गुरुवार, 30 जनवरी 2020

दिल्ली कहाँ है ?




“तुम्हें पता है दिल्ली कहाँ है ?” अचानक छोटूजी ने बड़कूजी से पूछा ।
“ पता है । दिल्ली दिल्ली में ही होगी और कहाँ जाएगी !!”
“मेरा मतलब है कि हम लोग दिल्ली जा रहे हैं तो हमें ठीक से पता होना चाहिए कि दिल्ली कहाँ है । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हमारी दिशा गलत तो नहीं है । “
“दिशा विशा की चिंता छोड़ो । बस इतना याद रखो कि हमारी दिशा सुनिश्चित है । ... मात्र दिल्ली के लिए हम अपनी दिशा नहीं बदल सकते हैं ।“
“मैंने तो समान्य सी बात पूछी है ।  दिल्ली पहुँचने के लिए हमें दिल्ली की दिशा में ही तो चलना होगा ! वरना पहुंचेंगे कैसे ?!”
“नेतृत्व बड़ी चीज होती है । नेतृत्व पर भरोसा रखो । जरूरत पड़ी तो वे हमारी दिशा में कई दिल्लियां बनाते चलेंगे । हमें केवल चलने और चलते रहने के निर्देश हैं । इसलिए चलते चलो, चलते चलो ।“ बड़कूजी ने अपना अनुभव रखा ।
“फिर भी मैं सोचता हूँ कि एक बार किसी से दिल्ली का पता पूछ लेने में कोई हर्ज नहीं है ।“
“तुम सोचते हो ! ... अभी तक !! ... इसका मतलब यह है कि तुम्हारा संस्कार नहीं  हुआ ठीक से । सोचना बंद करो तुरंत ...  वरना थर्ड डिग्री संस्कार के लिए तैयार रहो ... और हाँ एक बात साफ समझ लो, हमारी दिल्ली इतिहास में है । हमें इतिहास में जाना पड़ेगा । मानो कि इतिहास ही हमारी दिशा है ।“
“कुछ समझा नहीं ! हमें इतिहास में क्यों जाना पड़ेगा बड़कूजी !!?”
“क्योंकि हम इतिहास में नहीं हैं और लोग बार बार हमें इतिहास में ढूंढते हैं । आधुनिक शिक्षा ने लोगों की समझ और सोच को विकृत कर रखा है । जो इतिहास में नहीं हैं उन्हें वर्तमान में भी नकार रहे हैं । ऐसे लोगों को गोली मार कर हे-राम कर देना चाहिए । “
“लेकिन जब हम इतिहास में हैं ही नहीं तो इतिहास में जाएंगे कैसे ?!!”
“इतिहास बदल कर । हमें इतिहास बदलना होगा और अपने लिए जगह बनानी होगी । याद रखो, जगह बनाने से ही बनती है । नेतृत्व पर विश्वास रखो और तुम बस चलते रहो ।“
“मैं चल तो रहा हूँ बड़कूजी । लेकिन पथ समझ में नहीं आ रहा है ..।“
“समझने की कोशिश करोगे तो चलोगे कैसे !! ... लक्ष्य चलने से मिलता है, समझने के प्रयास से केवल भ्रम पैदा होता है । ... चलो कि जैसे बैल चलते हैं गाड़ी में ।“
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बुधवार, 29 जनवरी 2020

हवा का मायका


हवा का मायका वह खास जगह होती है जहाँ से हवा बकायदा पैदा होती है । हवा हर कहीं या हर किसी से पैदा नहीं होती है । कुछ लोग हवा पैदा करने में पुश्तैनी दक्ष होते हैं । वैसे विशेषज्ञों का कहना है कि हवा पैदा करने में मादा जाति की सक्रियता ऐतिहासिक तौर पर देखी जा सकती है । देश में एक बार बहुत पहले गरीबी हटाओ की हवा पैदा की गई थी जो बरसों चलती रही । लोगों को लगा था कि हवा चली है तो एक न एक दिन गरीबी भी हटेगी । लेकिन हवा थी, कहाँ चली गई किसी को पता नहीं चला, अलबत्ता गरीबी मौजूद है । किसी शायर ने कहा है कि मैं हवा हूँ कहाँ वतन मेरा  ; दश्त मेरा  न ये चमन मेरा ‘ 
किन्तु एक फाइदा हुआ, तब बड़े बड़े राजनीतिज्ञों तक ने माना कि लोकतन्त्र हवा की बुनियाद पर है । तभी से जब भी चुनाव आते हैं पार्टियां हवा पैदा करने की कोशिश में जी जान से जुट जाती हैं । भारत की जनता भी समान्यतौर पर हवा प्रेमी होती है । वह सरकार के कामकाज या पार्टियों के घोषणा पत्र से नहीं हवा से तय करती है कि उसका वोट किसको जाएगा । एक समय था जब बिहार में लालू की हवा थी तो अंगूठे से राबड़ी राज कर गई पाँच साल तक । बाद में जब हवा निकल गई तो खबरों में सिर्फ सास, बहू और तकरार बची रह गई । अभी बंगाल में हवा के नाम पर धूल के गुबार उठ रहे हैं । जिन्हें हवा बनाना है वे तूफान उठाने के चक्कर में पड़े हैं । लोग कहते हैं कि दिल्ली की हवा में प्रदूषण बहुत है । जिस इलाके में दो दो राजधानियाँ होंगी वहाँ प्रदूषण ही हवा होती है ।
वैज्ञानिक बताते हैं कि दुगने हायड्रोजन और ऑक्सीज़न से मिल कर पानी बनता है । उसी तरह दुगने झूठ और आधे सच से राजनीति में हवा बनती है । जो इस फार्मूले को जानते हैं वो आसानी से हवा बना लेते हैं । जो नहीं जानते उन्हें पैत्रक अध्यक्षता से भी हाथ धोना पड़ता है । अपने यहाँ हवा बनाने के बहुत से तरीके प्रचलित हैं । आमतौर पर पार्टियां उल्टे सीधे बयान दे कर हवा बनाया करती हैं । बनाने वाले भोजन-भंडारे और कथा-कीर्तन से भी हवा बना लेते हैं । धर्म-मजहब वगैरह अपने आप में एक बनी बनाई हवा हैं ।  इसे महज  राजनीतिक हवा बनाने की जरूरत होती है । ये अपेक्षाकृत आसान किन्तु जोखिम भरा काम है । लेकिन जो जीता वो सिकंदर ।

हवा केवल राजनीति की गलियों में ही नहीं चलती है । हवा हर कहीं है, यानि हर घर में हर आदमी में । हवा का कुछ नहीं लेकिन हवा से सब कुछ है । बेईमान आदमी जरा से तिलक चोटी की बदौलत अपने पक्ष में ईमानदारी की हवा बना लेता है । इधर एक शायर हुए हैं जो अब बड़े हैं । शुरुवाती दिनों में जब भी वे मुशायरे पढ़ने जाते थे अपने साथ पौन दर्जन गुर्गे भी ले जाते थे । जिनका काम था उस्ताद की हवा बनाना । उस्ताद एक शेर पढ़ते और गुर्गे आसमान सिर पर ले लेते । उस जमाने में जो हवा बनी उसने उन्हें एक मुकाम दिलवा दिया और किसी को पता भी नहीं चला । हवा का ऐसा ही है, पता नहीं चलता और बन जाती है । वे हवादारों के आज भी अहसानमंद हैं । यही फार्मूला एक बापू नुमा संत ने अपनाया और बड़े बड़े नेताओं के सिर अपने चरणों पर रखवा लिए । घटिया आदमी भी हवा के दम पर सफल हो गया । हैदराबादी नेता ने किसी संदर्भ में कहा था कि जिनमें ताकत है वो पैदा कर सकते हैं । लोगो ने समझा कि वे बच्चे पैदा करने की बात कर रहे हैं । नहीं, वो हवा पैदा करने की नाकाम कोशिश कर रहे थे । 
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मंगलवार, 21 जनवरी 2020

जिंदगी का असली मजा कविता सुनने में है !


