शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2020

शहर में अस्पताल


शहर में बड़ा अस्पताल बना और लोग फटाफट बीमार रहने लगे । इससे ज्यादा अच्छे नागरिक किसी दूसरी जगह देखने को भी नहीं मिलेंगे । ये लोग जानते हैं की बिना नागरिक सहयोग के सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है । लोकतन्त्र की खूबसूरती यही है कि  सरकार जनता के वोटों से बनती है । शुरू शुरू में वोट गावदी किस्म का सस्ता वोट था, लेकिन राजनीतिक दलों ने वोट कि कीमत लगा लगा कर उसे बाज़ार का महंगा आइटम बना दिया है । कभी अद्धे पौवे में बिकने वाले वोट अब जिंदगी भर का समान मुफ्त मांगने लगे हैं और मजे की बात यह कि शरम भी नहीं आती है ।
ये अस्पताल भी कभी दूसरी जगह के लिए बनना तय था जहाँ गरीबी बहुत है । सरकार को यह समझाने में बड़ा वक्त लगा कि गरीबों का अस्पताल से क्या लेना देना है । उनका इलाज तो खुद भगवान करते हैं । अस्पताल तो उन लोगों के काम का है जिनके पास खूब पैसे हैं । आप टीवी देखिए, बीमा वाले चीख चीख कर बता रहे हैं कि अस्पतालों के खर्चे लाखों में होने लगे हैं । यह एक तरह का अमानवीय कार्य हैं लेकिन लीगल है । अगर किसी को सर्दी खांसी भी हो जाए तो लाख- पचास हजार से कम में ठीक नहीं होता है । शायद इसी को विकास समझा / समझाया जा रहा है । इसलिए आप बीमा करवाइए, सरकार के हाथ में कुछ नहीं है । महंगे इलाज के लिए महंगा बीमा आदमी को सामाजिक प्रतिष्ठा भी दिलाता है । बीमें की प्रीमियम इतनी अधिक होती है कि एक बार दे कर साल भर आपको अमीर होने का अहसास होता है । इधर शहर भर के लोगों ने बीमा करवा कर सरकार की लाचारगी को श्रद्धा सुमन अर्पित किए । बिजनेस सेक्टर में इसे बीमा कंपनी और बीमा एजेन्टों की भारी सफलता बताया जा रहा है ।
लोग साल भर प्रीमियम भरें और बदले में अस्पताल जाने को न मिले तो फायदा क्या !! आदमी अमीर होता है बेवकूफ नहीं । स्कूटर का भी बीमा करवाता है तो खुद ठोक के मुआवजा वसूलता है । बीमा करने के बाद अस्पताल चिकित्सा केंद्र से आगे की चीज हो जाता है । सीजन भर की भागदौड़ और हायबाप के बाद आखिर हर घोड़े को अस्तबल होना चार छः दिन के लिए । ऐसे में अस्पताल दूसरे शहर में हो तो बड़ी दिक्कत होती है । बीमार अकेला महसूस करता है । लोग आ नहीं पाते हैं मुँह दिखाने और मिलने के लिए । सोचिए कोई पैसे वाला बीमार पड़ा हो, अस्पताल में भर्ती हो और उसकी तबीयत पूछने वाले आ नहीं पाएँ तो क्या फायदा ऐसी व्यवस्था से !! अस्पताल शहर में ही हो तो नाते रिश्तेदार अपना फर्ज पूरा कर लें । पास पड़ौसी, पार्षद-विधायक तबीयत पूछ लें तो बीमा और बीमारी सार्थक है वरना क्या धरा है संसार में ! लोकल अस्पताल में लोकल मरीज हो तो लोकल लीडर मिल लें और अखबार के लोकल पेज में खबर छप जाए तो लगे कि दुनियादारी सफल है । कभी कभी फूल लेते-देते फोटू भी आ जाती है तो समझो कि लोकतन्त्र की सांस चलती है इस तरह के माहौल से । अस्पताल असल में एक पूरे सिस्टम को भी जिंदा रखने के काम आता है । रहा सवाल गरीब गुरबों का तो भईया उनके लिए ओपीडी चालू रखो और गोली पुड़िया देते रहो । आखिर वोटों का भी जिंदा रहना जरूरी है । सिस्टम में गरीब की भूमिका वही होती है जो खेत में खाद की होती है ।
पिछले साल अस्पताल का उदघाटन ज़ोरशोर से हुआ था । मंत्री जी ने साफ साफ कहा था कि अब शहर के नागरिकों की ज़िम्मेदारी है कि वे अस्पताल का भरपूर लाभ लें । सरकार केवल अस्पताल का खर्चा उठा सकती है लेकिन बाकी लाभ उठाना जनता और बीमा कंपनियों के हाथ में है । लोगों को पीठ में खुजली भी हो और अगर उसने बीमा करा रखा हो तो उसे भी फ़ार्मेलिटी पूरी करके बकायदा अस्पताल में आ जाना चाहिए । अगर अस्पताल खाली रहा तो वह बीमार हो जाएगा । मंत्री ने इशारों में बात समझा कर सहयोग किया । तभी से शहर के नागरिकों ने तय कर लिया कि वो ऐसा नहीं होने देंगे ।
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भाबी की हॉबी


हॉबी बहुत अलग टाइप की चीज होती है । जिसको होती है उसी को होती है, सबको नहीं होती है । जलेभुने लोग इसे खुजली भी कहते  हैं । हालाँकि खुजली का मामला भिन्न है, उसका इलाज भी हो जाता है । भाबी जी ने चाय पकौड़ा मुलाक़ात में बताया कि उनकी बहुत सारी हॉबी हैं । पहली तो यही कि उनको पीएचडी करने का बड़ा शौक है । हँसते मुस्कराते दो बार कर चुकीं हैं । तीसरी बार भी करना चाहती हैं । लेकिन इस बार मन नहीं हो रहा है ।
आप सोच रहे होंगे कि पीएचडी बड़ा मेहनत का काम है । लोग एक करने में टूट  जाते हैं, भाबी जी ने दो दो निबटा दी हैं, उच्चशिक्षा कोई मज़ाक नहीं है । अब शायद हिम्मत जवाब दे रही होगी । सुना है ज्ञान व्यान का मामला है । कुछ लोग कहते हैं कि ज्ञान हो तो पीएचडी होती है और कुछ का मानना है कि पीएचडी हो तो ज्ञान होता है । पक्का क्या है यह अभी तक पता नहीं चल पाया है । एक पीएचडी इसी बात पर होना चाहिए । कोई कह रहा था किसी किसी को पीएचडी के बाद ज्ञान का सींग उग आता है । लोग सींग देख कर डरते हैं चाहे वो किसी का भी क्यों न हो । शायद पीएचडी का फायदा भी यही है । इधर दो दो सींग हैं । जिसका मतलब है कि बस हो गया । शिवजी का नंदी हो या कामधेनु गाय, सबके दो ही होते हैं । भगवान का ऐसा है कि जो करते हैं अच्छा ही करते हैं वरना नहीं करते हैं । अगर किसी के सिर पर तीन चार या ज्यादा सींग सुहाते तो जरा देर नहीं करते । हाथी, गधे और शेर को एक श्रेणी में रखा है तो कुछ सोचा ही होगा । दो पीएचडी की बधाई देते हुए भाबी जी से पूछा कि तीसरी क्यों नहीं आखिर !?’
“हॉबी तो है लेकिन ... अब मन नहीं हो रहा है ...”
“हॉबी का क्या होगा !!  .... कर लीजिए ना दिक्कत क्या है ?
“करने में कोई दिक्कत नहीं है ... लेकिन अब लगता है फायदा नहीं है कुछ । “
“सब ऐसा सोचेंगे तो कैसे काम चलेगा ! ... मुर्गी को अंडा देने से क्या फायदा है, यह सोच कर वो अगर अंडा देना बंद कर दे तो !”
“देखिए जब पहली करी तो नाम के आगे डॉ. लगा । जब दूसरी करी तो डॉ.डॉ. लगाना चाहिए । पर लोग लगाने नहीं दे रहे हैं । जब दो पीएचडी में एक डॉ. तो तीन में भी एक ही डॉ. लगाने को मिलेगा । फिर फायदा क्या !?
“कायदे  से तो डॉ.डॉ.डॉ. लगाना ही चाहिए ।  बल्कि डॉ.डॉ.डॉ. इतना बड़ा और प्रतिष्ठापूर्ण होगा कि इसके बाद नाम लिखने की जरूरत ही खत्म हो जाएगी ।  आखिर कौन है इस जहाँ में जिसने तीन तीन पीएचडियाँ  कर रखी है !... डॉ.डॉ.डॉ. बोलते ही गूगल बता देगा कि आप हैं ।”
“अरे नहीं, नाम तो लिखना ही पड़ेगा । आखिर मेरी सारी हॉबीस नाम के लिए ही तो हैं ।“
“और क्या हॉबी हैं आपकी ।“
“साहित्यकार हूँ, चित्रकार हूँ, गाती हूँ, होम्योपैथिक डाक्टर हूँ ... और हाँ ... आपकी हॉबी क्या है ?
“मेरी हॉबी !! .... वॉक करना .... पाँच किलोमीटर पैदल चलता हूँ । अच्छा याद दिला दिया .... अभी मैं निकलता हूँ डॉ.डॉ.डॉ. भाबी जी । फिर कभी आऊँगा फुर्सत में ।
 “लेकिन अभी ये तीसरा डॉ. क्यों !? पीएचडी तो करने दो पहले ।
“तीसरा डॉ. होम्योपैथी का है ..... नमस्ते । “
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गुरुवार, 20 फ़रवरी 2020

