब में बांट देता है। राजा काना हो तो आम जन को एक आंख ढंकने के लिए कह कर अपने कानेपन में वह सबको शामिल कर सकता है। लेकिन लोकतंत्र में दिक्कत यह है कि आदेश  केवल न्यायालय दे सकता है और वह भी पेशी  का। आमआदमी के नेहरू चाचा होते हैं , और खास आदमी के नाना-परनाना, तो आमआदमी से उनके घर के संबंध हुए, ..... अड़े-भिड़े में हक तो  बनता ही है। तरह तरह से पेश होने में उनकी मास्टरी भी है। चुनाव पूर्व जो राजा की ‘तरह’ जीवन जीते हैं चुनाव में वे सेवक की ‘तरह’ पेश  आने लगते हैं। खैर, आप दिल पर मत लेना, बड़ी बड़ी कोर्टों में इस तरह की छोटी छोटी बातें होती रहती हैं। वे जफ़र से बड़े बदनसीब तो कतई नहीं है।
                                                                         
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बुधवार, 25 नवंबर 2015

एक असहिष्णु ट्रांजिस्टर के लिए

                   
   इधर असहिष्णुता का राग बजा और उधर तमाम कला प्रेमी  झूमने लगे। इनमें से अधिकांश  को असहिष्णुता का मतलब भी नहीं मालूम है। लेकिन इससे क्या, मतलब तो उन्हें और भी कई चीजों का नहीं मालूम है जैसे अश्लीलता, हिंसा, बलात्कार, नैतिकता, शिष्टता वगैरह। लेकिन सब चल रहा है, देश  ने कभी कोई किन्तु-परंतु नहीं किया। जो परोसा उसे आत्मसात कर लिया भले ही इसके परिणामस्वरूप पुलिस के डंडे ही क्यों न खाने पड़े हों । मां-बहनों की इज्जत के लिए जब तब घरना प्रदर्शन  करना पड़ा तो किया, सरकार को कोसा, पुलिस को गरियाया पर कलाकारों के सामने हमेशा  बिछ बिछ गए। जनता का कोई भरोसा है, जिसे सिर चढा ले उसे आसानी से उतारती नहीं है चाहे जूं की तरह खून ही क्यों न पीता रहे। 
                    एक ‘इडियट प्रेमी’ अभी उठ कर गए हैं, बोले - ‘‘मामला समझ में नहीं आ रहा है यार ? आमिर को किसी ने भड़का दिया वरना वो ऐसा आदमी नहीं है। ’’
                    ‘‘ हां लगता तो यही है कि किसी के बहकावे में आ गया है। मौसम खराब चल रहा है, जनता तक थोक में बहक रही है तो यह भी हो सकता है।’’
                        वे बोले - ‘‘ मुझे तो लगता है कि बीवी जब सीधे सीधे कहे कि उसे विदेश  घूमना है तो उसकी बात मान लेना चाहिए वरना दिक्कत हो जाती है। दो-दो तीन-तीन शादी करने के बाद भी कलाकार औरत के मन की बात समझ नहीं पाएं तो उनके नंबर कटना चाहिए। क्या कहते हो ?’’
                      ‘‘ बात में दम है भई, औरतें अपने मनोभाव अनेक तरीके से व्यक्त करती हैं लेकिन आज तक किसी मेनेजमेंट कोर्स में इस जटिल विषय को पढ़ाया नहीं गया है। सुना है भगवान भी आनी देवियों को समझ नहीं पाए और हमेंशा  उल्लू बनते रहे हैं।’’
                       ‘‘ मेरी बीवी अगर यह कहती तो मैं उसकी नहीं सुनता, भले ही वह मुझे असहिष्णु कहती ।’’ उन्होंने अपनी मूंछों वाले स्थान पर हाथ फेरते हुए कहा। मैंने कहीं पढ़ा था कि दुनिया के सारे पति असहिष्णु होते हैं इसीलिए सहिष्णुता की पूर्ति के लिए कुछ बेचारी स्त्रियों को प्रेमी भी रखना पड़ते हैं। 
                        ‘‘ सारा देश  इस समय यही सोच रहा है कि आमिर आखिर चाहते क्या हैं, उन्हें परेशानी क्या है !?’’
                       कुछ देर चुप रहने के बाद वे बोले-‘‘ मुझे लगता है कि मामला सिर्फ एक ट्रांजिस्टर का है। एक बार देश  को डपट लें, जनता में हीन भावना भर दें, लोग सहम जाएं तो फिर अगली फिल्म में वो ट्रांजिस्टर भी हटा लें। पिछली बार ट्रांजिस्टर इसीलिए थामना पड़ा था कि डायरेक्टर बार बार यही कह रहा था कि देश  में इतनी सहिष्णुता नहीं है, थामे रहो। अब एक बार आश्वासन  मिल जाए, सरकार कह दे, विरोधी कंधे पर उठा लें तो उनका एक सपना पूरा हो जाए। ट्रांजिस्टर का जमाना वैसे भी खत्म हो गया है, अब मोबाइल फोन इस्तेमाल हो रहा है। एक बार माहौल बन जाए तो फिर मोबाइल की भी क्या जरूरत रह जाती है। तुम्हारा क्या खयाल है ?’’ 
                     ‘‘ आपकी बात में दम तो है। भारत अभी इतना गरीब नहीं हुआ है कि एक ट्रांजिस्टर के कारण उसकी सहिष्णुता संदेह के दायरे में आ जाए।’’ 
                      हमें आमीर को आश्वस्त  कर देना चाहिए कि वे पूरी उदारता से, खुल कर आगे आएं। शरम का तो खैर कोई सवाल ही नहीें है, कलाकार हैं सो होना भी नहीं चाहिए। आपको जैसी जितनी सहिष्णुता चाहिए उतनी यहीं मिलती रही है, और मिल जाएगी। देश  में हज्जारों लोगों के तन पर कपड़ा नहीं है, एक आप और दिख गए तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा। देवी देवताओं की तो खुद उनके भक्त ही परवाह नहीं करते आप जैसा कोई खिल्ली उड़ाए तो किसीने पहले भी माइंड नहीं किया है। अच्छे पति बनो और दोनों कानों का इस्तेमाल किया करो, यानी एक कान से सुनो जरूर लेकिन दूसरे का उपयोग भी किया करो...... । तो आमीर, ..... यहीं रहो भाई, जितनी सहिष्णुता यहां हैं वो कम नहीं है।  
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शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

दो पेसल, कड़क मीठी

                             
    ‘‘देखो बाऊजी बुरा नी मान्ना, बात भोत बारीक हे, पेले समजना आप ....... नितो कल को केओगे कि ताने मार्ते हो। समजना आप ..... सई बात हे कि आज की डेट में साहित-वाहित की तो बाती कन्ना बेकार हे। सुबे से साम तक आदमी को दम्मान्ने की-बी फुरसत नी हे एसे में किताब पड़ेगा कोन ?! बुरा नी मान्ना, आप लिख्ते-विख्ते हो, ... अच्छई लिख्ते होवगे, पर आपको पूछत्तई कोन हे ?! मोल्ले के लोग बी नी जान्ते होएंगे कि आप जिन्दा हो कि मर गए। ... नी, .... बुरा नी मान्ना बाऊजी ..... आप्ने बात निकाली तो बोल्ने में आ गया। सई हे कि नी ?’’
                       ‘‘बाऊजी जमाना खराब हे,  बुरा मत मान्ना, बात बिल्कुल सई हे। हम लोग ठहरे हिन्दी वाले, ठीक हे कि नी। आप जान्ते हो कि हिन्दी वाले काम धंधे वाले होते है और काम धंधे का मतलब तो आप जान्ते-ई हो। जिसमें पैसा नीं मिले संसार में वो काम, काम-ई नीं है। हिन्दी वाले काम कर्ते  हैं और देस की तरक्की में लगे पड़े हैं जीजान से। इसलिए हमको न साहित-वाहित से कुछ लेना देना है ना किताबों से। सुबे से साम तक मेनत कर्ते  हैं, पेसा कमाते हें। बहोत टेंशन हो जाता है, तबेत तक ठीक नीं रेती हे, डाक्टर होंन के पास हर दूसरे दिन जाना पड़ता है। दिन भर दवाएं खाना पड़ती है, बीच में टेम निकाल के थोड़ा खाना भी खाना पड़ता है वर्ना घर की औरतें चिंता में पड़ जाती हें। आपी बताओ ऐसे में कौन-सी किताब और कां-का साहित-वाहित !? हम मराठी या बंगाली तो हें नीं कि धूप में बैठे किताब होन में फोकट माथा फोड़ते रहें। हर हप्ते अपने सीए से माथाफोड़ी करने के बाद तो आदमी में कुछ कन्ने की ताकत रे-ई नीं जाती है सिवा टीवी टूंगने के। उसमे बी कुछ समज में नी आता हे। 
                  हमें मौन देख कर वे फिर बोले - ‘‘ आप तो चुप-ई  हो गए !!  एसा हे कि, बुरा नी मान्ना ...... हम्म लोग जिम्मेदारी ले-के चलने वाले लोग हें। बाल-बच्चे ले-के बेठे हें। उन्की तरफ भी देखना-ई पड़ता हे। पड़ने-लिखने में तो कुछ नी धरा हे, पर ब्याव-सादी तो समाज के हिसाब से-ई कन्ना पड़ती हे। आज की डेट में गिरी से गिरी हालत में सादी का खर्चा पंद्रा लाख से उप्परी जा रिया हे। ....  बुरा नी मान्ना .... आपको क्या हे ...... कोन पूछता हे !! .... पर हम्को तो समाज में उठना-बेठना पड़ता हे .... किताबों में टेम बरबाद कन्ना हम्को पुसाता थोड़ी हे। दुन्यिा में आएं हें तो दुन्यिादारी तो रखना -ई पड़ती हे। ’’
                         एक छोटा विराम ले कर वे फिर शुरू हुए, - ‘‘ चाय-वाय पियोगे आप ? .... इच्छा नीं होए तो कोई बात नी।  वेसे-ई पूछ लिया आप बेठे हो तो। ..... बुरा नी मान्ना, .... वेसे-ई जान्कारी के लिए पूछ-रा हूं कि एक लेख के कित्ते पेसे मिल जाते हें आपको ?’’
                   ‘‘ ज्यादा नहीं, .... पांच सौ से हजार तक मिलते ही हैं।’’ हमने जरा बढ़ा कर बताना जरूरी समझा, कुछ अपनी इज्जत के लिए कुछ पत्र-पत्रिकाओं की। 
                     वे चौंके, - ‘‘ बस पान सो रुपिये !! इस्से जदा तो मंडी के हम्माल कमा लेते हें ! हम्माल तो ठीक हें, आजकल मंगते होन पान सो से जादा बना लेते हें मजे में। ..... पर आप बुरा नी मान्ना .... एक रिफिल से कित्ते लेख लिख लेते हो आप ?’’
                      ‘‘ चार-पांच तो हो जाते हैं आराम से । ’’
                    ‘‘ एं !! एक रुपे की रिफिल से दो ढाई हज्जार बना लेते हो !! धंधा तो ठीक हे। ..... पाटनरी करते हो ? रिफिल तुमारी कागज हमारे ....... फिप्टी फिप्टी ...... बोलो ? ....... चलो चालिस-साठ कल्लो ....... नईं ? ……  एं ?  …… चाय पियो, मंगवाता हूं । ’’
                   उन्होंने आवाज लगाई , ‘‘ए छोरा ...... दो पेसल बोल कड़क मीठी ।’’ 