       
ऊपर वाला जब देता है तो आपकी रजा नहीं लेता है । जैसे कि बुढ़ापा । हालांकि जब  पैदा हुए थे तभी तय था कि एक दिन आएगा आने वाला । एक शायर ने लिखा है - “सफर पीछे की जानिब है, कदम आगे हैं मेरे। मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवां होने की खातिर” । लेकिन वो जवानी क्या जिसमें कुछ याद रहे और वो बुढ़ापा क्या जो कुछ भूल जाए । जी हाँ, बूढ़ा अक्सर टहलता हुआ अपनी पैदाइश तक पहुँच जाता है । लेकिन इस चक्कर में आदमी बर्तन से ठीकरा हो जाता है और उसे पता नहीं चलता ।
हमारे सिंह साहेब की गाड़ी अच्छी चल रही थी । लेकिन इन दिनों वे मुश्किल महसूस कर रहे हैं । बुढ़ापे के शुरुवाती दिनों में कवितायें लिखीं जिन्हें कुछ लोगों ने लिहाज में सुन भी ली । बुढ़ापे में साहित्य सेवा का जोशोजुनून था, रोज एक दर्जन कवितायें खेप सी उतारने लगीं । लेकिन धीरे धीरे सुनने वाले नदारद होने हुए । पड़ौसी दूर हुए, मोहल्ले वाले कतराने लगे, रिशतेदारों ने आना छोड़ दिया यहाँ तक की घर वाले दायें बाएँ होने लगे । अधूरा कवि वियोगी हो कर बीमार रहने लगा । किसी ने सुझाया कि कविगोष्ठियों में जाओ । गए भी । लेकिन पहले से सुनाने वालों की लंबी लाइन थी । भाँप गए कि नए कि दाल गलने की संभावना नहीं के बराबर है । पहली बार उन्होने निराशा के साथ प्रार्थना की –“ तेरी दुनिया में दिल लगता नहीं वापस बुला ले.... मैं सजादे में पड़ा हूँ मुझको ऐ मालिक उठा ले “ ।
उधर कोने वाले वर्मा जी तीन दिन पहले अस्पताल में भर्ती हुए थे, खबर आई है कि आज फ्री हो गए और परसों उठवाना भी है । बेनर्जी बाबू का भी ऐसा ही हुआ था, सात  दिन भर्ती रह कर उन्हें मुक्ति मिली थी आराम से ।
बहुत सोच कर सिंह साहेब ने बेटे से कहा मुझे अस्पताल में भर्ती करवा दो । बेटे को अस्पताल के बिल का पता था, बोला – अभी नहीं । अभी आप ठीक हैं । लेकिन सिंह साहेब सोच रहे हैं कि अगले हफ्ते उठावना हो जाए तो अच्छा है, अभी मौसम साफ है, काफी लोग आ जाएंगे । बोले – “एक बार भर्ती करवा के देख लो बेटा । क्या पता प्रभु ने अपना एयर पोर्ट अस्पताल में बना रखा हो और उनका विमान वहीं से सवारी ले कर जाता हो ।“
 बेटे को मुद्दे पर आना पड़ा, - “पापा जी अस्पताल वाले इलाज से पहले कई तरह की जाँच करवाते है ।“
सिंह बोले - “करवाएँगे तो सही । उन्हें देखना तो पड़ेगा कि मुक्ति की नस कौन सी है । गला तो दबाएँगे नहीं । वो तो घर पर भी दबाया जा सकता है लेकिन पुलिस का चक्कर हो जाता है ।“
“ पापाजी आपको दिक्कत क्या है आखिर !?”  बेटे ने पूछा ।
“कोई सुनता नहीं है मेरी । मैं अकेले बैठा रहता हूँ । समझ में नहीं आता कि घर में रह रहा हूँ या संडास में !! “ सिंह साहेब ने दुखड़ा बताया ।
बेटा बोला – “परेशान तो होगे ही, कविता जो लिखने लगे हो । लिखने कि बजाए आपको सुनने का धंधा चालू करना था । लिखने वाले हर घर में दो-दो तीन-तीन हैं लेकिन  शहर में सुनने वाले कितने हैं ! उँगलियों पर गिने जा सकते हैं । लोग उन पर मक्खियों की तरह भिनभिनाते रहते हैं । पेट पूजा करवाते हैं सो अलग । जिंदगी का असली मजा कविता सुनने में है । सुनने वाला कवियों का समधी होता है । “
जल्द ही सिंह साहेब के मजे हो गए । निशुल्क बंद करके सशुल्क सुनने लगे हैं । हफ्ते भर की वेटिंग है । अब पीले पत्ते ब्रेक डांस कर रहे हैं ।
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मंगलवार, 14 जनवरी 2020

सम्राट जहाँ मुंशी है !




जैकी सर समृद्ध आदमी हैं । घरनुमा महल में इनके पास तीन ड्राइंग हाल हैं । दो प्रायवेट हैं, तीसरे हाल को कला और संस्कृति प्रेम के हिसाब से डेकोरेट किया गया है । सभ्य समाज की बहुत सी गैरज़रूरी जरूरतें होती हैं । व्यवहार में हिन्दी की उपेक्षा जारी रखते हुए अपने को हिन्दी प्रेमी दिखाना जैकी सर की ऐसी ही एक जरूरत है । इन दिनों माहौल बदल गया है । करने वाले राष्ट्रभक्ति का सेम्पल कहीं से भी चेक कर सकते हैं । इसलिए घर में हर वीकएंड हिन्दी-डे होता है । उस दिन सब लोग हिन्दी बोलने की पूरी कोशिश करते हैं । यहाँ तक कि अपने दोनों डॉगीज से भी । 
बड़े आदमी को हर पार्टी का सगा होना पड़ता है । सत्ताधारी पार्टी अपने को सूर्य मानती है सो इन्हें मित्र ग्रह के रूप में चंद्र, मंगल या ब्रहस्पति होना पड़ता है । ड्राइंग हाल के लिए पुस्तक मेले से बहुत सी किताबें मँगवाई थीं जो आ गईं हैं ।
“थैलों को यहाँ आराम से रखिए । किताबें खराब ना हों । सावधानी से निकालिए, हिन्दी किताबों की जिल्द कमजोर होती हैं । राष्ट्रवाद ने हिन्दी को मजबूत किया है जिल्द को नहीं ।“ जैकि सर ने हिदायत दी ।
कर्मचारियों ने किताबें निकाल कर टेबल पर रख दीं । वे फिर बोले – “देखिये प्रेमचंद को सबसे आगे रखना है । हर किताब टाइटल सहित मेहमानों को दिखना चाहिए ।“
मैडम ने आते ही पूछा – “इंगलिश बुक्स कहाँ रखी जाएंगी !?”
 “उन्हें प्राइवेट हाल में रखना है । और हाँ ... लोग पूछें कि प्रेमचंद क्या करते थे तो बताइये कि मुंशी थे इसलिए लिखते थे । बाद में सम्राट भी हो गए थे ।“
“प्रेमचंद मुंशी थे !! यू नो मुंशी ? अपने यहाँ भी चार पाँच काम कर रहे हैं ! हिन्दी वाले कल को इन्हें भी सम्राट बोलेंगे !?”
“इनका पता नहीं , पर वो थे ऐसा पता चला है । ... जो भी हो दूसरों के लिए जो भले ही सम्राट हों हमारे लिए उनका मुंशी होना सूट करता है । हमें दिखने के लिए सम्राट और दर्ज करने के लिए मुंशी मिला है तो बढ़िया है । अभी तक पता नहीं था वरना पहले ला कर सजा देते ।“
“और पता करवाइये कितने सम्राट हैं हिन्दी में । मुंशी तो सभी होंगे ही ।“ मैडम बोलीं ।
जैकि सर ने इसको उसको फोन किया । पता चला कि प्रेमचंद के बाद कोई सम्राट नहीं हुआ और न ही कोई मुंशी ।  यानी एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खतम कहानी । ये तो यूनिक पीस हो गया !! वे अपने निर्णय पर खुश हुए । प्रायवेट हाल में भूसा भरा एक शेर रखा है । उसे भी लोग जंगल का राजा कहते हैं । बोले- “किताबों के साथ एक मुकुट भी रखो ताकि बिना बताए लगे कि सम्राट की हैं ।“
“और एक कलम भी रखो ताकि लगे कि वो मुंशी भी हैं ।“ मैडम बोली ।