मंदी का संगीत



दिन मंदी के हैं और हरगोविंद को दुकान पर बैठे अपने तमाम दोस्तों की याद आ रही है । मंदी का यह बड़ा फायदा है, वरना दिन अच्छे हों तो लोग भगवान को भी याद नहीं करते हैं । कवि भी कह गए हैं –“दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय” । यही वजह है कि जब कोई दरवाजे पर आता है या फोन पर, तो मन में पहला सवाल यही उठता है कि कुछ काम होगा वरना बिना मतलब के कौन किसे याद करता है ! बाज़ार में भी जब कामकाज ज्यादा होता है उस समय को सीजन कहते हैं । सीजन में कारोबारी इतने व्यस्त होते हैं कि लघुशंका रोके गल्ले पर बैठे रहते हैं । ऐसे में उन्हें कोई याद आ जाए यह संभव नहीं है । लेकिन इन दिनों मंदी है और कारोबारी खूब पानी पी रहे हैं और बिना इमरजेंसी के लघुशंका भी जा रहे हैं । यू नो, टाइमपास । काटे नहीं कटते ये दिन ये रात .... । बाज़ार में ठंडापन इतना है कि लगता है कि सेमी कर्फ़्यू लगा हुआ है । अव्वल तो लोग आते ही नहीं, जो आते भी हैं तो लगता है परिक्रमा लगाते निकल जाते हैं । पोपली जेबें विधवा सी हो चली हैं । कभी लदी फँदी और भरी मांग वाली थीं अब भजन गा रही हैं – क्या ले कर आया बंदे, क्या ले कर जाएगा ; खाली हाथ आया है, खाली हाथ जाएगा
कल हरगोविंद ने अपना पुराना रेडियो निकल लिया । सोचा खाली बैठ कर सड़क टूँगने से अच्छा है कि विविध भारती पर साठ-सत्तर के दशक वाले गाने ही सुने जाएँ । पुरानी यादें उछलने कूदने लगेंगी तो दर्द पता नहीं चलेगा । मंदी का भी एक दर्द ही है । हालाँकि फेसबुक और वाट्स एप के जमाने में रेडियो से चिपकाना आउट डेटेड है । लेकिन ठीक है, पीत्ज़ा बर्गर के जमाने में लोग गुझिया गुलगुले भी तो खाते ही हैं । दुकान में तीन नौकर थे, दो को हटा दिया है । एक बचा है वह भी अब मालिक के साथ फ्री बैठा रेडियो सुनता रहता है । हरगोविंद को यही नहीं सुहाता है । मंदी हुई तो क्या हुआ मालिक मालिक है, नौकर नौकर है । उन्हे बेइज्जती सी महसूस होती है । लगता है जैसे दोनों एक ही कप से चाय पी रहे हों । मालिक नौकर एक ही जाजम पर बैठ कर उमराव जान का मुजरा सुने यह तो करीब करीब लानत जैसी बात है । लेकिन मंदी हैं भाई । मंदी में चौतरफा गिरावट दर्ज की जा रही है तो मालिक कौन चमेली का तेल डाल रहे हैं ! नौकर को तो फिर भी खाली बैठने के पैसे मिल रहे हैं, फालतू तो हरगोविंद है । यहाँ तक तो ठीक था, नौकर गाना सुनते हुए पैर हिलाता है । हरगोविंद को कतई अच्छा नहीं लगता है । एक दो दिन से वह सिर भी हिलाने लगा है । गुस्सा तो इतना आ रहा है कि नौकरी से निकाल दें । लेकिन मजबूरी है, कमबख्त को रुपए उधर दे रखे हैं जो तनखा से कटते हैं हर महीने ।
दूसरे दिन हरगोविंद रेडियो घर ले गए और कान में ईयर फोन लगा कर सेलफोन से गाने सुनने लगे । उन्हें देख कर नौकर ने भी अपना फोन निकाला और कान में बट्टे ठूंस लिए ।
हरगोविंद को यह भी पसंद नहीं आ रहा है ।
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गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

कविता का कपोल वाइरस


सेवानिवृत्ति के बाद इधर बहुत से स्थगित काम हाथ में लेने का चलन है । मेरे मित्र मिसिर बाबू के सामने ऐसी ही कुछ स्थिति थी । सो उन्होने अपना लेखकीय उपनाम कपोल रखा और रोजाना आठ-दस कवितायें लिखने लगे । जल्द ही उनकी कविताएँ कोरोना वाइरस की तरह फैली और लोग संक्रमित होने लगे । सेवानिवृत्त कहाँ नहीं हैं, आजकल तो कुछ ज्यादा ही हो गए हैं । जो भी चपेट में आता गया वह भी लिखने लगा । पीड़ितों के घर वाले शिकायत करते कि “प्लीज, कपोल जी को किसी और काम में व्यस्त कीजिए, वरना ......” । लेकिन ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया । कपोल जी को विश्वास हो चला कि उनके शब्दों में गजब की ताकत है । वाइरस हों या बेक्टेरिया या फिर कविता ही हो, देश और दुनिया को हिला सकते हैं । वे कहते कि एक दिन कपोल-काव्य संसार में उथल पुथल मचा देगा । माहौल देख कर उन्होने घोषणा की कि वे जल्द ही खंड काव्य लिखने जा रहे हैं । खबर मिलते ही पड़ौसी चौबे जी ने लोगों को सूचित किया कि उनका ट्रांसफर हो गया है और वे तत्काल शहर छोड़ कर जा रहे हैं । वे चले भी गए । पीछे चर्चा है कि उन्होने रिश्वत दे कर अपना ट्रांसफर किसी सेफ जगह करवाया है ।