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रविवार, 25 अक्तूबर 2015

शेरों ने लौटायीं हड्डियाँ

             
   शेर नाराज हो गए। नाराज होना और नाराज बने रहना शेरों का काम है। नाराज नहीं हो तो शेरों को कोई शेर न कहे। पहचान की इस चिंता के कारण बेचारे शेर प्रायः मुस्कराते भी नहीं है। लेकिन जब कोई शेर हंसता दिखाई दे जाता है तो उसके कई मायने होते हैं जिन्हें वही शेर समझ पाते हैं जो पहले हंस चुके हैं। हंसी का यह रहस्यवाद एक किस्म की साझेदारी से जुड़ा हुआ है। शेरों की हंसी एक तिलस्मी संघर्ष की हंसी है, यह बेताल की लंबी कथा के अंत की हंसी है। हजारों बरस उनका चमन अपनी बेनूरी पर रोता है तब कहीं पैदा होता है हंसी का सबब कोई। लेकिन आज याद आया कि वे तो शेर हैं इसलिए थोड़े समय के लिए उन्हें बाकायदा नाराज भी होना चाहिए। बहुत सोच विचार के बाद कुछ शेरों ने तय किया कि वे अपनी हंसी लौटाएंगे। उनकी हंसी जंगल की खुशहाली का प्रतीक क्यों हो। अगर अभी नहीं लौटाया तो इतिहास उन्हें हंसीखोर के रूप में दर्ज कर सकता है। सो जोरदार दहाड़ों के साथ इस बात की घोषणा हुई कि शेर अपनी हंसी लौटा रहे हैं। जंगल को समझते देर नहीं लगी कि फिर कोई शिकार हुआ। दाढ़ में एक बार खून लग जाए तो यह क्रम रुकता नहीं है। जल्द ही तमाम दूसरे शेर भी मुंह में अपनी अपनी हंसी दबाए जुट गए। हंसी लौटाने की होड़ सी लग गई। जंगलटीवी ने इसे हंसी लौटाने का मौसम घोषित किया और अपनी टीआरपी में बदल लिया। शेर बयान दे रहे हैं, बहसें कर रहे हैं, दुम उठा रहे हैं कभी पंजे पटक रहे हैं। फोटो छपा रहे हैं, लाइव टेबल ठोंक रहे हैं। जो भुला दिए गए थे अब टीवी पर उनके दांत गिने जा रहे हैं। हंसी ले गए थे तब कितने थे, आज जब लौटा रहे हैं तो कितने हैं। जुबान में तब कितना लोच था, अब कितनी बेलोच है। हंसी कोरी ‘ही-ही’ नहीं है और भी बहुत कुछ है। लेते समय रोम रोम हंसी के साथ था, लौटाते समय अकेली अबला हंसी है। ये हंसी वो नहीं है वनराज, वो तो आप हंस चुके। हड्डियां लौटा कर आप हिरण लौटाने का श्रेय नहीं ले सकते। लेकिन शेर सुनने को तैयार नहीं।
                    इधर चर्चा यह भी है कि शेर किसी विचारधारा के लपेटे में  आ गए हैं। विचारधारा एक तरह का अभयारण्य है। वे उंची जालियों वाली एक हदबंदी में कैद रहते हैं और उन्हें इस कैद की आदत हो जाती है। हालांकि शेरों को भ्रम रहता है कि वे आजाद हैं। उन्हें लगता है कि जो जालियों के पार हैं दरअसल वे कैद हैं। इसलिए वे जालियां फांदने की सोचते भी नहीं हैं। तमाम लोग उन्हें देखने आते हैं, फोटो खींचते हैं, फिल्म भी बनाते हैं। उन्हें लगता हैं कि वे लोकप्रिय हैं, नायक हो जाने का भाव भी जाग ही जाता है तो इसमें कुछ गलत भी नहीं है। अनेक शेरों ने अपनी गुफा में बैठ कर बकरगान किया है और बकरियों की कौम में आशा  की किरण पैदा की है। शेरों का यह छोटा काम नहीं है, इसीका ईनाम हंसी है। 
                       कुछ शेरों को सर्कस में भी अवसर मिला। यहां पिंजरा है लेकिन लंच-डिनर की अच्छी व्यवस्था है। थोड़ी बहुत कलाबाजियां करना पड़ती हैं लेकिन भागदौड़ नहीं है। यहां लाइम-लाइट है, कालीन, कुर्सियां हैं, संगीत है तालियां हैं। हां, ..... चाबुक भी है, लेकिन यू-नो, अनुशासन सर्कस की प्राथमिकता है। और यह याद रखने के लिए कि एक रिंग मास्टर है। सर्कस के हुए तो भी क्या हुआ, शेर आखिर शेर हैं, हर शो  में वे भी हंसते हैं। हंसी का ईनाम इधर भी है। 
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बुधवार, 21 अक्तूबर 2015