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शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

हुजूर ने हाथ धोये


आप किसी गलत फहमी में न पड़ें इसलिए साफ कर दूँ कि हाथ धोने से यहाँ मतलब हाथ धोना ही है । आप हम सब लोग काम निबटा कर हाथ धोते हैं ना ? बस वोई । डाक्टर भी कहते हैं हाथ साफ रखना चाहिए । राजनीतिक पंडित भी सीखते हैं कि कुछ भी करो पर समय पर हाथ धो लो । हाथ धोने से हाथ पवित्र हो जाते हैं और सिर धोने से सिर । जो लोग नहीं धोते उन्हें समाज में उठाते बैठते सुनने को मिलता है । उस पर खतरा ये कि अंधे होने के बावजूद रंगे हाथों पर कानून की नजर रहती है । नजर से इतनी दिक्कत नहीं है, दिक्कत है कि कानून के हाथ भी लंबे होते हैं । राजनीति करने वाले ज़्यादातर लगभग इंसान होते हैं । बावजूद इसके साफ सुथरा आदमी राजनीति से दूर रहने में ही अपना भला समझता है । यहाँ बुरे काम करके उसे अच्छा सिद्ध करना पड़ता है । मंदी को तेजी और पिछड़ने को विकास बताना पड़ता है । अगर किसीने विलाप को आलाप प्रचारित कर दिया तो समझिए हाथ धुल गए ।  आम आदमी बेसिन में हाथ धोता है लेकिन हुजूर मीडिया में हाथ धोते हैं । विज्ञान की तरक्की है, मीडिया में हाथ क्या सब कुछ धोया जा सकता है । मीडिया बाथ टब है, इसमे हिन्दी अंग्रेजी का ठंडा गरम पानी है । मजे में स्नान कीजिए और बिना किसी अपराधबोध के नए काम पर निकालिए ।
कहते हैं कि देशसेवा एक लत है, जिसको लग जाती है वो करे बगैर मानता नहीं है । कइयों में इस रोग के जीवाणु वंशानुगत रूप से हस्तांतरित होते रहते हैं । प्रायः पिता का खाया पुत्र  को पुष्ट करता  है । देशसेवा मामूली काम नहीं है, जानकार इसे टीम वर्क कहते हैं । जब कुछ लोग मिल कर करते हैं तो देशसेवा में खतरे कम हो जाते हैं । सिंगल करने में जोखिम बहुत होता है । विद्वान कह गए हैं कि देशसेवा का आदर्श तरीका समाजवादी है । कई समाजवादी देशसेवक रिटायर हो गए पर उनके दमन पर एक भी दाग नहीं लगा । पुराने समय में लोग आस्थावान थे, देशसेवा में लगे लोगों को भगवान मान लेते थे । अब वक्त बादल गया है, जिन्हें देशसेवा का मौका मिलता है उन्हें वक्त जरूरत अपने हाथ धोते रहना पड़ता है । यह बात इतनी आम है कि जैसे ही कोई सार्वजनिक रूप से हाथ धोते दिखाई देता है लोग समझ जाते हैं कि इसने देशसेवा कर दी है ।
हुजूर शुरू शुरू में निखट्टू टाइप के थे । काम वाम कुछ आता नहीं था । आदतें ऐसी रहीं कि थाने चौकी से नाता बना । शायर कह गए हैं कि आते जाते रहो तो दरो दीवार से भी याराना हो जाता है । घर के लोगों को यही लगी रहती थी कि नामाकूल करेगा क्या ! लेकिन ईश्वर सबकी सुनता है, आजकल नामाकूलों की कुछ ज्यादा ही । होनहार बिरवान के होत चिकने पात । पुलिस को कुछ काम बेदिली से भी करना पड़ते हैं । हुजूर का जुलूस निकला तो अखबार के पहले पेज पर फोटो छ्प गई । समझने वाले समझ गए कि अब ये देशसेवा करेगा ।  एक सुबह लोगों ने देखा कि पोस्टर लगे हैं और उनके हृदय पर किसीके अतिक्रमण की घोषणा हो गई है । हुजूर हृदय सम्राट हो गए हैं और पहले दिन से लोकप्रिय भी । उन्होने खुद तय किया है कि वे देशसेवा करेंगे । देशसेवा एक बड़ा काम है बाकी काम छोटे हैं । उन्हे पता चला है कि अगर ढंग से देशसेवा की जाए तो सात पीढ़ियाँ बैठ कर खा सकती हैं ।  देश संभावनाओं से भरा हुआ है । खाने वाले में दम हो तो किसी को निराश नहीं होना पड़ा  है । बस खाने के बाद हाथ धोना आना चाहिए । समय तेजी से गुजरा, पहले वे महीने पंद्रह दिनों में हाथ धोते थे । लोगों ने देखा कि अब तो हुजूर रोज हाथ धो रहे हैं और जनता को स्वच्छता का संदेश दे रहे हैं ।

