मंगलवार, 1 जुलाई 2014

घोड़ा , घास और दोस्ती

                    वोट मांगते समय जो घासफूस जैसे जन का 'प्रतिनिधि’ होता है वो चुनाव जीतने के बाद बड़े आराम से व्यवस्था का प्रतिनिधि हो जाता है। मतपेटियां सत्ता देती हैं, सत्ता का पहला स्नान उसे शासक बना देती है। शासक के पास विकल्प नहीं होते हैं, जैसे गाड़ी में जोते गए घोड़े पास नहीं होते हैं। देखा जाए तो गाड़ी के पास भी विकल्प नहीं होता है, उसे भी हमेशा एक घोड़े की ही जरूरत होती है। घोड़ा अंततः घोड़ा होता है, वह घास से दोस्ती नहीं करता है, गाड़ी से कर लेता है। गाड़ी में नगरसेठ बैठता है, शहरकोतवाल बैठता है, महल-पुरोहित और साथ में कहीं नगरवधु भी बैठती है। घोड़े का सीना घोषित नाप से दो इंच और चौड़ा हो जाता है, जैसा कि तीसरी कसम वाले हीरामन का हुआ था जब उसे पता चला कि उसकी गाड़ी में नौटंकी वाली बाईजी बैठीं हैं। घोड़े को लगता है कि गाड़ी उसी की है, गाड़ी वाले मानते हैं कि घोड़ा उनका है। सवार अनुभवी होते हैं, वे घोड़े से ज्यादा लगाम पर हाथ फेरते हैं। लगाम लंबी होती है, नापो तो स्विस बैंक तक जाती है। घोड़ा गाड़ी से परे मात्र घोड़ा है, लेकिन गाड़ी से जुड़ कर वह शाही सवारी हो जाता है। सड़क पर जब निकलते हैं तो सिपाही डंडा फटकारता है कि लोग-लुगाई एक तरफ, हिन्दू-मुसलिम-ईसाई एक तरफ.... घोड़ागाड़ी से दूर, शाही सवारी में हुजूर। 
             जनता के साथ पार्टी के कार्यकर्ता भी अपने को ठगा सा महसूस करते हैं। कबीर जनता को कह गए हैं कि आप ठगाइये और न ठगिये कोय, और ठगे दुःख उपजे आप ठगाए सुख होय। देश  की राजनीति कबीर की आभारी है, सूझ पड़ गई तो अगली बार सरकार भारतरत्न दे देगी। ठगाई जनता सुखी है यह तय है, फ्रेश  होने के लिए थोड़ा रो-धो लेती है ये बात अलग है। हुजूर जानते हैं कि सवा सौ करोड़ जनता मन में कुछ नहीं रखती, बकबका कर हल्का हो लेना उसकी आदर्श  परंपरा है। मीडिया इस काम में उनकी मदद करके सरकार को मजबूत बनाता है। 
                इसके अलावा मेनेजमेंट के तहत जनता का तनाव कम करने के लिए तमाम योगगुरू भी मैदान में छोड़ दिए गए हैं। जिनको तकलीफ है वे सुबह उठते ही अनुलोम-विलोम में लग जाएं तो मंहगाई का असर कम महसूस होता है। ताजी हवा में मुंह या नाक से लंबी लंबी सांस लो और कहीं से भी लंबी लंबी सांस छोड़ो तो चित्त को बहुत लाभ होता है। ठीक इसी वक्त पेट अच्छे से साफ हो जाए तो मान लीजिए कि अच्छा दिन भी आ गया है। स्पष्ट है कि अच्छे दिन चाहिए तो सबको कुछ न कुछ करना पड़ेगा। यह बात भूल जाइये कि कुछ करने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है। जनता भली है, किसी को दोष  नहीं देती है सिवा अपने पापी पेट के। बहुत हुआ तो भाग्य के नाम पर अपना सिर पीट लेगी। उसके बाद ‘जाही बिधि राखै राम ताही बिधि रहिए’ कहते हुए अगली ठगाई के लिए उपलब्ध हो जाएगी। 
                गांधीजी बोल के गए हैं कि कोई एक गाल पे थप्पड़ मारे तो तुरंत दूसरा गाल आगे कर दो। हुजूर इस बात को समझते हैं और ‘कोई’ की भूमिका निबाहने में विश्वास  करते हुए पहले थप्पड़ में रेल किराया बढ़ा दिया है। वे निश्चिन्त  हैं क्योंकि देश  में ढ़ाई सौ करोड़ गाल हैं। पांच साल खत्म हो जाएंगे लेकिन गाल बाकी रहेंगे। 
                इधर सिनेमा की एक सुन्दरी ने भी सूत्र-संदेश  दिया है कि ‘थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है’। हुजूर को भी प्यार करने की आदत नहीं है। जब भी लगाएंगे थप्पड़ ही लगाएंगे। लोकतंत्र में जनता थप्पड़ खाने के लिए पैदा होती है, जैसे बकरे अंततः हांडी में पकने के लिए होते हैं। जनता के पास बकरे की अम्मा की तरह कोई अम्मा भी नहीं होती है जो खैैर मना ले।  जनता के नसीब में दो पार्टियां हैं, एक पीटे तो दूसरी अम्मा का नाटक कर देती है और दूसरी पीटे तो पहली। अच्छे दिन अभी अंगूर हैं, तके जाओ। गालिब याद आ रहे हैं, - ‘‘ हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल के बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है’’ । 
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इलाज और बीमारी के बीच कूदफांद

                        जो कभी बीमारी घोषित थे, सत्ता में आने के बाद अब इलाज हैं । जिससे बचने का ढोल पीटा जा रहा था अब वो शिलाजीत है, देश को मर्द बनाने की दवा। साम, दाम, दण्ड, भेद के आगे कोई कुछ बोल भी नहीं सकता है। वरना जिसके भाग्य में जितनी साँस  लिखी होगी रामजी उससे ज्यादा किसी को नहीं देंगे। जहां तक राम का सवाल है, सबसे पहले वही लपेटे में आए हैं। ऐसे में जो लोग महूरत निकाल कर काम नहीं करते राज्य में उनके लिए कोई गैरंटी नहीं होगी। प्रातः बिस्तर से उठते हुए पहले दांया पैर जमीन पर नहीं रखने वालों का दिन खराब होगा, गुण्डे गोली मार दें या घर में चोरी हो जाए तो इसमें प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। धंधा उसी का चलेगा जो चैघड़िया देख कर दुकान का ताला खोलेगा। लड़कियां भी वही सुरक्षित होंगी जो पूरी ढंकी होंगी या फिर जिन पर कलयुगी रावण कृपा करेंगे। विकास का दावा है, तो पक्के तौर पर होगा। लेकिन अपने ज्ञानचक्षु खोलिए, विकास आगे नहीं, पांच हजार वर्ष पीछे है। इधर जनता के पास कोई विकल्प नहीं है। अतीत में दुःख, भविष्य में डर, वह मान लेती है कि ‘दर्द का हद से गुजर जाना अपने आप दवा बन जाएगा’। जानकार कहते हैं कि इलाज से बचाव बेहतर है। किन्तु बचाव हो कैसे, जिस हवा में  सांस लेते हैं उसी मेें बेक्टेरिया तैरते रहते हैं। आंकडे उठा कर देखें तो देश में जितने बीमारी से मरते हैं उससे ज्यादा इलाज से मरते हैं । हरेक को आजादी है, वो चाहे तो शांतिपूर्वक बीमारी से मर सकता है या उतावला हो कर इलाज से। 
‘‘ भाभीजी सुना है भाई साब बीमार हैं, क्या हो गया ?’’ पडौसन ने पूछा।
‘‘ क्या बताउं, हप्ताभर से उछल रहे हैं, ‘युवा- हृदय-सम्राट’ हो गया है।’’
‘‘ नेतागिरी के मच्छर ने काटा होगा। मैं तो हमेषा ‘गेटआउट’ लगा के रखती हूं।’’
‘‘ घर में तो गेटआउट हम भी लगाते हैं, पर ये बाहर मच्छर-मख्खी के बीच ही रहते हैं और तला-गला, गंदा-बासी सब खाते हैं ना।’’
‘‘ अरे ब्बाप रे ! तब तो तगड़ा इन्फेकशन  होगा !! .... इलाज चल रहा है ?’’
‘‘ दिखवाया तो है, डाक्टर बोले अच्छा हुआ समय पर ले आए वरना केस बिगड़ कर ‘थर्ड स्टेज लीडरी’ का हो जाता।’’
‘‘ क्या होता है थर्ड स्टेज लीडरी में ?!’’
‘‘ चमड़ी मोटी हो जाती है, दिखाई-सुनाई कम पड़ता है, खून में ईमानदारी के प्लेटलेट्स बहुत कम हो जाते हैं, लाज-शरम खत्म हो जाती है, दिनरात खाने की सूझती है, पेट हमेशा  खाली महसूस होता है.....। 
‘‘ जांच करवाई ? कुछ निकला ?’’
‘‘ जांच हुई, पर अभी तक निकला कुछ नहीं। निकलेगा कहां से! अभी तक कोई मौका ही नहीं मिला है।’’ 
                   जनता को समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे हृदय-सम्राट इलाज हैं या बीमारी। अभी तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इलाज समझ कर जिनका हाथ थामा वे बीमारी निकले। एक जमाने में कहा जाता था कि घी-मख्खन खाओ, अब डाक्टर बोलते हैं कि ये बीमारी का घर हैं, इनसे बचो। मौसम ऐसा चल रहा है जिसमें हर पार्टी खुद को इलाज और दूसरी को असाध्य बीमारी बता रही है। यही वजह है कि खासी कूदफांद चल रही है। कुछ बीमारी से कूद कर इलाज में आ रहे हैं, कुछ इलाज से बीमारी में जा रहे हैं। 
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बुधवार, 25 जून 2014

सेकुलरों के पाप नहीं धो रही गंगा



              पता ये चला है कि बहुत समय से नेताओं को स्वर्ग में प्रवेश  नहीं मिल रहा है। ना जाने कौन से पाप हुए कि गंगा स्नान के बावजूद पवित्र नहीं हो पाए। नेता तो नेता, धोने-नहाने से रह जाए पर बयान से बाज ना आएं। मीडिया में बकबका दिये कि गंगा जो है सेकुलर पापियों के पाप नहीं धो रही हैं। जब देशभर के कामरेड तक छुपछुपा कर यानी गुपचुप तरीके से गंगा स्नान करके पवित्र हो रहे हैं तो सेकुलर पापियों के साथ ये भेदभाव क्यों ? राजनीति किसी भी जगह हो पर आस्था तो अपनी जगह है। कल को स्वर्ग कामरेड़ों से भर गया तो भगवान अकेले पड़ जाएंगे उसका जवाबदार कौन होगा ?! और अगर सांप्रदायिक ताकतों को ही मौका मिला तो उनका बहुमत नहीं हो जाएगा !? लोकतंत्र में हर पापी को गंगा स्नान का बराबर अवसर मिलना चाहिए, चाहे वो किसी भी पार्टी या विचारधारा का क्यों न हो।
                 अब ये तो होता है भइया, एक ने कही तो दूसरा चुप कैसे बैठेगा। एक तो गंगा मइया, पाप धो रही सबके, उपर से नेता लोग आरोप ठोंक रए दनादन। गंगामांई को भी कहना पड़ा कि जो लोग अपने को ‘दूध का धुला’ और पाक-साफ, पवित्र मानते ही हैं उनको गंगाजल की आस क्यों करना चाहिए ! पहले वे अपने को पक्केतौर पापी मानें, गंगा को हाइकमान से ऊंचा दर्जा दें, तब उनके पाप धोने पर विचार किया जा सकेगा। ये लोग आस्था की झूटी बात करते हैं। इनके राज में ड्रेनेज  की बड़ी बड़ी लाइनें छोड़ दीं गंगा में !! गंगा मुर्दों को ढ़ो सकती है लेकिन मल को ढ़ोना उसका काम नहीं है। जब तक गंगा साफ नहीं होती कोई नेता पवित्र नहीं माना जाएगा।
                 तुमसे ये बात छुपी तो है नहीं कि संसार मृत्युलोक है और यहां सब पापी रहते हैं। पर  डरने की कोई बात नहीं है क्योंकि देवभूमि में नियमानुसार गंगा स्नान कर लेने से पाप जो हैं एकदम से धुल जाते हैं। इसका मतलब ये हुआ कि जो नहा लिए वो पवित्र और जो आलसी नाहाने से रह वो समझो पापी ही रह गए। कहते हैं कि भारत अनंतकाल से एक नहाऊ देश  है। जिधर देखो उधर हर आदमी नहाने के लिए कमर ढ़ीली किए बैठा है। कहने सुनने में बुरा लगेगा पर सच ये है कि पूरे देश  से जितनी भी ट्रेनें  उत्तर प्रदेश  जाती हैं उनमें अधिकांश  पापी होते हैं और वे नहाने जाते हैं। खास तिथियों, त्योहारों और अवसरों पर लाखों पापी स्नान करके नया सा महसूस करते हैं, जैसे फेफड़े-किडनी बदला लिए हों। गंगा स्नान के बाद नहालू के मन और इरादों में नई धार लग जाती है। पाप-धुला आदमी नए उत्साह और नए संकल्पों के साथ अपने गांव या शहर में लौटता है और ‘नए कामों’ में लग पड़ता है। बात हमारी तुमारी नहीं लाखों लोगों के भरोसे और विश्वास  की है, नहीं करोगे तो तुम भी हुए पक्के पापी। वरना तो सब मानते हैं कि गंगा नहाया कर्मवीर इतना पवित्र हो जाता है कि स्वयं भगवान को उसके लिए स्वर्ग का दरवाजा खोलना पड़ता है। कुछ बात तो होती होगी ना, वरना भगवान को क्या पड़ी कि चल के खुद आएं और दरवाजा खोल के ‘वेलकम’ बोलें और यह भी कि ‘बड़ी देर कर दी आने में !’ जानते हो ना  कि बड़े से बंद दरवाजे के भीतर का हिस्सा स्वर्ग होता है। और यह भी कि नरक में उल्टे दरवाजे होते हैं, घुस कोई भी सकता है पर निकलने की बनती नहीं है। इधर स्वर्ग की बात अलग है, सुरक्षाकर्मी विमानतल पर ही आने वाले को नंगा करके अच्छी तरां से जांच करते हैं कि शरीर का कोई हिस्सा पाप-पगा तो नहीं रह गया, इसने ठीक तरां से गंगा स्नान किया या नहीं। पूरी और पक्की खातरी होने के बाद, मेडिकल चेकअप कराके और जरूरी टीके-वीके लगाके उसको अंदर ठेला जाता है। जो इलाहाबादी दामाद होते हैं उन्हें इस तरह की झंझटों से दो-चार होने की जरूरत नहीं होती है। यों समझ लो कि संगम का इस्पेसल परमिट होता है, सीधे आए और घुस गए। सुरक्षाकर्मी मात्र तोरण मारने की रस्म करके अंदर छोड़ आते हैं। खैर, हम-आप ठहरे आमजन, लाइन में लगने में कोई ऐतराज थोड़ी है।
 अब देखो क्या होता है आगे ! हम तो पिछले साल के नहाए बैठे हैं अभी नंबर नहीं लगा। डर यही लगा है कि नेताओं की भीड़ लग पड़ी तो भगवान दरवाजा खोलें कि नहीं खोलें।
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बुधवार, 11 जून 2014