कपोल जी की चर्चा और आतंक देख कर तमाम सेवानिवृतियों ने कलम उठा ली । कुटीर उद्योग की तरह कविता-उद्योग घर घर में दनादन शुरू हो गया । कपोल दूसरे ... तीसरे ... चौथे .... पांचवे .... सीना तान कर पल्लवित होने लगे । लेकिन जैसा कि नियम है एक कपोल दूसरे की नहीं सुनता है इसलिए कविता के मार्केट में सुनने वालों का अकाल पड़ गया । सबको अपना अपना नया शिकार ढूँढना पड़ा । कविगण अपने दूधवाले, सब्जी वाले, फेरी वालों को पकड़ पकड़ कर सुनाने लगे । कई घरों में महरी यानी काम वाली बाइयों ने माइग्रेन की तकलीफ के कारण काम छोड़ दिया । बहुएँ अपने मायके फोन करने लगीं कि भैया आ कर ले जाओ हमें कुछ दिनों के लिए, वरना हमारा मरा मुंह देखोगे ।
नगरनिगम की एक बैठक हाल ही में हुई है । सातवें वेतन मान के लिए फिर से मांग उठी है लेकिन बजट नहीं है । किसी ने सुझाव दिया है कि सफाई कर का दायरा बढ़ाया जाए और कविता फैलाने वालों को भी दंडित करने की व्यवस्था हो । पता चला है कि कुछ लोग बहला फुसला कर, चाकलेट-कुल्फी का लालच दे कर कपोल-कृत्य करते हैं । शहर बदनाम हो रहा है , व्यवस्था को इसका संज्ञान लेना चाहिए । कोई रंगे हाथो पकड़ा जाए तो उस पर लोक आस्था के अनुरूप कार्रवाई होना चाहिए । यदि प्रशासन सुस्त रहा तो आशंका है कि मौब-लीचिंग की घटनाएँ होने लगेंगी । हमें याद रखना चाहिए कि कानून अपना काम नहीं करेगा तो प्रगतिशील समाज खुद कानून की भूमिका में आ जाता है । सब जानते हैं कि कानून अंधा होता है लेकिन उसके कान  होते हैं । इसका मतलब यह नहीं कि वो हर समय हर कहीं हर किसी की कविता सुनता रहेगा ।
इधर कपोल कर्मियों को जब पता चला तो उन्होने अपना एक संगठन बनाने का ऐलान कर दिया । जल्द ही वे कविता लिखने और सुनाने को मौलिक अधिकारों में स्पष्ट रूप से शामिल करने के लिए धारना देने की योजना बना रहे हैं । जैसे ही शाहीन बाग वाले जगह खाली करेंगे कपोल कर्मी वहाँ जा कर बैठ जाएंगे ।
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गुरुवार, 30 जनवरी 2020

दिल्ली कहाँ है ?




“तुम्हें पता है दिल्ली कहाँ है ?” अचानक छोटूजी ने बड़कूजी से पूछा ।
“ पता है । दिल्ली दिल्ली में ही होगी और कहाँ जाएगी !!”
“मेरा मतलब है कि हम लोग दिल्ली जा रहे हैं तो हमें ठीक से पता होना चाहिए कि दिल्ली कहाँ है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारी दिशा गलत तो नहीं है । “
“दिशा विशा की चिंता छोड़ो । बस इतना याद रखो कि हमारी दिशा सुनिश्चित है । ... मात्र दिल्ली के लिए हम अपनी दिशा नहीं बदल सकते हैं ।“
“मैंने तो समान्य सी बात पूछी है ।  दिल्ली पहुँचने के लिए हमें दिल्ली की दिशा में ही तो चलना होगा ! वरना पहुंचेंगे कैसे ?!”
“नेतृत्व बड़ी चीज होती है । नेतृत्व पर भरोसा रखो । जरूरत पड़ी तो वे हमारी दिशा में कई दिल्लियां बनाते चलेंगे । हमें केवल चलने और चलते रहने के निर्देश हैं । इसलिए चलते चलो, चलते चलो ।“ बड़कूजी ने अपना अनुभव रखा ।
“फिर भी मैं सोचता हूँ कि एक बार किसी से दिल्ली का पता पूछ लेने में कोई हर्ज नहीं है ।“
“तुम सोचते हो ! ... अभी तक !! ... इसका मतलब यह है कि तुम्हारा संस्कार नहीं  हुआ ठीक से । सोचना बंद करो तुरंत ...  वरना थर्ड डिग्री संस्कार के लिए तैयार रहो ... और हाँ एक बात साफ समझ लो, हमारी दिल्ली इतिहास में है । हमें इतिहास में जाना पड़ेगा । मानो कि इतिहास ही हमारी दिशा है ।“
“कुछ समझा नहीं ! हमें इतिहास में क्यों जाना पड़ेगा बड़कूजी !!?”
“क्योंकि हम इतिहास में नहीं हैं और लोग बार बार हमें इतिहास में ढूंढते हैं । आधुनिक शिक्षा ने लोगों की समझ और सोच को विकृत कर रखा है । जो इतिहास में नहीं हैं उन्हें वर्तमान में भी नकार रहे हैं । ऐसे लोगों को गोली मार कर हे-राम कर देना चाहिए । “
“लेकिन जब हम इतिहास में हैं ही नहीं तो इतिहास में जाएंगे कैसे ?!!”
“इतिहास बदल कर । हमें इतिहास बदलना होगा और अपने लिए जगह बनानी होगी । याद रखो, जगह बनाने से ही बनती है । नेतृत्व पर विश्वास रखो और तुम बस चलते रहो ।“
“मैं चल तो रहा हूँ बड़कूजी । लेकिन पथ समझ में नहीं आ रहा है ..।“
“समझने की कोशिश करोगे तो चलोगे कैसे !! ... लक्ष्य चलने से मिलता है, समझने के प्रयास से केवल भ्रम पैदा होता है । ... चलो कि जैसे बैल चलते हैं गाड़ी में ।“
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बुधवार, 29 जनवरी 2020