घोड़ा और राजकुमार

               
    रियासत परंपरापुर में इस समय हर कोई सदमे में चल रहा है। एक राजकुमार कब से मायूस  बैठा है म्यान में चांदी  की तलवार लिए। उसे न कहीं से ललकार सुनाई दे रही है और न ही कोई मैदान दिखाई दे रहा है कि मार लें फट्ट से। सरकार, जो कि अब सत्ता में नहीं है लेकिन अब भी अपने को आदतन सरकार मान रही है, बुरी तरह से चिंतित है कि आखिर राजकुमार की भूमिका कैसे तय हो। खुद राजकुमार मारे असमंजस के यहां से वहां हो रहा है लेकिन नतीजा जो है सामने नहीं आ रहा है। कुछ करे तो हाथ उठा देते हैं लोग और नहीं करे तो अंगुली। बिन सरकार के मंत्री लोग मीडिया के डर से अंदर ही अंदर प्रार्थना कर रहे हैं कि हे ईश्वर  राजकुमार को जल्द से जल्द काबिल बनाए ताकि उन्हें जंगल लुट जाने से पहले आखेट के लिए आगे किया जा सके। सारे सिपाही बल्लम-भाले लिए तैयार खड़े हैं। राजकुमार एक बार घोड़े पर ठीक से बैठना सीख लें फिर तो समझो शेर मार ही लेंगे। हाथ में बंदूक लिए शेर पर पैर रखे उनका फोटो जब अखबार में छपेगा तो जनता को मानना पड़ेगा कि वे खानदानी शिकारी हैं। लोकतंत्र का असली मजा वे ही उठाते हैं जो अपनी एक छबि बनाने में कामयाब हो जाते हैं। लेकिन यहां दिक्कत ये है कि राजकुमार को घोडे़ पर चढ़ना ही नहीं आता है। एक दो बार कोशिश  की तो पटखनी खा गए और मामला कमबख्त छबि में दर्ज हो गया। बेचारे जब भी हुंकार मारने की कोशिश  करते हैं तो श्याणी  जनता खी-खी करने लगती है। पार्टी को समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर इस राजकुमार का करें क्या ! छोड़ दें तो पार्टी बिखर जाएगी और लाद लें तो डूब जाएगी। 
                              बहुत सोचने के बाद एक जर्जर बूढ़े किस्म के वरिष्ठ नेता ने सुझाया कि उसे बिना घुड़सवारी के ही शिकारी घोषित कर देना चाहिए। मम्मी तो मान ही गई थी, लेकिन डर मीडिया का भारी है, वो भी आजकल ‘जिधर बम, उधर हम’ की नीति पर चल रहा है। हाथ धो कर पीछे पड़ जाएगा और राजकुमार से बार बार पूछेगा कि लगाम घोड़े की दुम में लगती है या मुंह में । और राजकुमार को तब तक रगड़ेंगा  जब तक कि उनकी कलाई ना खुल जाए। पार्टी की कोशिश  यह है कि सच्चाई सामने ना आए और आवाम राजकुमार को महान शिकारी मान ले। बस एक बार मान ले फिर तो इतिहास में दर्ज करके पीढ़ियों तक यही पढ़ाते रहेंगे। 
                                कहते हैं कोशिश  करने वालों की हार नहीं होती। पार्टी के लोग हिरण के कान काट कर ला रहे हैं लेकिन राजकुमार उन्हें देख कर हकलाने लगता है। चूंकि पार्टी के पास फिलहाल कोई काम नहीं है इसलिए प्रयोग पर बल दिया जा रहा है। पूरी पार्टी प्रयोग में भिड़ी है और दनादन बयान दे रही है। कुछ वरिष्ठ जो अनुभवी भी हैं, कह रहे हैं कि राजनीति के जंगल में शिकारी को खादी पहनने से बड़ा लाभ होता है। जंगल के प्राणी खादी देख कर मान लेते हैं कि आने वाला अहिंसा और गांधीजी का पुजारीनुमा कुछ है। इस चक्कर में वे बड़ी आसानी से शिकार हो जाते हैं। पैंसठ सालों से खादी शिकारियों को मुुफीद पड़ती रही है। लेकिन दामन में दुर्भाग्य हो तो जनता समझदार हो जाती है। प्रयोग के तौर पर राजकुमार को खादी पहना कर जंगल में भेजा गया लेकिन गरीब की झोपड़ी में दो रोटी से अधिक कुछ नहीं मिल सका। सुना है राजकुमार को वो भी हजम नहीं हुई।
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शुक्रवार, 16 अक्तूबर 2015

साहित्य का शेयर बाज़ार

                         
    एक लंबी चुप्पी के बाद वे बोले - ‘‘देखो भाई, ...... साहित्य का संसार एक अलग किस्म का यानी सुपर मायावी संसार होता है। यहां पाना तो पाना है ही खोना भी पाने से कम नहीं है। जब ‘लिया’ जाता है तब बहुत कुछ ‘प्राप्त’ होता है और जब उसे लौटाने की घोषणा की जाती है तब भी बहुत कुछ प्राप्त होता है। जैसे शेयर मार्केट में एक चतुर व्यापारी मुनाफे में शेयर खरीदता है और जब उसे बेचता है तब भी मुनाफा प्राप्त करता है। साहित्य में इस प्रवृत्ति को कला कहते है। कलाजगत में चतुराई शब्द बोलना वर्जित है। यहां जो होता है वो नहीं होता, और जो नहीं होता है वो होता है, और जो भी गरिमाहीन होता है वो गरिमा के साथ होता है। इसे समझने में अपनी ऊर्जा बरबाद करने से अच्छा यही है कि जो हो रहा है उसे आंख बंद करके देखो, बिना दिमाग लगाए उस पर चर्चा-बहस करो, जरूरत पड़े तो लठालठी कर पड़ो। महौल ऐसा बने कि ‘हम लेखक भी कुछ हैं’। ’’ बाज़ार 
                          बात दरअसल यह है कि इधर अखबारों ने लिखा कि वे अपना समेटा हुआ लौटा रहे हैं। अब चूंकि घोषणा है तो हर कोई मान रहा है कि वे सचमुच लौटा रहे हैं। अखबार में उनकी हाथ उठाई तस्वीर देख कर माहौल बना कि मानो लौटा ही दिया है। कुछ लोग चिंतित होते हैं कि ‘अरे उन्होंने लौटा दिया, अब जाने क्या होगा !!’ वे समझ नहीं पाते कि जिसे प्राप्त करने में कितने गुणा-भाग किए गएं, उसे इतनी आसानी से कैसे लौटा दिया बिना हिसाब-किताब के !! लेकिन कहा ना, यहां जो होता है वो नहीे होता और जो नहीं होता वो होता है। कुछ मजबूर उनके पीछे पीछे चल पड़ते हैं और वे भी अपने शेयर वापस निकाल देने की घोषणा कर देना पड़ती हैं। मुनाफा किसे बुरा लगता है। 
                            घर में पत्नी और बच्चे कहते हैं कि शेयर यहां रखे थे तो कितना भरा भरा लगता था। निकाल दिए तो कितना खाली खाली लग रहा है। कलाकार उन्हें समझाता है कि शेयर रखे रखे दूध तो नहीं दे रहे थे। मुनाफा बड़ी चीज है, ऐसी चीजें मौकों-झोंकों पर ही काम आती हैं। जब प्राप्त किया था तब इतनी हलचल नहीं हुई थी। मीडिया में देखो कितनी चर्चा है हमारी, अखबार काले हुए जा रहे हैं हमारे कारनामे से, साहित्य का संसार कुरुक्षेत्र हो रहा है। अनेक कलमवीर खेत रहे हैं। कोई धृतराष्ट्र किसी संजय से सारे हाल सुन रहा है। वरना हम पर तो खासोआम का ध्यान ही नहीं था। यहां तक कि मार्निंग वाक पर जाओ तो दो-ढाई नमस्ते के लिए भी तरस जाते थे। अब देखो, सुबह से शाम तक फोन बज रहा है, तुनक तुन तुन। साहित्यकार सब कुछ कीर्ति के लिए ही करता है। कीर्ति विहीन जीवन की कल्पना से ही उसके प्राण सूखने लगते हैं। सोचो जब कभी उसके बारे में लिखा जाएगा तो पाने से ज्यादा महानता खोने की बखानी जाएगी। वैसे भी सम्मान समाज का कर्ज होता है। यदि उस कर्ज को उतार पाना संभव नहीं हो रहा हो तो लौटा देना अच्छा है। रहा सवाल उस खाली दीख रही जगह का, तो थोड़ी प्रतीक्षा करो। हमें सम्मान सृजित करना भी आता है। एक लौटा रहे हैं तो चार ले कर आएंगे। सर सलामत हो तो शाल-श्रीफल की दुकानें कम नहीं हैं। 

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मंगलवार, 6 अक्तूबर 2015

गाय बीफ देती है।

         बच्चा बच्चा जान गया है कि गाय बीफ देती है। देश  बीफ का निर्यात कर बहुत सारा घन कमाता है। जिसके पास धन नहीं होता उसे गरीब कहते हैं। भारत में बहुत से लोग परंपरागत रूप से गरीब हैं। विदेशी  पर्यटक गरीब देखने के लिए बड़ी संख्या में आते हैं और ताजा बीफ भी खाते हैं। बीफ और गरीबी हमारी विदेशी  आय का साधन है और राजनीति का भी। ये दोनों बुराई भी हैं और आवश्यक  भी। दरअसल अभी तक हम यह तय नहीं कर पाए हैं कि ये बुराई हैं या आवश्यक  हैं। इसलिए इन्हें हटाने और बनाए रखने का काम साथ साथ चलए रखते हैं। विद्वान इसे राजनीति का सौदर्यशास्त्र कहते हैं यानी भारतीय राजनीति की खूबसूरती। 
                         जो भी सरकार आती है गरीबी दूर करने के लिए कटिबद्व हो जाती है। नेता आदतन गरीबों से गरीबी दूर करने का वादा करते हैं। गाय वोट नहीं देती है इसलिए उससे कोई वादा नहीं किया जाता है। हालाॅकि गाय जानती है कि सरकार गरीबी दूर करने के लिए क्या करेगी लेकिन बोल नहीं पाती है। लोकतंत्र में जानने से ज्यादा जरूरी बोलना है। गाय को माता इसलिए कहा जाता है कि वह गरीबी दूर करने के लिए अपना सब कुछ दे देती है।  जो अपना सब कुछ दे देता है उसकी जनता पूजा करने लगती है। यह हमारी आदर्श  परंपरा है। इसके अलावा हम कुछ और कर भी नहीं सकते हैं। एक ने पूजा दूसरे ने बीफ निकाल लिया यह कितना इंसानी तालमेल है। गाय को आजतक यह बात समझ में नहीं आई है। उपर से सरकार कहती है कि सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ना चाहिए। सुन कर रूह हो चुकी गाय भी कांप जाती है। 
                           एक जानेमाने स्वनामधन्य गोपालक ने हाल ही में कहा कि हिन्दू बीफ खाते हैं। चारा खाने की बात से चिढ़ा आदमी पता नहीं कृष्ण के माखन खाने का किस तरह से उल्लेख करता। बाद में पता चला कि बीफ से उनका मतलब बिस्किट और फल से था। अभी तक दे की राजनीति मक्खन विशेषज्ञों के हाथ में खेलती रही है लेकिन अब बीफ को देख कर ललचा रही है। जो मुल्क कभी दूध पीता था मक्खन खाता था अब दारू पीता है और बीफ खने पर उतारू है। 
                        रिपोर्टर ने ब्रेकिंग न्यूज के लिए गाय से पूछा /रिपोर्टर किसी से भी कुछ भी पूछ सकता है और गाय तो जिन्दा है, उसके सामने मुर्दे भी बोलते हैं/  कि - ‘‘मैंडम करीब तीन सौ खरब रूपयों के बीफ का निर्यात आपके सहयोग से होता है। लेकिन शिकायत आ रही है कि आप प्लास्टिक की थैलियां खाती हैं जिस कारण बीफ की क्वालिटी ठीक नहीं होती है। आप प्लास्टिक क्यों खाती हैं ?’’
              ‘‘ मजबूरी है। चारा जब दोपाए खा जाते हैं तो फिर हमें प्लास्टिक खाना पड़ता है। ’’ गाय ने कहा। 
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रविवार, 4 अक्तूबर 2015