अच्छे समय का रोड-शो

           
         सुबह सबेरे लोगों ने देखा कि दीवारों पर पोस्टर चिपके हैं और झुण्ड के झुण्ड लोग उन्हें पढ़ रहे हैं तो रनवीरसिंह भी उधर दौड़ चले। लिखा था कि नागरिक खुशियां मनाएं, नाचें गाएं, क्योंकि अच्छा समय आ गया है। बाजार को हमेशा  अच्छे समय की लगी पड़ी रहती है सो उससे कहा गया है कि वो चौपन इंच तक सीना तान ले और सेंसेक्स की तरह उछल उछल कर आसमान नापने की कोशिश करें। दफ्तरों में प्रतिदिन कुर्सी-नमस्कारासन होगा जो दिल्ली की ओर मुख कर किया जाएगा। प्रभातफेरियां अच्छे समय का बिगुल बजाती दिनभर निकलेंगी। शिवालों में बुरे दिनों की भस्म से विशेष  आरतियां होंगी। पंडित दूध से काया को धोएंगे, चोटी को गो-घृत से सींचेंगे और मंत्रोच्चार से अच्छे समय का अभिषेक करेंगे। मौलवी-मुल्ला जयपुरी मेंहदी से अपनी दाढ़ी को गहरा रंगेंगे ताकि मालूम हो कि इधर भी अच्छा समय आ गया है। ज्योतिषी-कथावाचक अपनी पुरानी पोथियों को नए लाल रेशमी वस्त्र में बंध कर तैयार रहें, अच्छा समय एकदम आ ही गया है। विध्नहर्ता, लंबोदर देव से प्रार्थना की गई है कि वे शीघ्रतिशीघ्र दुग्धपान के लिए उपलब्ध हों। गली-गली भजन कीर्तन और भोजन-भण्डारे होंगे इसके बाद भी कोई भूख से मरा तो जिम्मेदारी उसके भाग्य की होगी। हर आम और खास, अमीर और गरीब शादी-ब्याह पूरे घूमघाम से यानी शानोशौकत से करेगा ताकि हवाएं इन संदेशों  से भर उठें कि अच्छा समय आ गया है। इसके लिए बैंके भारी से भारी लोन देने के लिए दौड़ पड़ेंगी। जिनके पास पेट्रोल  के पैसे नहीं हैं उन्हें आॅडी कार के लिए लोन मिलेगा। मंगते-भिखारी भी पांच लाख तक की कार एक रुपए के डाउन पेमेंट पर खरीद सकेंगे। लोन न चुका पाने की स्थिति में मोक्ष और मुक्ति दोनों का लाभ लेने की स्वतंत्रता होगी। साधु महात्मा कुपित हो कर किसी भी पापी को श्राप दे सकेंगे और संस्कृति रक्षक उसे लागू करके उनके सम्मान की रक्षा करेंगे। अच्छा समय आ गया है इसलिए स्कूल कालेजों में छुट्टी रहेगी, विश्वविद्यालय बंद रहेंगे। प्रोफेसर लोग योग गुरुओं से अनुलोम-विलोम और बटर फ्लाय वगैरह सीखेंगे और आत्मशुद्धि करेंगे। डाक्टरों को मरीज के रक्त परीक्षण, मल-मूत्र परीक्षण के साथ जन्मकुण्डली परीक्षण भी कराना होगा। दवा की दुकानों में दवा के साथ गंडे-ताबीज, नगीने-अंगूठियां, तांबे-पीतल के तंत्र आदि भी जनता के कल्याण के लिए उपलब्ध रखें जाएंगे। कवियों, लेखकों, साहित्यकारों को कलम चलाने की मनाही होगी, हल चला कर वे उत्पादक  कार्य में संलग्न किए जाएंगे जो एक तरह का रचनात्मक कार्य ही है। केवल वे लेखक छुट्टे घूम सकेंगे जो अच्छे समय को बढ़ावा देंगे। इसी तरह कलाकारों को भी विकास कार्यों में लगाया जाएगा, वगैरह।
‘‘ क्या सचमुच अच्छा समय आ गया है !!’’ रनवीर सिंह ने पूछा।
‘‘ इसी बात का डर था कि कहीं इस बार अच्छा समय न आ जाए।’’ सुच्चादास ने मायूस सा जवाब दिया।
‘‘ जब भीड़ अच्छे समय के लिए आमादा हो तो हम आप दो-चार वोटों से रोक नहीं सकते हैं। ’’
‘‘ जब रोक नहीं सकते हैं तो समझदारी इसी में है कि अच्छे समय का स्वागत् हम भी कर दें। ’’
दोनों टहलते हुए दूर निकल आए। दिन चढ़ने लगा। वातावरण में एक तरह की हलचल थी। पूछा - ‘‘ क्या बात है भाई ! सारे लोग भाग क्यों रहे हैं ? ’’
‘‘ तुम्हें पता नहीं !! अच्छा समय आ गया है। ‘‘ 
लोग भागे चले जा रहे थे मानो अच्छा समय उन्हें दबोचने के लिए पीछे दौड़ा चला आ रहा है। दोनों को कुछ समझ में नहीं आया। करें क्या आखिर ! अगर भागना जरूरी है तो किधर भागें ! अच्छा समय तो सब तरफ आया होगा। 
चैराहे पर पुलिस वाले ने कुछ लोगों को रोक लिया। बताया कि वे लाल बत्ती में चैराहा क्रास किए हैं सो बाकायदा चालान बनेगा। उनमें से एक कुर्ता-पायजामा युक्त ब्रान्डेड नेता अपना पचास इंची सीना बजाते हुए आगे बढ़ा, - ‘‘ अबे हाट, .... बड़ा आया चालान बनाने वाला। हमें लाल बत्ती बताएगा ! अब अच्छा समय आ गया है। .... चल फर्शी-सलाम कर जल्दी से। ’’
सब एक साथ चिल्ला पड़े। पुलिस वाला अकेला पड़ कर घिर गया। लोगों ने देखा कि वह पुटपाथ की फर्शी  तक झुक कर सलाम कर रहा है। 
‘‘ अरे !! ये कैसा समय आ गया सुच्चा !!’’
‘‘ चुप ..... धीरे से निकल ले .... अच्छे समय का रोड-शो  चल रहा है।’’
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बकवास

               राजनीति में बकवास एक रचनात्मक कार्य है। यदि कोई बकवास करने में की कला में दक्ष हैं और सपने में अक्सर दिल्ली दिखाई देती है तो समझिये कि सत्तासुख उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा है। दिल्ली की हवा में सत्ता की ऊष्णता है, सो वहां बकवास की हाजत सबसे ज्यादा होती है। मोहल्ला स्तर का ‘हृदय-सम्राट’ एक बार दिल्ली का पानी पी आए तो उसकी कंठी फूट पड़ती है। दूसरे राज्यों में भी जब कोई बकासा होता है तो वह दिल्ली की ओर मुंह करके ही बोलता है। बड़े लोग सपना पाले होते हैं कि मौका मिल जाए तो एक बार लालकिले से बकवास कर लें। लेकिन मौका सबको नहीं मिलता है, जिनके पास है वही इसका लाभ उठाते हैं। सरकारी बकवास अक्सर अध्यादेश  की तरह होती है, और ज्यादातर मामलों में अंग्रेजी में की गई होती है। इसे फाड़ कर फेंकने में भूलसुधार कम, देश प्रेम का दावा अधिक होता है। सबसे बड़ी बात यह है कि बकवास करने का कोई समय नहीं होता है। राजनीति में हर समय बकवास का समय होता है। अपने यहां की जनता भी जोरदार है, उसे रोटी चाहे ना मिले, पर बकवास रोज होना। जब तक बकवास न हो उसका पेट नहीं भरता है। टीवी पर तीन सौ चैनल हैं और टीआरपी बकवास को मिलती है। खैर।
        चुनाव से पहले बकवास का खास मौसम शुरू हो जाता है। प्रदेश  के नए-पुराने मुखिया को बकवास करने का विशेष अधिकार प्राप्त होता है। खादीधारी दोपाया प्राणी जितनी बकवास करता है वो पार्टी में उतना सक्रिय माना जाता है। बिना किसी की सुने बकवासने वाले को पार्टियां प्रायः अपना प्रवक्ता नियुक्त कर देती हैं। अब उसकी बकवास कुछ हद तक पार्टी की बकवास मानी जाती है। बकवास अगर पकड़ी जाए तो प्रवक्ता कह सकता है कि मीडिया ने तोड़मरोड़ कर पेश  किया है। बकवास की विशेषता ये है कि उससे कभी भी मुकरा जा सकता है। या फिर खिसियानी हंसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि ‘यह तो मजाक था’। आदतन बकासुर बुलडोजर की तरह होता है और कहीं भी बकवास करने लगता है, जहां अपेक्षित नहीं हो, या जहां मना हो वहां भी। जैसे किसी के अंतिम संस्कार में पाए गए हैं तो आप देखेंगे कि वहां भी उनके मुंह की जिप खुली है और किए जा रहे हैं। दो मिनिट के मौन की आवाज आती है तो वे ‘नानसेंस’ कहते हुए बड़ी मुश्किल  से आधा मिनिट विश्राम करते हैं और ‘ओमशांति ’ के पहले ही पुनः करने लगते हैं। 
            टीवी मीडिया बकवास को ‘ब्रेकिंग-न्यूज’ बनाने का उद्योग करता है। उस पर दिनभर की बकवास को शाम तक महाबकवास सिद्ध करने की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होती है। बड़े बकवासियों के आसपास चमचे होते हैं, वे उन्हें बताते हैं कि उनकी बकवास ने ‘हिला-के रख दिया’ है। सुनते ही चौड़े हो गए ‘युवा बकवास सम्राट’ को लगता है कि उसकी बकवास बम है, और ‘हिला-के रख देना’ बड़ी उपलब्धि। ऐसे में वह क श्मीर  समस्या पर बकवास करते हुए चीन की आधी जमीन पर भी कब्जा कर लेता है। ताली मारते चमचे मान जाते हैं कि लोकल लेबल पर अंतराष्ट्रीय  बकवास कोई छोटी सफलता नहीं है। बकासुर इससे बहुत उत्साहित हो जाता है जिसका असर उसकी अगली बकवास में साफ झलकता है और बहुत जल्दी अमेरिका पर उसकी बकवास के बादल छा जाते हैं। ऐसे में उसका हाथ अपने आप मूंछों पर चला जाता है, जिनके नहीं होती वे साफ मैदान पर हाथ मार कर जश्न  मना लेते हैं। कुछ लोग सेल्फमेड श्रेणी के होते हैं, वे एक आदमी को पकड़ कर भी बकवास कर लेते हैं। पीड़ित लोग ऐसे गुणीजनों को देखते ही हेलमेट की ओट हो जाते हैं, वे जानते हैं कि उनकी नजर पड़ी और दुर्घटना घटी। हालाॅकि सब इतना नहीं डरते हैं, कुछ लोगों की रोजी होती है बकवास बटोरना, जैसे हमारी अम्माएं कभी गोबर बटोर कर उससे चूल्हा जलाती थीं। पापी पेट न हो तो वे भी बकवास से खबरें नहीं बनाएं। 
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मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

ठेंक्यू सर !!