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बाप के पास पैसा


इंद्रबली आज बेहद जल्दी में हैं, उन्हें अपने लड़के को दिखाना है । डाक्टर को नहीं, आज लड़की वाले देखने आ रहे हैं । उनके जमाने की बात और थी जब उन्होने पंद्रह लड़कियों को बेरहमी से देखने के बाद सोलहवीं को फाइनल किया था । हर जगह ठाठ से गए, खाया-पिया, स्वागत सत्कार करवाया और ठेंगा दिखा कर चले आए ।  बेटा हुआ तो छाती सत्तवन इंच की हो गई । बड़े अरमान थे कि जवान होगा तो दो दर्जन देखने के बाद फाइनल करेंगे । मुफ्त का खाने और मुंह बना कर निकल लेने का मजा ही कुछ और है । लेकिन अब जमाना माडर्न है तो जो नहीं हुआ वो भी मुमकिन है । लड़कियां लड़कों को दनादन रिजेक्ट कर रहीं हैं !! लड़के नहीं हुए काने बैंगन हो गए ! इंद्रबली के बेटे को अब तक छ्ह लड़कियां रिजेक्ट कर चुकी हैं । बहुत बुरा लगता है जब लड़कियां रिजेक्ट कर अपनी हाई हिल चटकाते चली जाती हैं । बेटा डिप्रेशन में चला जाता है और उसकी माँ कोप भवन में । खुद इंद्रबली को खून का घूंट पिये बैठे रहना पड़ता है । सदियों से जो गऊ समान बनी रहती आयीं हैं आज सींग दिखाने लगें तो पचता नहीं है । पहले तो माँ बाप जिस भी खूँटे से बांध देते थे उसी के साथ चुपचाप बंधी चली जाती थीं । कई बार तो खूंटा बूढ़ा होता था लेकिन सिर भी नहीं हिलाती थीं । शास्त्रों तक में कहा गया  हैं कि स्त्रियों का भाग्य प्रधान होता है । जैसा भाग्य होगा वैसा पति सुख मिलता है । कुछ और सोचने विचारने की जरूरत ही नहीं होती थी । लेकिन ये घोर कलयुग की बेला है रे भाई !! लड़की को नहीं जंचा तो फिर खूंटा हो या ऊंटा, वह नहीं बंधेगी । अभी तक जोड़ी ऊपर वाला बनाता था, अब सॉरी बोल देता है ।
इंद्रबली को मलाल ये कि उनके बेटे के लिए कोई रिश्ता नहीं मिला अब तक । यानि बड़े आदमी के घर किसी ने रिश्ते की घास नहीं डाली । कई बार मन में आता है कि एक लाइन में खड़े करके गोली से उड़ा दें फूलनदेवी की तरह । लेकिन लड़के की जवानी फास्ट ट्रेन होती देख फोन उठाते और कहते जी भाई साब, एक बार देख तो लीजिए, आपको लड़का जरूर पसंद आएगा । उधर से प्रश्न होता कि लड़का करता क्या है ? ये सोचते कि बाप के पास पैसा है तो लड़के को कुछ करने कि जरूरत ही क्या है !  इन्द्रबली का ऑफ द रेकार्ड दावा है कि उनकी सात पीढ़ी खा सकती हैं आराम से । दिक्कत पैसे की नहीं पीढ़ी शुरू करने की है । कोई कहता है कि दसवीं फेल है ! आगे नहीं पढ़ा ! कुछ ने कहा कि गीत संगीत, पेंटिंग वगैरह कर लेता तो नाम होता । खैर, आज भी आई लड़की और उठाते हुए बोल गई कि जिम विम जाया करो, वरना सौ किलो के हो जाओगे तो अनाज तौलने वाले बाँट से ज्यादा कुछ नहीं बन पाओगे

सोमवार, 30 दिसंबर 2019

अपनी सरकार के साथ उन्नीस बीस



दो हजार उन्नीस के शुरुवाती दिनों में मेरा वजन नब्बे किलो से कुछ ज्यादा था । आज यानी उन्नीस की बिदाई के समय चार किलो कम है । मामला काबिले गौर है । सरकार गलत बयानी और आंकड़ों की बाजीगिरी में माहिर है । कृपया नोट कर लें कि यहाँ सरकार से आशय घर की सरकार है । वजन में चार किलो की गिरावट को उन्होने स्वास्थ्य के लिए अच्छा संकेत बताया । साथ ही दाहिने हाथ पर बाएँ हाथ की ताली मारते हुए कहा कि सरकार की कोशिशों के अच्छे परिणाम अब दिखने लगे हैं । उन्होने डपटते हुए बधाई भी दी ।
“लेकिन मैडम जी ! मैंने तो ऐसी कोई कोशिश नहीं की जिससे वजन कम हो जाए !” हम चौंके ।
“कोशिश !! ... आम आदमी यानी जनता कब कोशिश करती है !? ... सारा कुछ तो सरकार को ही करना पड़ता है । सरकार की मांग में तुम्हारे नाम का सिंदूर जो भरा पड़ा है । तुम्हारा खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, सोना-जगना किसके जिम्मे है ?! तुम्हें चाहे पता न चले पर दिन रात वह खटती तुम्हारे लिए ही है । तुम्हारा घी-तैल कम किया, मीठा-मैदा कम किया , महंगा पेट्रोल बचाने के लिए पैदल चलने की आदत डलवाई  । याद करो धर्म का ध्यान करवा कर सप्ताह में दो उपवास किसने करवाए तुमसे ? साल भर शरीर मंदी का शिकार रहा और तुम्हें पता भी नहीं चला ।“  सरकार ने प्रेसनोट सा उत्तर जारी किया ।
याद आया कि यह सब हुआ तो है । वजन में चार किलो की कटौती इनका लक्ष्य था जो पूरा हुआ । सरकार की योजनाएँ इतनी चमत्कारी होती हैं पता नहीं था । लेकिन माताजी और दोनों बहनें इससे खुश नहीं थी । उन्होने चार किलो वजन कम होने को चिंता की बात बताया । साथ ही यह भी संकेत किया कि सरकार की जनविरोधी नीतियों का गंभीर परिणाम है जो आगे जा कर जानलेवा साबित होगा । जब माँ का राज था तो चन्द्र कलाओं सा बढ़ता गया था शरीर । जिस दिन पता चला था कि मेरा वजन सौ किलो पार हो गया है तो बादाम का हलवा बना कर खिलाया था मम्मी जी ने ।
“क्या सोच रहे हो ? ... तुम खुश नहीं हो !?”  अचानक सरकार ने पॉइंट ऑफ ऑर्डर का पत्थर मारा ।
“वो क्या है ... मम्मी जी और बहनजियों ....”
पूरी बात सुने बगैर वे बोलीं –“विपक्षी गठबंधन का काम ही है कि सरकार की अच्छी योजनाओं में खोट निकाले और तुम्हें भ्रमित करे । जानते हो चार किलो वजन कम होने से तुम सेमी सलमान लगाने लगे हो ।  इस वक्त जरूरत है सिक्स पैक जनता की । उम्मीद तो यह थी कि तुम आभार मानोगे, या फिर कम से कम धन्यवाद तो कहोगे  लेकिन ... गठबंधन की राजनीति ने तुम्हारी सोच का हरण कर लिया है ।“
“ऐसा नहीं है सरकार । मम्मी जी कह रही थीं कि इसी तरह वजन कम होता रहा तो  पहचान का संकट पैदा हो जाएगा । क्या भरोसा तुम ही पहचानने से इंकार कर दो और घर से बाहर निकाल दो । अभी किसी भी पहचान-पत्र में वजन का उल्लेख तो है नहीं !!”
“कैसी बातें करते हो जी !! पहचान-पत्रों में नाम और चेहरा तो होता ही है । कैसे पैदा हो जाएगा पहचान का संकट !?”
“मम्मी कहती है कि अच्छी सरकार वो होती है जिसमें लोगो का वजन बढ़े । अगर चार किलो प्रति वर्ष की दर से वजन कम  होता गया तो सोच लो दो हजार उनतीस तक कितने से रह जाओगे ! सरकार तुम्हें तीन कंधों के लायक बना रही है ।“
“तो क्या चाहते हो तुम ?”
“आज़ादी ।“
“आज़ादी किससे ? ... क्या मुझसे ?”
“ठहरो,  मम्मी जी से पूछ कर बताता हूँ ।“
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गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