भोटर : सीना छप्पन इंची

                               
जो वोटर नहीं वो लोकतंत्र में दोपाया मवेशी  है। चुनाव नहीं होते तो वोटर भी पशु गणना से अधिक काम नहीं आते। पता करना हो कि आदमी और पशु  में क्या अंतर है तो कहा जाएगा कि आदमी वोट दे सकता है। इनदिनों हर तरफ बात बिहार की चल रही है तो अपन भी वंचित क्यों रहें। कहते हैं बिहार देवभूमि है, देवता आए और चले गए। गुणी, ज्ञानी, प्रतिभाशाली सब आए लेकिन चलते बने। रह गए तो बस वोटर। वोटर की खास बात यह है कि वह वोटर होता है। जैसे तैसे संघर्ष करते वह अठारह साल का होता है उसके हाथ में ‘भोटर-आईडी’ आ जाता है। अब वह ‘काम का’ भी है और ‘आदमी’ भी। 
                      कई प्रदेशों में वोटर वोट देने से पहले विचार करते हैं। बिहार का भोटर पहले भोट देता है। विचार करने के लिए उसके पास आगे के पांच साल होते हैं। उसका मानना और कहना है कि अगर वह पहले विचार करने लगे तो फिर वोट देना उसके लिए संभव ही नहीं है। जब वोट नहीं डालेगा तो वह वोटर भी नहीं रहेगा। लोकतंत्र में उसे कुछ मिला है तो वोटर की महान हैसियत है। पांच साल में एक बार आसमान से दिव्य-शक्तियां उतरती हैं और उसकी खुरदुरी दाढ़ी में हाथ डालती हैं, चिरौरी करती हैं, उसके आगे खींसें निपोरती हैं, हाथ जोड़ कर अद्दा-पउवा वगैरह देती हैं तो इतना मान सम्मान कम है क्या ! अगर ये ना मिले तो आम आदमी का जीवन कितना नीसर हो। वोटर हैं तो अस्तित्व है, वरना आदमी नहीं कुकरमुत्ते हैं। व्यवस्था में कोई काम के नहीं, लोकतंत्र की सड़क पर घूमने वाले आवारा श्वान । वोटर की हैसियत आदमी होने की मूल्यवान हैसियत है।
                                        जब खुदा हुस्न देता है तो नजाकत आ ही जाती है। चुनाव के वक्त वोटर का सीना भी छप्पन इंची हो जाता है। भला क्यों न हो, उसके नामुराद गालों पर नीविया चुपड़ने के लिए दसियों लोग डिब्बी लिए पीछे दौड़ने लगते हैं। उनको भी ‘शैकहैन्डवा’ का मौका मिल जाता है जिनको सदियों से कोई छूता नहीं रहा है। असली चुनाव का मजा इधर ही होता है। जिन घरों में हमेशा  रौनी रहती है वे दिवाली जुआ खेल कर मनाते हैं। असली दिवाली उनकी होती है जो अंधेरे में गुजारा करते आए हैं। चुनाव वोटर की दिवाली है। यह बात अलग है कि उसका क्या रौन हुआ, क्या खाक हुआ इसका पता बाद में चलता है।
                        अपनी आदत से लाचार टीवीमैन ने पूछा-‘‘बाबू चुनाव हो रहे हैं बिहार में, .... आपको पता है ?’’
                       ‘‘चुनाव नहीं होते तो आप लोग क्या हमारी तबीयत पूछने आए हैं ! ...... अब ये भी पूछ लीजिए कि ‘कैसा महसूस कर रहे हैं आप ?’  बिहारी ने टीवीमैन की गर्मी थोड़ी कम की।
                       ‘‘लगता है कि आप बहुत समझदार हैं! ’’
                      ‘‘बिहार का हर आदमी समझदार है। ’’
                       ‘‘ तो फिर अच्छी सरकार क्यों नहीं चुनते आप लोग !?!’’
                      ‘‘ सरकार कौन सी अच्छी होती है !? ...... जनता हमेशा  अच्छे को चुनती है पर बाद में सब ‘सरकार’ हो जाते हैं। ’’
                         ‘‘ इस बार किसे चुनेंगे ?’’ टीवीमैन ने ब्रेक्रिंग न्यूज खोदना चाही। 
                        ‘‘ इधर सब जानता है कि समोसे में आलू ही होता है और टीवी वाला बड़ा चालू होता है।’’
                        ‘‘ऐसा सुनते हैं कि आप लोग जाति के हिसाब से वोट डालते हैं ?’’ टीवीमैन ने खुदाई जारी रखी।
                         ‘‘ पहले धरम, फिर जाति उसके बाद गोत्र ..... और सबसे बड़ी बात बाहुबली ...... ’’
                          ‘‘इस तरह तो विकास नहीं हो पाएगा !’’ 
                        ‘‘ विकास !! विकास का चुनाव से क्या लेना देना ! रंगदारी बंद हो जाए, हप्ता वसूली बंद हो जाए, अपराध न हों तो बिहार का विकास हुआ समझो। ’’ 
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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

प्यून साहेब पीएचडीराम

                            जब पैदा हुए तो घर वालों ने नाम रखा जगतराम। पांचवी-आठवीं पास करा गए तो मइया-बापू को लगा कि हो ना हो जगतवा घर का नाम रौसन करेगा। जोर लगाया, भिड़ गए सब, खेती-ऊती जरूर बिक गई पर  जगतराम बीए की डिगरी लैके आ गए। सौदा मंहगा पड़ रहा था पर अब क्या करैं ! रस्ता चलता तो लौट आए, पर पढ़ालिखा आदमी पलट कर वापस गंवार तो हो नहीं सकता था। एक बार पढ़ गया तो समझो अड़ गया। तय हुआ कि अब कौनो रास्ता नहीं हैं, आगे ही पढ़ौ। जगतराम पढ़त-पढ़त पीएचडी होई गए। लौटे तो बताया कि पढ़ाई खतम, अब कुछ नहीं है पढ़ै खातिर। खेल खतम पइसा हजम। नौकरी करें तो नाम भी रौसन हो। पर नौकरी कहां रक्खी है ! इधर पब्लिक ने जगतराम को पीएचडीराम नाम दे दिया। अम्मा कहिन नाम के खातिर तो पढ़ा रहे थे, पूरे नखलऊ  में नाम तो जानो हो गया, पर नौकरी का क्या करें, नोकरिया तो अपने हाथै में नहीं है ! अरजी घिसते घिसते पीएचडीराम सब भूल गए और रेस्पेक्टेड सर से लगा कर योर ओबिडियंट तक जिन्दगी सर के बल घिसटने लगी। शुरू में बड़े पदों के लिए अर्जी भेजते फिर धीरे धीरे नीचे उतरने लगे। सोचा पद छोटा बड़ा भले हो पर कुर्सी सबमें मिलती है। 
                           तभी सरकार ने प्यून के 368 पदों की भर्ती का विज्ञापन निकाला। हिचकते हुए आखिर पीएचडीराम ने भी अपना आवेदन उधर भी दे मारा और मान लिया कि ‘यहू नोकरिया तो पक्की’। मंइया-बापू को भी लगा कि नौकरी लगी समझो और अब कोई रिस्ता आया तो ठोंक के दहेज ले लेंगे, आखिर मोड़ा पीएचडी भी है। नौकरी में पद नहीं देखा जाता है, मौका देखा जाता है। मौका मिल जाए तो अंगूठाछाप भी लाल बत्ती के नीचे गरदन तान के बैठ सकता  हैं। सरकारी गलियों में मौका शिक्षा से बड़ी चीज है। सरकारी प्यून गैरसरकारी हलके के किसी भी आदमी से बड़ा हो सकता है बशर्ते उसमें काबलियत हो। खुद सरकारी महकमें में बड़े से बड़े अधिकारी मंत्री वगैरह किसी का भी काम प्यून के बिना नहीं चलता है। प्यून तंत्र का बहुत जरूरी आदमी होता है। जहां तक जानकारी की बात है, जितना एक अधिकारी जानता है उससे कई गुना ज्यादा जानकारी प्यून के पास होती है। प्यून अगर नाराज हो जाए तो बड़े बड़ों को अपना जूठा पानी पिला कर अपनी छाती ठंडी कर सकता है। सरकारी प्यून वो बला है जो शीशे  से पत्थर को तोड़ सकता है। ...... तो तय हुआ कि पीएचडीराम अब प्यून ही बनेंगे।
                              लेकिन दुर्भाग्य, प्यून के 368 पदों के लिए 23 लाख आवेदन आ गए। एक पद के लिए सवा छः हजार उम्मीदवार !! आवेदकों में दो लाख से उपर एमए, एमकाॅम और 255 पीएचडी !! सरकार को संपट नहीं बैठ रही है कि पीएचडियों के इस पहाड़ का करें क्या ! प्योर कुकुरमुत्ते होते तो भी काम आ जाते। विश्व विद्यालयों को नोटिस भेजे जाएं और पता किया जाए कि कहीं डिग्री-चैपाटियां तो नहीं चलाई जा रही हैं। यह भी सोचा जा रहा है कि समाजवाद आ गया है या कि देश  विकसित हो गया है। समझ में नहीं आ रहा कि सरकार अच्छा काम कर रही है या उससे कहीं चूक हो रही है। 
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बुधवार, 9 सितंबर 2015