             
         असुरद्वीप के राजा दरबार लगाए, अपने सहयोगियों और कार्यकर्ताओं से समस्याओं की जानकारी लेने में व्यस्त थे।
कानिया पेलवान, जिन्हें कई द्वीपों की पुलिस ढूंढ़ रही है, बोले- ‘‘राजन, द्वीप में लड़कियों की भारी कमी हे। अगर ये-ई हाल रिया तो आने वाले टेम-में ‘हमारे लोग’ मूं-काला कन्ने को तरस जाएंगे।  हमारा द्वीप पिछड़े राज के नाम से बदनाम हे इसलिए दूसरे द्वीप वाले हमारे लोगों को घुसने-नी देते हें। घुस-बी जाएं तो पीट-पीट-के भगा देते हें। इसलिए भोत जरूरी हे कि द्वीप को मूं-काला कन्ने के उद्योग में आत्मनिरभर बनाया जाए।’’
              राजा तुरंत निर्णय लेने के लिए ख्यात हैं, बोले- ‘‘ठीक है हम जनता में एक अभियान चलवा देते हैं- ‘लड़कियां उपलब्ध कराओ आंदोलन’। ठीक है ? ... आदेश  होगा कि दंपत्ती ज्यादा से ज्यादा लड़कियां पैदा करें और ईनाम पाएं।’’
राजा के सेक्रेटरी ने हस्तक्षेप किया- ‘‘नाम बदल दें हुजूर, जनता गलत अर्थ जल्दी समझ जाती है आजकल।’’
कानिया पेलवान उखड़ गए- ‘‘इस्में कोन-सा गलत अर्थ निकल-रा हे !? ... हद्द कर-रे हो आप्तो ! सरकार जब्बी कोई सई काम करती हे ये पेले फच्चर मारते हें .... ’’
‘‘कानियाजी, कानियाजी ...., आप नाराज ना हों। आप हमारे पुराने कार्यकर्ता हैं, सरकार आपकी ही है। हां भई सेक्रेटरी , ..... क्या दिक्कत है ... समझाओ इनको। ’’ राजा ने बीचबचाव किया।
‘‘मेरा सोचना है कि यदि नाम हो कि ‘लड़कियों की रक्षा करो’ तो जनता में सही संदेश  जाता।’’
‘‘मेरा ख्याल है कि बात ठीक है। क्या कहते हो कानियाजी ? ’’ राजा ने पूछा।
‘‘ये तो मर्वा देंगे ‘हमारे लोगों’ को। राजन अगर आप्की तरफ से नारा जाएगा कि ‘लड़कियों की रक्सा करो’ तो पुलिस कन्फ्यूज हो जाएगी। न खुद कुछ करेगी न हमारे लोगों को कन्ने देगी। जनता अलग आप्की जान खाएगी कि बलात्कारियों को फांसी दो। येसा हुआ तो फिर फायदा क्या हे ‘हमारे लोगों’ को ? सोच लो जनता की दाढ में एक बार रक्सा का खून लगा तो रुकेगी क्या ? मूं फाडे़गी कि चोरों से रक्सा करो, चेन खींचने वालों से रक्सा करो, हत्यारों से रक्सा करो, जुआघरों से रक्सा करो, दारू की दुकानों से रक्सा करो, सबसे रक्सा करो। अगर ‘हमारे लोगों’ की रक्सा नईं हुई तो आप्की रक्सा कोन करेगा? लड़ लेना चुनाव ‘हमारे लोगों’ के बिना, पतई पड़ जाएगा।’’ कानिया पेलवान पिन्ना गए।
‘‘अरे भई कानियाजी, नाराज मत हों। सेके्रेटरी महोदय ने अपनी बात रखी है। बात रखने की नौकरी है इनकी और मानना नहीं मानना सरकार का काम है। असुरद्वीप का लोकतंत्र साफ है- बाई द असुर, ऑफ  द असुर, फॉर  द असुर।’’ राजा मुस्कराए।
‘‘इंगलिस मत झाड़ो राजन, फायनल बताओ क्या नाम होएगा -लड़कियों की रक्सा करो या लड़कियां उपलब्ध करो ? ’’
‘‘नाम में कुछ नहीं रखा है कानियाजी, आप जानते हैं कि बेटियों की रक्षा करो कह कर भी हम कौन सी रक्षा कर पाते हैं। आप लोग कर्मठ हैं, अनुभवी हैं, सरकार के हाथ मजबूत करते रहे हैं तो असुरद्वीप की सरकार का भी कर्तव्य है कि आपके हाथ भी मजबूत करे।’’
सुन कर कानिया खुश  हुआ और मुस्काते हुए बोला- ‘‘ठेंक्यू सर’’।
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लाल आँखों वाला कुत्ता

     
 बूथ से बाहर निकलने के तत्काल बाद देवीशरण को लगा कि वे जिसे वोट दे आए हैं उसे नहीं देना चाहिए था। हर बार जब भी वे वोट दे कर निकलते हैं उन्हें लगता है कि गलत आदमी को चुन आए हैं। साठ साल में कई चुनाव उन्होंने देखे हैं लेकिन आज तक एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि वोट देने के तुरंत बाद वे पछताए ना हों। उन्हें लगता है कि वे पछताने के लिए ही मतदान करते हैं। इस बार बहुत सोच कर उन्होंने मन बनाया था, लेकिन अपने पर खीझते हुए बाहर आए हैं। ऐसा नहीं है कि वे हमेशा  ही ईमानदार आदमी को चुनना चाहते हैं। जानते हैं कि ईमानदार आदमी अब पैदा होना बंद हो गए हैं। यहां वहां कहीं दो चार सेंपल के हुए भी तो ऐसे बिदकते हैं मानो राजनीति नहीं सिर पर मैला उठाने की प्रथा हो! देवीशरण मानते हैं कि वे खुद भी ईमानदार नहीं हैं। मौका मिलने पर अनेक बार उन्होंने दो-चार दिनों के लिए ईमानदारी-नैतिकता जैसी चीजों को लाल कपड़े में बांध कर टांड पर सरका दिया है। मौके और मजबूरियां किसके जीवन में नहीं आते। समझदार आदमी वही है जो सावधानी से इन्हें बरत ले। राजनीति में ईमानदार आदमी ढूंढ़ना खुद अपनी जगहंसाई करवाना है। फिर किसी और की ईमानदारी से हमे क्या, होगा तो अपने घर का। काम करने वाला हो तो बेईमान भी चलेगा। ठेकेदार से कमीशन खा ले पर सड़क बनवा दे, चंदा वसूलता हो तो वसूले पर भोजन-भंडारे बराबर करवाता रहे, अतिक्रमण तोड़ने वाले आएं तो प्रशासन से लड़ ले, शादी-ब्याह, मरे-जिये में आ-के खड़ा हो जाए, ओर क्या चिये आमआदमी को!! इतना काफी है।
गरीब आमआदमी वैसे भी किस्मत का मारा होता है। कभी भूल से थाली में काने बैंगन की सब्जी दिख गई तो दिल्ली से आवाजें आने लगती हैं कि गरीब ने सब्जी खाई इसलिए मंहगाई बढ़ गई। गरीब यूपी-एमपी से पहुँच  जाए तो राजधानी में गंदगी पैदा हो जाती है। कहते हैं कामवाम कुछ करते नहीं बस सड़क किनारे बैठे स्कोडा और ऑडी  कारों को अश्लील  आंखों से घूरते रहते हैं। अगर गरीब दो सब्जी खाएंगे तो स्टेटस मेंटेन करने के लिए अमीर को कम से कम बारह सब्जी खाना पड़ेगी। और इन-टो-टो मंहगाई बढ़ जाएगी गरीबों के कारण!! देवीशरण ने जब सुना फौरन पोस्ट कार्ड लिख दिया दिल्ली, और अपना विरोध दर्ज करा दिया। जब जब गबन घोटाले हुए, गलत निर्णय हुए देवीशरण ने कार्ड लिखा। लेकिन गांधीजी होते तो पढ़ते, उन्हें हिन्दी आती थी। इधर दिक्कत ये है कि जो खलिस रिआया है वो हिन्दी वाली है और हुजूर-सरकार अंग्रेजी के अलावा कुछ समझती नहीं है। देवीशरण का विरोध, कार्ड के जरिए चवन्नी होता रहा।
खैर, बात इस चुनाव की थी। चुनाव के दो दिन पहले गली के अंधेरे में हजूर से सामना हो गया। उन्होंने इतने प्यार से देवीशरण को बांहों में भरा कि घर आ कर सबसे पहले अम्मा से पता किया कि उनका कोई भाई कुम्भ के मेले में गुम तो नहीं हुआ था!
हुजूर ने कहा कि भाई ध्यान रखना, इस बार आपके वोट से ही सरकार बनेगी। देवीशरण लावे की तरह फूटते इससे पहले हुजूर ने उनके कंधे पर हाथ रख दिया और उनका ज्वालामुखी आटोमेटिक शांत हो गया। हौले से उनके हाथ में पांच सौ का एक कड़क नोट पकड़ा कर हुजूर बोले ‘बच्चों के लिए ..... मिठाई ले लेना और कहना काका ने प्यार दिया है’। वो कुछ सोच पाते इसके पहले पता नहीं चला कब नोट उनके जेब में सरक गया। अब क्या हो सकता था !, सरक गया तो सरक गया, पांच सौ का था। शिष्टाचारवश  ‘आटोमेटिक’ वे मुस्करा भी दिए, अंदर एक हाजत सी महसूस हुई और रोकते रोकते मुंह से ‘थैंक्यू’ भी निकल गया। जो घटित हो रहा था उस पर वे यकीन करने के लिए संघर्षरत थे कि हुजूर ने एक अंगूठा उंचा करके पूछा ‘चलती है क्या?’। देवीशरण कुछ समझे, माना करने या स्वीकारने के लिए तैयार हो रहे थे इससे पहले हुजूर ने चश्मे में से किसी को आँख  मार दी। वह आदमी आगे बढ़ा और एक बोतल, जिसमें शहद के रंग जैसा कुछ था, पकड़ा गया। घर में पांच वोट हैं यह जान कर एक कंबल उनके हाथ में प्रकट हुआ, बोले - ‘अम्माजी के लिए, ठंड में काम आएगा’। इसके बाद अपने हुजूम के साथ हुजूर अगले अंधेरे में गायब हो गए।
                        अम्मा ने कंबल देखा तो चहक उठीं, बोली ‘फ्री’ में तो बहुत अच्छा है। पांच सौ का नोट घर की थानेदार ने जब्त कर लिया। देवीशरण के हाथ में बोतल अकेली रह गई। देखा, उस पर लिखा था ‘रेड डाग’, और एक कुत्ता मुंह फाड़े बना हुआ था जिसकी आंखें लाल थीं। देवीशरण बारबार उसे देखते रहे, जबतक खुद उनकी आंखें लाल नहीं हो गई।
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लोकतंत्र का रॉ-मटेरियल