पीठ खुजाइए सरकार


अपने नए स्टाफ के साथ वे पहुंचे, -“आपके समर्थन की वजह से सरकार बन गई है । अब हमारी कोशिश है कि कामकाज अच्छे से हो । बताइये कि सबसे पहले सरकार क्या करे ?” उन्होने फूलों का गुच्छा हाथ में पकड़ाया और उतनी मुस्कान खेंची जितनी कि उनके खनदान में किसी ने नहीं खेंची थी ।
“जरा मेरी पीठ खुजाइए तो । बड़ी खुजली चल रही है । सुना है आपके नाखून बहुत तेज हैं ।“ पार्टी प्रमुख ने पीठ उनकी ओर करते हुए कहा ।
“पीठ तो आप अपने किसी चपरासी से खुजवा लीजिए ना । हमसे क्यों ! ... हम सरकार हैं !!”
“आप सरकार हैं ... क्योंकि हम हैं । ... इतना मत सोचिए सरकार, पीठ खुजाइए ।“
वे सोचने लगे कि राजनीति में सब करना पड़ता है यह तो सुना था लेकिन पीठ खुजाने के बारे में पहली बार पता चल रहा हैं ! डर मीडिया वालों का बहुत है ।  पता नहीं कहाँ कहाँ से देख लेते हैं ! कल अगर हेड लाइन बन गई कि सरकार ने समर्थन के बदले पीठ खुजाई तो प्रतिष्ठित नाखून बदनाम हो जाएंगे । बहुत सोच कर सरकार घिघियाए, -- “देखिए ... मैं अपने पीए को कह देता हूँ वो आपकी पीठ खुजा देगा । अगर हमने खुजाई तो एक समर्थक दल और है । उसको भी खुजली चलने में देर नहीं लगेगी । ... आखिर सरकार को दूसरे काम भी करना हैं ।“
“पीए तो हमारे पास भी हैं जी । उसी से पीठ खुजवाना होती तो आपको समर्थन क्यों देते !!”
“लेकिन जरा सोचिए, जनता के बीच मैसेज क्या जाएगा !”
“हम खुजवा रहे हैं तो मैसेज हमारे हक में जाएगा । लोगों को पता तो चले कि हमारी हैसियत क्या है, वरना सरकार तो आप हैं , जैकारे आपके लगते हैं । “
“तो ऐसा कराते हैं ... यहाँ नहीं ... अकेले में खुजवा लें ... दूसरी पार्टी को पता चलेगा तो वो भी ... “
“दूसरी पार्टी वाले पीठ नहीं खुजवाएंगे । उनका इरादा तो डायपर बदलवाने का है । ... उनके यहाँ गुड्डू, पप्पू, छोटू  वगैरह हैं ... राजनीति में आदमी को बहुत कुछ करना पड़ता है । खुजाने और डायपर बदलने पर सरकार चलती है तो सौदा सस्ता है ।“
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शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

शेर के नाखूनों पर नेलपॉलिश


“आप ठीक कह रहे हैं ... आप जंगल के राजा हैं । सरकार आपकी ही होना चाहिए । इसके लिए पहले पाँव आगे कीजिए .... नेलपॉलिश लगा दें आपको । “ कहते हुए दादू ने पंजे पकड़ कर नाखून रंग दिए । फिर बोले – “देखिए शेर साहब, लाल लाल चमकते नाखून कितने सुंदर लगते हैं । अब चलते फिरते ध्यान रखिएगा कि पॉलिश खराब न हो । और हाँ , किसी पर हमला नहीं करना है । नाखूनो का ध्यान रखो न रखो पॉलिश का ध्यान रखना जरूरी है ।“
समय के साथ हरेक को बदलना पड़ता है । शेर समय से बड़ा नहीं होता है । आज मौका है, और मौका समय की देन है । कुछ देर नाखूनों को देखने के बाद शेर ने अपना सिर झटका और खुद को समझाया कि मान लो कि पॉलिश अच्छी लग रही है ।  इसके बाद मौन सहमति के संकेत दिए ।
दादू नाखून पकड़ कर दांत पकड़ने में माहिर है । उसने कहा – “हे राजन, लोकतन्त्र में शेर वही होता है जो दहाड़ते रहने के बजाए मुस्कराता रहता है और हमला करने के अवसरों पर हाथ जोड़ता है ।“
“ये मुझसे नहीं होगा .... आप कुछ ज्यादा ही उम्मीद कर रहे हैं मुझसे ....” शेर नाराज हुआ ।
“सरकार बनानी है या नहीं ? ... जंगल आपके हाथ से निकाल जाएगा .... शेर के लिए सरकार होना जरूरी है वरना महकमों में आधार कार्ड दिखाने पर ही इंट्री मिलेगी ।“
शेर ने अपने को संयत किया । पूछ “क्या करना होगा !”
“कुछ नहीं ... आप मुसकराना सीखिए, हम लिपिस्टिक लगा देते हैं ।“ कहते हुए दादू ने शेर के होठ रंग दिए ।
लाल नाखून और लाल होठ देख कर शेर का दिमाग राउंड राउंड होने लगा, - “दादू !! कितना गलत मैसेज जाएगा जंगल में ! लोग कहेंगे कि शेर कामरेड हो रहा है ! क्या मुझे अपने ही खिलाफ धरने प्रदर्शन करने होंगे !?”
“राजन ... राजनीति में मैसेज का नहीं .... मैसेज में राजनीति का महत्व होता है । आप अगर शेर के अलावा कुछ समझे गए तो सीटें बढ़ेंगी । ... सीटों के चक्कर में ही हमें एक और पार्टी का समर्थन लेना पड़ रहा है .... उनकी भी कुछ मामूली शर्तें हैं ।“ दादू अगले मुद्दे पर आए ।
“सरकार बननी चाहिए ... शर्तें अगर मामूली हैं तो हमें दिक्कत नहीं है, बताइये ।“
“उनका कहना है कि आपको डायपर पहनना होगा और खादी भी ।“ दादू बोले ।
“ खादी पहनी नहीं हमने आजतक ... वैसे भी खादी पहनना हमारे उसूलों के खिलाफ है । और डायपर क्यों !?  हमारे अपना जंगल है ... हमारी अपनी मर्जी है ...
“नंगा शेर अच्छा नहीं लगता है ... विकास का प्रतीक है डायपर । और अभी भी करोड़ों लोग खादी को देख कर ही वोट देते हैं ।“
“लेकिन दादू, अगर खादी पहनेंगे तो हमारी पहचान खो जाएगी ।“
“शेर की पहचान सत्ता से होती है ... सूरत का इस्तेमाल तो सिर्फ बच्चों की पिक्चर बुक में होता है ।“
“चलो ठीक है, पहन लूँगा । ... अब सरकार बनवाइए फटाफट ।“
“अब तो बन ही जाएगी, कोई दिक्कत नहीं है । समझिए कि हाथी निकाल गया है बस पूंछ  बाकी है ।“
“अभी भी पूंछ बाकी है !! “ शेर चौंका ।
“ कभी कभी मैडम हाथ में रिंग ले कर दिखाएंगी । बस आपको उसमें से कूदते रहना है । ... कोई बहुत बड़ा काम नहीं है । एक दो बार कुछ लगेगा फिर आदत पड़ जाएगी । बाद में तो मजा भी आने लगेगा । ... सोचिए सरकार बनाने जा रहे हैं आप ।“
“ठीक है, यह भी कर लेंगे । ... अब तो सरकार बनाने में कोई बाधा नहीं है ?” शेर ने नेलपॉलिश देखते हुए पूछा ।
“अब भला क्या बाधा हो सकती है ! इतना कर लेंगे तो दुम अपने आप हिलने लगेगी । हो गया काम, बनेगी सरकार, ... बल्कि यों समझिए कि बन गई सरकार ।.... अपना सब कुछ को सरकार में और सरकार को सब कुछ में बदलने की कला का नाम ही राजनीति है । जय महाजंगल । “
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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

बाज़ार ठंडा है !