जिसने बांटी, उसने आंटी’

                         
‘‘ अरे पगलों, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की बुनियाद में जब दारू-वितरण की अहम भूमिका है तो फिर दारूबंदी कौन नासमझ करेगा। कुछ बातें कहने में अच्छी लगती हैं लेकिन करने की नहीं होती हैं, कुछ करने की होती हैं लेकिन कहने में अच्छी नहीं लगतीं हैं। इसीको राजनीतिक शिष्टाचार कहते हैं। ’’ नेता जी ने समझाया।
‘‘ अब हम लोग ठहरे मूरख, शिष्टाचार के राज-रहस्य भला हमें क्या पता, वो तो क्या है नेताजी, आप वादा कर आाए हैं औरतन से कि अगर आपकी पार्टी को सत्ता मिली तो राज्य में शराबबंदी कर दी जाएगी। बात हो रई कि सरकार मर्दाना वोटरों की उपेच्छा कर रई है इसी से चिंता लग गई, और कछुु बात नहीं है। वैसे सब आपको ही वोट देंगे .... पर क्या भरोसा ना मिले तो ना भी दें। आप यहां गठबंधन में बैठे हो, .... वहां विधानसभा क्षेत्र के सारे आदमी गमजे में दुबलाए जा रहे हैं !! कोई संदेस हो तो आज नगद कल उधार कर लो। वरना एक बार गई भैंस पानी में तो फिर किनारे लगना नहीं है।’’ प्रतिनिधि मण्डल से एक बोला।
                     ‘‘ अरे पगलों, चुनावी वादे तो जुमले होते हैं जुमले। कैसे भारतीय नर हो इतना भी नहीं जानते कि औरतों से किए वादे क्या कभी पूरे करने के लिए होते हैं। शादी में सात वचन तुमही दिए हो, एक्कओं पूरा किए आज तलक ? जब तुम लोग ही वचन पूरा नहीं किए और ससुरे ‘परमेसुअर’ बने बैठे हो ठप्पे से, तो हमारे एक-ठो वचन देने से कौन सा खतरा होने वाला है ?! हम कोई परमेसुअराई तो मांग नहीं रहे तुमारी। भइया सरकार चलाना घर चलाने से जियादा मुसकिल काम है। जब घर की बुनियाद सात झूठ पर टिकी है तो सरकार की बुनियाद सम्हालते हम कितना हलकान हो जाते हैं जानता है कोई ? शास्त्रों में लिखा है कि औरतों से बोला गया झूठ झूठ नहीं होता है .... उसको समझदारी कहते हैं। ’’
                         दरअसल एक बिहारी नेता ने महिला वोटरों से यह वादा कर डाला कि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगा देंगे। महिलाओं का कहना था कि आदमी लोग अपनी कमाई पीने में खत्म कर देते हैं। पीयें तो पीयें, लेकिन पी कर उनके साथ मारपीट करते हैं। इसलिए वे चाहती हैं कि राज्य में शराबबंदी हो। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। लेकिन सरकार को पता है कि जो सत्ता शराब बाँट  कर हाॅसिल की जाती है उसके लिए शराबबंदी एक तरह की आत्महत्या है। साठ साल से यही हो रहा है, जिसने बांटी, उसने आंटी। 
                             हर सरकार शराब का महत्व जानती है। जल्लाद हों या हत्यारे, या फिर वोटर ही क्यों न हों, काम अंजाम देने से पहले खूब पीते हैं। जनता होशहवास में रहे तो कई तरह के खतरे पैदा हो सकते हैं। समझदार हमेशा   इतिहास से सबक लेते हैं। एक बार नसबंदी करने के चक्कर में सरकार गिरी थी तो आज तक ठीक से उठ नहीं पाई है। निजी मामलों में गरीब आदमी भी हस्तक्षेप पसंद नहीं करता है। दारू पीना उसका निजी मामला है और इसे भी वह नसबंदी की तरह ले सकता है। इसलिए जरूरी है कि माता-बहनें देशहित में थोड़ा पिट-पिटा लें। सरकार इसके लिए दूध-हल्दी और बंडू बाम का इंतजाम कर देगी। चाहोगे तो एक रुपए में ‘पति पिटाई बीमा योजना’ भी शु रू की जा सकती है।  लेकिन ये बाद की बात है, औरतें अभी माने कि शराबबंदी हो रही है और आदमी मानें कि नहीं हो रही है।

’ आंटी - किसी चीज को अपनी अंटी/अपनी गांठ में कर लेना, बांध लेना, कब्जा लेना

हिन्दी के लड्डू


                                 ‘पंडिजी’ जाहिरतौर पर हिन्दीप्रेमी हैं और छुपेतौर पर अंगे्रजी प्रेमी। ऐसा है भई मजबूरी में आदमी को सब करना पड़ता है। देश  पढ़ेलिखे और समझदार मजबूर लोगों से भरा पड़ा है। एक बार कोई मजबूरी का पल्ला पकड़ ले तो फिर उसे कुछ भी करने की छूट होती है। मजबूरी को समाज बहुत उपर का दर्जा देता है। लगभग संविधान की धारा की तरह यह माना जाता है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है। अब आप ही बताएं कि महात्मा जी नाम जुड़ा हो तो कोई कैसे मजबूर होने से इंकार करे। मजबूरी हमारी राष्ट्रिय  अघोषित नीति है। सो पंडिजी को मजबूरी में  अपने बच्चों को अंगेजी स्कूलों में पढ़वाना पड़ रहा है तो मान लीजिए कि कुर्बानी ही कर रहे हैं देश की खातिर।
                        अब आपको क्या तो समझाना और क्या तो बताना। जब आप ये व्यंग्य पढ़ रहे हैं तो जाहिर तौर पर समझदार हैं। जानते ही हैं कि हर आदमी को दो स्तरों पर अपने आचरण निर्धारित करना पड़ते हैं। रीत है जी दुनिया की, षार्ट में बोलें तो दुनियादारी है। सामाजिक स्तर पर जो हिन्दी प्रेमी हैं वे निजी तथा पारिवारिक स्तर पर अंग्रेजी प्रेमी पाए जाते हैं। समझदार आदमी सार्वजनिक रूप से हिन्दी का प्रचार प्रसार करता है, मोहल्ले मोहल्ले घूम कर माता-पिताओं को समझाता है, प्रेरित करता है कि भइया रे अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम की पाठशाला में पढने के लिए भेजो और देश को अच्छे नागरिक दो। इस बात में किसी को शक नहीं होना चाहिए कि हिन्दी को प्रेम करना वास्तव में देश को प्रेम करना है। और देश को प्रेम  करना हर आम आदमी का परम कर्तव्य है। जिसे कुछ भी करने का मौका नहीं मिलता हो उसे देशप्रेम का मौका तो अवश्य  मिलना चाहिए। हालाॅकि हिन्दी वाले जरा ढिल्लू किस्म के हैं। उनके पास जरा सा तो काम है कि देशप्रेमी बना दो, कोई बहुत प्रतिभाशाली मिल जाए तो अपने जैसा गुरूजी बना दो, लेकिन वह भी से नहीं होता। सितंबर के महीने में देश भर में हिन्दी के लड्डू बंटवाए जाते हैं। सरकार के हाथ में लड्डू के अलावा कुछ होता भी नहीं है। साल में एक बार हिन्दी का लड्डू नीचे तक पहुंच जाए बस यही प्रयास होता है।
                         पंडिजी की चिंता यह है कि तमाम हिन्दी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है। गली गली में अंग्रेजी माध्यम के स्कूल ऐसे खुल रहे हैं जैसे मोहल्ले के चेहरे पर चेचक के निशान हों। वे इस कल्पना से ही पगलाने लगते हैं कि क्या होगा अगर सारे बच्चे अंग्रेजी पढ़े निकलने लगेंगे। देश हुकूमत करने वालों से भर जाएगा तो कितनी दिककत होगी। आखिर राज करने के लिए रियाया भी चाहिए होगी। हिन्दी नहीं होगी तो प्रजा कहां से आएगी। राजाओं के लिए प्रजा और प्रजा के अस्तित्व के लिए हिन्दी को प्रेम  करना जरूरी है। सरकार में मंतरी से संतरी तक इतने सारे हिन्दी प्रेमी भरे पड़े हैं कि पूछो मत। लेकिन एक भी आदमी आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो अपने बच्चों को मंहगे अंग्रेजी स्कूल में न पढ़ा रहा हो। ये त्याग है देश के लिए। सरकारी नौकर जनता का सेवक होता है। जनता मालिक है,  मालिक ही बनी रहे, ठाठ से अपनी सरकार चुने और ठप्पे से राज करे हिन्दी में।
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सरकारी नौकरी और हरे हरे