हवा का मायका


हवा का मायका वह खास जगह होती है जहाँ से हवा बकायदा पैदा होती है । हवा हर कहीं या हर किसी से पैदा नहीं होती है । कुछ लोग हवा पैदा करने में पुश्तैनी दक्ष होते हैं । वैसे विशेषज्ञों का कहना है कि हवा पैदा करने में मादा जाति की सक्रियता ऐतिहासिक तौर पर देखी जा सकती है । देश में एक बार बहुत पहले गरीबी हटाओ की हवा पैदा की गई थी जो बरसों चलती रही । लोगों को लगा था कि हवा चली है तो एक न एक दिन गरीबी भी हटेगी । लेकिन हवा थी, कहाँ चली गई किसी को पता नहीं चला, अलबत्ता गरीबी मौजूद है । किसी शायर ने कहा है कि मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा  ; दश्त मेरा  न ये चमन मेरा ‘ 
किन्तु एक फाइदा हुआ, तब बड़े बड़े राजनीतिज्ञों तक ने माना कि लोकतन्त्र हवा की बुनियाद पर है । तभी से जब भी चुनाव आते हैं पार्टियां हवा पैदा करने की कोशिश में जी जान से जुट जाती हैं । भारत की जनता भी समान्यतौर पर हवा प्रेमी होती है । वह सरकार के कामकाज या पार्टियों के घोषणा पत्र से नहीं हवा से तय करती है कि उसका वोट किसको जाएगा । एक समय था जब बिहार में लालू की हवा थी तो अंगूठे से राबड़ी राज कर गई पाँच साल तक । बाद में जब हवा निकल गई तो खबरों में सिर्फ सास, बहू और तकरार बची रह गई । अभी बंगाल में हवा के नाम पर धूल के गुबार उठ रहे हैं । जिन्हें हवा बनाना है वे तूफान उठाने के चक्कर में पड़े हैं । लोग कहते हैं कि दिल्ली की हवा में प्रदूषण बहुत है । जिस इलाके में दो दो राजधानियाँ होंगी वहाँ प्रदूषण ही हवा होती है ।
वैज्ञानिक बताते हैं कि दुगने हायड्रोजन और ऑक्सीज़न से मिल कर पानी बनता है । उसी तरह दुगने झूठ और आधे सच से राजनीति में हवा बनती है । जो इस फार्मूले को जानते हैं वो आसानी से हवा बना लेते हैं । जो नहीं जानते उन्हें पैत्रक अध्यक्षता से भी हाथ धोना पड़ता है । अपने यहाँ हवा बनाने के बहुत से तरीके प्रचलित हैं । आमतौर पर पार्टियां उल्टे सीधे बयान दे कर हवा बनाया करती हैं । बनाने वाले भोजन-भंडारे और कथा-कीर्तन से भी हवा बना लेते हैं । धर्म-मजहब वगैरह अपने आप में एक बनी बनाई हवा हैं ।  इसे महज  राजनीतिक हवा बनाने की जरूरत होती है । ये अपेक्षाकृत आसान किन्तु जोखिम भरा काम है । लेकिन जो जीता वो सिकंदर ।

हवा केवल राजनीति की गलियों में ही नहीं चलती है । हवा हर कहीं है, यानि हर घर में हर आदमी में । हवा का कुछ नहीं लेकिन हवा से सब कुछ है । बेईमान आदमी जरा से तिलक चोटी की बदौलत अपने पक्ष में ईमानदारी की हवा बना लेता है । इधर एक शायर हुए हैं जो अब बड़े हैं । शुरुवाती दिनों में जब भी वे मुशायरे पढ़ने जाते थे अपने साथ पौन दर्जन गुर्गे भी ले जाते थे । जिनका काम था उस्ताद की हवा बनाना । उस्ताद एक शेर पढ़ते और गुर्गे आसमान सिर पर ले लेते । उस जमाने में जो हवा बनी उसने उन्हें एक मुकाम दिलवा दिया और किसी को पता भी नहीं चला । हवा का ऐसा ही है, पता नहीं चलता और बन जाती है । वे हवादारों के आज भी अहसानमंद हैं । यही फार्मूला एक बापू नुमा संत ने अपनाया और बड़े बड़े नेताओं के सिर अपने चरणों पर रखवा लिए । घटिया आदमी भी हवा के दम पर सफल हो गया । हैदराबादी नेता ने किसी संदर्भ में कहा था कि जिनमें ताकत है वो पैदा कर सकते हैं । लोगो ने समझा कि वे बच्चे पैदा करने की बात कर रहे हैं । नहीं, वो हवा पैदा करने की नाकाम कोशिश कर रहे थे । 
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मंगलवार, 21 जनवरी 2020

जिंदगी का असली मजा कविता सुनने में है !


       
ऊपर वाला जब देता है तो आपकी रजा नहीं लेता है । जैसे कि बुढ़ापा । हालांकि जब  पैदा हुए थे तभी तय था कि एक दिन आएगा आने वाला । एक शायर ने लिखा है - “सफर पीछे की जानिब है, कदम आगे हैं मेरे। मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवां होने की खातिर” । लेकिन वो जवानी क्या जिसमें कुछ याद रहे और वो बुढ़ापा क्या जो कुछ भूल जाए । जी हाँ, बूढ़ा अक्सर टहलता हुआ अपनी पैदाइश तक पहुँच जाता है । लेकिन इस चक्कर में आदमी बर्तन से ठीकरा हो जाता है और उसे पता नहीं चलता ।
हमारे सिंह साहेब की गाड़ी अच्छी चल रही थी । लेकिन इन दिनों वे मुश्किल महसूस कर रहे हैं । बुढ़ापे के शुरुवाती दिनों में कवितायें लिखीं जिन्हें कुछ लोगों ने लिहाज में सुन भी ली । बुढ़ापे में साहित्य सेवा का जोशोजुनून था, रोज एक दर्जन कवितायें खेप सी उतारने लगीं । लेकिन धीरे धीरे सुनने वाले नदारद होने हुए । पड़ौसी दूर हुए, मोहल्ले वाले कतराने लगे, रिशतेदारों ने आना छोड़ दिया यहाँ तक की घर वाले दायें बाएँ होने लगे । अधूरा कवि वियोगी हो कर बीमार रहने लगा । किसी ने सुझाया कि कविगोष्ठियों में जाओ । गए भी । लेकिन पहले से सुनाने वालों की लंबी लाइन थी । भाँप गए कि नए कि दाल गलने की संभावना नहीं के बराबर है । पहली बार उन्होने निराशा के साथ प्रार्थना की –“ तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं वापस बुला ले.... मैं सजादे में पड़ा हूँ मुझको ऐ मालिक उठा ले “ ।
उधर कोने वाले वर्मा जी तीन दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुए थे, खबर आई है कि आज फ्री हो गए और परसों उठवाना भी है । बेनर्जी बाबू का भी ऐसा ही हुआ था, सात  दिन भर्ती रह कर उन्हें मुक्ति मिली थी आराम से ।
बहुत सोच कर सिंह साहेब ने बेटे से कहा मुझे अस्पताल में भर्ती करवा दो । बेटे को अस्पताल के बिल का पता था, बोला – अभी नहीं । अभी आप ठीक हैं । लेकिन सिंह साहेब सोच रहे हैं कि अगले हफ्ते उठावना हो जाए तो अच्छा है, अभी मौसम साफ है, काफी लोग आ जाएंगे । बोले – “एक बार भर्ती करवा के देख लो बेटा । क्या पता प्रभु ने अपना एयर पोर्ट अस्पताल में बना रखा हो और उनका विमान वहीं से सवारी ले कर जाता हो ।“
 बेटे को मुद्दे पर आना पड़ा, - “पापा जी अस्पताल वाले इलाज से पहले कई तरह की जाँच करवाते है ।“
सिंह बोले - “करवाएँगे तो सही । उन्हें देखना तो पड़ेगा कि मुक्ति की नस कौन सी है । गला तो दबाएँगे नहीं । वो तो घर पर भी दबाया जा सकता है लेकिन पुलिस का चक्कर हो जाता है ।“
“ पापाजी आपको दिक्कत क्या है आखिर !?”  बेटे ने पूछा ।
“कोई सुनता नहीं है मेरी । मैं अकेले बैठा रहता हूँ । समझ में नहीं आता कि घर में रह रहा हूँ या संडास में !! “ सिंह साहेब ने दुखड़ा बताया ।
बेटा बोला – “परेशान तो होगे ही, कविता जो लिखने लगे हो । लिखने कि बजाए आपको सुनने का धंधा चालू करना था । लिखने वाले हर घर में दो-दो तीन-तीन हैं लेकिन  शहर में सुनने वाले कितने हैं ! उँगलियों पर गिने जा सकते हैं । लोग उन पर मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते हैं । पेट पूजा करवाते हैं सो अलग । जिंदगी का असली मजा कविता सुनने में है । सुनने वाला कवियों का समधी होता है । “
जल्द ही सिंह साहेब के मजे हो गए । निशुल्क बंद करके सशुल्क सुनने लगे हैं । हफ्ते भर की वेटिंग है । अब पीले पत्ते ब्रेक डांस कर रहे हैं ।
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मंगलवार, 14 जनवरी 2020

सम्राट जहाँ मुंशी है !