                     
                    जब से बाज़ार ठंडा हुआ है आफ़रों के अलाव जल गए हैं । इधर दिन भर फोन आ रहे हैं, कार ले लो साहब । कीमत में छूट देंगे, सोने का असली सिक्का भी देंगे, एक्सेसरिज फ्री दे देंगे, नगद नहीं हो तो उधार देंगे, लोन फटाफट देंगे, ईएमआई बाटम से भी नीचे वाला लगा लेंगे । बैंक की पहली किश्त आप मत देना हम दे देंगे, पाँच लीटर पेट्रोल भर के देंगे । सरकार ने करोड़ों खर्च करके सीमेंट वाली सड़कें बनवाई हैं तो उससे चिपक के चलो । और क्या चइए आपको !? सोचो मत, हमने सोच लिया है । आप तो आधार आईडी लाओ और हथोहाथ कार ले जाओ । आज की देत में किराने वाला उधार  नहीं दे रहा किसीको, आपके लिए नई कार उधार है । जमाने के लिए मंदी है, आप साहब के लिए 
उपहार है ।

                  चारों तरफ चर्चा है कि बाज़ार ठंडा है । ठंडा होता है बाज़ार लेकिन गरमी कारोबारियों के अंदर बढ़ जाती है । वो पसीना पसीना  हो रहे थे । पूछा तो लाचारी से कहने लगे – बुरे हल हैं । क्या करें ! पूरा बाज़ार ठंडा हो गया है ।  कायदे से बाज़ार अगर ठंडा है तो स्वेटर पहनो । लेकिन नहीं, बाज़ार की ठंड स्वेटर से नहीं भागती है । और न ही एसी की ठंडक से दूकानदारों का पसीना सूखता है । उस पर टीवी का हँगामा कि पड़ौसियों को नानी याद दिला देंगे । मंदी के जलों पर पाकिस्तानी सेंधा नमक अलग से । कोई हाय हाय करना चाहे तो देशद्रोही कहा जाए । कहते हैं दूध देने वाली गाय की लात भी खाना पड़ती है । लेकिन इधर दूध-मलाई  देने वाले बाज़ार की कोई सुन ही नहीं रहा है । गइया मइया और देशभक्ति वगैरह के चलते बाज़ार की क्या औकात ! भैया, दादा, बाउजी बोलते चिल्लाते गला सूख जाता है ।  कल ही बाज़ार ने के. के. महाकाले से पूछा कि इस बार तो दीवारों पर रंग करवाओगे ना ? महाकाले ने साफ माना कर दिया - कोई गुंजाइश नहीं है भाई । हाथ तंग है , उम्मीद भंग है , जिम्मेदारियों का लश्कर संग है , चितकबरे के साथ दीवारें अभी मस्त है, बैंक अकाउंट पस्त है ।
लोग नरपति के पास पहुंचे तो सुन कर वे भी गरम हो गए । बाज़ार कमबख्त बाज़ार है वरना एकाध माबलिचिंग करवा देते तो सहम जाता । नरपति गरम हो तो पूरे दरबार को गरम होना जरूरी है । लेकिन दरबार की गरमी से भी बाज़ार की ठंड दूर नहीं हुई । मीडिया मुँह में घुसने लगा तो बोले मंदी हो या ठंडापन, सब नाटक है विपक्ष का । विकास को देखोगे तब दिखेगा ना । चप्पल वाले लोग भी अब हवाई सफर करने लगे हैं, डेढ़ जीबी डाटा खर्च करने वालों को अब दो जीबी भी कम पड़ने लगा है, हर हफ्ते दो नई फिल्में लग रहीं हैं और हाउसफुल हो रही हैं तो कहाँ है बाज़ार में ठंडापन !? इसी बाज़ार में अपने मुकेश भाई नहीं है क्या ? उसका तो बढ़िया चल रहा है । दुनिया के टॉप टेन में शामिल हुए हैं । जिनके भाग्य खोटे हैं उनके लिए दरबार कुछ नहीं कर सकता है । लोग धर्म से दूर होंगे और दोष बाज़ार को देंगे तो यह नहीं चलेगा ।
“सर, जनता कष्ट में है दुख का ग्राफ तेजी से बढ़ रहा है । इसका कुछ कीजिए । “
“ग्राफ बढ़ रहा है तो इसमे बुरी बात क्या है !!  बढ़ने दो, हम दुख का नाम बादल कर सुख कर देते हैं । .... सुख का ग्राफ बढ़ेगा तो किसी को दिक्कत होगी क्या ?
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शनिवार, 30 नवंबर 2019

जबरन जुमला


             

बिना नाम लिए उन्होने फिर किसी को देशभक्त कहा और हँगामा हो गया । टीवी से ले कर अखबारों तक में मचमच हो गई । हर तरफ एक ही बात है कि “हाय-हाय देशभक्त कह दिया “ । चर्चित होने के लिए, मीडिया में छा जाने के लिए लोगों को क्या क्या पापड़ नहीं बेलना पड़ते हैं । अगर कोई दो जुमले बोल कर पीली रौशनी में आ जाए तो क्यों नहीं बोले । उसे पता है कि जरा सी जबान हिला देने से काम चल रहा है तो किसीको जनसेवा का पूरा कत्थक करने कि जरूरत क्या है ! महीने पंद्रह दिनों में बस एक बार बिना नाम लिए देशभक्त बोल दो, हो गया काम । नेता वही जो चर्चित हो, काम करने के लिए तो अफसर होते हैं, महकमें  होते हैं ।  कई बार बोलने का मन नहीं भी होता है तो रिपोर्टर मुँह में माइक घुसेड़ कर जुमले का जन्म करा लेते हैं । कुछ लोग इसको जबरन जुमला मानते हैं, मीडिया वाले हेडलाइन कहते हैं और टीवी वाले टीआरपी । सबको अपने हिस्से का कुछ न कुछ मिल जाता है । ऐसे में इसे विवादास्पद क्यों कहा जाता है इस पर कोर्ट की राय लेना चाहिए ।  
लेकिन पार्टियों का मामला अलग है । सबके महापुरुष अलग हैं । एक पार्टी में जो महापुरुष है वो दूसरी पार्टी में महाअपराधी है । कई बार पार्टियां दिल पर ले लेती हैं । किसी ने समझाया कि भाई देशभक्त एक साथ कई लोग हो सकते हैं । दंगल में दो व्यक्ति कुश्ती लड़ रहे हैं, एक दूसरे को पटक रहे हैं, एक दूसरे के विरुद्ध हैं लेकिन दोनों ही पहलवान कहलाते हैं । जब देशभक्त कहने वाले भोले से पूछ गया तो उन्होने कहा – “हर आदमी की दुनिया अलग होती है, हरेक का स्वर्ग और नरक अलग अलग होता है । मयखाना किसी के लिए स्वर्ग है तो किसी के लिए नरक । डाकू, गुंडे वगैरह किसी के लिए अपराधी हैं तो किसी के लिए रक्षक और सहायक हैं । इसी तरह देशभक्ति को भी समझा जाना चाहिए । मेरा संसार अलग है, मेरा देश अलग है, मेरे वोटर अलग हैं और मेरे देशभक्त भी मेरे वाले हैं । बाकी आप समझदार हैं । “
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शुक्रवार, 22 नवंबर 2019

