‘‘बाऊजी जमाना खराब हे, बुरा मत मान्ना, बात बिल्कुल सई हे। हम लोग ठहरे हिन्दी वाले, ठीक हे कि नी। आप जान्ते हो कि हिन्दी वाले काम धंधे वाले होते है और काम धंधे का मतलब तो आप जान्ते-ई हो। जिसमें पैसा नीं मिले संसार में वो काम, काम-ई नीं है। हिन्दी वाले काम कर्ते हैं और देस की तरक्की में लगे पड़े हैं जीजान से। इसलिए हमको न साहित-वाहित से कुछ लेना देना है ना किताबों से। सुबे से साम तक मेनत कर्ते हैं, पेसा कमाते हें। बहोत टेंशन हो जाता है, तबेत तक ठीक नीं रेती हे, डाक्टर होंन के पास हर दूसरे दिन जाना पड़ता है। दिन भर दवाएं खाना पड़ती है, बीच में टेम निकाल के थोड़ा खाना भी खाना पड़ता है वर्ना घर की औरतें चिंता में पड़ जाती हें। आपी बताओ ऐसे में कौन-सी किताब और कां-का साहित-वाहित !? हम मराठी या बंगाली तो हें नीं कि धूप में बैठे किताब होन में फोकट माथा फोड़ते रहें। हर हप्ते अपने सीए से माथाफोड़ी करने के बाद तो आदमी में कुछ कन्ने की ताकत रे-ई नीं जाती है सिवा टीवी टूंगने के। उसमे बी कुछ समज में नी आता हे।
हमें मौन देख कर वे फिर बोले - ‘‘ आप तो चुप-ई हो गए !! एसा हे कि, बुरा नी मान्ना ...... हम्म लोग जिम्मेदारी ले-के चलने वाले लोग हें। बाल-बच्चे ले-के बेठे हें। उन्की तरफ भी देखना-ई पड़ता हे। पड़ने-लिखने में तो कुछ नी धरा हे, पर ब्याव-सादी तो समाज के हिसाब से-ई कन्ना पड़ती हे। आज की डेट में गिरी से गिरी हालत में सादी का खर्चा पंद्रा लाख से उप्परी जा रिया हे। .... बुरा नी मान्ना .... आपको क्या हे ...... कोन पूछता हे !! .... पर हम्को तो समाज में उठना-बेठना पड़ता हे .... किताबों में टेम बरबाद कन्ना हम्को पुसाता थोड़ी हे। दुन्यिा में आएं हें तो दुन्यिादारी तो रखना -ई पड़ती हे। ’’
एक छोटा विराम ले कर वे फिर शुरू हुए, - ‘‘ चाय-वाय पियोगे आप ? .... इच्छा नीं होए तो कोई बात नी। वेसे-ई पूछ लिया आप बेठे हो तो। ..... बुरा नी मान्ना, .... वेसे-ई जान्कारी के लिए पूछ-रा हूं कि एक लेख के कित्ते पेसे मिल जाते हें आपको ?’’
‘‘ ज्यादा नहीं, .... पांच सौ से हजार तक मिलते ही हैं।’’ हमने जरा बढ़ा कर बताना जरूरी समझा, कुछ अपनी इज्जत के लिए कुछ पत्र-पत्रिकाओं की।
वे चौंके, - ‘‘ बस पान सो रुपिये !! इस्से जदा तो मंडी के हम्माल कमा लेते हें ! हम्माल तो ठीक हें, आजकल मंगते होन पान सो से जादा बना लेते हें मजे में। ..... पर आप बुरा नी मान्ना .... एक रिफिल से कित्ते लेख लिख लेते हो आप ?’’
‘‘ चार-पांच तो हो जाते हैं आराम से । ’’
‘‘ एं !! एक रुपे की रिफिल से दो ढाई हज्जार बना लेते हो !! धंधा तो ठीक हे। ..... पाटनरी करते हो ? रिफिल तुमारी कागज हमारे ....... फिप्टी फिप्टी ...... बोलो ? ....... चलो चालिस-साठ कल्लो ....... नईं ? …… एं ? …… चाय पियो, मंगवाता हूं । ’’
उन्होंने आवाज लगाई , ‘‘ए छोरा ...... दो पेसल बोल कड़क मीठी ।’’
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