जैकी सर समृद्ध आदमी हैं । घरनुमा महल में इनके पास तीन ड्राइंग हाल हैं । दो प्रायवेट हैं, तीसरे हाल को कला और संस्कृति प्रेम के हिसाब से डेकोरेट किया गया है । सभ्य समाज की बहुत सी गैरज़रूरी जरूरतें होती हैं । व्यवहार में हिन्दी की उपेक्षा जारी रखते हुए अपने को हिन्दी प्रेमी दिखाना जैकी सर की ऐसी ही एक जरूरत है । इन दिनों माहौल बदल गया है । करने वाले राष्ट्रभक्ति का सेम्पल कहीं से भी चेक कर सकते हैं । इसलिए घर में हर वीकएंड हिन्दी-डे होता है । उस दिन सब लोग हिन्दी बोलने की पूरी कोशिश करते हैं । यहाँ तक कि अपने दोनों डॉगीज से भी । 
बड़े आदमी को हर पार्टी का सगा होना पड़ता है । सत्ताधारी पार्टी अपने को सूर्य मानती है सो इन्हें मित्र ग्रह के रूप में चंद्र, मंगल या ब्रहस्पति होना पड़ता है । ड्राइंग हाल के लिए पुस्तक मेले से बहुत सी किताबें मँगवाई थीं जो आ गईं हैं ।
“थैलों को यहाँ आराम से रखिए । किताबें खराब ना हों । सावधानी से निकालिए, हिन्दी किताबों की जिल्द कमजोर होती हैं । राष्ट्रवाद ने हिन्दी को मजबूत किया है जिल्द को नहीं ।“ जैकि सर ने हिदायत दी ।
कर्मचारियों ने किताबें निकाल कर टेबल पर रख दीं । वे फिर बोले – “देखिये प्रेमचंद को सबसे आगे रखना है । हर किताब टाइटल सहित मेहमानों को दिखना चाहिए ।“
मैडम ने आते ही पूछा – “इंगलिश बुक्स कहाँ रखी जाएंगी !?”
 “उन्हें प्राइवेट हाल में रखना है । और हाँ ... लोग पूछें कि प्रेमचंद क्या करते थे तो बताइये कि मुंशी थे इसलिए लिखते थे । बाद में सम्राट भी हो गए थे ।“
“प्रेमचंद मुंशी थे !! यू नो मुंशी ? अपने यहाँ भी चार पाँच काम कर रहे हैं ! हिन्दी वाले कल को इन्हें भी सम्राट बोलेंगे !?”
“इनका पता नहीं , पर वो थे ऐसा पता चला है । ... जो भी हो दूसरों के लिए जो भले ही सम्राट हों हमारे लिए उनका मुंशी होना सूट करता है । हमें दिखने के लिए सम्राट और दर्ज करने के लिए मुंशी मिला है तो बढ़िया है । अभी तक पता नहीं था वरना पहले ला कर सजा देते ।“
“और पता करवाइये कितने सम्राट हैं हिन्दी में । मुंशी तो सभी होंगे ही ।“ मैडम बोलीं ।
जैकि सर ने इसको उसको फोन किया । पता चला कि प्रेमचंद के बाद कोई सम्राट नहीं हुआ और न ही कोई मुंशी ।  यानी एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खतम कहानी । ये तो यूनिक पीस हो गया !! वे अपने निर्णय पर खुश हुए । प्रायवेट हाल में भूसा भरा एक शेर रखा है । उसे भी लोग जंगल का राजा कहते हैं । बोले- “किताबों के साथ एक मुकुट भी रखो ताकि बिना बताए लगे कि सम्राट की हैं ।“
“और एक कलम भी रखो ताकि लगे कि वो मुंशी भी हैं ।“ मैडम बोली ।

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शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

हुजूर ने हाथ धोये


आप किसी गलत फहमी में न पड़ें इसलिए साफ कर दूँ कि हाथ धोने से यहाँ मतलब हाथ धोना ही है । आप हम सब लोग काम निबटा कर हाथ धोते हैं ना ? बस वोई । डाक्टर भी कहते हैं हाथ साफ रखना चाहिए । राजनीतिक पंडित भी सीखते हैं कि कुछ भी करो पर समय पर हाथ धो लो । हाथ धोने से हाथ पवित्र हो जाते हैं और सिर धोने से सिर । जो लोग नहीं धोते उन्हें समाज में उठाते बैठते सुनने को मिलता है । उस पर खतरा ये कि अंधे होने के बावजूद रंगे हाथों पर कानून की नजर रहती है । नजर से इतनी दिक्कत नहीं है, दिक्कत है कि कानून के हाथ भी लंबे होते हैं । राजनीति करने वाले ज़्यादातर लगभग इंसान होते हैं । बावजूद इसके साफ सुथरा आदमी राजनीति से दूर रहने में ही अपना भला समझता है । यहाँ बुरे काम करके उसे अच्छा सिद्ध करना पड़ता है । मंदी को तेजी और पिछड़ने को विकास बताना पड़ता है । अगर किसीने विलाप को आलाप प्रचारित कर दिया तो समझिए हाथ धुल गए ।  आम आदमी बेसिन में हाथ धोता है लेकिन हुजूर मीडिया में हाथ धोते हैं । विज्ञान की तरक्की है, मीडिया में हाथ क्या सब कुछ धोया जा सकता है । मीडिया बाथ टब है, इसमे हिन्दी अंग्रेजी का ठंडा गरम पानी है । मजे में स्नान कीजिए और बिना किसी अपराधबोध के नए काम पर निकालिए ।
कहते हैं कि देशसेवा एक लत है, जिसको लग जाती है वो करे बगैर मानता नहीं है । कइयों में इस रोग के जीवाणु वंशानुगत रूप से हस्तांतरित होते रहते हैं । प्रायः पिता का खाया पुत्र  को पुष्ट करता  है । देशसेवा मामूली काम नहीं है, जानकार इसे टीम वर्क कहते हैं । जब कुछ लोग मिल कर करते हैं तो देशसेवा में खतरे कम हो जाते हैं । सिंगल करने में जोखिम बहुत होता है । विद्वान कह गए हैं कि देशसेवा का आदर्श तरीका समाजवादी है । कई समाजवादी देशसेवक रिटायर हो गए पर उनके दमन पर एक भी दाग नहीं लगा । पुराने समय में लोग आस्थावान थे, देशसेवा में लगे लोगों को भगवान मान लेते थे । अब वक्त बादल गया है, जिन्हें देशसेवा का मौका मिलता है उन्हें वक्त जरूरत अपने हाथ धोते रहना पड़ता है । यह बात इतनी आम है कि जैसे ही कोई सार्वजनिक रूप से हाथ धोते दिखाई देता है लोग समझ जाते हैं कि इसने देशसेवा कर दी है ।
हुजूर शुरू शुरू में निखट्टू टाइप के थे । काम वाम कुछ आता नहीं था । आदतें ऐसी रहीं कि थाने चौकी से नाता बना । शायर कह गए हैं कि आते जाते रहो तो दरो दीवार से भी याराना हो जाता है । घर के लोगों को यही लगी रहती थी कि नामाकूल करेगा क्या ! लेकिन ईश्वर सबकी सुनता है, आजकल नामाकूलों की कुछ ज्यादा ही । होनहार बिरवान के होत चिकने पात । पुलिस को कुछ काम बेदिली से भी करना पड़ते हैं । हुजूर का जुलूस निकला तो अखबार के पहले पेज पर फोटो छ्प गई । समझने वाले समझ गए कि अब ये देशसेवा करेगा ।  एक सुबह लोगों ने देखा कि पोस्टर लगे हैं और उनके हृदय पर किसीके अतिक्रमण की घोषणा हो गई है । हुजूर हृदय सम्राट हो गए हैं और पहले दिन से लोकप्रिय भी । उन्होने खुद तय किया है कि वे देशसेवा करेंगे । देशसेवा एक बड़ा काम है बाकी काम छोटे हैं । उन्हे पता चला है कि अगर ढंग से देशसेवा की जाए तो सात पीढ़ियाँ बैठ कर खा सकती हैं ।  देश संभावनाओं से भरा हुआ है । खाने वाले में दम हो तो किसी को निराश नहीं होना पड़ा  है । बस खाने के बाद हाथ धोना आना चाहिए । समय तेजी से गुजरा, पहले वे महीने पंद्रह दिनों में हाथ धोते थे । लोगों ने देखा कि अब तो हुजूर रोज हाथ धो रहे हैं और जनता को स्वच्छता का संदेश दे रहे हैं ।