               
लोकतंत्र भगवान की देन है, भगवान के भरोसे है और भगवान के लिए है। दूसरे लोग जब दुनिया की लंबी सड़कें नाप रहे थे, मौके को भांप कर पार्टी ने लपक-के भगवान को प्राथमिक सदस्यता प्रदान कर दी। मजबूरन भगवान पार्टी के हो गए। हालाँकि  लाल झंड़ा भगवान के पास पहले से ही था, लेकिन बस झंड़ा ही था। जिधर की हवा चली, उधर के हो गए। भगवान का उससे कुछ हुआ नहीं। पीपल के पेड़ के नीचे खुले आसमान में सदियों से पड़े थे, पड़े रहे। जमाना बदलता रहा लेकिन उनके हालात नहीं बदले। भक्तों के ठाटबाट देख कर आखिर भगवान की कामनाएं भी जागीं, बोले हक बनता है हमारा ।
हुजूर ने लोहा गरम देख अपने भाषणों में साफ कर दिया कि गरीब हमारी पार्टी का भगवान है। अब पार्टी के सारे लोग गरीब को भगवान मान कर उसकी सेवा करेंगे। गरीब की जरूरतें बहुत ज्यादा नहीं होती हैं। जिस तरह वो उपर वाला यानी जगदीश्वर फूल नहीं फूल की पंखुरी से संतुष्ट हो जाता है, उसी तरह ये भगवान भी एक बत्ती कनेक्षन से खुश  हो जाएंगे। जगदीश्वर  की महिमा अपरंपार होती है, गेंदे के फूल को भिगो कर छींट दो उसका स्नान हो जाता है, पंचरंगी नाड़े का बिलास भर टुकड़ा गले में डाल दो तो वस्त्रंसमर्पयामी हो गया। तुलसी के पत्ते पर जरा से मीठे में भोग संपन्न, छः बाय नौ इंच के पटिये को मंदिर कह कर दीवार पर लटका दो तो घर हो गया उनका। इतनी मंहगाई में जगदीश्वर  की भक्ति से सस्ता कुछ नहीं है, यही सब दूसरे भगवान यानी गरीब के साथ भी करना है। गेंहू, चावल, दाल के लिए रुपए किलो का भाव कानों को अच्छा लगता है। गरीब को रोज इस ‘भाव’ की आरती सुना दो और निश्चिन्त  हो जाओ। इस समय गरीब प्रसन्न हैं, उन्होंने आभारी हो कर जगदीश्वर  के आगे सीस नमाये तो उन्होंने आगाह किया कि अभी तक मेरा ‘घर’ बना नहीं है, जबकि मैंने उन्हें कई चुनाव जितवा दिए हैं। लेकिन गरीब के कानों में ‘भाव’ की घंटियां बज रहीं थीं, उन्हें कुछ सुनाई नहीं दिया।
            अचानक हुजूर एक गरीब के घर पहुंच गए। बोले- आप मेरे भगवान हो, आपकी सेवा करना सरकार का पहला फर्ज है। राशन के भाव सुने होंगे ? मजा आया ?
गरीब झूठ कैसे बोलता, कहा ‘‘मजा तो आया ... पर राशन भी मिलने लगता तो सही में मजा आ जाता ’’।
‘‘ राशन भी मिलेगा, झोपड़ी का पट्टा भी मिलेगा, बिजली भी मिलेगी, कभी कभी बीमार भी हुआ करो, मुफ्त इलाज होगा, जल्दी से बूढे़ हो जाओ, पेंशन देंगे, तीर्थ यात्रा करवा देंगे, लड़कियों की पढ़ाई मुफ्त, शादी भी करवाएगी सरकार। बताओ और क्या चाहिए ? ’’
‘‘  रुपए लीटर दूध  और एक रुपया मीटर कपड़ा दिलवा देते, सिलाई-विलाई का भी कुछ ..... ’’
‘‘ हो जाएगा .... ये भी हो जाएगा। अधिकारियों को बोल देते हैं अभी। ... बस ना ? और कोई तकलीफ तो नहीं है ना ?’’
‘‘ रात को पैर बहुत दुखते हैं, काम करने की आदत थी अब छूट गई, सड़पन होती है।’’
‘‘ तो काम किया करो ना कुछ !’’
‘‘ काम !! काहे के लिए हजूर !? ..... आप सलामत रहें बस। सौ साल राज करें, हजार साल तक नाम रहे आपका। ’’
‘‘ ऐसा !’’ हजूर की सेवा भावना पर अचानक ब्रेक लगा। वे अपसेट होना शुरू हुए ही थे कि सौ साल और हजार साल की मंगलध्वनि की गूंज से रुक गए, बोले - ‘‘आयुर्वेदिक तेल पहुंचा  देंगे, ठीक हो जाएगा दो चार दिन में। नौकरी का इंतजाम कर देते हैं ......’’
‘‘ अब रहने दीजिए हजूर, कितना करेंगे ! जो कर दिया है उसी को लागू करवा दें, बस। और ज्यादा लग रहा हो तो बेराजगारी भत्ता दे दें।’’
‘‘ देखिए, आपकी भी कुछ जिम्मेदारी है ..... ’’
‘‘ हम पूरी करेंगे, आप बेफिकिर रहिए वोट आपको ही मिलेगा, आसिरवाद है हमारा। हजूर कुर्सी पर आराम करें, हम घर में करेंगे।’’
                  पता लगा तो तमाम दूसरे दलों ने आपत्ती की कि आप कोई एक भगवान लो, ‘वो’वाले  भगवान पहले ही हथियाए बैठे हो और अब गरीब को भी भगवान बता कर दबा लिया!! ये नहीं चलेगा, भगवान और गरीब देश  की कॉमन  प्रापर्टी हैं, लोकतंत्र का रॉ -मटेरियल। इसका अवैध खनन और कब्जा नहीं होने दिया जाएगा। जनता को मूर्ख बनाने का अधिकार सबको बराबर है, चुनाव सबको लड़ना है। किसी को दो तिहाई बहुमत मिल जाए तो इसका मतलब ये नहीं हुआ कि दूसरी पार्टियां कब्र में चली गईं। अनुभवी पार्टी के लोग चार चुनाव हारने से पहले हिम्मत नहीं हारते हैं। चुनाव आयोग से मांग की गई है कि अगले चुनाव से पहले देश  के गरीब देश  के पास वापस जमा करवाए जाने चाहिए। फसल तैयार करने वाले बैठे रह गए, काट ले गए चोर  !! चुनाव आयोग को आदेश  निकालना चाहिए कि कोई पार्टी गरीबों को भगवान नहीं बनाएगी। ना कोई उन्हें भाई-बहन बनाएगा, ना दादा-दादी और ना ही भंजा-भांजी।
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बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

इकलौते चिराग से दिवाली

                       
अपने बच्चाबाबू जो हैं पालटिकल इलाके के खानदानी चिराग हैं। खानदानी चिराग तो और भी बहुत सारे हैं, समझिये कि जितने खानदान उससे कुछ ज्यादा चिराग, पर रौशन अकेले बच्चाबाबू ही हैं। पार्टी ने इरादा किया है कि वह अपने इकलौते चिराग से दिवाली मना लेगी। उंधते अलसाए लोग, जिन्हें सामान्यतः कार्यकर्ता और उनमें जोश  भरने के लिए अक्सर वफादार सिपाही कहने का चलन है, बच्चाबाबू को अलादीन वाला चिराग मानने लगे हैं। अब जगह जगह जलसे हो रहे हैं और उन्हें तबीयत से रगड़ा जा रहा है। लेकिन अजब यह है कि चिराग से सादे जिन्न के बदले कहानियां के जिन्न निकल रहे हैं, वो भी कहीं के कहीं बेलगाम दौड़े चले जाते हैं। दादी की कहानीं से इमोशन निकालने की कोशिश  में अमृतसर और ब्लूस्टार निकल आता है तो पापा की कहानी में से लिट्टे के झटके। सांप्रदायिकता की ठंडी आग में जान डालने के चक्कर में खुद अपना हाथ जल जाता है और मम्मी याद आने लगती है। लेकिन बच्चाबाबू खुश  हैं, चाटुकार और चमचे उन्हें हवा में उड़ाते रहते हैं, जमीन पर पैर ही रखने नहीं देते, कहते हैं ‘हसीन हैं, मैले हो जाएंगे’। एक चमचे ने धीरे से कहा कि बच्चाबाबू आपके कुंवारे युवा चेहरे ने हसीनों का वोट-बैंक बना दिया है। भाषण-वाषण से कुछ नहीं होता, आदमी का चेहरा सुन्दर होना चाहिए। अब पार्टी के पास दो दो वोट-बैंक हैं, कुर्सी आपकी पक्की है।
बच्चाबाबू को सपनों और शंकाओं के कारण नींद नहीं आ रही है। अगला भाषण इतना तेज देता है कि लगता है ललकार रहा है। मन होता है कि ‘छोटा भीम’ बन कर सबको ठीक कर दें लेकिन बस नहीं चल रहा है। खुद अपनी पार्टी में धड़ों के अंदर दस धड़े हैं। गुप्तचरों ने सूचना दी है कि विरोध पार्टी में अंदर से है, असंतुष्ट पीछली पंक्ति में मुंह फुलाए बैठे होते हैं। बार बार बोल रहे हैं कि पिछली पंक्ति से सांसद और विधायक निकालेंगे, तो अगली पंक्ति वाले घूरने लगते हैं। पिछली पंक्ति वालों को भरोसा होता नहीं है और अगली पंक्ति वालों का विश्वास  कम होने लगता है। बीच वाले सोचते ही रह जाते हैं कि इधर जाएं या उधर जाएं, बड़ी मुश्किल  है अब किधर जाएं। लौटते हुए ज्यादातर बोलते हैं कि बच्चाबाबू अभी सीख रहे हैं।
बात यहीं खत्म हो जाती, लेकिन शाम को एक ‘चाणक्य’ टीवी पर समझा रहे होते हैं कि राजनीति अगर महापद की हो तो उसे सीखा नहीं जाता, यह शुद्ध खनदानी गुण होता है। समझ लीजिए कि युवराज कुर्सी के साथ ही जन्म लेते हैं । ऐसे में महापद उन्हें कैसे मिल सकता है जो मात्र एक नश्वर  देह लेकर पैदा हो जाते हैं। और फिर सारे लोग अगर राजा होंगे तो प्रजा कौन होगा! लोकतंत्र होने के बावजूद प्रजा का ऐतिहासिक महत्व कम नहीं हुआ है। यह वही प्रजा है जो अनेक बालक राजाओं के लिए भी जयजयकार करती रही है। यह भी देखने वाली बात है कि जब बच्चाबाबू गद्दी पर बैठेंगे तो उनको सलाह देने के लिए नौ-रतन भी साथ होंगे। और अगला कभी गद्दी ले गया तो हाथ-पैर फैला कर अकेला ही हुकूमत करेगा।
टीवी एंकर ने पूछा - चाणक्यजी आप ही क्यों नहीं दावेदारी करते ? इतना समझते हैं तो आप ही शासन कीजिए।
चाणक्य बोले ‘‘शासन तो हमीं करते हैं, महा-पद तो शोभा का आसन है, कोई बूढ़ाबाबू बैठे या फिर बच्चाबाबू । कोई फर्क पड़ा है ना पड़ेगा।
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बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

शौचालय का सपना


               लम्बी प्रतीक्षा के बाद आखिर मेरा नंबर आया, उत्साह से मैंने बताया कि ‘‘सर मैंने एक सपना देखा है ......’’
             ‘‘ तुम बाबा हो !?! ’’ उन्होंने तुरंत ब्रेक लगाते हुए पूछा।
             ‘‘ नहीं, मैं बाबा नहीं ..... आम आदमी हूं । ’’
             ‘‘ तो फिर तुमने सपना कैसे देखा !?! ... सपना देखने के लिए बाकायदा नींद की जरूरत पड़ती है । आम आदमी सोता है क्या ? उसके नसीब में है ऐसी नींद जिसमें सपना भी हो ? झूठ बोलते हो। ..... कितने साल हो गए लोकतंत्र में रहते ?’’ वे गरम हुए ।
            ‘‘ सीनियर सिटिजन हूं ।’’
            ‘‘ और क्या चाहिए तुमको !? .... भजन करने की उम्र में सपने देखते हो ! बच्चे सुनेंगे तो क्या सोचेंगे ! लोकलाज का भी ध्यान नहीं है ! ’’
            ‘‘ सॉरी सर  ..... पर क्या करता .... चुनाव का समय चल रहा है और सभी पार्टियां सपना दिखा रही हैं इसलिए जरा सा देख लिया ...... गुस्ताखी हो गई। ’’
           ‘‘ देखो, सोना समृद्धि की निशानी है, चाहे वो कोई सा भी सोना हो। तुम लोगों को सोने की नहीं जागने की जरूरत है। आम आदमी की तरफ से सपने सरकार देखती है। यह सरकार का काम है कि गरीब आदमी, यानी आम आदमी के लिए वह खुद सपने देखे। इसी नैतिक उत्तरदायित्व के चलते सरकार को पांच साल रात-दिन सोते रहना पड़ता है । यह कोई मामूली काम नहीं है ! वो भी तब जब विरोधी लगातार छाती कूट रहे हों । इसके लिए एक किस्म का खानदानी दीर्ध-अनुभव चाहिए, जो सिर्फ हमारी पार्टी में है। यह नहीं कि चीखते-चिल्लाते खड़े हो गए कि सरकार हम बनाएंगे। ..... कितनी बार सपने देखते हो तुम ?’’ हुजूर लगभग फटकारते हुए बोले ।
           ‘‘ महीने में यही कोई चार-पांच बार।’’
           ‘‘ सारे लोग इतना देख लेते हैं क्या ? ’’
           ‘‘ जी, इतना तो देखते ही हैं।’’
           ‘‘ खजाना देखते होंगे तो ड्रीम -टेक्स लग जाएगा ।’’
           ‘‘ खजाना कहाँ  हजूर, .... ज्यादातर तो रोटी देखते हैं। ’’
           ‘‘ यही फर्क है आमआदमी और परमपूज्य बाबाजियों में। तुम लोग सपना भी देखते हो तो रोटी का !! और जताने चले आते हो ! तुम्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि किलों की खुदाई से रोटी नहीं निकला करती है। मीडिया भी खजाने के सपने को कवर करती है रोटी के सपने को नहीं। फिर क्यों देखते हैं लोग रोटी का इतना सपना ?!’’ हुजूर तनिक और गरमाए।
           ‘‘ आदत पड़ गई सर, आमआदमी पेट से सपने देखता है आंख से नहीं। ’’
           ‘‘ अरे ! फिर कन्फ्यूज कर रहे हो ! कल कहोगे टांग से सपना देखते हैं ! .... चलिए चलिए, आप फटाफट अपनी बात कहिए, सरकार के पास इतना टाइम नहीं है, .... खुदाई चल रही है । ’’ उन्होंने कुछ चिढ़ते और घड़ी देखते हुए कहा।
           ‘‘ सर मैंने सपना देखा कि हर घर के पास एक शौचालय है और ..... ’’
           ‘‘ शौचालय !! ... सिक्यूरिटी .... निकालो इसे बाहर ..... बेहूदे बदतमीज कहीं के, .... रोटी का सपना देखेंगे या फिर सीधे शौचालय का !! साठ साल में कोई तरक्की नहीं की इन लोगों ने ! अंग्रेज जहां छोड़ गए थे आज भी वहीं पड़े हैं। ’’
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गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