लोग कहते हैं सावन के अंधे को हरा हरा दिखता है। इसमें कितनी सच्चाई है ये तो हमें पता नहीं लेकिन अच्छन बाबू का अनुभव ये है कि सरकारी अंधे को भी हरा हरा दिखता है। यों देखो तो अच्छन बाबू की दोनों आंखें वर्किंग हैं, लेकिन नहीं हैं। जब भी देखती हैं हरा ही देखती है। सरकारी कर्मचारी-यूनियन वाले लाल झंडा हिलाते हैं लेकिन इनका मानना है कि हम लोगों को वो भी हरा ही दिखाई देता है। सरकार ने कई बार नोटों के रंग बदल कर कुछ और कर दिये लेकिन सरकारी आदमी के लिए वो हर समय हरे हीे होते हैं। रोजाना वे हरे हरे कहते स्नान करते हैं और हरे हरे कहते पूजन। दफ्तर में कोई काम करना हो तो हरे हरे, न करने की वजह भी हरे हरे। हरा खुषी का प्रतीक है, देने वाले दे कर और लेने वाले ले कर मोक्ष का मार्ग तैयार कर लेते हैं। हरे हरे हों तो नीला आसमान भी हरा हरा। षिकायत करने वाले करते रहते हैं कि सरकार निकम्मी है, कोई काम ठीक से नहीं होता है। व्यवस्था की बातें षुरू होगी तो अंत का पता नहीं कब, कहां और कैसे होगा। लेकिन फिर भी सरकारी नौकरी जिसे मिल जाए तो समझो जन्नत मिल गई। ऐसा क्या है सरकारी नौकरी में ? अच्छन कहते हंै कि कुछ खास तो नहीं बस हरा हरा। सरकार कोई भी हो हमेषा बुरी लगती है और सरकारी नौकरी कैसी भी हो अच्छी लगती है।  अच्छन ने अपने बच्चे प्रायवेट स्कूल में इस लिए पढ़ाए क्योंकि सरकारी में मक्कारी होती है। और बच्चों को सरकारी स्कूल में टीचर लगवाया क्योंकि यहां मक्कारी होती है। करने को मिले तो मक्कारी जीवन का आनंद है। और यदि मक्कारी करने के लिए पांचवा, छःठा या सातवां वेतनमान भी मिले तो पक्का मान लो कि स्वर्ग से भी उपर आ गए। 
अच्छन का मानना हैं कि नौकरी सरकारी बेस्ट होती है उसके तीन कारण वे गिनाते हैं - पहला तो यही कि आप सरकारी हुए और जमाना आपको बाकायदा सरकारी दामाद मानने लगेगा। व्यवहारिक तौर पर देखें तो सरकार का दामाद सरकार से बड़ा होता है। वैसे तो इतना भी काफी है लेकिन मौका पड़ते ही ‘सरकार’ आप खुद भी बन सकते हैं। दूसरा जब आज के समय में आप सरकार हैं तो नामालूम राजे रजवाड़ों से बाकायदा उपर हैं जिनका कि प्रिवीपर्स भी बंद हो चुका है। आम आदमी तो आपके लिए चिकन-चूजों से ज्यादा नहीं। यह एक दैवीय अहसास है, इसी को सत्ता-सुख कहते हैं, नेताओं को पांच साल के लिए नसीब होता है लेकिन आपको जिन्दगी भर के लिए। तीसरा, पकड़े जाने पर सरकारी भृत्य के यहां भी करोड़ों की अघोषित संपत्ती मिलती है। इससे नहीं पकड़े गए क्लर्कों अफसरों के सम्मान मंे इतना इजाफा हो जाता है कि उनकी छाती में दस से पंद्रह इंच का की वृद्धि हो जाती है। 
कल ही अच्छन रिटायर हुए हैं, आज वे मित्रों के बीच बैठे नए नए किस्से सुना रहे हैं मानो जंगल से लौट कर षिकारी बता रहा है कि उसने कैसे कैसे षेर और हिरण मारे। साथ में ये भी बोले रहे हैं कि भइया काजल की कोठरी से बेदाग निकल आए हैं। उनका मतलब है कि पकड़े नहीं गए हैं।  भ्रष्ट वही है जो पकड़ा जाए। जो पकड़ा नहीं गया वो देषसेवक है। आइये हम सब देषसेवक अच्छन जी के लिए ताली बजाएं। 
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बुधवार, 22 जुलाई 2015

तुम तो यार घोचूंनंदन हो

              अपने अच्छे दिनों की उम्मीद में वह अखबार में वैवाहिकी काॅलम देख रहा था। वास्तव में जवानी की दहलीज पर अकेला खड़ा खड़ा ऊब चुका वह, ऐसा मान रहा था कि शादी के बाद हर आदमी के अच्छे दिन आ ही जाते हैं। हाथ की रेखाएं और जन्मकुण्डली वह हमेशा अपनी पतलून की दांईं जेब में तैयार ही रखता है। जैसे ही कोई ज्योतिषी दिखा कि दन्न से उसके सामने फैला  दी। अच्छे दिनों का सारंगी वादन सुन कर वह इतना तन जाता जितना कि साठ साल में उसके  बाप-दादा भी कभी नहीं तने। जवानी के सपनों की मत पूछो, फोरलेन हाईस्पीड होते हैं और देखने वाला बिना ब्रेक के। बात शादी की हो तो मल्टीकलर, घोड़ी बैंड बाजा सब एक साथ, यानी अच्छे दिन फोर्थ-फिफ्थ गियर में। ताडू ज्योतिषी ने कहा आपके अच्छे दिन बस आने ही वाले हैं, थोड़ी बहुत बाधाएं हैं वो मैं हटा दूंगा। कुछ दे जाओ और घर जा कर प्रतीक्षा करो। समझो अच्छे दिन पीछे पीछे मेट्रो एक्सप्रेस से आ ही रहे हैं।
                  एक सुबह उसे विज्ञापन से पता चला कि किन्हीं भले लोगों को योग्य वर चाहिए। वह योग्य है इसमें उसे कोई शक नहीं था, रहा सवाल दूसरों का तो आज दूसरों पर कौन यकीन करता है। संपर्क हुआ, बात हुई, लड़की वाले अच्छे दिनों का शगुन ले कर आ गए। ऐसे मौकों पर लड़कों को अक्सर घंटियां सुनाई देती हैं, ज्यादातर मामलों में वे इसे मंगलध्वनि मान लेते हैं। लड़की थी, उसकी छोटी बहन यानी साली साहिबा थीं, लड़की के भाई, मामा, अम्मा, भौजी, ताऊ , ताई यानी पूरी पार्टी साथ। मामा बोले शादी तुरंत करेंगे, आखिर सब कारेबारी हैं, और जल्दी लौटना चाहते हैं। अंधा क्या चाहे एक अंधी। कुछ उसने नहीं देखा-सोचा, … कुछ वे नहीं देख-सोच रहे। मौके पर मार ले वो मीर। उसने भी गरम तवे पर शादी के दानों को फटाफट भुना लिया। वो क्या कहते हैं आप लोग ‘चट मंगनी और पट ब्याह’। हो गया, लड़की रो-घो के बाकायदा उसके घर में आ गई। भला और किसे कहेंगे अच्छे दिन। हप्ता भर में चार मंदिर, आठ होटल, पांच सिनेमा और हज्जारों की खरीददारी हुई। स्क्रिप्ट की मांग के बावजूद यहां कुछ और नहीं बताया जाएगा, हालांकि सामान्य परिस्थितियों में सब कुछ सामान्य होता रहा। 
                         आठवें दिन की सुबह वह कुछ देर से उठा, लगा जैसे रात को कुछ नशा करके सोया था। पता चला कि दुल्हन मेंहदी लगे हाथों समेत गायब है। फोन लगाने के लिए हाथ बढ़ाया  तो चला  कि अपना  फोन भी गायब है। शंका  हुई तो अलमारी देखी, जेवर, कपड़े वगैरह सब गायब। और तो और खुद उसके कपड़े भी नदारत थे । वह बाहर निकल कर शोर मचाना चाहता था लेकिन लुटापिटा, ‘अर्द्धनग्न-पीके’ कैसे तो बाहर निकलता और किसको कुछ कहता। मोहल्ले वाले सेन्सर बोर्ड की तरह माडर्न तो हैं नहीं। 
                     दिनों बाद विकास टी स्टाल पर वह एक पुलिस वालाजी साहब को समोसों के भोग के बाद चाय सेवन करवाते हुए बता रहा है कि वो रिश्तेदार नहीं पूरी गैंग थी लुटेरों की। किसी तरह मेरे अच्छे दिन बरामद करवाओ साहब। 
                      साहब बोले-‘‘ तुम तो घोचूंनंदन हो यार, अच्छे दिन ऐसे आते हैं क्या .... हनुमान जी का परसाद है कि हाथ आगे किया और फांक लिया घप्प से ! ..... आगे घ्यान रखना, फिर मत फंस जाना। ’’
                     ‘‘ सो तो ध्यान रखेंगे साहेब,  लेकिन अभी इस केस में कुछ कीजिए ना।’’
                  ‘‘ पुलिस केस है, कोर्ट कचहरी में बीस-पच्चीस साल तो लगते हैं। .... बरामद हो जाएगा .... लेकिन हिम्मत रखो .... पच्चीस साल .... यूं निकल जाएंगे .... अभी देखते देखते ।’’
                                                                     