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बाप के पास पैसा


इंद्रबली आज बेहद जल्दी में हैं, उन्हें अपने लड़के को दिखाना है । डाक्टर को नहीं, आज लड़की वाले देखने आ रहे हैं । उनके जमाने की बात और थी जब उन्होने पंद्रह लड़कियों को बेरहमी से देखने के बाद सोलहवीं को फाइनल किया था । हर जगह ठाठ से गए, खाया-पिया, स्वागत सत्कार करवाया और ठेंगा दिखा कर चले आए ।  बेटा हुआ तो छाती सत्तवन इंच की हो गई । बड़े अरमान थे कि जवान होगा तो दो दर्जन देखने के बाद फाइनल करेंगे । मुफ्त का खाने और मुंह बना कर निकल लेने का मजा ही कुछ और है । लेकिन अब जमाना माडर्न है तो जो नहीं हुआ वो भी मुमकिन है । लड़कियां लड़कों को दनादन रिजेक्ट कर रहीं हैं !! लड़के नहीं हुए काने बैंगन हो गए ! इंद्रबली के बेटे को अब तक छ्ह लड़कियां रिजेक्ट कर चुकी हैं । बहुत बुरा लगता है जब लड़कियां रिजेक्ट कर अपनी हाई हिल चटकाते चली जाती हैं । बेटा डिप्रेशन में चला जाता है और उसकी माँ कोप भवन में । खुद इंद्रबली को खून का घूंट पिये बैठे रहना पड़ता है । सदियों से जो गऊ समान बनी रहती आयीं हैं आज सींग दिखाने लगें तो पचता नहीं है । पहले तो माँ बाप जिस भी खूँटे से बांध देते थे उसी के साथ चुपचाप बंधी चली जाती थीं । कई बार तो खूंटा बूढ़ा होता था लेकिन सिर भी नहीं हिलाती थीं । शास्त्रों तक में कहा गया  हैं कि स्त्रियों का भाग्य प्रधान होता है । जैसा भाग्य होगा वैसा पति सुख मिलता है । कुछ और सोचने विचारने की जरूरत ही नहीं होती थी । लेकिन ये घोर कलयुग की बेला है रे भाई !! लड़की को नहीं जंचा तो फिर खूंटा हो या ऊंटा, वह नहीं बंधेगी । अभी तक जोड़ी ऊपर वाला बनाता था, अब सॉरी बोल देता है ।
इंद्रबली को मलाल ये कि उनके बेटे के लिए कोई रिश्ता नहीं मिला अब तक । यानि बड़े आदमी के घर किसी ने रिश्ते की घास नहीं डाली । कई बार मन में आता है कि एक लाइन में खड़े करके गोली से उड़ा दें फूलनदेवी की तरह । लेकिन लड़के की जवानी फास्ट ट्रेन होती देख फोन उठाते और कहते जी भाई साब, एक बार देख तो लीजिए, आपको लड़का जरूर पसंद आएगा । उधर से प्रश्न होता कि लड़का करता क्या है ? ये सोचते कि बाप के पास पैसा है तो लड़के को कुछ करने कि जरूरत ही क्या है !  इन्द्रबली का ऑफ द रेकार्ड दावा है कि उनकी सात पीढ़ी खा सकती हैं आराम से । दिक्कत पैसे की नहीं पीढ़ी शुरू करने की है । कोई कहता है कि दसवीं फेल है ! आगे नहीं पढ़ा ! कुछ ने कहा कि गीत संगीत, पेंटिंग वगैरह कर लेता तो नाम होता । खैर, आज भी आई लड़की और उठाते हुए बोल गई कि जिम विम जाया करो, वरना सौ किलो के हो जाओगे तो अनाज तौलने वाले बाँट से ज्यादा कुछ नहीं बन पाओगे