मुंह देश में, पेट विदेश में


                    उसके बीस सिर साफ दिख रहे थे, मालूम हुआ कि वह पब्लिक सेक्टर का रावण है। बनाने वाले ने पेट और कमर इतने छोटे बनाए थे कि अच्छा भला आदमी शायरी के रोग से पीड़ित होने लगे- ‘पतली कमर है, तिरछी नजर है’। इधर कहने वाले चूक नहीं रहे थे- ‘‘ये क्या बात हुई भाई ! संस्कृति से खिलवाड़ करते हो ! सदियों से रावण के दस सिर बनते आ रहे हैं और तुम हो कि बीस सिर वाला खड़ा किए हो ! क्या मजाक है ये ! ’’। आयोजक बोला - ‘‘ चुनाव का मौसम आने वाला है, जनभावना का ध्यान रखना पड़ता है, सरकारी रावण हो और उसके बीस सिर न हों तो ठीक से प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है। प्रायवेट सेक्टर वालों ने कटौती शुरू कर दी है, वे अब एक सिर वाले रावण ही बना रहे हैं। आखिर जनता बेचारी जाए तो कहां जाए!’’
                       ‘‘चलिए माना, लेकिन बीस मुंह के हिसाब से पेट-कमर का अनुपात तो होना चाहिए ना ? बीस मुंह खाएंगे तो जाएगा कहाँ  !’’
                   ‘‘पब्लिक सेक्टर का पेट अटैच्ड नहीं होता है श्रीमान। मुंह देश  में और पेट विदेश  में होता है। कानून के हाथ लंबे होते हैं लेकिन राजनीति की आंत उससे भी ज्यादा लंबी होती है। आप नहीं समझेंगे, आप तो पुतले के दहन का मजा लीजिए और लड्डू खा कर सो जाइए।’’
                    मंहगाई इतनी बढ़ रही है कि जिम्मेदार लोग मुंह छुपाते फिर रहै हैं। सोचा था कि इस बार रावण भी अपने दो-चार मुंह  छुपाएगा, लेकिन इधर तो बेशरमी की हद हो रही है। बीस सिर !!
                    आयोजक पक्का था, बोला - नाराज मत हो श्रीमान, हम आपकी पीड़ा समझते हैं। दरअसल हमने मंहगाई का असली कारण बताने के लिए ही बीस सिर बनाए हैं। आप यहां से चुपचाप संदेश  ले कर जाइए, कुछ समझिये और कुछ समझाइये।
                    अचानक आगंतुक का ध्यान सिर से हट कर नीचे गया। वह चैंका- रावण के हाथ में तो ढ़ाल-तलवार होती है ! ये क्या है !?
                 ‘‘ एक हाथ में स्मार्ट फोन और दूसरे हाथ में ... सीडीआई है। ’’
                 ‘‘ स्मार्ट फोन का क्या करता है रावण !?’’
                 ‘‘ संसद में बैठे बैठे ..... आपको पता तो होगा ही ? ’’
                 ‘‘ तो भइया, एक बात और बता दो ..... इसका दहन कौन करेगा ? ’’
                 ‘‘ हमेशा  की तरह रामजी ही करेंगे शायद, अगर समय पर आ गए तो। ’’
                 ‘‘ राम जी कहीं व्यस्त हैं क्या ?’’
                 ‘‘ छापे पड़ रहे हैं उनके यहां सीडीआई के। ..... देखिए क्या होता है।’’
                 ‘‘ क्या हो सकता है !? ’’
                 ‘‘ क्या पता ..... बाहर से समर्थन ही देना पड़ जाए । ’’
                 ‘‘ ऐसे कैसे दे सकते हैं ! आखिर विधि का विधान भी कोई चीज है या नहीं !!’’
                 ‘‘ सरकारें न विधि से चलती है न विधान से। सरकार चलती है हाईकमान के फरमान से। सुना होगा, रावण को बचाने के लिए अध्यादेश  लाया जा रहा था ?’’
                 ‘‘ लेकिन वो तो बकवास था, नानसेंस, .... फाड़ कर फेंक देने लायक। ’’
                 ‘‘ आपने ठीक समझा श्रीमान, रावण के पेट में अमृत कहां है यह किसीको पता नहीं है। विभीषण की पहल के बिना कोई राम रावण को नहीं मार सकता है। लेकिन लोग विभीषण को आदर का स्थान दें तब तो । ’’
                                                                      ----

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

ज्यादा खाती है सरकारी भैंस !

                     सरकारी भैंस ने इस पंचवर्षीय योजना में भी पाड़ा ही दिया। चलो पाड़ा दिया तो दिया पर दूध तो देवे !! पर जब देखो बाल्टी खाली की खाली। दूध होता तो है पर देती नहीं है, चुपके से पाड़े को पिला देती है। यों देखा जाए तो पाड़ा अभी सीधा है, अपने बाड़े ही कुदकड़ी लगाता रहता है। उसकी कोई गलती नहीं है, वो तो अभी खाना सीख ही रहा है। लेकिन भैंस खानदानी है, खाने का मौका मिल जाए तो चारा-चंदी ऐसा साफ करे कि पूछो मत। भूखे विरोधी जब इसे रात-दिन पगुराते देखते हैं तो मारे गुस्से के उनके खाली मुंह से भी झाग निकलने लगता है। पास पडौस के सब बोलने लगे हैं कि चौधरीजी, निकाल बाहर करो इस भैंस को, क्या काम की ससुरी, खाती बहोत है, देती कुछ नहीं है। सिरफ गोबर-गैस के भरोसे खूंटे से बांधे रखना कोई समझदारी तो है ना!
                        चौधरी ठहरे धनी-मानी, खयाल कहीं न कहीं मूंछों का भी है। कहते साठ साल से ज्यादा समय हुआ जब हमारे दादा, बड़े चौधरी मेले से मुर्रा-नस्ल देख समझ कर लाए थे। तभी से पीढ़ी दर पीढ़ी खूंटे पर बंधी खा रही है। पहले वालियों ने तो अपने समय पर दूध भी दिया, कभी कम कभी ज्यादा, पर बाद में नस्ल बिगड़ती गई। इधर मंहगाई के साथ साथ इसकी खुराक भी बढ़ती जा रही है और दूध सूखता जा रहा है। भैंस का पेट भरने में पुश्तैनी  जमीन बिकती जा रही है परंतु दादा की निशानी है सो घर में जजमान समझ कर बांध रखा है।
                   लोगों के कहने सुनने से कई दफा मन हुआ कि हाट बता ही दें। पर भैंस सरकारी है, बड़ी चतुर चालाक, दो पीढ़ी पहले वाली ने मौका मिला तो संविधान चबा कर महीनों जुगाली की थी, उसका असर अभी भी बना चला आ रहा है। उसकी कामकाज की भाषा अंग्रेजी जैसी कुछ भी हो पर लगता है कि वो हिन्दी भी समझती है। हाट के दो दिन पहले से वह गाढ़ा दूध देने लगती है और बात को सफलता पूर्वक टलवा देती है।
                        घर वाले अंदर ही अंदर चिंतित हैं, माना कि ईंधन की बड़ी समस्या है पर कंडे-उपले से भैंस का खर्चा नहीं निकल सकता है। मुंह आगे कोई बोलता नहीं है परंतु सच बात ये है कि भैंस को पोसने में  खुद चौधरी दुबले होते जा रहे हैं। सिर्फ निकालते रहने से तो कुबेर का खजाना भी खाली होने लगता है।
                    उधर मीडिया में किसी ने कह दिया कि गरीबी एक मानसिक अवस्था है। यानी अगर आदमी को लगे कि उसकी आमदनी से खर्चा ज्यादा है और हाथ लगातार खाली हो रहे हैं तो वह गरीब है। चिंता चिता समान होती ही है। उनकी सेहत सेंसेक्स के साथ गिर रही थी कि एक संशोधित बयान और आ गया कि गरीबी का कारण बीमारी है। यानी जो बीमार हैं वो गरीब हैं। या यों कह लीजिए कि जो चिंतित हैं वो गरीब हैं। सरकारी भैंस के कारण चौधरी चिंतित और बीमार है, और चौधरी के कारण सारा गांव चिंतित यानी बीमार है।
                   मीडिया में आंकड़े इस बात के आ रहे हैं कि गरीबी बढ़ रही है। जबकि खबर यह होना चाहिए कि भैंस ज्यादा खा रही है। गांव भैंस के विरोध में होता जा रहा है। चौधरी खानदान की परंपरा से बाहर आने को आतुर हैं, पर बाड़े का क्या!! बाड़ा सूना हो जाएगा। बाड़े में कुछ तो होना ही चाहिए, मुर्गियां तो शोभा देंगी नहीं। नए लड़कों की मांग है कि चौधरी हाथी पाल लें।
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सोमवार, 9 सितंबर 2013