                                                                            -----

बुधवार, 8 जुलाई 2015

व्यापम पर स्यापम

                       
  विरोधी दल वाले हाथी-हाथी कहते छाती कूट रहे हैं, जनता भी साफ देख रही थी कि वो हाथी है, मीडिया भी चिल्ला रहा है कि हाथी है लेकिन मंत्री के लिए वह चूहे का बच्चा। उनका कहना था कि आप चीजों को बड़ा करके बता रहे हैं। जिसे हाथी बताया जा रहा है दरअसल वो रस्सी मात्र है। सब जानते हैं कि मेडिकल का क्षेत्र प्रतिभा का क्षेत्र है, वहां उन्हें ही सफलता मिलती है जो प्रतिभाशाली हैं। साठ साल तक लोग ईंट-गारा, डामर-सड़क से अठन्नी-चवन्नी उठाते रहे अगर प्रतिभा होती तो अवसर उस समय भी उपलब्ध थे। उनकी ईर्ष्या साफ दिख रही है, वे विरोध नहीं कर रहे हैं छाती कूट रहे हैं। ‘हाय हम न हुए’, ..... सच बात ये है कि उन्हें पछतावा है। लेकिन जो परिवार पूजन करने को राजनीति कहते हैं वे कुछ नया करने का सोच भी कैसे सकते हैं। आज रस्सी को हाथी बता रहे हैं, कल को जब हाथी जैसा कुछ होगा तो क्या ‘डायनोसार’ चिल्लाएंगे। इससे कुछ नहीं होगा, हम सबको देश  के बारे में सोचना चाहिए। दे से उपर कुछ नहीं है, हमारी माता-बहेनों से उपर कुछ नहीं है। अभी यूपी-बिहार लूटना है, मंदिर बनाना है, गंगा को साफ करना है, उज्जैन में संत-महात्मा आने वाले हैं उन्हें नहलाना है, देव उठ जाएंगे तो लाड़ली लड़कियों के ब्याह कराने हैं। बहुत काम है सरकार के पास, विरोधियों की तरह खाली नहीं बैठे हैं मातृपूजन में मंझीरे बजाते। तो भाइयो और बहनो, प्रदे के विकास के लिए आइये सब मिल कर काम करें। 
                        दूसरे बोले, देखिए हम डरते नहीं किसी से। कानून सबसे उपर है, इसलिए सबसे उप्पर वाले टांड पर बंधा रख दिया है। पार्टी बहुत जिम्मेदारी से काम करती है। जिम्मेदारी हमारी पहचान है। अगर घोटाले या हत्याएं करेंगे तो जिम्मेदारी से करेंगे वरना नहीं करेंगे। जब हम किसी काण्ड की जिम्मेदारी नहीं ले रहे हैं तो इसका साफ मतलब है कि उसमें हमारा हाथ नहीं है। इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए किसी को ! जो आया है संसार में वो एक दिन जाएगा, इसके लिए ईश्वर का विधान जिम्मेदार है पार्टी का नहीं। 
                      पीले कपड़ों में फंसे एक और ‘जी’ बोले, - कोई घोटाला नहीं है न कोई षडयंत्र। व्यापम एक संस्कृति है। भरत को राजगद्दी दिलवाने के लिए राम को चौदह वर्ष वन में भटकने  को क्या कहेंगे आप। बस सेम टू सेम हुआ है। कई क्षेत्रों में राम राज्य लाने का वादा तो हमेशा  करते रहे हैं हमारे पुराने नेता भी। इसमें नया क्या है जिस पर इतना हल्ला मचाया जा रहा है। विरोधियों को संस्कृति का ज्ञान नहीं है और वे चाहते हैं कि लोग अधार्मिक हो जाए। लेकिन सरकार भागवत-भंडारे में लगी श्रद्धालु जनता को बरगलाने नहीं देगी। सरकार से भले न डरें पर विरोध करने वालों को यमराज  से अवश्य  डरना चाहिए। अगर परंपरा पर ध्यान दें तो पाएंगे कि सब उसके अनुरूप हो रहा है। कहा गया है समरथ को कोई दोष नहीं। जो समर्थ है उसके लिए सब सुलभ होता रहा है, यही आदर्श  परंपरा है। इसमें इतना चौंकने वाली कोई बात नहीं है। हमारा कहना है कि सब लोग शांत रहें, दिन में सिनेमा और शाम को सीरियल देखें। सुबह योग करें, लंबी सांस भरें और धीरे धीरे छोड़ें । दो-चार दिन में व्यापम गैस से मुक्ति मिल जाएगी। 
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बुधवार, 1 जुलाई 2015

मस्त-मौन


  मौन किसी एक पार्टी या व्यक्ति की बपौती नहीं है. खुल्ला खेल लोकतंत्र का, जो भी मौन का विरोध करता हुआ कुर्सी कब्ज़ा ले बाद में अधिकार पूर्वक मौन लगा सकता है. मौन राजनीति की लंगोट है. जिसने बांध ली वो पहलवान. अब अखाडा उसका, दांव उसके, जीत उसकी. पांच साल उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है. संविधान में मौन के खिलाफ कोई कानून नहीं है. आदमी कभी भी, कहीं भी, कुछ भी करके लगा सकता है. मौन लगाने से आदर्श व्यवस्था बनी रहती है. सबसे ज्यादा बलात्कार हमारे यहाँ होते हैं, चूँकि ज्यादातर मामलों में मौन-संस्कार प्रभावी रहता है इसलिए व्यवस्था पर कोई आंच नहीं आती है. देवताओं तक ने किया और मौन लगा गए. आज भी हर तरह के बलात्कार का कारण मौन है. पुलिस मौन धारण किये आदमी पर खुलेआम लाठीचार्ज भी नहीं करती है, हालाँकि मुंह खुलाने के लिए उसे अपने विशेष कक्ष में तरह तरह के आसान करवाना पड़ते हैं. अंडरवर्ल्ड और राजनीति में मौन का वैवाहिक जीवन में करवाचौथ का है.
लेकिन हम यहाँ मौन पर मौन नहीं लगाएंगे, बात करेंगे. मौन दरअसल एक बहरी चीज है. जो मौन होता है वो ऊपर से मौन होता है. उसे अंदर इतना शोर चल रहा होता है कि मुक्त भाव से साँस ले तो चीखें सुनाई पड़ने लगाती हैं. आप जानते ही हैं कि टीवी म्यूट कर देने से अंदर की आवाजों पर असर नहीं होता है. मौन आदमी म्यूट टीवी होता है, वो नहीं होने की तरह सिर्फ होता है. आपको संतोष होगा कि हाँ, हमारे पास टीवी है. नहीं होता तो कितना खाली खाली लगता.
            पिछली बार जब देश का पदेन मुखिया मौन रहा तो रह किसी ने उनका मजाक बनाया. ईश्वर में मुंह में जुबां दी है तो इसलिए कि मौन की खिलाफत की जा सके. अब पता चला कि मौन एक कला है. जब खुद हाईकमान मौन हो तो उसके मौन में सुर ,मिलाना त्याग है. तो मौन एक तरह का त्याग भी है.
             राजनीति को ज्यादातर लोग गंदा बोलते हैं. वे मौन को नहीं जानते. मौन एक शानदार राजनीति है. सारा देश भी छाती कूट कूट कर सवाल उछलता रहे और आप मुस्कराते हुए दिल की बात करते रहिये. पांच साल आराम से निकल जायेंगे. अगर कोई साध ले तो मौन हाईकमान से भी बड़ा होता है, बशर्ते वह पुत्रमोह से पीड़ित ना हो. मौन का सबसे बड़ा लाभ यह है कि विरोधी हमेशा मौन का विरोध करते हैं, और मौनी अक्सर बच जाता है.
             समाज बदल रहा है और सोच भी बदल रही है. दुनिया देख रही है कि मौन एक योग है. आँखे बंद कीजिए, कानों में अंगुली ठूंस लीजिए, और मुंह कास कर बंद कर लीजिए. अब लंबी सांसें भरिये और धीरे धीरे छोडिये. ऐसा तब तक करिये जब तक कि सवालों का राम नाम सत्य नहीं हो जाये. कोई पूछने पर आमादा ही हो तो साफ साफ कहिये कि कोई इस्तीफा नहीं देगा, सब योग करेंगे. आप भी योग करो, करते रहो, एक दिन तनावमुक्त हो जाओगे.