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

अपनी सरकार के साथ उन्नीस बीस



दो हजार उन्नीस के शुरुवाती दिनों में मेरा वजन नब्बे किलो से कुछ ज्यादा था । आज यानी उन्नीस की बिदाई के समय चार किलो कम है । मामला काबिले गौर है । सरकार गलत बयानी और आंकड़ों की बाजीगिरी में माहिर है । कृपया नोट कर लें कि यहाँ सरकार से आशय घर की सरकार है । वजन में चार किलो की गिरावट को उन्होने स्वास्थ्य के लिए अच्छा संकेत बताया । साथ ही दाहिने हाथ पर बाएँ हाथ की ताली मारते हुए कहा कि सरकार की कोशिशों के अच्छे परिणाम अब दिखने लगे हैं । उन्होने डपटते हुए बधाई भी दी ।
“लेकिन मैडम जी ! मैंने तो ऐसी कोई कोशिश नहीं की जिससे वजन कम हो जाए !” हम चौंके ।
“कोशिश !! ... आम आदमी यानी जनता कब कोशिश करती है !? ... सारा कुछ तो सरकार को ही करना पड़ता है । सरकार की मांग में तुम्हारे नाम का सिंदूर जो भरा पड़ा है । तुम्हारा खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, सोना-जगना किसके जिम्मे है ?! तुम्हें चाहे पता न चले पर दिन रात वह खटती तुम्हारे लिए ही है । तुम्हारा घी-तैल कम किया, मीठा-मैदा कम किया , महंगा पेट्रोल बचाने के लिए पैदल चलने की आदत डलवाई  । याद करो धर्म का ध्यान करवा कर सप्ताह में दो उपवास किसने करवाए तुमसे ? साल भर शरीर मंदी का शिकार रहा और तुम्हें पता भी नहीं चला ।“  सरकार ने प्रेसनोट सा उत्तर जारी किया ।
याद आया कि यह सब हुआ तो है । वजन में चार किलो की कटौती इनका लक्ष्य था जो पूरा हुआ । सरकार की योजनाएँ इतनी चमत्कारी होती हैं पता नहीं था । लेकिन माताजी और दोनों बहनें इससे खुश नहीं थी । उन्होने चार किलो वजन कम होने को चिंता की बात बताया । साथ ही यह भी संकेत किया कि सरकार की जनविरोधी नीतियों का गंभीर परिणाम है जो आगे जा कर जानलेवा साबित होगा । जब माँ का राज था तो चन्द्र कलाओं सा बढ़ता गया था शरीर । जिस दिन पता चला था कि मेरा वजन सौ किलो पार हो गया है तो बादाम का हलवा बना कर खिलाया था मम्मी जी ने ।
“क्या सोच रहे हो ? ... तुम खुश नहीं हो !?”  अचानक सरकार ने पॉइंट ऑफ ऑर्डर का पत्थर मारा ।
“वो क्या है ... मम्मी जी और बहनजियों ....”
पूरी बात सुने बगैर वे बोलीं –“विपक्षी गठबंधन का काम ही है कि सरकार की अच्छी योजनाओं में खोट निकाले और तुम्हें भ्रमित करे । जानते हो चार किलो वजन कम होने से तुम सेमी सलमान लगाने लगे हो ।  इस वक्त जरूरत है सिक्स पैक जनता की । उम्मीद तो यह थी कि तुम आभार मानोगे, या फिर कम से कम धन्यवाद तो कहोगे  लेकिन ... गठबंधन की राजनीति ने तुम्हारी सोच का हरण कर लिया है ।“
“ऐसा नहीं है सरकार । मम्मी जी कह रही थीं कि इसी तरह वजन कम होता रहा तो  पहचान का संकट पैदा हो जाएगा । क्या भरोसा तुम ही पहचानने से इंकार कर दो और घर से बाहर निकाल दो । अभी किसी भी पहचान-पत्र में वजन का उल्लेख तो है नहीं !!”
“कैसी बातें करते हो जी !! पहचान-पत्रों में नाम और चेहरा तो होता ही है । कैसे पैदा हो जाएगा पहचान का संकट !?”
“मम्मी कहती है कि अच्छी सरकार वो होती है जिसमें लोगो का वजन बढ़े । अगर चार किलो प्रति वर्ष की दर से वजन कम  होता गया तो सोच लो दो हजार उनतीस तक कितने से रह जाओगे ! सरकार तुम्हें तीन कंधों के लायक बना रही है ।“
“तो क्या चाहते हो तुम ?”
“आज़ादी ।“
“आज़ादी किससे ? ... क्या मुझसे ?”
“ठहरो,  मम्मी जी से पूछ कर बताता हूँ ।“
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

पीठ खुजाइए सरकार


अपने नए स्टाफ के साथ वे पहुंचे, -“आपके समर्थन की वजह से सरकार बन गई है । अब हमारी कोशिश है कि कामकाज अच्छे से हो । बताइये कि सबसे पहले सरकार क्या करे ?” उन्होने फूलों का गुच्छा हाथ में पकड़ाया और उतनी मुस्कान खेंची जितनी कि उनके खनदान में किसी ने नहीं खेंची थी ।
“जरा मेरी पीठ खुजाइए तो । बड़ी खुजली चल रही है । सुना है आपके नाखून बहुत तेज हैं ।“ पार्टी प्रमुख ने पीठ उनकी ओर करते हुए कहा ।
“पीठ तो आप अपने किसी चपरासी से खुजवा लीजिए ना । हमसे क्यों ! ... हम सरकार हैं !!”
“आप सरकार हैं ... क्योंकि हम हैं । ... इतना मत सोचिए सरकार, पीठ खुजाइए ।“
वे सोचने लगे कि राजनीति में सब करना पड़ता है यह तो सुना था लेकिन पीठ खुजाने के बारे में पहली बार पता चल रहा हैं ! डर मीडिया वालों का बहुत है ।  पता नहीं कहाँ कहाँ से देख लेते हैं ! कल अगर हेड लाइन बन गई कि सरकार ने समर्थन के बदले पीठ खुजाई तो प्रतिष्ठित नाखून बदनाम हो जाएंगे । बहुत सोच कर सरकार घिघियाए, -- “देखिए ... मैं अपने पीए को कह देता हूँ वो आपकी पीठ खुजा देगा । अगर हमने खुजाई तो एक समर्थक दल और है । उसको भी खुजली चलने में देर नहीं लगेगी । ... आखिर सरकार को दूसरे काम भी करना हैं ।“
“पीए तो हमारे पास भी हैं जी । उसी से पीठ खुजवाना होती तो आपको समर्थन क्यों देते !!”
“लेकिन जरा सोचिए, जनता के बीच मैसेज क्या जाएगा !”
“हम खुजवा रहे हैं तो मैसेज हमारे हक में जाएगा । लोगों को पता तो चले कि हमारी हैसियत क्या है, वरना सरकार तो आप हैं , जैकारे आपके लगते हैं । “
“तो ऐसा कराते हैं ... यहाँ नहीं ... अकेले में खुजवा लें ... दूसरी पार्टी को पता चलेगा तो वो भी ... “
“दूसरी पार्टी वाले पीठ नहीं खुजवाएंगे । उनका इरादा तो डायपर बदलवाने का है । ... उनके यहाँ गुड्डू, पप्पू, छोटू  वगैरह हैं ... राजनीति में आदमी को बहुत कुछ करना पड़ता है । खुजाने और डायपर बदलने पर सरकार चलती है तो सौदा सस्ता है ।“
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