गन-पति महिमा

                               गन-पति लोकतंत्र के सर्वशक्तिमान देव हैं। किताबों में लिखा है कि कलयुग में गन-पति ही प्रत्यक्ष तत्व हैं, वे ही कर्ता हैं और वे ही धर्ता हैं, वे हर्ता भी हैं, वे नित्य हैं और वे ही परम सत्य हैं। चपेट में आ जाने वाले विनय भाव से इनकी पूजा करते हैं . नेतागिरी के बिजनेस में इन्हें वही महत्व मिलता है जो व्यापार में लक्ष्मीजी को मिलता है। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि इनकी पूजा के बगैर कोई राजनीति का ‘रा’ भी नहीं बोल सकता है। गन-पति अनेक भावभंगिमा में दिखाई देते हैं, और भक्तों द्वारा हर रूप में विनय पूर्वक पूजे जाते हैं। इन्हें अनेक नामों से आदरपूर्वक स्मरण किया जाता है, जैसे भाई, भियाजी, दादाभाई, साहेब, कालिया, छेनू, दरबार, सरकार, सरकिट, हजूर, दबंग, टुन्डा, लंगड़ा वगैरह। उनका एक दांत किसी कारण से टूटा हुआ है जिसके बारे में ज्यादा पूछना मना है, वे अंदर तक गजमस्तक यानी ठोस हैं, उनका पेट बहुत बड़ा है जो भरते जाने के बावजूद खाली रहता है और सामान्यतः वे धूसर या श्याम  वर्ण के होते हैं। उनके सिर पर चंद्रकला अर्थात चोट का निशान है, उनका वाहन मूषक यानी राजनीतिक बिलों में रहने वाले है। गन-पति नेतृत्व, शौर्य और साहस का प्रतीक हैं। अवसर आने पर वे युद्धप्रिय और विकराल रूप धारण करते हैं। पोस्टरों और होर्डिग्स में वे प्रायः लोकरंजक और परोपकारी स्वरूप में दर्शन  देते हैं। इनकी उपासना में चरणस्पर्श  का विशेष महत्व है। उनमें प्रकट होने और अंर्तध्यान हो जाने की अतुल्य शक्ति होती है, जिसके कारण वे कभी पुलिस के हाथ नहीं आते हैं। कई बार तो वे पुलिस के सामने होते हैं किन्तु उन्हें दिखाई नहीं देते हैं। इस कौशल के कारण जनता उन्हें नायकों का नायक मानती है। पुलिस पर अगर अनैतिक दबाव नहीं हो तो सार्वजनिक रूप वे भी अपनी निष्ठा व्यक्त करने में गर्व महसूस  करते। उनके जन्म, बाल्यकाल एवं गन-पति बनने के संबंध में अनेक दंतकथाएं प्रचलित हैं, जो उनकी कीर्ति तीनों लोक में बढ़ाती है। उनके शौर्य, पराक्रम आदि को विषय बना कर अब तक कई फिल्में श्रद्धा पूर्वक बनाई गई हैं। कला, साहित्य आदि में भी गन-पति एक प्रिय विषय हैं जिसमें उनकी महिमा का सदा बखान होता है।
                            चुनाव पूर्व के काल में, इनदिनों उनका महत्व बहुत बढ़ गया है। लोकतंत्र समर्थक उन्हें मोदक यानी ‘मोदीचूर’ के लड्डू का भोग लगा कर आरती गा रहे हैं, ‘‘गाइए गन-पति जग बंदन’’। उनकी कृपा से अनेक चूहे कुर्सियों पर उछलकूद करेंगे। उनकी आंखों में निश्चयात्मकता, दृढ़ता और आक्रोष के लाल डोरे चमकते रहते हैं जिससे आमजन में भक्ति का भाव स्वतः स्फुरित हो उठा है। जो समर्पित है उसके मन में वे अभय जगाते हैं। कहते हैं कि लोकतंत्र में संविधान का राज है। किन्तु जानते हुए भी कोई नहीं जानता है कि संविधान उनकी जेब में पड़ा रहता है, जिसके पन्नों में रख कर अक्सर वे ‘मोदीचूर’ के लड्डू खाते रहते हैं। इस अवसर पर एक वैधानिक चेतावनी जान लीजिए। ये गन-पति सिर्फ दस दिन के मेहमान नहीं हैं और न ही इनका विसर्जन संभव है। आप संसार में आए हैं तो मान के चलिए कि इनकी गोद में आए हैं। और जब तक है जान यहीं रहेंगे। तो एक बार फिर  -‘‘गाइये गन-पति जग बंदन’’।
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शनिवार, 7 सितंबर 2013

खुशी का एक व्यंग्य रुदन


             जो खुश  रहते हैं वे ही देश के सच्चे नागरिक हैं। लोकतंत्र की आदर्श  व्यवस्था को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि जनता ‘हर हाल’ में खुश रहे। जनता को दुःखी करना विपक्ष की गंदी राजनीति है। लेकिन सरकार ने जनता को खुश होने और रहने का संवैधानिक अधिकार दिया है। देश का कोई भी आदमी किसी भी हाल में खुश रहने के लिए स्वतंत्र है। जाति, धर्म या वर्ग जैसी कोई बाधा आती है तो कानून अपना काम करेगा, जैसा कि वो हमेशा  करता ही है। पुलिस जनता को खुश रहने में मदद करती है। दुःखी आदमी के सामने जैसे ही पुलिस आती है वो बिना समय गंवाए आनंद का अनुभव करता है और शीध्रता पूर्वक खुश हो जाता है। पुलिस के लौट जाने के बाद अक्सर वो खुशी  खुशी  ईश्वर  को जान बचने और लाखों पाने की भावना के साथ धन्यवाद ज्ञापित करता है। खुशी  एक कला है और हमारी संस्कृति भी। शपथ लेते ही सरकार कला और संस्कृति की रक्षा और विकास के लिए वचनबद्ध हो जाती है। सरकार ने शराब की दुकानें गांव-गांव गली-गली में खुलवा दी है। दिन भले ही संघर्ष में बीते पर रात खुशी  के साथ बीतना चाहिए। प्रयास करना सरकार का काम है और खुश रहना जिम्मेदार नागरिकों का फर्ज।
                       मैं बिना सरकारी सहयोग के खुश हो लेता हूं। आप देखें कि खुश होने के विरुद्ध अभी कोई कानून नहीं बना है, यहां तक कि इस पर कोई कर भी नहीं लगाया गया है। और यह कोई छोटी आजादी नहीं है कि जब आपका इरादा हुआ चट्ट-से खुश हो गए। किसी से पूछने की भी जरूरत नहीं है, वरना सरकार को कोई रोक सकता है क्या! कल को कानून बना दे कि सबसे पहले हाईकमान, उसके बाद प्रधानमंत्री खुश होंगे, फिर नीचे वालों का नंबर आएगा। योजनाओं का रुपया नीचे आते आते दो पैसा रह जाता है तो सोचिए खुशी  नीचे आते आते आधा सेंटीमीटर मुस्कान भी रह पाती या नहीं। लेकिन नहीं, सरकार की प्राथमिकता है कि जनता मुफ्त में खुश रहे, उसने हवा और धूप पर टेक्स नहीं लगाया है उसी तरह खुश रहने पर भी पूरी छूट है। मनहूस किस्म के लोग हर जगह होते हैं, वे धूप में जा कर विटामिन डी नहीं लेते, हवा में टहल कर आक्सीजन नहीं लेते और खुश भी नहीं होते। अब कोई मंत्री उनके पेट में अंगुली गुलगुला कर गुदगुदी करने से तो रहा। सारी छूटों और सुविधाओं के बाद भी खुशी  इच्छा का मामला है। गांधीजी ने स्वतंत्रता इसीलिए दिलवाई कि हम खुश रहें। नोटों पर गांधी जी का चित्र होता है इसलिए नोट देखते ही सबके मन में खुशी  का संचार हो जाता है। सच्चे गांधीवादी दुखती आत्मा के बावजूद हमेषा खुश रहते हैं। जो खुश नहीं रहते उन पर पार्टी अनुशासनहीनता की कार्रवाई कर सकती है। मैं अपनी बात कह रहा था, मैं हर हाल में खुश रहता हूं। दुखीराम कहते हैं कि सरकार निकम्मी है, उसने देश को बदहाली के कगार पर ला पटका है। लेकिन मैं खुश हूं कि ये सरकार जा रही है। दुखीराम बताते हैं कि वो जो आने वाले हैं, बड़े परंपरावादी हैं, देश को सदियों पीछे ले जाएंगे। लेकिन मैं खुष हूं कि अभी वे सत्ता में नहीं आए हैं। चीन ने जमीन दबाई, लेकिन खुशी  की बात है कि कोई भी काम जो ‘मेड इन चाइना’ है, टिकाउ या गैरंटी वाला नहीं होता। आतंकवाद बढ़ रहा है, खुशी  मनाओ कि अभी तक हम जिन्दा हैं। आज के कठिन और जटिल समय में खुशी  के अलावा हमारे पास विकल्प क्या है!
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सोमवार, 2 सितंबर 2013

लालकवि पीला दुपट्टा

                      संसार को माया कह गए संत गलत नहीं थे। अच्छाभला संवेदनशील आदमी सोचता है कि विचार की किसी एक चट्टान पर बैठ कर चार कविताएं लिख डालूं तो दूसरी चट्टानों की मेनकाएं उछल उछल कर सालसा नाचने लगती हैं। आए दिन देखने में आता है कि कई रचनाकार शरीर से प्रगतिशीलता के बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हैं पर आत्मा उनकी चीखती रहती है कि ‘हवन करेंगे, हवन करेंगे’। लेकिन हिम्मत नहीं होती है, किसी ‘नामालूम’ का खौफ ऐसा कि पूछो मत। सुना है कि परंपरावादी डायनें भी सात घर छोड़ देतीं हैं। इसी से प्रेरत हो प्रगतिशील को भी अपना शहर छोड़ कर हवन करने दूसरे शहर में जाना पड़ता है। यों देखो तो भक्त भगवान से बड़ा होता है क्योंकि उसके पास प्रगतिशीलता भी होती है। मंदिर में कोई देख ले तो उसे पहचानना मुश्किल । उसके माथे पर किसी पंडा से पचास ग्राम चंदन ज्यादा मिलेगा। अंदर ही अंदर वो अपने आप को समझाता है कि अवसर की जिस चट्टान पर बैठो उसका कायदा तो पूरा करना ही पड़ता है। विचारधारा का क्या होता है यह पता नहीं पर काया को तो मोक्ष ही चाहिए। समझदार आदमी वर्तमान में जीता है और प्रत्यक्षवादी होता है। लाल झंडे के नीचे आ गए तो उसके, भगवा के नीचे आए तो उसके। जिघर बम, उधर हम। तुम्हारी भी जै जै, हमारी भी जै जै। जिस दिन अंतड़ियां सूखी रह गई उस दिन भूख और गरीबी पर बीस कविताएं ठोक दी। जिस दिन छक लिए उस दिन प्रभु कृपालू, दीन दयालू। किसी किसी दिन ‘मंदिर-मस्जिद लड़वाते, मेल करवाती मधुषाला’ भी हो जाता।
                      इनदिनों देश  में मोदक-मौसम चल रहा है। लालकवि जोरदार तरीके से मोदियाने में मुदित हैं। किसी समय उनकी जो काली दाढ़ी किसी विवादित ढ़ांचे के ढ़हाए जाने के शिकवे में खुजाई जाती रही थी अब वो मोदक भाई की मर्दानगी  के सम्मान में सफेद है और सहलाई जा रही है। लालकवि को साफ लग रहा है कि बिना हंसिए हथौड़े के भी जमाना बस बदलने ही वाला है। दोस्तियां पुरानी हैं और कामरेडों के साथ उठना बैठना हैं। इधर नए मित्र अपनी चुटिया और तिलक दिखा दिखा कर रिझा रहे हैं। मन कभी अटकल कभी भटकल हो रहा है, एक तरफ लाल सलाम की चाह है तो दूसरी तरफ मोक्ष के मस्त मोदक हैं। लालकवि फिसलना चाह रहा है, पर अपनी लिखी पुरानी कविताओं से ही डर भी रहा है। किसी जलने वाले ने उठा के सामने रख दी बुराई का प्रतीक बना कर रावण के साथ बांधने में ये देर नहीं लगाएंगे।
                  लालकवि ने एक दिन अपनी परेशानी एक विशेषज्ञ को बताई। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं ही, साथ में संतनुमा कुछ भी हैं। वे श्रद्धापूर्वक चोरी, अतिक्रमण, हत्या वगैरह कर लेते हैं और तंत्र-मंत्र, पूजा, और कथा-प्रवचन आदि भी कर डालते हैं। समस्या सुन कर बोले -‘‘ पहले साफ कर लो कि कवि होना चाहते हो, कामरेड रहोगे या मोदकपंथी बनोगे, क्रांति चाहते हो या भक्ति, गरीबों का पेट भरना चाहते हो या अपना घर, रातों में जागना चाहते हो या जागरण के चलते सोना..... बताओ लालकवि, .... तय करो कि तुम क्या चाहते हो ?’’
                    लालकवि सोच में पड़ गया। वह कुछ भी छोड़ना नहीं चाहता था, दरअसल वो पाने के लिए मशविरा चाहता था, छोड़ने के लिए नहीं। पहले की उसकी कविताएं बेड़ी बन कर पैरों में अटक रही थीं। .... कुछ देर शांत रहने के बाद अचानक निर्णय पर पहुंचा। लोगों ने देखा कि लालकवि नारे लगा रहा है- ‘मंदिर वहीं बनांएगे’।
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गुरुवार, 29 अगस्त 2013