खाल से डरते लोग


दरअसल उसने शेर की खाल औढ़ी हुई थी । नीचे वह क्या है यह किसी को पता नहीं था । जंगल के लोग उसे असली समझ रहे थे । इसी भ्रम के चलते वह जंगल का राजा बना हुआ था । खाल की आदत उसे ऐसी पड़ी कि वह भी अपना असलीपन भूल गया । कुछ समय बाद उसके यहाँ संतान पैदा हुई । नर्स बेचारी ने बच्चे को गोद में देते हुए मुबारक कहा ।  नर्स की आँखों में संदेह के डोरे चमक रहे थे जिन पर परदा डालने के लिए वह बोली – बच्चा बड़ा सुंदर है , बिलकुल हुजूर पर गया है ।
उसने अपनी खाल ठीक की और कहा कि मीडिया वालों से तू कोई बात नहीं करेगी । और इस बात को याद रख कि शेर के बच्चे शुरू शुरू में मेमने जैसे ही दिखाई देते हैं । ... तुझे  बख्शीश में वन बीएचके फ्लेट देता हूँ ।“
बात आई गई हो गई । समय गुजरता गया । अंतिम समय आने पर उसने खाल अपने बेटे को औढ़ा दी और कहा कि अब तुम जरूरत के अनुसार गुफा से बाहर भी निकला करो । बेटे को लगा कि अब वह शेर हो गया है । उसने पिता को दहाड़ते देखा था, उसने भी कोशिश शुरू कर दी । एक दिन घूमते हुए वह गुफा से बाहर निकाला । कुछ दूर चलाने पर खरबूजे का खेत दिखा । खरबूज उसकी कमजोरी रहे हैं । अभी तक वो दूसरों के खाए खरबूजों के किस्से सुनता आ रहा था । वह अपने को रोक नहीं सका । खेत में बाड़ लगी थी लेकिन वह कूद गया । ताजे पके खरबूज का स्वाद उसके खनदान में पहली बार किसी ने लिया । इस सफलता ने उसे सब कुछ भुला दिया । अगले ही क्षण उसकी चिपों चिपों से जंगल में एक सच गूंज उठा ।  जो अब तक साथी और सहयोगी थे उनकी नजरों में राजा गिरने लगा । लोग खाल के नीचे झाँकने लगे । मीडिया उसकी लीद के क्लोजप दिखा दिखा कर अपनी टीआरपी बढ़ा रहा था । आखिर वो दिन भी आ गया जब ब्रेकिंग न्यूज चल पड़ी कि राजा शेर नहीं है । तुरंत उसके प्रवक्ता और मीडिया प्रभारी सामने आए, बोले वो शेर नहीं है लेकिन उसकी खाल तो शेर की है ।इसलिए वह राजा है’, उसे राजा मानों । 
अब लोग खाल से डर रहे हैं ।
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शनिवार, 2 नवंबर 2019

पाश कालोनी में कोपभवन


बंगले के बाहर जहां नेमप्लेट वगैरह लगी होती है, एक छोटा सा विज्ञापननुमा बोर्ड लगा था “कोपभवन सुविधा उपलब्ध है “ ।
 माया प्रसाद इसे देख कर ठिठक गए । बात को समझने के लिए कालबेल बजाई । मालिक मकान भण्डारी प्रकट हुए और बोले मैं एडवोकेट भण्डारी हूँ, कहिए । मायाप्रसाद ने देखा कि नेमप्लेट पर उनके भण्डारी और एडवोकेट होने की सूचना है पर कोपभवन के आगे उस पर ध्यान ही नहीं गया ।
“जी मैं कोपभवन के बारे में ...... “
“अभी तो खाली नहीं है । “ उन्होने टका सा जवाब दिया ।
“जानना चाहता हूँ, क्या है कोपभवन में... किसे देते हैं । “
“देखिये, ऐसा है कि महीने में एक दो बार कुपित होने के ऐसे मौके आ जाते हैं जब पुरुषों को, खास कर पतियों को एकांत की जरूरत पड़ जाया करती है । .... इसलिए यह सुविधा बनाई गयी है । “
“पुरुषों को !! ... स्त्रियों को भी तो कुपित होने का जन्मसिद्ध अधिकार है । उन्हें नहीं देते हैं क्या ?”
“स्त्रियों की बात अलग है । वे जब कुपित होती हैं तो पूरे घर को कोपभवन बना सकती हैं । यह योग्यता और क्षमता पुरुषों में नहीं है । वे मुंह फुलाए ड्राइंग रूम में बैठें या बेडरूम में पड़े रहें, न कोई  पूछता है और न किसी को कोई फर्क पड़ता है । अक्सर झक मार कर उसे ही आपना राम नाम सत करना पड़ता है । अगर वे अपना मारक और निर्णायक समय हमारे कोपभवन में बिताएँ तो न केवल उनका मान बचा रहेगा बल्कि उनकी सम्मानजनक घर वापसी भी होती है । एक फायदा यह भी होता है कि दूसरी बार अपमानजनक स्थिति जल्दी नहीं आती है । सामने वाली पार्टी सुबह शाम की मोर्चाबंदी में थोड़ी ढ़ील देने लगती है ।
“मैं तो वरांडे में बैठ जाता हूँ और आते जाते लोगों को देखता रहता हूँ । मेरा तो टाइम पास हो जाता है मजे में । “
“आपका टाइम पास हो जाता है लेकिन सामने वाली पार्टी क्या करती है ये सोचा है ? दरअसल होता यह है कि किसी असहमति या अपमान के चलते जब आप रूठे बैठे हैं तो सामने वाली पार्टी इसका मजा लेने लगती है । वो समझौता वार्ता के लिए कोई पहल नहीं कर के आग में घी डालने का काम करती रहती है । आपको धीमी आंच में लगातार इतना पकाती है कि आपका बोनमेरो तक अपनी जगह छोड़ने लगता है । कोपभवन इस अपमानजनक स्थिति से आपको बचाता है । सही बात तो यह है कि हम इस जटिल एकांत को गरिमा प्रदान करते हैं । “
“भण्डारी जी, यह जो आप मर्द-मान की रक्षा कर रहे हैं, सचमुच अद्भुत है । लेकिन एक कमरे में एकांत काटना कितना मुश्किल होता होगा ! अगर कोई मनाने नहीं आया तो बेचारा कूद कर जान दे देगा ! कौन सी मंजिल पर है आपका कोपभवन ?”
“तीसरी मंजिल पर । लेकिन ऐसा होगा नहीं जैसा आप सोच रहे हैं, क्योंकि इसके लिए हिम्मत चाहिए, यू नो वो बेचारा पीड़ित, प्रताड़ित पति होता है । उसमें किसी किस्म की हिम्मत नहीं होती है ।“ 
“फिर भी एक कमरे में बंद उसका मनोबल टूट जाएगा । “
“यहाँ आने वाले को लगता है कि उसके स्वाभिमान की रक्षा हो गई है, सो निराशा तो समझिए कि पूरी समाप्त हो जाती है । रहा सुविधा का सवाल तो सब दिया जाता है । रूम अटैच्ड टाइलेट है, बेड विथ बत्तीस ईंची टीवी है, फ्रिज विथ सोडा-विस्की है, सीडी प्लेयर और दो सौ अच्छी बुरी फिल्मों की लाइब्रेरी है । अखबार, पत्रिकाएँ और किताबें भी हैं । फ्री वाइफाइ भी है । सबसे बड़ी बात आज़ादी है कुछ भी करने या न करने की । और क्या चाहिए आदमी को !?