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बुधवार, 17 जून 2015

लेखन एक खुजली

                    रचनात्मकता के बिना लेखन एक खुजली है। माना जाता है कि खुजली स्वातःसुखाय होती है, जितना खुजाओ उतना बढ़ती है। जिन्हें हो जाती है उनके लिए खुजाना ही रचनात्मक होना है। इसलिए वे आड़े-तिरछे हो कर, खादी-रेशम पहन कर, नहा-धो कर यानी सब तरह के टोटकों से खुजाता है। खुजली के न नियम होते हैं, न सलीका और न ही व्याकरण या परिभाषा। खुजली बस खुजली होती है मीठी मीठी, बस ऐसी जगह बैठ जाइये जहां दूसरों की नजर में आ रहे हों और खुजाने लगिये। कुछ दिनों में देंखेंगे  कि लोग आप पर दृष्टि रखने लगे हैं। बस समझ लीजिए कि सफलता मिल गई। अब जितना खुजाते जाएंगे लगेगा कि इज्जत बढ़ रही है। इज्जत का ऐसा है कि जिनके पास करने को  कुछ नहीं होता है  वे टाइमपास  के लिए दूसरों की इज्जत करने लगते हैं। गीता में लिखा भी है कि मनुष्य को कर्म करना चाहिए। इज्जत करने से धर्म-कर्म दोनों की पूर्ति हो जाती है और व्यस्तता  भी बनी रहती है । इसलिए इज्जत की चिंता नहीं करना चाहिए, वो तो मिलनी ही है। अगर नौकरी धंधा करते हैं तो मान लें कि यह खुजलीकर्म में बाधक है। ऐसे में वीआरएस ले लेने का चलन है, दुकान हो तो बंद कर सकते हैं, खेतीबाड़ी हो तो मुक्त हो लें। खाज-संसार में फ्रीलांस-खुजली का आपना महत्व होता है। बायोडेटा में फ्रीलांस लिख दो तो बीए एमए की डिग्री पर भी भारी पड़ जाता है। लोग उनका लोहा मानते हुए दीदे फाड़ कर देखते हैं कि मात्र खुजा-खुजा कर वे जीवन यापन कर रहे हैं। अक्सर न चाहते हुए भी उनके हाथ जुड़ जाते हैं, दूसरी सफलता मिली।
                               आमतौर पर खुजावक के पास खुजाने का कोई स्पष्ट कारण नहीं होता है। पूछने पर गंभीर हो कर कहा जा सकता है कि प्रतिभा के कारण खुजा रहे हैं, कुछ प्रेरणा के कारण भी खुजाने का दावा कर सकते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद भी लोग नाखून घिसते देखे जाते हैं। बहुत से लोग यह बताते हैं कि खानदान में कभी कोई खुजाया करता था, मसलन पिताजी, दादाजी, नानाजी टाइप कोई, सो देख देख कर वे भी खुजाने लगे हैं। इस तरह अपनी खुजली को पारिवारिक परंपरा की खुजली कह कर अतिरिक्त सम्मान की रचना की जा सकती है। खुजलीवान उन लोगों के बीच विशिष्ट  होता है जिन्हें यह बीमारी नहीं होती है। लोग आंखें गोल करके मिलते हैं - ‘‘ अरे भई  आप तो बड़े खुजलीकार हैं !! आपसे मिल कर बड़ी प्रसन्नता हुई। खुजाना बड़ा कठिन काम है साहब, उपर वाला जिसको नैमत देता वही खुजाता है। अब समाज में हैं ही कितने खुजाने वाले। ’’ लीजिए आज का दिन सार्थक हुआ, फिर सफलता मिली। 
                       कबीर ने कहा है कि ‘ सुखिया सब संसार, खावै और सौवे, दुखिया दास कबीर, जागै और रौवे। इसे फार्मूला मान कर अनेक खुजलीकार रात में खुजाते हैं । कहते हैं खुजाना एकांत में ही संभव है। दिन में खुजाने वाले भी एकांत की तलाश में रहते हैं। 
                 किसीने पूछा - ’’ आप अंग्रेजी में खुजाते हैं या हिन्दी में ?’’
              ‘‘अंग्रेजी में खुजाने से पैसा अच्छा मिलता है, लेकिन मैं तो हिन्दी में खुजाता हूं क्योंकि हिन्दी में स्पेलिंग मिस्टेक का खतारा नहीं रहता है।’’ वे बोले।
               ‘‘ ऐसा कैसे !! ये दिक्कत तो हिन्दी में भी होती होगी। हर भाषा में होती है।’’
              ‘‘ इसके दो कारण हैं, एक तो हिन्दी हमारी अपनी मातृभाषा है सो हर तरह का अधिकार बनता है हमारा। दूसरा हिन्दी वालों का दिल खासा बड़ा होता है। वे अशुद्धियों पर ध्यान नहीं देते हैं। दूध को चाहे ‘दुध’ लिख दो चलेगा, पर भाव सही होना चाहिए। हिन्दी वाले भाव के भूखे होते हैं ... कविता में भी ‘भाव’ सबसे पहले देखा जाता है, चाहे पतली या पनेली कैसी भी हो।’’
                  ‘‘ कविता भी आप स्वयं ही खुजाते हैं ?’’ 
              ‘‘ और नहीं तो क्या ..... जहां तक हाथ पहुंचता है खुद ही खुजाते हैं वरना पीठ तो हर किसी को दूसरे से ही खुजवाना पड़ती है । ’’
                                                                           -----

शुक्रवार, 5 जून 2015

आशंका का मौसम

               
    हमारे यहां आशंकाएँ  व्यक्त करने का एक विभाग है जो खासतौर पर मौसम के मामलों में हस्तक्षेप करता दिखाई देता है। समय समय पर कुछ घोषणाएं कर देना उसकी ड्यूटी है। कोई  विभाग अपना काम करे इससे ज्यादा किसी को और क्या चाहिए। घोषणाएं कभी कभी सही भी निकल जाती हैं जिसकी जिम्मेदारी विभाग की नहीं नेतृत्व के सौभाग्य की होती है। नीचे विभाग और उपर मौसम, छेड़छाड़ चलती रहती है। विभाग कहता है बारिश  अच्छी होगी, मौसम मुंह  चिढ़ा देता है। जब कहता है वर्षा कम होगी तो बादल झूम के बरसते हैं। दरअसल मौसम विभाग का काम है आशंका व्यक्त करना और यह काम कोई छोटा-मोटा काम नहीं है। बहुत खर्चीला काम है जी। बड़े बड़े वैज्ञानिक और अफसर इस काम में मुस्तैदी से लगे होते हैं। एक पूरा महकमा है जिस पर सरकार करोड़ों खर्च करती है तब कहीं जा कर मानसून के पहले एक अदद आशंका व्यक्त हो पाती है। मौसम आखिर मौसम है, गरीब की जवान छोरी नहीं कि जरा जबान हिलाई और आशंका व्यक्त कर दी। 
                  कुछ लोग हर चीज को गंभीरता से ले लेते हैं, मजाक तक को भी। कुछ मारे डर के दुबक जाते हैं, जैसे केन्सर के अंदेशे  में तम्बाकू-सिगरेट छोड़ देते हैं और शराब पीने लगते हैं। क्यों न पियें, सरकार तम्बाकू-सिगरेट पर प्रतिबंध लगा रही है और शराब की दुकान हर दूसरी गली में है तो डाक्टरों से पूछ कर ही खुलवाई होगी। भरोसा है सरकार पर, खुद जनता ने जिम्मेदारी से चुनी है। लेकिन ऐसे भी कम नहीं हैं जो मानते है कि जन्म और मृत्यु उप्परवाले के हाथ में है, उपर वाला जन्म-मृत्यु मसलता रहता है और नीचे वाला बेफिक्र तम्बाकू-चूना। अपना अपना काम करो भई, डू नाट डिस्टर्ब। जब आना हो आ जाना, बुलाना हो बुला लेना।
              आशंका के बारे में आपको पता ही होगा कि वो कहीं भी, कभी पैदा हो जाती है। पैदा हो जाने के बाद आमतौर पर आशंका को दबाए जाने का चलन है। लेकिन यहां भी विज्ञान के नियमानुसार जितना दबाया जाता है आशंका उससे दुगनी ताकत के साथ बाहर आ जाती है। गीता ज्ञान है कि जो जन्मा है वो मरेगा भी। आशंका पैदा होती है तो उसे व्यक्त भी होना ही है। अगर दक्षता पूर्वक आशंका के बीज बोए जाएं तो सत्ता की हरी हरी फसल भी लहलहा सकती है। लेकिन इधर जब से मौसम विभाग ने सूखे की आशंका व्यक्त की है तो रियल किसानों के प्राण सूख गए हैं। जिन्होंने आत्महत्या स्थगित कर रखी थी वे पुनर्विचार की मुद्रा में आ रहे हैं। अब तक अपने मदारी को देख देख कर शेयर बाजार बंदरों जैसा उछल रहा था, आशंका सुनी कि पट्ट-से लुढ़क गया। अच्छे दिनों का ढोल भी मजे में बज रहा था कि अचानक एक तरफ का चमड़ा फट गया। जो दलहन-तिलहन बाजार में ढ़ीले थे आनन फानन टाइट हो कर गोदाम का रुख करने लगे। चारों ओर तेजी की लाठी के साथ पथसंचलन शुरू हो गया। गिनती की कौडी लाने वाले तमाम घर मुरझा गए। मौसम विभाग पर यों तो किसी को विश्वास  नहीं है लेकिन क्या भरोसा काली जुबान का। इधर विभाग मानता है कि कर्म किये जा फल की चिंता मत कर। बिना वैधानिक चेतावनी के उसने आशंका व्यक्त कर अपना अनुष्ठान पूरा कर दिया है अब आप मानो या न मानो आपकी मर्जी। 

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