तीसरा विकल्प

आदमी अगर बुद्धिजीवी होने के लिए बदनाम है तो लोग पूरी कोशिश करते हैं कि उससे बात न करना पड़े। हालाँकि  बुद्धिजीवी देखने में सामान्य आदमी दिखाई देता है, लेकिन उसमें बुद्धि के कांटे पाए जाते हैं। पहली दफा संपर्क में आया व्यक्ति अक्सर लपेटे में आ जाता है। लेकिन दूसरी बार वह कोई जोखिम नहीं लेता है। एक चैनल ने अपना सर्वे परिणाम बताया कि शुरूवाती बुद्धिजीवियों का विवाह हो जाता है लेकिन सिद्ध बुद्धिजीवी प्रायः कुंवारे रह जाते हैं। ‘‘बुद्धिजीवियों के पारिवारिक जीवन में चुनौतियां, समस्याएं और संभावना’’ विषय पर समाजशास्त्र में दो पीएच.डी. हो चुकी हैं। लेकिन अभी तक चेतनायुक्त समाज में कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं हुआ है। हाल ही में खाद्य सुरक्षा बिल पास हुआ, विशेषज्ञयों को उम्मीद है कि इससे सिद्ध बुद्धिजीवियों के लिए भी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश  के रास्ते खुलेंगे, और वे अपनी बुद्धि बच्चों को पालने पोसने के रचनात्मक कार्य में लगाएंगे। लेकिन दिक्कत ये है कि जानकार लोग बुद्धिजीवीनुमा प्राणी को मकान किराए पर नहीं देते हैं। जिन्होंने गलती कर दी, वे सुबह शाम प्रार्थना करते हैं कि भगवान जल्द से जल्द उन्हें अपने निजी मकान की मिल्कियत अता करे। क्योंकि बुद्धिजीवी को मकान में रखना बार बार लीकेज होने वाली गैस की टंकी रखने जितना जोखिम भरा होता है।
                                    नेता लोग भी बुद्धिजीवियों से वोट नहीं मांगते हैं, वे जानते हैं कि इनसे वोट मांगेंगे तो ये ज्ञान देने लगेंगे। हमारे आदरणीय गुण्डे भाई भी चाकू-छूरे से नहीं ज्ञान से डरते हैं, इसलिए सबके लग लेते हैं पर इनके मूं नहीं लगते हैं। सरकार को तो वोट की ही गरज होती है ज्ञान की नहीं। जब वन्य जीवों तक के संरक्षण की जिम्मेदारी सरकार ने ली है तो बुद्धिजीवियों की उपेक्षा कैसे की जाती। इनके लिए अलग से कुछ अभयारण्य बनाए गए हैं जहां वे सेमीनार करते, पीएचडियां करवाते कुलांचे भरते रहते हैं। खैर, बात चुनाव वाले दिनों की चल रही थी, हर बार बुद्धिजीवी देखता है कि पार्टी वाले उसके पडौसियों को सम्मानपूर्वक अपनी गाड़ी में बैठा कर बूथ तक छोड़ते हैं, लेकिन उसकी तरफ देखते भी नहीं हैं! चूंकि वो बुद्धिजीवी है, वह जानता है कि उसकी उपेक्षा कर दूसरों को दिया गया सम्मान असल में उसका अपमान है। इसलिए बुद्धिजीवी व्यवस्था विरोधी होने लगता है। किसी को साड़ियां मिलती हैं, किसी को नगद, कइयों को दोनों। अनुभवी नेता अपने पट्ठों को समझा रहे हैं कि चुनाव न काम से जीते जाते हैं न सज्जनता से। चुनाव एक तरह का धंधा है, जो मेनेजमेंट से किया जाता है। चुनाव में चाहे जितने पाप कर लो और गंगा नहा आओ। राजनीति ने धर्म को अपने नहाने-धोने के लिए ही जिन्दा रखा है। अब आप ही बताइये कि इतना सब जानने के बाद कौन बुद्धिजीवी वोट देने जाएगा। उनसे पूछो तो बोलते हैं कि तीसरा विकल्प नहीं है सो वह वोट नहीं देते हैं। इस बार देश  गुपचुप तरीके से तीसरा विकल्प खोज रहा है । लेकिन तीसरा विकल्प है कि किसीको मिल ही नहीं रहा है। मौजूदा पार्टी को वोट देना देश  की बरबादी को पंख लगा देना है और दावेदार पार्टी को चुनना खुद अपनी जिन्दगी को दांव पर लगाना है। तर्क इतना साफ और पुख्ता है कि बात गले उतरती है।
                     
                लेकिन इनदिनों बुद्धिजीवी मौन रहने लगा है। सुना है कि बोतलों में बंद जिन्न तीसरा विकल्प बन कर बाहर निकला है। बुद्धिजीवी खुश  हैं कि उन्हें तीसरा विकल्प मिल गया है। राजनीति वाले जानते हैं कि सोचने समझने वालों को तीसरा विकल्प दिए बिना व्यवस्था को बचाए रखना मुश्किल  है।
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शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

फाइल गायब हुई है व्यवस्था नहीं


                     जिस आदमी को यह पता है कि देश में सरकार नाम की कोई चीज होती है उसको यह भी पता होता है कि सरकारी गलियों में फाइलें होती हैं जो कि बाकायदा चलती है, ......  ठुमक-ठुमक चलत रामचंद्र बाजै पैंजनिया ..... । सरकार मानती है कि फाइल है तो विभाग है, मंत्रालय है, काला-सफेद है, फाइल गायब तो सब गायब। प्रयोग के तौर पर सरकार ने एक ट्र्स्ट बना कर गांधी जी से संबंधित सारी फाइलें उसे पकड़ा दी, अब सरकारी दफ्तरों से ‘वो वाले’ गांधी पूरे के पूरे गायब हैं। उनकी टोपी तक नाक पोंछने का रुमाल बन गई है। ट्र्स्ट वालों पर ‘उन’ गांधी का ‘बोझ’ है तो उन्हें बाकायदा अनुदान दिया जा रहा है। जो फाइल के पक्ष में होते हैं वो सरकार के प्रिय होते हैं। उनकी आत्मा के लिए सरकार तुरंत मुआवजा देती है।
                       व्यवस्था के कारण कुछ लोग फाइलों के आसपास रहते हैं, उन्हें झाड़ते-पोंछते और दुलराते-पुचकारते हैं, आप उनको भले ही चपरासी कहें पर वे मानते हैं कि वे देश की आया या नर्स हैं और जरूरत पड़ने पर फाइलों के डायपर वही बदलते हैं। मीडिया वाले फुसला कर पूछते हैं तो वे बताते हैं कि फाइलें बहुत ज्यादा गंदा, यानी सुस्सु-पोटी भी करती हैं। फाइलों के पोतड़े बदलते बदलते कई बार वे थक जाते हैं। लेकिन फाइल की सच्ची सेवा उनका काम है, फाइल की सेवा देश की सेवा है। 
                       विचित्रताओं वाला देश है हमारा, यहां हाड़-मांस के आदमी को गलतफहमी हो सकती है कि वो भी चलता है। करोडों लोग इधर उधर टल्ले खाने को चलना समझते हैं। पांच साल में एक बार वोट बन कर चल जाएं तो चल जाएं, पर आदमी वही चलता है जो मुंह में चलने-वाला-चम्मच ले कर पैदा होता है। लेकिन सरकार का मामला अलग है, वहां फाइलें चलती हैं तो सरकार चलती है। बड़े आदमी हों यानी बहुत बड़े उद्योगपति, बिल्डर, माफिया, डॉन या दामाद जैसे रिश्तेदार तो फाइलें दौड़ने भी लगती हैं। और दौड़ती भी इतना तेज हैं कि अक्सर समय को पछाड़ देती हैं। फिल्मी इलाका अभी परंपरागत विषयों पर काम कर रहा है, किन्तु जल्द ही वे नए विषय लेकर सामने आएंगे, जैसे ‘भाग फाइल, भाग’, ‘फाइल-एक्सप्रेस’, ‘फाइल-पास’, या फिर ‘दम वाले फाइल गायब करेगें’ वगैरह। 
                        कोयले की खदानों में हीरे मिलते हैं और फाइलों में भी। ये खुदाई करने वालों की मेहनत और हिम्मत पर निर्भर करता है। आदमी मजबूत हो और मेहनत करने में शरम महसूस नहीं करता हो तो फाइल उसकी यानी देश उसका। रातदिन खोदेंगे, उठाएंगे, भरेंगे। इसमें गलत क्या है ? संसद में शोर होता है तो होने दो उससे क्या डरना, हाय हाय करना उनका काम है, या कहें कि उनकी किस्मत है। कल को फाइल उनके पास आ गई तो देश उनका हो जाएगा, वो खोदेंगे-खाएंगे और हम चिल्लाएंगे। इसीको लोकतंत्र कहते हैं मेरे भाई। जनता मांई-बाप है, सबको मौका देती है। आज फाइल गायब हुई है व्यवस्था नहीं। घर खाली करेंगे तो दीवार का रंग खुरच नहीं ले जाएंगे, लेकिन बांधने-समेटने लायक पर तो हमारा अधिकार बनता है। 
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सोमवार, 19 अगस्त 2013

दमदार दामाद


दुनिया का क्या करो साहब, जलने वालों से भरी पड़ी है। किसी का दामाद कमाऊ है, तो है। लेकिन नहीं साहबभला हमारे दामाद से ज्यादा उसका दामाद कमाऊ क्यों हो! लेकिन भइया किस्मत उसकी, खुद उपर वाले ने अपने दाहिने हाथ से लिखी है तो कोई क्या कर लेगा। और जलने वाले कोई आज थोड़ी पैदा हुए हैं, उनकी तो पीढियां हो गई जलते जलते और विपक्ष में बैठते हुए। फर्क सिर्फ यह हुआ है कि पहले चूल्हा-सिगड़ी की तरह जलते थे अब इनडक्शन-प्लेट की तरह तपते हैं। लेकिन दामाद जैसे पहले श्री-जीथे वैसे ही आज भी होते हैं ।
यों तो भारत में जो भी आदमी है, यानी जिन्हें जनगणना वाले हमारे भाई सरकारी कागजों में पुरुषलिखते हैं, वो कुछ करे या न करे दामाद हो जाने की योग्यता तो रखता ही है, बस शर्त यह है कि लड़की को पसंद आ जाना चाहिए। गोरा-काला, पढ़ा-बेपढा, दुबला-मोटा, लंबा-नाटा, कैसा भी उल्लू का पट्ठा हो, किसी न किसी का दामाद हो जाने में सफल हो ही जाता है। मीडिया-घराने फिल्मी कलाकारों का रेटिंग चार्ट बनाते रहते हैं, वैसा अगर कलाकार-दामादों का भी बनाएं तो सबसे उपर सरकारी दामाद-श्री--जीहोंगे। दामाद नंबर वन पूरे देश का मेहमानहोता है। देश जो है बाकायदा उसकी ससुराल है। उसे हर जगह अपने को पुजवाने और नेग लेने की आदत पड़ जाती है। शीध्र ही वो पार्वती-महादेव के सांड की तरह दबंग हो जाता है। जिधर मर्जी होगी उधर मुंह मारना उसका वैवाहिक अधिकार होता है। खेत में हल चलाने का काम बैलों का होता है, मेहनत के बाद उन्हें थोड़ा सा चारा मिलता है। किन्तु पार्वती का सांड किसी भी खेत को चर डालने का अद्रश्य लायसेंस अपने सींग में बांधे रहता है। व्यवस्था को पता होता है कि सरकार का दामाद होते ही, चाहे कोई कल का कितना भी मामूली आदमी क्यों न हो, उसको एक तरह का लायसेंस मिल जाता है, इसके बाद उसे किसी दूसरे लायसेंस की जरूरत नहीं रह जाती। बात चरने की आएगी तो अक्खा खेत उसका है। और खेत की क्या औकात है जी!, देश उसका है, यानी देश उसी का है। सास का चिड्डा, सास का खेत, खालो चिड्डा भर भर पेट। पहले देश ‘......माताथा अब सासू-मां है। पहले देश की धरती में खेले, अब जमीन से खेल रहे हैं तो लोगों को बुरा लग रहा है! जांच की मांग उठाई जा रही है! जांच में इसके अलावा कौन सा सच सामने आएगा कि दामाद दामादजीहैं । 
दामादजी अगर तफरी पर निकले और उसे दो-तीन अमरूद, एक-दो गुलाब के फूल और दो-चार एकड जमीन पसंद आ जाए तो क्या ले लेने से उसे मना किया जा सकता है! क्या यही है गौरवशाली भारतीय संस्कृति ? विपक्षी भारतीय संस्कृति की बहुत दुहाई देते रहते हैं, आज अगर सरकार संस्कृति का पालन और संवर्धन कर रही है तो पच नहीं रहा है किसीको!! राम का राज रामराज्यथा तो उसकी गहराई में जा कर देखो। राम नाम ले कर राजनीति करने वालों को पता चल जाता अगर राम का कोई दामाद भी होता। बड़ा दिल रखने की जरूरत है विपक्षियों, ...... मानने से गैर भी अपने लगते हैं। श्री-जीको आप अपना भी दामाद मान लोगे तो फिर कोई समस्या नहीं रहेगी।
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बुधवार, 7 अगस्त 2013