शेर के नाखूनों पर नेलपॉलिश


“आप ठीक कह रहे हैं ... आप जंगल के राजा हैं । सरकार आपकी ही होना चाहिए । इसके लिए पहले पाँव आगे कीजिए .... नेलपॉलिश लगा दें आपको । “ कहते हुए दादू ने पंजे पकड़ कर नाखून रंग दिए । फिर बोले – “देखिए शेर साहब, लाल लाल चमकते नाखून कितने सुंदर लगते हैं । अब चलते फिरते ध्यान रखिएगा कि पॉलिश खराब न हो । और हाँ , किसी पर हमला नहीं करना है । नाखूनो का ध्यान रखो न रखो पॉलिश का ध्यान रखना जरूरी है ।“
समय के साथ हरेक को बदलना पड़ता है । शेर समय से बड़ा नहीं होता है । आज मौका है, और मौका समय की देन है । कुछ देर नाखूनों को देखने के बाद शेर ने अपना सिर झटका और खुद को समझाया कि मान लो कि पॉलिश अच्छी लग रही है ।  इसके बाद मौन सहमति के संकेत दिए ।
दादू नाखून पकड़ कर दांत पकड़ने में माहिर है । उसने कहा – “हे राजन, लोकतन्त्र में शेर वही होता है जो दहाड़ते रहने के बजाए मुस्कराता रहता है और हमला करने के अवसरों पर हाथ जोड़ता है ।“
“ये मुझसे नहीं होगा .... आप कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे हैं मुझसे ....” शेर नाराज हुआ ।
“सरकार बनानी है या नहीं ? ... जंगल आपके हाथ से निकाल जाएगा .... शेर के लिए सरकार होना जरूरी है वरना महकमों में आधार कार्ड दिखाने पर ही इंट्री मिलेगी ।“
शेर ने अपने को संयत किया । पूछ “क्या करना होगा !”
“कुछ नहीं ... आप मुसकराना सीखिए, हम लिपिस्टिक लगा देते हैं ।“ कहते हुए दादू ने शेर के होठ रंग दिए ।
लाल नाखून और लाल होठ देख कर शेर का दिमाग राउंड राउंड होने लगा, - “दादू !! कितना गलत मैसेज जाएगा जंगल में ! लोग कहेंगे कि शेर कामरेड हो रहा है ! क्या मुझे अपने ही खिलाफ धरने प्रदर्शन करने होंगे !?”
“राजन ... राजनीति में मैसेज का नहीं .... मैसेज में राजनीति का महत्व होता है । आप अगर शेर के अलावा कुछ समझे गए तो सीटें बढ़ेंगी । ... सीटों के चक्कर में ही हमें एक और पार्टी का समर्थन लेना पड़ रहा है .... उनकी भी कुछ मामूली शर्तें हैं ।“ दादू अगले मुद्दे पर आए ।
“सरकार बननी चाहिए ... शर्तें अगर मामूली हैं तो हमें दिक्कत नहीं है, बताइये ।“
“उनका कहना है कि आपको डायपर पहनना होगा और खादी भी ।“ दादू बोले ।
“ खादी पहनी नहीं हमने आजतक ... वैसे भी खादी पहनना हमारे उसूलों के खिलाफ है । और डायपर क्यों !?  हमारे अपना जंगल है ... हमारी अपनी मर्जी है ...
“नंगा शेर अच्छा नहीं लगता है ... विकास का प्रतीक है डायपर । और अभी भी करोड़ों लोग खादी को देख कर ही वोट देते हैं ।“
“लेकिन दादू, अगर खादी पहनेंगे तो हमारी पहचान खो जाएगी ।“
“शेर की पहचान सत्ता से होती है ... सूरत का इस्तेमाल तो सिर्फ बच्चों की पिक्चर बुक में होता है ।“
“चलो ठीक है, पहन लूँगा । ... अब सरकार बनवाइए फटाफट ।“
“अब तो बन ही जाएगी, कोई दिक्कत नहीं है । समझिए कि हाथी निकाल गया है बस पूंछ  बाकी है ।“
“अभी भी पूंछ बाकी है !! “ शेर चौंका ।
“ कभी कभी मैडम हाथ में रिंग ले कर दिखाएंगी । बस आपको उसमें से कूदते रहना है । ... कोई बहुत बड़ा काम नहीं है । एक दो बार कुछ लगेगा फिर आदत पड़ जाएगी । बाद में तो मजा भी आने लगेगा । ... सोचिए सरकार बनाने जा रहे हैं आप ।“
“ठीक है, यह भी कर लेंगे । ... अब तो सरकार बनाने में कोई बाधा नहीं है ?” शेर ने नेलपॉलिश देखते हुए पूछा ।
“अब भला क्या बाधा हो सकती है ! इतना कर लेंगे तो दुम अपने आप हिलने लगेगी । हो गया काम, बनेगी सरकार, ... बल्कि यों समझिए कि बन गई सरकार ।.... अपना सब कुछ को सरकार में और सरकार को सब कुछ में बदलने की कला का नाम ही राजनीति है । जय महाजंगल । “
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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

बाज़ार ठंडा है !


                     
                    जब से बाज़ार ठंडा हुआ है आफ़रों के अलाव जल गए हैं । इधर दिन भर फोन आ रहे हैं, कार ले लो साहब । कीमत में छूट देंगे, सोने का असली सिक्का भी देंगे, एक्सेसरिज फ्री दे देंगे, नगद नहीं हो तो उधार देंगे, लोन फटाफट देंगे, ईएमआई बाटम से भी नीचे वाला लगा लेंगे । बैंक की पहली किश्त आप मत देना हम दे देंगे, पाँच लीटर पेट्रोल भर के देंगे । सरकार ने करोड़ों खर्च करके सीमेंट वाली सड़कें बनवाई हैं तो उससे चिपक के चलो । और क्या चइए आपको !? सोचो मत, हमने सोच लिया है । आप तो आधार आईडी लाओ और हथोहाथ कार ले जाओ । आज की देत में किराने वाला उधार  नहीं दे रहा किसीको, आपके लिए नई कार उधार है । जमाने के लिए मंदी है, आप साहब के लिए 
उपहार है ।

                  चारों तरफ चर्चा है कि बाज़ार ठंडा है । ठंडा होता है बाज़ार लेकिन गरमी कारोबारियों के अंदर बढ़ जाती है । वो पसीना पसीना  हो रहे थे । पूछा तो लाचारी से कहने लगे – बुरे हल हैं । क्या करें ! पूरा बाज़ार ठंडा हो गया है ।  कायदे से बाज़ार अगर ठंडा है तो स्वेटर पहनो । लेकिन नहीं, बाज़ार की ठंड स्वेटर से नहीं भागती है । और न ही एसी की ठंडक से दूकानदारों का पसीना सूखता है । उस पर टीवी का हँगामा कि पड़ौसियों को नानी याद दिला देंगे । मंदी के जलों पर पाकिस्तानी सेंधा नमक अलग से । कोई हाय हाय करना चाहे तो देशद्रोही कहा जाए । कहते हैं दूध देने वाली गाय की लात भी खाना पड़ती है । लेकिन इधर दूध-मलाई  देने वाले बाज़ार की कोई सुन ही नहीं रहा है । गइया मइया और देशभक्ति वगैरह के चलते बाज़ार की क्या औकात ! भैया, दादा, बाउजी बोलते चिल्लाते गला सूख जाता है ।  कल ही बाज़ार ने के. के. महाकाले से पूछा कि इस बार तो दीवारों पर रंग करवाओगे ना ? महाकाले ने साफ माना कर दिया - कोई गुंजाइश नहीं है भाई । हाथ तंग है , उम्मीद भंग है , जिम्मेदारियों का लश्कर संग है , चितकबरे के साथ दीवारें अभी मस्त है, बैंक अकाउंट पस्त है ।
लोग नरपति के पास पहुंचे तो सुन कर वे भी गरम हो गए । बाज़ार कमबख्त बाज़ार है वरना एकाध माबलिचिंग करवा देते तो सहम जाता । नरपति गरम हो तो पूरे दरबार को गरम होना जरूरी है । लेकिन दरबार की गरमी से भी बाज़ार की ठंड दूर नहीं हुई । मीडिया मुँह में घुसने लगा तो बोले मंदी हो या ठंडापन, सब नाटक है विपक्ष का । विकास को देखोगे तब दिखेगा ना । चप्पल वाले लोग भी अब हवाई सफर करने लगे हैं, डेढ़ जीबी डाटा खर्च करने वालों को अब दो जीबी भी कम पड़ने लगा है, हर हफ्ते दो नई फिल्में लग रहीं हैं और हाउसफुल हो रही हैं तो कहाँ है बाज़ार में ठंडापन !? इसी बाज़ार में अपने मुकेश भाई नहीं है क्या ? उसका तो बढ़िया चल रहा है । दुनिया के टॉप टेन में शामिल हुए हैं । जिनके भाग्य खोटे हैं उनके लिए दरबार कुछ नहीं कर सकता है । लोग धर्म से दूर होंगे और दोष बाज़ार को देंगे तो यह नहीं चलेगा ।
“सर, जनता कष्ट में है दुख का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है । इसका कुछ कीजिए । “
“ग्राफ बढ़ रहा है तो इसमे बुरी बात क्या है !!  बढ़ने दो, हम दुख का नाम बादल कर सुख कर देते हैं । .... सुख का ग्राफ बढ़ेगा तो किसी को दिक्कत होगी क्या ?
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