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शुक्रवार, 1 नवंबर 2019

जूते हैं तो जय है


जूतों का आविष्कार मूल रूप से पैरों में पहनने के लिए किया गया था । लेकिन जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ जूते उतारने की आदर्श परंपरा भी विकसित हुई । जूता उतरना जूता पहनने की अपेक्षा कठिन और हिम्मत का काम है । सदियों से जो लोग जूता पहना रहे हैं उन्हें समाज से जाति सूचक संबोधनों के अलावा कुछ नहीं मिला । लेकिन जो समय असमय उतारते रहे हैं उन्हें हुजूर, मालिक, महाराज से लगा कर माईंबाप तक का रुतबा हासिल हुआ । जूतों के कारण वे सरकार थे, सरकार रहे और सरकार हैं । जानने वालों का मानना है कि जिनके हाथ में जूता होता है उनके पैरों के नीचे प्रायः कालीन होता है । ज़्यादातर लोग इसे सिस्टम कहते हैं और कुछ रघुकुल रीत । जनता अगर अनुकूल  हो तो कुर्सी पर जूते रख कर भी आसानी से राज किया जा सकता है ।
कपड़ा इस्तरी किया हुआ हो तभी शोभा देता है । सल तभी मिटाए जा सकते हैं जब इस्तरी गरम हो । खानदानी जूतेदार  बताते हैं कि जूता-व्यवहार दो  तरह का होता है । एक सूखा दूसरा गीला । दोनों का उदेश्य एक ही होता है । जैसे नरम दल और गरम दल । दोनों अंग्रेजों को देश से खदेड़ना चाहते थे । बड़े वाले यानी हुजूर, मालिक, महाराज टाइप के अन्नदाता नुमा दबंग लोग जूता पहनते नहीं हैं, जूतों पर सवार रहते हैं । जूते जितना चलते हैं उनका सिक्का उतना चलता है । मामूली आदमियों के लिए जरूरी होता है कि अपनी बात कहते हुए वे नजरें उनके जूतों पर रखें क्योंकि जूतों की नजर उन पर रहती है । इसे शिष्टाचार कहने से मन में ग्लानि का नहीं गर्व का भाव पैदा होता है । हुजूरों के बुलावे पर जो जाते हैं वे अक्सर जूता-प्रसादी खा कर आते हैं और जो नहीं जाते हैं बाद में भर पेट खाते रहते हैं । हमारे यहाँ लोग भले ही गरीब रहे हों पर कोई यह नहीं कह सकता है कि उसे कभी खाने की कमी रही है । गरीब का सिर बार बार काम में लिए जा सकने वाले प्लास्टिक की तरह होता है और कोई भी व्यवस्था इस पर प्रतिबंध नहीं लगाना चाहती है । कई बार जूतों पर नाक रगड़ाने या जूता चटवाने के किस्से सुनने को मिलते हैं । यह एक तरह की सुविधा है, जिसे फेसिलिटी भी कहा जाता है । सोचिए बुरे वक्त में फंसे व्यक्ति की नाक क्रेडिट कार्ड की तरह काम आ जाए तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है । गरीब आदमी की नाक पीओके की तरह दबंगों के कब्जे में रहती है । कई बार मन होता है कि अपनी नाक हुजूर के कब्जे से मुक्त कर लें लेकिन वे खाल उतरवा कर जूता बनवाने की मंशा व्यक्त कर देते हैं ! दबंगों की समानान्तर सत्ता को अभी किसी लौह पुरुष ने गंभीरता से नहीं लिया है ।  
खुशफहम सोचते थे कि देश आज़ाद हो गया तो सब बराबर हो जाएंगे । लेकिन किस्मत भी कोई चीज होती है । ईश्वर ने कुछ लोगों को जूते दिए और कुछ को सिर । जब तक गरीबी नहीं मिटती होंडा सिटी पर सवार जूते जमीन पर पैर नहीं रखेंगे । बीच में कहीं कानून भी होता है लेकिन वह अपने लंबे हाथों से बिना झुके जूतों पर पड़ी धूल साफ करता रहता है । ... जय हो ।
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शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2019

खफ़ा इन्द्र और रावण



इंद्र को क्रोध आ रहा था, पिछले दिनों किसी ने ताना दिया। बात पुरानी है, रावण का पुत्र मेघनाद महाबली था । उसने इंद्र को पराजित किया और बंदी बना कर लंका ले आया । इसके बाद मेघनाद का नाम इंद्रजीत पड़ा। युद्ध में हार-जीत होती ही है। रावण की कैद में इंद्र को बहुत कष्ट हुआ। चलो उसकी भी कोई बात नहीं, कैद में तो सबको कद्दू होना पड़ता है । लेकिन इन्द्र को लगता है कि जो अपमान उसका हुआ वैसा आज तक किसी का नहीं हुआ होगा। इंद्र ने एक बार कृष्ण से पंगा ले लिया था तो कृष्ण ने इंद्र की पूजा बंद करवा दी। इन्द्र ने कुपित हो कर भारी वर्षा करवाई । लेकिन कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा लिया और अपनी जनता को बचा लिया। तब भी इन्द्र की बहुत किरकिरी हुई। आज भी लोग जब तब इन्द्र की खिल्ली उड़ते हैं। वर्षा के लिए कोई मेंढक मेंढकी का ब्याह करवाता है, कोई निवस्त्र हो कर खेत में हल चलाता है, कोई औंधे तवे पर रोटी बना कर लानत भेजता है। देश में तलाक के खिलाफ माहौल है लेकिन कुछ लोगों ने मेढक मेंढकी का तलाक करवा दिया। मीडिया ने इसका खूब मज़ाक बनाया। इन्द्र को लगा कि उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। पिछले वर्षों में उसने अल्प वर्षा करवा कर लोगों को डराया था। लेकिन लोग मोटी  चमड़ी के हो गए हैं। इस बार भारी वर्षा के इरादे के साथ इन्द्र ने मोर्चा खोल दिया और परिणाम सामने है। लोग अपने बेडरूम से नाव में बैठ कर निकल रहे हैं और तैरती डायनिंग टेबल पर खाना खाते हैं। पूरा देश चेरापूंजी हो रहा है। पीने के पानी की हाय हाय मची हुई है और पानी से तौबा भी कर रहे हैं।

नजारे के लिए इन्द्र निकले तो उन्हें रावण दिख गया। छिंकता-काँपता हुआ रावण देख कर उसे कैद के दिन याद आ गए। कैद के समय मेघनाद ने पूरा निचोड़ कर रख दिया था और ये रावणवा देख कर खी-खी कर रहा था। वह तो अच्छा हुआ कुबेर भी उसकी काँख में दबा हुआ था वरना टाइम पास करना मुश्किल हो जाता। सोचा आज आया है ऊँट पहाड़ के नीचे तो दो बात सुना लेना चाहिए.

"क्यों रावणराज! इतना काँप क्यों रहे हो? जुकाम हो गया है क्या! अरे भाई कुछ लेते क्यों नहीं? कुछ लिया?" पुलक के साथ इन्द्र ने पूछा।

"आप वर्षा बंद करो इन्द्रदेव। हर वर्ष लोग जला जला कर मेरा जीवन लंबा करते हैं। अग्नि के कारण मैं अमर हूँ। मुझे सम्मान पूर्वक, समारोह पूर्वक जलना है। इतनी वर्षा में सड़-गल कर मैं हमेशा के लिए नष्ट हो जाऊँगा । ऐसा हुआ तो क्या तुम्हें अच्छा लगेगा?" रावण ने ठिठुरते हुए कहा।

"मैं जनता हूँ तुम अकेले नहीं हो रावण। तुमने आज घर घर और गली-गली में अपने क्लोन खड़े कर दिये हैं। तुम्हारे कारण जब सारी व्यवस्था ही सड़ गल-रही हो तो तुम्हें भी उसके साथ होना चाहिए । " कह कर इन्द्र ने पूरे वेग से वर्षा आरंभ कर दी।
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