अमीरी की मानसिक स्थिति में गरीब

                                  
यह देश के राजनैतिक इतिहास की पहली घटना नहीं है जब हुजूर गरीबों के लिए चिंतित हुए हों। दिल्ली की गलियां जानती हैं कि बुरे वक्त में गरीब ही काम आता है। जब भी चुनाव आने वाले होते हैं गरीब चिंता के केन्द्र में अपने आप आ जाते हैं। लेकिन जिस नई फिलासफी के साथ इस बार आए आए हैं वो अद्भुत है। गरीबों को नहीं पता था कि उनकी गरीबी एक मानसिक स्थिति मात्र है। सुनते ही उनको सांप सूंघ गया, अभी तक जो गरीब थे अब मानसिक रोगी भी हो गए। गरीब को अपत्ती हो सकती है, पर हुजूर जो कहें मानना पड़ेगा। आज की तारीख में हुजूर बड़े मनोवैज्ञानिक हैं। अभी तक गरीबी का कारण किस्मत को मानते हुए माथा ठोंकते आ रहे हैं, अब पता चला कि कारण माथे के इन साइडहै। माथे में क्या है ये तो गरीब ने कभी देखा ही नहीं। अच्छा हुआ हुजूर ने देख लिया और बता दिया कि गरीबी यहां है। अगर लोग अपने आप को अमीर मानने लगेगें तभी तो वे अमीर जैसा महसूस करेंगे। भूख के लिए चिंता छोड़ वे डायटिंग और जीरो-फीगर के महत्व को सकझेंगे। नंगे रहने को फैशन मानेंगे और शान का अनुभव करेंगे। अपनी बेकारी और बेराजगारी को हॉलिडेकी तरह इंज्वाय करेंगे। हर दूसरा मानसिक-गरीब अपने बच्चों के नाम अनिल-मुकेश रख कर खरबों के औद्योगिक साम्राज्य का मनोवैज्ञानिक आनंद लेगा। ऐसे में जब हुजूर चुनावी सभा में या टीवी पर भाषण देते हुए कहेंगे कि गरीब देश का मालिक हैतो उनमें मालिक होने की ट्रु-फीलिंगआ जाएगी। इससे गरीबों का आत्मविश्वस् बिना किसी सरकारी योजना के बढ़ जाएगा और वह दो रोटी कम खाएगा। हजूर जानते हैं कि गरीब को केलोरी की नहीं लोरी की जरूरत है। गरीबी का दुःख जागने वालों को होता है, सोए हुओं के लिए सपने काफी होते हैं। और सपनों का संबंध मानसिकता से होता है। एक बार गरीबों की          मानसिकता कब्जे में आ जाए तो सपने दिखाना हुजूर के बांए हाथ का काम है। अमीर होना हर किसी का सपना है। गरीबों के सामने भी सपनों का एक पेकेजहोना चाहिए। इससे एक माहौल बनेगा अमीरी का और एक झटके में देश की सत्तर प्रतिशत जनता चट्ट-से अमीर हो जाएगी।
गरीबी को मानसिक स्थिति बताते ही हुजूर के जलवागाह में सबसे पहले अमीरों का शिष्टमंडल पहुंचा। अमीरों के झुंड को शिष्टमंडल कहा जाता है क्योंकि वे व्यवस्था को मारने के लिए पुष्पगुच्छों के हथियार ले कर शिष्टतापूर्वक पहुंचते हैं। हुजूर की बंदगी के बाद बोले-‘‘ सरकार हम लोग मानसिक रूप से गरीब हैं। अब चूंकि गरीब मानसिक रूप से अमीर होने जा रहे हैं और उनके लिए चलाई जा रही तमाम कल्याणकारी योजनाएं बेकार होने जा रही हैं सो हम देशसेवा के लिए आगे आने के लिए तत्पर हैं। देश के दस प्रतिशत अमीर अगर मानसिकरूप से गरीब होंगे तो आपको भी गरीबी घटाने का सुख मिलेगा। ’’ हुजूर मोगांबो की तरह खुश हुए। हुजूर के लिए खुशी बड़ी चीज है।
तो सज्जनो, अबकी बार जीत गए तो हुजूर अगली पंचवर्षीय योजना में गरीबी दूर करने के लिए हर झुग्गी-बस्ती में मानसिक चिकित्सालय खुलवाएंगे। ना भी खुलवाएं, अगर उनको लगे कि ये मानसिक गरीबी उनके हाथ मजबूत करती रहेगी। हुजूर वलीअहद हैं, उन्हें आगे का सोचना और बहुत आगे का इंतजाम करना जरूरी है।

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सोमवार, 5 अगस्त 2013

खाद्य सुरक्षा बिल यानी ‘खाने-योग्य’ की सुरक्षा का बिल

             सरकार ने पहले बीवी-बच्चों को प्यार किया और नगद ‘डेली पाकेट-मनी’ दी। फिर अपने नाते-रिश्ते  वालों की खैर-खबर दुरुस्त की। बाहरी कक्ष में आए और कुछ यार दोस्तों का कर्ज उतारा, कुछ पर कर्ज लादा। उसके बाद सहयोगी महकमों के लोगों से हाथ मिलाए, और बही-खाते भी। गिव एण्ड टेक रिलेशन यानी व्यवहार का ध्यान खासतौर पर रखना पड़ता है। बाहर यानी दालान में मीडिया कैमरा ताने खड़ा था। मेकअप और शेरवानीनुमा कोट ठीक करवा कर वे मुस्कराते हुए प्रकट हुए। लोगों में हलचल हुई, उन्होंने कहा - ‘‘ सवाल बाद में ..... पहले बताइये जलपान लिया आप लोगों ने ? ’’
उत्तर ‘हां’ में मिलने के बाद उन्होंने सेकरेटरी की ओर सवालिया नजरों से देखा। सेकरेटरी ने बंधे हाथ जवाब दिया - ‘‘ गिफ्ट भी दे दिए हैं सर ..... काफी पसंद किए गए हैं। ’’ सुनकर सरकार प्रसन्न हुए।
‘‘ सर खाद्य सुरक्षा बिल के बारे में आप क्या कहना चाहते हैं? ’’ पहला सवाल आया।
‘‘ अच्छा बिल है, मैं तो कहूंगा कि बहुत जरूरी बिल है। आजादी के बाद ही पास करा लिया जाना चाहिए था। ..... एक बार यह बिल पास हो जाए तो रोज रोज का झंझट खत्म समझो। ’’ सरकार ने उत्तर दिया।
‘‘ सर, खाद्य सुरक्षा बिल में महत्वपूर्ण प्रावधान क्या है ? ’’ दूसरा सवाल।
‘‘ देखिए, खाद्य का मतलब होता है ‘खाने योग्य’ । अगर एक बार ‘सुरक्षा-कानून’ बन जाए तो खाने-योग्य रकम के मामले में सरकार पर कोई अंगुली नहीं उठा सकेगा। विरोधियों का अनर्गल प्रलाप बंद हो जाएगा और जनता गुमराह नहीं होगी। ’’
‘‘ क्या आप मानते हैं कि इस बिल से अनाज की सुरक्षा का भी थोड़ा बहुत संबंध है ?’’
‘‘ अनाज !! ..... अनाज क्यों ?!!’’
‘‘ जनता खाद्य सुरक्षा का मतलब अनाज सुरक्षा से समझ रही है ! ’’
‘‘ अच्छा !! ... वो भी सही हैं।..... व्यवस्था के अंतिम बिन्दु पर अनाज ही होता है इसलिए जनता अनाज समझे इसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन योजना एक लंबे रास्ते की तरह होती है। इसमें ‘खाने-योग्य’ शब्द का महत्व हमारे आध्यात्म की तरह बहुत गहरा है। सामान्यजन इसे नहीं समझ सकते हैं। .... एक बार ‘खाने-योग्य’ को सुरक्षित कर लेने का कानूनी अधिकार मिल जाए तो देशसेवक छाती ठोक कर अदालत के सामने भी जा सकेगें । ’’
‘‘ देशसेवक अभी भी ‘खाने-योग्य’ को खा रहे हैं तो क्या वे गैरकानूनी काम नहीं कर रहे हें ?’’
‘‘ सरकार जनभावना को समझती है। जनता नहीं चाहती कि देषसेवकों को सरेआम भ्रष्ट कहा जाए। एक बार यह बिल पास हो गया तो नेता कानून का सम्मान भी करने लगेगें और किसीको शिकायत का मौका नहीं देंगे। ’’
‘‘ लेकिन सर,  लगता है आप कन्फ्यूज हो रहे हैं कि .....’’
‘‘ हमें कोई कन्फ्यूजन नहीं है, सरकार कभी कन्फ्यूज नहीं होती है ..... खैर छोड़िए। .... आप लोग जाते वक्त गिफ्ट ले कर जाइएगा।’’
‘‘ गिफ्ट तो मिल गया है सर !’’
‘‘ वो तो वेलकम गिफ्ट था .... ये रिटर्न गिफ्ट है । ’’
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बुधवार, 24 जुलाई 2013

साधो ! ये नंगों की मंडी

            तपस्या भंग करने का काम हमारे यहां ऐतिहासिक रूप से होता रहा है। लेकिन अब तो यह धंधा इतना फलफूल गया है कि जो कभी किसी की नजर में नहीं आते थे अब सबको दिखने-दिखाने के लिए  तैयार हैं। जैसे जैसे ग्लेमर वल्ड  यानी सुन्दरता के बाजार में वस्त्रों का चलन न्यून होता जा रहा है वैसे वैसे भले आदमियों का संकट बढ़ रहा है। लोकपाल बिल पास हो जाने के बाद राजनीतिक संतों को भले ही कुछ समय के लिए ईमानदारी का सांप सूंघ जाए पर रूप-मंडी में लहराती नागकन्याओं के चपेट में साधु नीले-पीले पड़ रहे हैं उसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। अव्वल तो आज के जमाने में किसी किस्म की तपस्या का शुभारंभ ही कठिन है, हो जाए तो उसका निर्वाह और भी मुश्किल। साधु किस्म का आदमी देश और दुनिया के समाचार देखने के लिए टीवी चालू करता तो उसके सामने कोई दूसरी दुनिया खुलने लगती है। कुछ ही दिनों में यह दूसरी दुनियाउसकी साधना में जबरन शामिल हो जाती है। अब आप कहेंगे कि भले आदमियों को टीवी से दूर रहना चाहिए जैसा पहले के दिनों में होता था, भले आदमी सिनेमा देखने नहीं जाते थे। अगर जाते भी थे उतनी ही सावधानी से जितनी कि किसी वैश्या के कोठे पर मुजरा सुनने के लिए शरीफ आदमी जाता था, आज भी जाता है। उस जमाने में तो हेलमेट भी नहीं था, सोचिए कि शरीफ किस कलात्मकता से अपना मुंह छुपा कर अपना लक्ष्य प्राप्त किया करते थे। लेकिन यह कोई मशविरा नहीं है। सरकार ने भले आदमियों की रक्षा के लिए मानवाधिकार आयोग बना रखा है।
             मध्यप्रदेश के मनवाधिकार आयोग का दरवाजा हाल में एक साधु ने खटखटाया। साधु का मतलब भला आदमी नहीं, साधु यानी साधु। वो साधु जो खुद भी उघाड़े रहते हैं, देश का पांच मीटर कपड़ा बचाने के लिए मात्र लंगोटी पहनते हैं, केवल कुंभ-सिहंस्थ आदि में स्नान करते हैं और जल संरक्षण का संदेश देते हैं, जो अपने चारों ओर आग जला कर घंटों बैठते हैं और इस कर्म को तपस्या करना कहते हैं, वही सच्चमुच्च के साधु। अन्ना से प्रेरित साधु महाराज तीन दिनों तक मानवाधिकार आयोग के दफ्तर के सामने धरना दिए बैठे थे। उनकी शिकायत यह थी कि वे सन् 2010 में महू के पास सिंगरौली गांव में हनुमान मंदिर में बैठे तपस्या किया करते थे तब वहां एक सुन्दर महिला उटपटांग हरकत कर उन्हें डिस्टर्बकिया करती थी। बाबा को डिस्टर्बहोने में कोई खास दिक्कत नहीं थी । सब बढ़िया चल रहा था, लेकिन एक दिन वह उनसे लिपट गई। बाबा को पता नहीं था कि ऐसी लिपटन से तपस्या भंग हो जाया करती है। जब हो गई तो बाबा का माथा भी ठनका और भोपाल आ कर न्याय की गुहार लगाते धरने पर बैठ गए। उनकी मांग थी कि जब तक उस महिला पर कार्रवाई नहीं होगी वे धरने से नहीं हटेंगे। आखिर उनकी वर्षों की तपस्या भंग हो गई है और सरकार है कि अभी तक सो रही है! तपस्या के बीमें की व्यवस्था भी नहीं है, न तपस्या के मुआवजे का कोई प्रावधान है। मानवाधिकार आयोग कुछ दिन पशोपेश में रहा, आखिर उसने मामला स्थानीय कलेक्टर की ओर अग्रेशित कर दिया। अब दिक्कत यह है कि तमाम मनचले साधु, भंग करवाने की लालसा में तपस्या करने लगे हैं। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वह मेनका अब किसी को मिल नहीं रही है।

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